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पैतृक संपत्ति को लेकर सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

चर्चा में क्यों?

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया है कि शून्य अथवा अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चे मिताक्षरा कानून के तहत संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति में अपने माता-पिता का हिस्सा प्राप्त कर सकते हैं।

  • हालाँकि इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि ये बच्चे परिवार में किसी अन्य व्यक्ति की संपत्ति में अथवा उसके अधिकार के हकदार नहीं होंगे।

पृष्ठभूमि:

  • रेवनासिद्दप्पा बनाम मल्लिकार्जुन, 2011 वाद में यह फैसला दो-न्यायाधीशों की पीठ के फैसले के संदर्भ में दिया गया था, जिसमें कहा गया था कि अमान्य/शून्य विवाह से पैदा हुए बच्चे अपने माता-पिता की संपत्ति को प्राप्त करने के हकदार हैं, चाहे वह संपत्ति स्व-अर्जित हो अथवा पैतृक।
    • यह मामला हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16(3) में संशोधित प्रावधान से संबंधित था।
  • इस फैसले ने ऐसे बच्चों के विरासत/पैतृक संपत्ति संबंधी अधिकारों को मान्यता देने की नींव रखी।

सर्वोच्च न्यायालय का फैसला:

  • विरासत हिस्सेदारी का निर्धारण:
    • शून्य अथवा अमान्य विवाह से किसी बच्चे के लिये विरासत में हिस्सा प्रदान करने की दिशा में पहला कदम पैतृक संपत्ति में उनके माता-पिता की सटीक हिस्सेदारी का पता लगाना है।
    • इस निर्धारण में पैतृक संपत्ति का "काल्पनिक विभाजन (Notional Partition)" करना शामिल है ताकि उस हिस्से की गणना की जा सके जो माता-पिता को उनकी मृत्यु से ठीक पहले प्राप्त हुआ होगा।
  • विरासत का कानूनी आधार:
    • हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 16 शून्य या अमान्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को वैधता प्रदान करने में अहम भूमिका निभाती है, यह ऐसे बच्चों की अपने माता-पिता की संपत्ति पर अधिकार निर्धारित करती है।
  • समान विरासत अधिकार:
    • हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 जो पैतृक संपत्ति को विनियमित करता है, के तहत शून्य या अमान्य विवाह से हुए बच्चों को "वैध परिजन" माना जाता है।
    • जब पारिवारिक संपत्ति विरासत में मिलने की बात आती है तो उन्हें नाजायज़ नहीं माना जा सकता।
  • हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 का प्रभाव:
    • न्यायालय ने कहा कि वर्ष 2005 में हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम के लागू होने के बाद मिताक्षरा कानून द्वारा शासित संयुक्त हिंदू परिवार में एक मृत व्यक्ति का हिस्सा वसीयत अथवा बिना वसीयत के उत्तराधिकार द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।
    • इस संशोधन ने उत्तरजीविता से परे विरासत के दायरे का विस्तार किया और महिलाओं तथा पुरुषों को समान उत्तराधिकार अधिकार प्रदान किया।

बेटी की विरासत के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले

  • अरुणाचल गौंडर बनाम पोन्नुसामी, 2022:
    • सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि बिना वसीयत के मरने वाले हिंदू पुरुष की स्व-अर्जित संपत्ति, विरासत द्वारा हस्तांतरित होगी, न कि उत्तराधिकार द्वारा।
    • इसके अलावा न्यायालय ने कहा कि ऐसी संपत्ति बेटी को विरासत में मिलेगी, जो कि बँटवारे के माध्यम से प्राप्त सहदायिक संपत्ति के अलावा होगी।
  • विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा, 2020
    • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक महिला/बेटी को भी बेटे के समान संयुक्त कानूनी उत्तराधिकारी माना जाएगा और वह पैतृक संपत्ति को पुरुष उत्तराधिकारी के समान ही प्राप्त कर सकती है, भले ही हिंदू उत्तराधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2005 के प्रभाव में आने से पहले पिता जीवित नहीं था। 

मिताक्षरा कानून

परिचय:

