महिला श्रमबल भागीदारी की राह में बाधाएँ
चर्चा में क्यों?
हाल ही में तमिलनाडु सरकार ने महिलाओं के अवैतनिक श्रम को मान्यता प्रदान करते हुए महिलाओं के लिये कलैगनार मगलिर उरीमाई थोगई थिट्टम, एक बुनियादी आय योजना की शुरुआत की है। इस योजना के तहत पात्र परिवारों की महिलाओं को प्रतिमाह 1,000 रुपए दिये जाएंगे।
- वैवाहिक जीवन में एक महिला बच्चे को जन्म देने के साथ-साथ उसका पालन-पोषण करती है तथा घर का भी ध्यान रखती है, महिलाओं को इस अवैतनिक देखभाल और घरेलू काम के लिये कोई भुगतान नहीं किया जाता है, ऐसे में श्रम बल में उनकी भागीदारी में बाधा आती है।
महिला श्रम बल भागीदारी में कमी का कारण
- पितृसत्तात्मक सामाजिक प्रथा:
- पितृसत्तात्मक मानदंड और लैंगिक आधार पर निर्दिष्ट पारंपरिक भूमिकाएँ अक्सर महिलाओं की शिक्षा और रोज़गार के अवसरों तक पहुँच को सीमित करती हैं।
- गृहिणी के रूप में महिलाओं की भूमिका के संबंध में सामाजिक अपेक्षाएँ श्रम बल में उनकी सक्रिय भागीदारी को हतोत्साहित करती है।
- पारिश्रमिक में अंतर:
- भारत में महिलाओं को अक्सर समान काम के लिये पुरुषों की तुलना में वैतनिक असमानता/कम वेतन की समस्या का सामना करना पड़ता है।
- विश्व असमानता रिपोर्ट, 2022 के अनुसार, भारत में 82% श्रम आय पर पुरुषों का कब्ज़ा है, जबकि श्रम आय पर महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 18% है।
- वेतन का यह अंतर महिलाओं को औपचारिक रोज़गार के अवसर तलाशने से हतोत्साहित कर सकता है।
- अवैतनिक देखभाल कार्य:
- अवैतनिक देखभाल और घरेलू कार्य का महिलाओं पर असंगत रूप से दबाव पड़ता है, जिससे भुगतान वाले रोज़गार के लिये उनका समय और ऊर्जा सीमित हो जाती है।
- भारत में विवाहित महिलाएँ अवैतनिक देखभाल और घरेलू काम पर प्रतिदिन 7 घंटे से अधिक समय का योगदान करती हैं, जबकि पुरुष 3 घंटे से भी कम समय का योगदान करते हैं।
- यह प्रचलन (महिलाओं की स्थिति) विभिन्न आय स्तर और जाति समूहों में समान रूप से देखा जा सकता है, जिससे घरेलू ज़िम्मेदारियों के मामले में गंभीर लैंगिक असमानता की स्थिति उत्पन्न होती है।
- घरेलू ज़िम्मेदारियों का यह असमान वितरण श्रम बल में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भागीदारी में बाधा बन सकता है।
- सामाजिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रह:
- कुछ समुदायों में घर से बाहर काम करने वाली महिलाओं को पूर्वाग्रह का सामना करना पड़ सकता है जिससे श्रम बल भागीदारी दर कम हो सकती है।
महिलाओं द्वारा अवैतनिक घरेलू कार्य/देखभाल संबंधी आँकड़े
- महिला श्रम बल भागीदारी दर (LFPR):
- कक्षा 10 में लड़कियों की नामांकन दर में वृद्धि के बावजूद पिछले दो दशकों में भारत की महिला श्रम बल भागीदारी दर 30% से घटकर 24% हो गई है।
- घरेलू काम का बोझ महिला श्रम बल भागीदारी दर को कम करने में एक प्रमुख कारक है, यहाँ तक कि शिक्षित महिलाओं में भी।
- भारत की महिला श्रम बल भागीदारी दर (24%) ब्रिक्स देशों और चुनिंदा दक्षिण एशियाई देशों में सबसे कम है।
- सबसे अधिक महिला आबादी वाला देश चीन 61% के साथ सबसे अधिक महिला श्रम बल भागीदारी दर का दावा करता है।
- महिला रोज़गार पर प्रभाव:
- जो महिलाएँ श्रम बल में शामिल नहीं हैं, वे प्रतिदिन औसतन 457 मिनट (7.5 घंटे) यानी सबसे अधिक समय अवैतनिक घरेलू/देखभाल कार्य पर खर्च करती हैं।
- नौकरीपेशा महिलाएँ इस तरह के कामों में प्रतिदिन 348 मिनट (5.8 घंटे) खर्च करती हैं, जिससे भुगतान वाले काम में संलग्न होने की उनकी क्षमता प्रभावित होती है।
श्रम बल में महिलाओं की उच्च भागीदारी का समाज पर व्यापक प्रभाव
- आर्थिक विकास:
- श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी सीधे आर्थिक विकास से संबंधित है। जब महिला आबादी के एक महत्त्वपूर्ण हिस्से का उपयोग कम हो जाता है तो इसके परिणामस्वरूप संभावित उत्पादकता और आर्थिक उत्पादन का नुकसान होता है।
- श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि उच्च सकल घरेलू उत्पाद (Gross Domestic Product- GDP) और समग्र आर्थिक समृद्धि में योगदान कर सकती है।
- गरीबी का न्यूनीकरण:
- महिलाओं को आय-अर्जित करने के अवसरों तक पहुँच प्रदान करने से यह उनके परिवारों को गरीबी रेखा से बाहर निकलने में मदद कर सकती है जिससे जीवन स्तर बेहतर हो सकता है तथा परिवारों की स्थिति में सुधार हो सकता है।
- मानव पूंजी विकास:
- शिक्षित और आर्थिक रूप से सक्रिय महिलाएँ अपने बच्चों की शिक्षा एवं स्वास्थ्य परिणामों पर सकारात्मक प्रभाव डाल सकती हैं जिसके अंतर-पीढ़ीगत लाभ हो सकते हैं।
- लैंगिक समानता और सशक्तीकरण:
- श्रम बल में महिलाओं की उच्च भागीदारी से पारंपरिक लैंगिक भूमिकाओं और मानदंडों को चुनौती दी जा सकती है जिससे लैंगिक समानता को बढ़ावा मिल सकता है।
- आर्थिक सशक्तीकरण महिलाओं को अपने जीवन, निर्णय लेने की शक्ति और स्वायत्तता पर अधिक नियंत्रण रखने में सक्षम बनाता है।
- प्रजनन क्षमता और जनसंख्या वृद्धि:
- अध्ययनों से पता चला है कि श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी बढ़ने से प्रजनन दर में कमी आती है।
- ‘फर्टिलिटी ट्रांज़िशन’ के नाम से जानी जाने वाली इस घटना का संबंध शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और परिवार नियोजन तक बेहतर पहुँच से है, जिसके परिणामस्वरूप जनसंख्या का अधिक सतत् विकास होता है।
- लिंग आधारित हिंसा में कमी:
- आर्थिक सशक्तीकरण महिलाओं की सौदेबाज़ी की शक्ति को बढ़ा सकता है तथा लिंग आधारित हिंसा और अपमानजनक रिश्तों के प्रति उनकी संवेदनशीलता को कम कर सकता है।
- श्रमिक बाज़ार और टैलेंट पूल:
- श्रमबल में महिलाओं की सहभागिता बढ़ाने से कौशल की कमी और श्रमिक बाज़ार के असंतुलन को दूर करने में सहायता मिल सकती है, जिससे प्रतिभा और संसाधनों का अधिक कुशल आवंटन हो सकेगा।
आगे की राह
- लैंगिक समानता से संबंधित चर्चा के मुद्दे पर महिलाओं के घरेलू कार्य और कार्यात्मक जीवन में विभाजन करना बंद करके महिलाओं के औपचारिक एवं अनौपचारिक सभी कार्यों को महत्त्व देना होगा।
- सांस्कृतिक संदर्भ और स्वायत्तता को ध्यान में रखते हुए महिलाओं के लिये कार्य विकल्पों पर ध्यान केंद्रित करना आवश्यक है।
- महिलाओं की श्रम शक्ति में उच्चतर सहभागिता को बढ़ावा देना और समर्थन करना न केवल लैंगिक समानता का मामला है, बल्कि सामाजिक प्रगति और विकास का एक महत्त्वपूर्ण संचालक भी है।
- कार्यबल में महिलाओं की संपूर्ण क्षमता का उपयोग करने से सामाजिक-आर्थिक विकास, निर्धनता में कमी, बेहतर मानव पूंजी और अधिक समावेशी एवं न्यायसंगतता से संपूर्ण समाज को फायदा हो सकता है।
POCSO अधिनियम
चर्चा में क्यों?