  • मिताक्षरा कानून एक कानूनी और पारंपरिक हिंदू कानून प्रणाली है जो मुख्य रूप से हिंदू अविभाजित परिवार (HUF) के सदस्यों के बीच विरासत और संपत्ति के अधिकारों के नियमों को नियंत्रित करती है।
    • यह हिंदू कानून के दो प्रमुख स्कूलों में से एक है, दूसरा दायभाग स्कूल है।
  • उत्तराधिकार का मिताक्षरा कानून पश्चिम बंगाल और असम को छोड़कर पूरे देश में लागू होता है।
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भारत, अर्थात् इंडिया: वर्तमान में बहस का विषय

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में नई दिल्ली में आयोजित होने वाले आगामी G-20 शिखर सम्मेलन के निमंत्रण पत्र में एक उल्लेखनीय बदलाव किया गया है। पारंपरिक "प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया" के बजाय, निमंत्रणों पर अब "भारत के राष्ट्रपति" शब्द का प्रयोग किया गया है, इसने देश के नामकरण और इसके ऐतिहासिक अर्थों को लेकर व्यापक बहस को जन्म दे दिया है।

"इंडिया" और "भारत" नामों का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य

संवैधानिकता:

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 1 में पहले से ही "इंडिया" और "भारत" दोनों का परस्पर उपयोग किया गया है, जिसमें कहा गया है, "भारत, जो कि इंडिया है, राज्यों का एक संघ होगा।"
  • भारतीय संविधान की प्रस्तावना "हम भारत के लोग" से शुरू होती है, लेकिन हिंदी संस्करण में इंडिया के बजाय "भारत" का उपयोग किया गया है, जो विनिमेयता का संकेत है।
    • इसके अतिरिक्त, कुछ सरकारी संस्थानों, जैसे कि भारतीय रेलवे, के पास पहले से ही हिंदी संस्करण उपलब्ध हैं जिनमें ‘भारतीय’ शामिल है।

भारत नाम की उत्पत्ति:

  • ‘भारत’ शब्द की गहरी ऐतिहासिक और सांस्कृतिक जड़ें हैं। इसका पता पौराणिक साहित्य और महाकाव्य महाभारत से लगाया जा सकता है।
  • विष्णु पुराण में ‘भारत’ (Bharat) का वर्णन दक्षिणी समुद्र और उत्तरी बर्फीले हिमालय पर्वत के मध्य की भूमि के रूप में किया गया है।
    • यह केवल राजनीतिक या भौगोलिक इकाई से अधिक धार्मिक और सामाजिक-सांस्कृतिक इकाई का प्रतीक है।
  • भरत एक प्रसिद्ध प्राचीन राजा का नाम था, जिसे भरत की ऋग्वैदिक जनजातियों का पूर्वज माना जाता है, जो सभी उपमहाद्वीप के लोगों के पूर्वज का प्रतीक है।

इंडिया नाम की उत्पत्ति:

  • इंडिया नाम सिंधु शब्द से लिया गया है, जो उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी भाग से प्रवाहित होने वाली एक नदी का नाम है।
    • प्राचीन यूनानियों ने सिंधु नदी के पार रहने वाले लोगों को एंदुई कहा, जिसका अर्थ है "सिंधु के लोग।"
    • बाद में फारसियों और अरबों ने भी सिंधु भूमि को संदर्भित करने के लिये हिंद या हिंदुस्तान शब्द का प्रयोग किया।
  • यूरोपीय लोगों ने इन स्रोतों से ‘इंडिया’ नाम अपनाया और ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के बाद यह देश का आधिकारिक नाम बन गया।