बॉम्बे हाइकोर्ट की नागपुर पीठ ने एक पॉक्सो मामले के अभियुक्त को यह कहकर बरी कर दिया कि ‘‘बिना स्किन से स्किन टच किये किसी नाबालिग के अंगों को छुआ जाये तो उसे यौन हमला नहीं माना जा सकता।’’
पृष्ठभूमि
यौन अपराधों से बच्चों को संरक्षण करने संबंधी अधिनियम 2012 (पॉक्सो) को कानूनी प्रावधानों के माध्यम से बच्चों के साथ होने वाले यौन व्यवहार और यौन शोषण को प्रभावी ढंग से रोकने हेतु लाया गया था।
प्रमुख प्रावधान
- यह अधिनियम नाबालिग (18 वर्ष से कम आयु के) व्यक्ति को बच्चे के रूप में परिभाषित कर उसके विरूद्ध अवैध यौन गतिविधियों में शामिल होने से निषिद्ध करता है।
- यह लैंगिक रूप से तटस्थ कानून है। इसके अंतर्गत लड़कियों के साथ ही लड़कों को भी (18 वर्ष से कम उम्र के सभी व्यक्तियों को) अवैध यौन गतिविधियों के विरूद्ध संरक्षण दिया गया है।
- ऐसे अपराधों की त्वरित सुनवाई के लिये विशेष न्यायालयों की स्थापना का प्रावधान करता है।
भारत संयुक्त राष्ट्र बाल अधिकार कन्वेंशन का एक पक्षकार है जिसके तहत भारत पर सभी बच्चों को सभी प्रकार के यौन शोषणों से बचाने का कानूनी दायित्व भी है।
बाल यौन शोषण का दायरा केवल बलात्कार या गंभीर यौन आघात तक सीमित नहीं है बल्कि बच्चों का इरादतन यौनिक कृत्य दिखाना, गलत तरीके से छूना, जबरन यौन कृत्य के लिये मजबूर करना और चाइल्ड पोर्नोग्राफी बनाना आदि बाल यौन शोषण के अंतर्गत आते हैं।
भारत में बाल यौन दुव्यर्वहार की स्थिति
- राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के अनुसार भारत में 2011 में बाल यौन शोषण के लगभग 33000 मामले सामने आये हों
- यूनिसेफ के द्वारा 2005-13 के बीच किशोरियों पर किये गये अध्ययन के आँकड़ों के अनुसार भारत में 10-14 वर्ष की 10 प्रतिशत लड़कियों को यौन दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा, जबकि 15 से 19 वर्ष की 30 प्रतिशत लड़कियों को इस दौरान यौन दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा।
यद्यपि पॉक्सो (संशोधन के बाद) कानून के अंतर्गत मृत्युदण्ड जैसी सख्त दण्डात्मक प्रावधान है किंतु आवश्यक विशेष न्यायालयों (फास्ट ट्रैक अदालतों) की संख्या में कमी, पुलिस-प्रशासन-समाज में परंपरागत सोच (विषय की संवेदनशीलता को न समझना) और सुस्त न्याय प्रक्रिया के चलते न्याय मिलने में विलम्ब होता है।
कानून के क्रियान्वयन को दुरस्त किये जाने की आवश्यकता है। इसके लिये न्यायालय प्रक्रिया में आधुनिक प्रौद्योगिक (डिजिटलीकरण, एआई) के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
भारत में अंगदान
चर्चा में क्यों?
भारत में वर्तमान में अंग दाताओं विशेष रूप से मृत दाताओं की भारी कमी के कारण गंभीर स्थिति है, जहाँ हज़ारों रोगी प्रत्यारोपण के इंतज़ार में हैं, वहीं इनमें से काफी लोगों की प्रतिदिन मृत्यु हो जाती है।
- स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने पहले राष्ट्रीय अंग प्रत्यारोपण दिशा-निर्देशों को संशोधित किया है, जिससे 65 वर्ष से अधिक आयु के लोगों को मृत दाताओं से प्रत्यारोपण के लिये अंग प्राप्त करने की अनुमति मिल गई है।
- भारत में मानव अंग प्रत्यारोपण अधिनियम, 1994 मानव अंगों को हटाने एवं उनके भंडारण के लिये विभिन्न नियम प्रदान करता है। यह चिकित्सीय प्रयोजनों के साथ ही मानव अंगों के व्यावसायिक लेन-देन की रोकथाम के लिये मानव अंगों के प्रत्यारोपण को भी नियंत्रित करता है।
भारत में अंगदान की स्थिति
- बढ़ती मांग के साथ निरंतर कमी:
- भारत में 300,000 से अधिक रोगी अंगदान की प्रतीक्षा सूची में हैं।
- अंग दाताओं की संख्या अंगदान की बढ़ती मांग के अनुरूप नहीं है।
- इस कमी के कारण अंग प्रत्यारोपण की प्रतीक्षा में प्रतिदिन लगभग 20 व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है।
- अंग दाताओं की संख्या में धीमी वृद्धि:
- पिछले कुछ वर्षों में जीवित तथा मृत दोनों दाताओं की संख्या में धीमी वृद्धि देखी गई है।
- दाताओं की संख्या वर्ष 2014 के 6,916 से बढ़कर वर्ष 2022 में लगभग 16,041 हो गई, जो मामूली वृद्धि का संकेत प्रदर्शित करती है।
- भारत में मृतक अंगदान की दर एक दशक से लगातार प्रति दस लाख आबादी पर एक दाता से नीचे बनी हुई है।
- मृतक अंगदान दर:
- इस कमी को दूर करने के लिये मृतक अंगदान दर को बढ़ाने हेतु तत्काल प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।
- स्पेन और संयुक्त राज्य अमेरिका जैसे देशों ने प्रति दस लाख आबादी पर 30 से 50 अंगदान दाताओं तक की उच्च अंगदान दर हासिल की है।
- जीवित दाताओं की व्यापकता:
- भारत में सभी अंगदान दाताओं में से 85% जीवित अंगदान दाताओं का बहुमत है।
- हालाँकि मृतकों के अंग दान, विशेषकर किडनी, लीवर और हृदय के लिये अंगदान दाता काफी कम हैं।
- क्षेत्रीय असमानताएँ:
- भारत के विभिन्न राज्यों में अंगदान दरों में असमानताएँ मौजूद हैं।
- तेलंगाना, तमिलनाडु, कर्नाटक, गुजरात और महाराष्ट्र में मृत अंग दाताओं की संख्या सबसे अधिक है।
- दिल्ली-NCR, तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल ऐसे प्रमुख क्षेत्र हैं जहाँ बड़ी संख्या में जीवित अंगदान दाता हैं।
- किडनी प्रत्यारोपण:
- भारत में किडनी प्रत्यारोपण के मामले में मांग और आपूर्ति के बीच अत्यधिक असमानता है।
- किडनी प्रत्यारोपण की वार्षिक 200,000 की मांग की तुलना में प्रतिवर्ष केवल 10,000 किडनी प्रत्यारोपण किया जाता है जो कि एक बड़ा अंतर है।
अंगदान के संबंध में चुनौतियाँ
- जागरूकता और शिक्षा का अभाव:
- अंगदान और इसके प्रभाव के बारे में आम जनता के बीच कम जागरूकता।
- संभावित दाताओं की पहचान करने और परिवारों को प्रभावी ढंग से परामर्श देने के लिये चिकित्सा पेशेवरों के बीच अपर्याप्त शिक्षा।
- पारिवारिक सहमति और निर्णय लेना:
- परिवार अंगदान के लिये सहमति देने के अनिच्छुक होते हैं, भले ही मृत व्यक्ति ने अंगदान करने की इच्छा व्यक्त की हो।
- अंगदान के बारे में निर्णय लेते समय परिवारों को भावनात्मक और नैतिक दुविधाओं का सामना करना पड़ता है।
- अंगों की तस्करी और कालाबाज़री:
- अवैध अंग तस्करी और अंगों की कालाबाज़ारी।
- अंगों की मांग का शोषण करने वाली आपराधिक गतिविधियाँ वैध अंगदान प्रक्रियाओं को कमज़ोर करती हैं।
- चिकित्सा पात्रता एवं अनुकूलता:
- चिकित्सा अनुकूलता और अंग उपलब्धता के आधार पर उपयुक्त दाताओं और प्राप्तकर्त्ताओं को सुमेलित करना।
- संगत अंगों की सीमित उपलब्धता, जिससे रोगियों को दीर्घावधि तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है।
- दाता प्रोत्साहन और मुआवज़ा:
- अंग दाताओं को वित्तीय प्रोत्साहन या मुआवज़ा देने के नैतिक निहितार्थ पर बहस।
- नैतिक प्रथाओं को सुनिश्चित करने के साथ अंगदान दरों में वृद्धि की आवश्यकता को संतुलित करना।
- अवसंरचना और संचालन:
- अंग पुनर्प्राप्ति, संरक्षण और प्रत्यारोपण के लिये अपर्याप्त अवसंरचना और संसाधन।
- दाताओं से प्राप्तकर्त्ताओं तक विशेषकर विभिन्न क्षेत्रों में अंगों के समय पर परिवहन में चुनौतियाँ।
आगे की राह
- अंगदान के महत्त्व को उजागर करने वाले प्रभावशाली अभियानों के लिये कलाकारों, प्रभावशाली लोगों और मशहूर हस्तियों के साथ साझेदारी करना।
- चिकित्सा पेशेवरों के लिये सेमिनार आयोजित करना, दाता की पहचान और परिवार परामर्श के लिये इंटरैक्टिव सिमुलेशन एवं केस स्टडीज़ का उपयोग करना।
- कार्यशालाओं और वार्ताओं के माध्यम से अंगदान के बारे में छात्रों के बीच जागरूकता बढ़ाने के लिये शैक्षणिक संस्थानों के साथ सहयोग करना।
- समुदाय-संचालित उन कार्यक्रमों (Community-Driven Events) की मेज़बानी करना जो अंग प्राप्तकर्त्ताओं और दाताओं की सफलता की कहानियों को प्रदर्शित करते हैं।
- अंगदान के बारे में मिथकों और गलत धारणाओं को दूर करने तथा इसके सकारात्मक पक्ष पर ज़ोर देने के लिये धार्मिक नेताओं को शामिल करना।
- पट्टिकाओं और प्रमाणपत्रों के माध्यम से उनके निस्वार्थ योगदान को मान्यता देते हुए अंगदान दाताओं तथा उनके परिवारों को सम्मानित करने के लिये कार्यक्रम शुरू करना।
- कुशल परिणामों के लिये अंग प्रत्यारोपण प्रक्रियाओं को अनुकूलित करने हेतु स्वास्थ्य देखभाल संस्थानों के बीच सहयोग को बढ़ावा देना।
- करुणा और सहानुभूति के साथ निस्वार्थ कार्य के रूप में अंगदान के विचार को बढ़ावा देना।
एमियोट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस
चर्चा में क्यों?
एमियोट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस (Amyotrophic Lateral Sclerosis- ALS), दुर्बल करने वाली न्यूरोडीजेनेरेटिव डिज़ीज़ (Neurodegenerative Diseas) है, जो भारत में रोगियों और देखभाल करने वालों दोनों के लिये कई तरह की चुनौतियाँ पैदा करती है।
- इसकी दुर्लभ घटना के बावजूद ALS अपनी प्रगतिशील प्रकृति तथा प्रभावी उपचार की कमी के कारण प्रभावित लोगों के जीवन पर गहरा प्रभाव डालता है।
एमियोट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस (ALS)
- परिचय:
- ALS एक दुर्लभ और घातक मोटर न्यूरॉन डिज़ीज़ (Motor Neuron Disease) है। इसकी विशेषता रीढ़ की हड्डी और मस्तिष्क में तंत्रिका कोशिकाओं के प्रगतिशील अध:पतन (Progressive Degeneration) है।
- इसे प्राय: एक प्रसिद्ध बेसबॉल खिलाड़ी, जिनकी इस बीमारी के कारण मृत्यु हो गई थी, के नाम पर लू गेरिग डिज़ीज़ (Lou Gehrig's Disease) कहा जाता है।
- ALS सबसे विनाशकारी विकारों में से एक है जो तंत्रिकाओं तथा मांसपेशियों के कार्य को प्रभावित करता है।
- जैसे ही मोटर न्यूरॉन्स का पतन होता है और नष्ट हो जाते हैं, वे मांसपेशियों को संदेश भेजना बंद कर देते हैं, जिससे मांसपेशियाँ कमज़ोर हो जाती हैं, उनमें ऐंठन होने लगती है (Fasciculations) और बेकार हो जाती हैं (Atrophy)।
- अंततः, मस्तिष्क स्वैच्छिक गतिविधियों को शुरू करने तथा नियंत्रित करने की अपनी क्षमता खो देता है।
- जो गतिविधियाँ हमारे नियंत्रण में होती हैं उन्हें स्वैच्छिक क्रियाएँ (Voluntary Actions) कहा जाता है, जैसे- चलना, दौड़ना, बैठना आदि।
- दूसरी ओर, जो गतिविधियाँ हमारे नियंत्रण में नहीं होती हैं, उन्हें अनैच्छिक गतिविधियाँ (Involuntary Movements) कहा जाता है।
- कारण:
- अभी तक इसका कोई कारण ज्ञात नहीं है, कुछ मामलों में आनुवंशिकी भी शामिल है।
- ALS पर अनुसंधान द्वारा ALS के संभावित पर्यावरणीय कारणों की जाँच की जा रही है।
- लक्षण:
- ALS के कारण किसी अंग में कमज़ोरी हो सकती है जो कुछ ही दिनों में या आमतौर पर कुछ हफ्तों में बढ़ जाती है। फिर कई हफ्तों या महीनों के बाद दूसरे अंग में कमज़ोरी आनी शुरू हो जाती है। कभी-कभी प्रारंभिक समस्या के तौर पर बोलने में कठिनाई/अस्पष्ट वाणी (Slurred Speech) या खाने/निगलने (Swallowing) में परेशानी हो सकती है।
- उपचार:
- ALS का कोई इलाज और प्रमाणित उपचार नहीं है।
- ALS से निपटने हेतु पहल:
- सरकार की राष्ट्रीय दुर्लभ रोग नीति (National Policy for Rare Diseases- NPRD), 2021 में दुर्लभ बीमारियों से पीड़ित तथा नामित उत्कृष्टता केंद्रों में उपचार प्राप्त करने वाले रोगियों हेतु 50 लाख रुपए तक की वित्तीय सहायता की पेशकश करने वाला एक महत्त्वपूर्ण प्रावधान पेश किया गया है।
- विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation- WHO) प्रति 1000 जनसंख्या पर 1 या उससे कम की व्यापकता वाली दुर्लभ बीमारियों को दुर्बल करने वाली स्थितियों के रूप में चिह्नित करता है।
- इस नीतिगत पहल का उद्देश्य ALS जैसी स्थितियों वाले लोगों सहित अन्य व्यक्तियों को इलाज के लिये पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान कर समर्थन प्रदान करना है।
शैक्षणिक संस्थानों में रैगिंग से निपटान
चर्चा में क्यों?
भारतीय शैक्षणिक संस्थानों में लगातार परेशान करने वाली रैगिंग की समस्या के मुद्दे ने जादवपुर विश्वविद्यालय में हाल ही में हुई एक घटना के कारण एक बार फिर राष्ट्रीय ध्यान आकर्षित किया है।
- भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने विभिन्न मामलों और दिशा-निर्देशों के माध्यम से इस मुद्दे के समाधान के लिये महत्त्वपूर्ण कदम उठाए हैं।
भारत में रैगिंग विरोधी उपायों की वर्तमान स्थिति
- रैगिंग को परिभाषित करना: सर्वोच्च न्यायालय का परिप्रेक्ष्य:
- वर्ष 2001 (विश्व जागृति मिशन) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने रैगिंग की एक व्यापक परिभाषा प्रदान की।
- इसमें रैगिंग को किसी भी अव्यवस्थित आचरण के रूप में वर्णित किया गया है जिसमें साथी छात्रों को चिढ़ाना, उनके साथ अशिष्ट व्यवहार करना, अनुशासनहीन गतिविधियों में शामिल होना, जिससे झुंझलाहट या मनोवैज्ञानिक नुकसान होता है या जूनियर छात्रों के बीच डर पैदा होता है।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि रैगिंग के पीछे के उद्देश्यों में अक्सर परपीड़क आनंद प्राप्त करना, नए छात्रों की तुलना में वरिष्ठों द्वारा शक्ति, अधिकार या श्रेष्ठता का प्रदर्शन करना शामिल होता है।
- सर्वोच्च न्यायालय द्वारा जारी मुख्य दिशा-निर्देश:
- सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों में रैगिंग को रोकने तथा उसे संबोधित करने के लिये शैक्षणिक संस्थानों के भीतर प्रॉक्टोरल समितियाँ (Proctoral Committees) स्थापित करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया गया है।
- इसके अलावा इसमें रैगिंग की घटनाओं की रिपोर्ट पुलिस से करने की संभावना पर प्रकाश डाला गया है यदि वे असहनीय हो जाती हैं या संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आ जाती हैं।
- राघवन समिति और UGC दिशा-निर्देश:
- 2009 में सर्वोच्च न्यायालय ने रैगिंग मुद्दे पर पुनः विचार किया और इसे व्यापक रूप से संबोधित करने के लिये पूर्व CBI निदेशक आर के राघवन के नेतृत्व में एक समिति नियुक्त की थी।
- समिति की सिफारिशों को बाद में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (University Grants Commission- UGC) द्वारा अपनाया गया/अंगीकृत किया गया।
- रैगिंग का प्रभावी ढंग से मुकाबला करने के लिए UGC ने विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किये जिनका पालन करना विश्वविद्यालयों के लिये आवश्यक था।
- UGC के दिशा-निर्देश जिसका शीर्षक है, "उच्च शैक्षणिक संस्थानों में रैगिंग के खतरे को रोकने पर विनियमन", रैगिंग के कई रूपों पर प्रकाश डालता है, जिसमें चिढ़ाना, शारीरिक या मनोवैज्ञानिक नुकसान पहुँचाना, हीन भावना उत्पन्न करना और पैसे की ज़बरन वसूली में शामिल होना है।
- दिशा-निर्देशों में विश्वविद्यालयों को रैगिंग रोकने के लिये सार्वजनिक रूप से अपनी प्रतिबद्धता घोषित करने का आदेश दिया गया है और छात्रों को शपथ पत्र पर हस्ताक्षर करने के लिये कहा गया है कि वे ऐसी गतिविधियों में शामिल नहीं होंगे।
- UGC ने रैगिंग के खिलाफ सक्रिय कदम उठाने की ज़िम्मेदारी शैक्षणिक संस्थानों पर भी डाली है।
- विश्वविद्यालयों को पाठ्यक्रम-प्रभारी, छात्र सलाहकार, वार्डन और वरिष्ठ छात्रों वाली समितियाँ स्थापित करने का निर्देश दिया गया था।
- इन समितियों को स्वस्थ और सुरक्षित वातावरण सुनिश्चित करने के लिये नए तथा पुराने छात्रों के मध्य बातचीत की निगरानी एवं विनियमन करने का काम सौंपा गया था।
- भारत में रैगिंग के कानूनी नतीजे:
- हालाँकि रैगिंग को एक विशिष्ट अपराध के रूप में वर्गीकृत नहीं किया गया है, लेकिन भारतीय दंड संहिता (Indian Penal Code- IPC) के विभिन्न प्रावधानों के तहत इसमें दंडित किया जा सकता है।
- उदाहरण के लिये IPC की धारा 339 के तहत परिभाषित रोंगफुल रिस्ट्रेंट (जो भी व्यक्ति किसी व्यक्ति को गलत तरीके से रोकता है) के अपराधी को एक महीने तक की कैद या पाँच सौ रुपए तक का जुर्माना या दोनों सज़ा हो सकती है।
- IPC की धारा 340 के तहत रोंगफुल कन्फाइनमेंट (जो भी कोई किसी व्यक्ति को गलत तरीके से प्रतिबंधित करेगा) के अपराधी को एक वर्ष तक की कैद या एक हज़ार रुपए तक का जुर्माना या दोनों सज़ा हो सकती है।
- संबंधित राज्य स्तरीय विधान:
- कई भारतीय राज्यों ने रैगिंग से निपटने हेतु विशेष कानून पेश किया है।
- उदाहरण के लिये केरल रैगिंग निषेध अधिनियम, 1998; आंध्र प्रदेश रैगिंग निषेध अधिनियम, 1997; असम रैगिंग निषेध अधिनियम 1998 और महाराष्ट्र रैगिंग निषेध अधिनियम, 1999।
आगे की राह
- रैगिंग विरोधी ठोस उपाय करना: रैगिंग विरोधी उपायों की प्रभावशीलता का आकलन करने के लिये बाहरी विशेषज्ञों, छात्रों और संकाय सदस्यों को शामिल करते हुए सहयोगात्मक ऑडिट आयोजित करने की आवश्यकता है।
- ये ऑडिट कमियों, सुधार के क्षेत्रों और सफल प्रथाओं के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं।
- इससे प्राप्त निष्कर्षों का उपयोग शासन की रणनीतियों में सुधार करने और अनुकूलित करने के लिये किया जा सकता है, जिससे रैगिंग को रोकने के लिये एक सक्रिय दृष्टिकोण सुनिश्चित किया जा सकेगा।
- डिजिटल रिपोर्टिंग: कोई छात्र गोपनीय तरीके से रैगिंग की जानकारी साझा कर सके, इसके लिये एक समर्पित रिपोर्टिंग पोर्टल अथवा मोबाइल एप विकसित किया जा सकता है।
- त्वरित हस्तक्षेप सुनिश्चित करते हुए उपयुक्त प्राधिकारियों को बिना किसी विलंब के इसकी सूचना साझा करने की सुविधा इस प्रणाली में शामिल की जा सकती है।
- सामुदायिक सहभागिता कार्यक्रम: छात्रों को स्वयंसेवी कार्य, सामुदायिक सेवा और सामाजिक आउटरीच में शामिल करते हुए नियमित रूप से सामुदायिक कार्यक्रम का आयोजन किया जा सकता है। ज़िम्मेदारी और एकता की भावना पैदा करने से इस समस्या के प्रभावी समाधान में मदद मिल सकती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने बलात्कार पीड़िता को दी गर्भपात की अनुमति
चर्चा में क्यों?
विवाहेतर गर्भावस्था, विशेष रूप से यौन उत्पीड़न के मामले को हानिकारक और तनाव का कारण मानते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात की एक बलात्कार पीड़िता को 27 सप्ताह के गर्भ को समाप्त करने की अनुमति दी।
- सर्वोच्च न्यायालय ने गुजरात उच्च न्यायालय के उस आदेश को खारिज कर दिया जिसमें उसके अनुरोध को अस्वीकार कर दिया गया था, साथ ही अस्पताल को बिना किसी विलंब के प्रक्रिया को पूरा करने का निर्देश दिया था।
- मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (Medical Termination of Pregnancy- MTP) संशोधन अधिनियम, 2021 के तहत गर्भावस्था को समाप्त करने की अधिकतम सीमा 24 सप्ताह है।
भारत में गर्भपात से संबंधित कानूनी प्रावधान
- 1960 के दशक तक भारत में गर्भपात प्रतिबंधित था और इसका उल्लंघन करने पर भारतीय दंड संहिता की धारा 312 के तहत कारावास की सज़ा या ज़ुर्माना लगाया जाता था।
- 1960 के दशक के मध्य में गर्भपात नियमों की जाँच के लिये शांतिलाल शाह समिति की स्थापना की गई थी।
- इसके निष्कर्षों के आधार पर मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (MTP) एक्ट, 1971 अधिनियमित किया गया, जिससे सुरक्षित और कानूनी गर्भपात की अनुमति मिली, महिलाओं के स्वास्थ्य की रक्षा की गई, इससे मातृ मृत्यु दर में भी कमी आई।
- MTP अधिनियम, 1971 महिला की सहमति से और पंजीकृत चिकित्सक (RMP) की सलाह पर गर्भावस्था के 20 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति देता है। हालाँकि वर्ष 2002 और 2021 में कानून को अद्यतन किया गया।
- वर्ष 2021 का संशोधन बलात्कार जैसे विशिष्ट मामलों में दो चिकित्सकों की मंज़ूरी के साथ गर्भावस्था के 20 से 24 सप्ताह तक गर्भपात की अनुमति देता है।
- यह राज्य स्तरीय मेडिकल बोर्ड का गठन करता है जो यह तय करता है कि भ्रूण में पर्याप्त असामान्यताओं के मामलों में 24 सप्ताह के बाद गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है या नहीं
- यह गर्भनिरोधक प्रावधानों की विफलता को अविवाहित महिलाओं (शुरुआत में केवल विवाहित महिलाओं) तक बढ़ाता है, चाहे उनकी वैवाहिक स्थिति कुछ भी हो, उन्हें चयन के आधार पर गर्भपात सेवाएँ लेने की अनुमति देता है।
- उम्र और मानसिक स्थिति के आधार पर सहमति की आवश्यकताएँ भिन्न हो सकती हैं, जिसे चिकित्सक की निगरानी में सुनिश्चित किया जाता है।
- सर्वोच्च न्यायालय के हालिया फैसले महिलाओं की शारीरिक स्वायत्तता की पुष्टि करते हैं। न्यायालयों ने बलात्कार के मामलों में गर्भपात के अधिकार को मान्यता दी और प्रजनन विकल्प को व्यक्तिगत स्वतंत्रता के एक घटक के रूप में स्वीकार किया।
UWW द्वारा भारतीय कुश्ती संघ की सदस्यता का निलंबन
चर्चा में क्यों?
कुश्ती की राष्ट्रीय नियामक संस्था, भारतीय कुश्ती संघ (WFI) को विश्व कुश्ती संघ (यूनाइडेट वर्ल्ड रेसलिंग) ने समय पर चुनाव नहीं कराने के कारण अस्थायी रूप से निलंबित कर दिया है।
- इसका भारतीय पहलवानों पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा, वह सर्बिया में आगामी विश्व चैंपियनशिप में राष्ट्रीय ध्वज के नीचे प्रतिस्पर्द्धा में भाग नहीं ले पाएंगे।
UWW द्वारा WFI को निलंबित करने का कारण
- UWW ने WFI को उसके संविधान का उल्लंघन करने के आधार पर निलंबित कर दिया है, जिसके अनुसार सभी सदस्य महासंघों को हर चार साल में अपने चुनाव कराना अनिवार्य है।
- WFI को फरवरी 2023 में अपने चुनाव कराने थे लेकिन विभिन्न कारणों से इसमें देरी हुई, जिसमें कुछ प्रमुख पहलवानों द्वारा पूर्व WFI अध्यक्ष और अन्य के खिलाफ यौन उत्पीड़न, धमकी, वित्तीय अनियमितताओं और प्रशासनिक चूक के आरोप शामिल थे।
- इसके अलावा UWW यह भी चाहता था की एथलीटों को सुरक्षा प्रदान की जाए तथा महासंघ पुनः उचित तरीके से कार्य प्रारंभ करे।
भारत में समान संघर्ष का सामना कर रही अन्य खेल संस्थाएँ
- फुटबॉल की वैश्विक शासी संस्था FIFA (फेडरेशन इंटरनेशनेल डी फुटबॉल एसोसिएशन) ने वर्ष 2002 में चुनावों में देरी के कारण अखिल भारतीय फुटबॉल महासंघ (All India Football Federation of India) को निलंबित कर दिया था जिसे बाद में हटा लिया गया था।
- अंतर्राष्ट्रीय ओलंपिक समिति (IOC) और अंतर्राष्ट्रीय हॉकी महासंघ (FIH) ने भी इसी तरह के कारणों से भारतीय खेल निकायों पर संभावित प्रतिबंध की चेतावनी दी है।
- जून 2020 में भारत सरकार ने भारतीय राष्ट्रीय खेल विकास संहिता 2011 का अनुपालन न करने के कारण 54 राष्ट्रीय महासंघों की मान्यता रद्द कर दी थी।
निलंबन का प्रभाव
- पहलवानों की भागीदारी:
- यूनाइटेड वर्ल्ड रेसलिंग (UWW) के अनुसार, रेसलर और उनके सहयोगी कर्मी अभी भी UWW-स्वीकृत कार्यक्रमों में भाग ले सकते हैं, लेकिन राष्ट्रीय ध्वज के बजाय UWW ध्वज के तहत।
- UWW घटनाएँ:
- भारतीय रेसलर बेलग्रेड, सर्बिया में आगामी विश्व चैंपियनशिप सहित UWW प्रतियोगिताओं में राष्ट्रीय ध्वज के तहत प्रतिस्पर्द्धा करने में असमर्थ होंगे। इसके अतिरिक्त यदि कोई पहलवान स्वर्ण पदक हासिल करता है तो कोई भी भारतीय राष्ट्रगान नहीं बजाया जाएगा।
- WFI को UWW से कोई वित्तीय या तकनीकी सहायता नहीं मिल सकती है।
- भारतीय कुश्ती:
- निलंबन से अंतर्राष्ट्रीय कुश्ती समुदाय में भारत की छवि और प्रतिष्ठा खराब हुई है। यह भारतीय पहलवानों को भी हतोत्साहित तथा निराश करता है, जिन्होंने विश्व चैंपियनशिप एवं अन्य प्रतियोगिताओं की तैयारी के लिये कड़ी मेहनत की है।
- भारतीय कुश्ती संघ के निलंबन से पहलवानों की वर्ष 2024 पेरिस ओलंपिक के लिये योग्यता की संभावना बाधित हो गई है, क्योंकि विश्व चैंपियनशिप एक क्वालीफाइंग प्रतियोगिता है।
- यह निलंबन भारतीय कुश्ती के लिये एक बड़ा झटका है, जो हाल के वर्षों में भारत के सबसे सफल खेलों में से एक रहा है। भारत ने वर्ष 2008 से कुश्ती में चार ओलंपिक पदक, 19 विश्व चैंपियनशिप पदक और 69 एशियाई चैंपियनशिप पदक जीते हैं।
आगे की राह
- इसका तात्कालिक समाधान यह है कि जितनी जल्दी हो सके WFI चुनाव कराए जाएँ और नतीजे मंज़ूरी के लिये विश्व कुश्ती संघ को सौंपे जाएं।
- दीर्घकालिक समाधान WFI में सुधार और पुनर्गठन करना है, जो लंबे समय से विभिन्न समस्याओं एवं विवादों से ग्रस्त है। WFI को उचित जाँच तथा संतुलन, वित्तीय लेखापरीक्षा, शिकायत निवारण तंत्र आदि के साथ अपने कामकाज़ के लिये एक पेशेवर और जवाबदेह दृष्टिकोण अपनाना चाहिये।
- WFI को UWW और अन्य अंतर्राष्ट्रीय निकायों के साथ एक स्वस्थ एवं सामंजस्यपूर्ण संबंध को बढ़ावा देना चाहिये तथा उनके नियमों और विनियमों का पालन करना चाहिये। WFI को अन्य राष्ट्रीय महासंघों और क्षेत्रीय संघों के साथ भी सहयोग करना चाहिये तथा भारत एवं विदेशों में कुश्ती के विकास और लोकप्रियता को बढ़ावा देना चाहिये।