इंडिया और भारत के संबंध में संविधान सभा की बहस

  • देश के नाम को लेकर यह बहस नई नहीं है। वर्ष 1949 में जब संविधान सभा द्वारा संविधान का निर्माण किया जा रहा था तब भी देश के नाम को लेकर मतभेद था।
  • कुछ सदस्यों को लगा कि "इंडिया" शब्द औपनिवेशिक उत्पीड़न की याद दिलाता है और उन्होंने आधिकारिक दस्तावेज़ों में "भारत" को प्राथमिकता देने की मांग की।
    • जबलपुर के सेठ गोविंद दास ने "भारत" को "इंडिया" से ऊपर रखने की वकालत की और इस बात पर बल दिया कि भारत केवल पूर्व अंग्रेज़ी अनुवाद था।
    • "हरि विष्णु कामथ ने "भारत" के प्रयोग की मिसाल के रूप में आयरिश संविधान का उदाहरण दिया, जिसने स्वतंत्रता प्राप्त करने पर देश का नाम बदल दिया।
    • हरगोविंद पंत ने तर्क दिया कि लोग "भारतवर्ष" नाम चाहते थे और उन्होंने  विदेशी शासकों द्वारा दिये गए "भारत" शब्द को खारिज़ कर दिया।

नवीन विकास

  • वर्ष 2015 में, केंद्र ने यह कहते हुए नाम परिवर्तन का विरोध किया कि संविधान के प्रारूपण के दौरान इस मुद्दे पर व्यापक विचार-विमर्श किया गया था।
    • सर्वोच्च्य न्यायालय ने 'इंडिया' का नाम बदलकर 'भारत' करने की याचिका को दो बार खारिज़ कर दिया है, एक बार वर्ष 2016 में तथा फिर वर्ष 2020 में, यह पुष्टि करते हुए कि "भारत" और "इंडिया" दोनों का संविधान में उल्लेख है।

भारत में बंधुत्

चर्चा में क्यों?

बंधुत्व, भारतीय संविधान में निहित मूल मूल्यों में से एक है, जो समाज में एकता और समानता को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालाँकि भारत में बंधुत्व का व्यावहारिक अनुप्रयोग कई प्रश्न और चुनौतियाँ उत्पन्न करता है।

बंधुत्व की अवधारणा की उत्पत्ति

प्राचीन ग्रीस:

  • बंधुत्व, भाईचारे और एकता के विचार का एक लंबा इतिहास है।
  • प्लेटो के लिसिस में दार्शनिक ज्ञान प्राप्त करने की तीव्र इच्छा के लिये फिलिया (प्रेम) शब्द का आह्वान किया गया है।
    • इस संदर्भ में भाईचारे को दूसरों के साथ ज्ञान और बुद्धिमत्ता साझा करने की प्रबल इच्छा के रूप में देखा जाता था, जिससे बौद्धिक आदान-प्रदान के माध्यम से दोस्ती अधिक सार्थक हो जाती थी।

अरस्तू का विचार:

  • यूनानी दार्शनिक, अरस्तू ने "पोलिस" के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए बंधुत्व के विचार को जोड़ा, शहर-राज्य जहाँ व्यक्ति राजनीतिक प्राणियों के रूप में थे और शहर-राज्य (पोलिस) में नागरिकों के बीच मित्रता महत्त्वपूर्ण है।

मध्य युग:

  • मध्य युग के दौरान बंधुत्व ने एक अलग आयाम ले लिया, मुख्य रूप से यूरोप में ईसाई संदर्भ में।
    • यहाँ बंधुत्व अक्सर धार्मिक और सांप्रदायिक बंधनों से जुड़ा होता था।
    • इसे साझा धार्मिक मान्यताओं और प्रथाओं के माध्यम से बढ़ावा दिया गया, जिसमें आस्तिक/विश्वासियों के बीच बंधुत्व की भावना पर ज़ोर दिया गया।

फ्राँसीसी क्रांति :

  • वर्ष 1789 में फ्राँसीसी क्रांति, जिसने प्रसिद्ध आदर्श वाक्य "लिबर्टे, एगलिटे, फ्रेटरनिटे" (स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व) को जन्म दिया।
    • इसने स्वतंत्रता और समानता के साथ-साथ राजनीति के क्षेत्र में बंधुत्व की शुरुआत को चिह्नित किया।
    • इस संदर्भ में बंधुत्व, नागरिकों के बीच एकता और एकजुटता के विचार का प्रतीक है क्योंकि वे अपने अधिकारों तथा स्वतंत्रता के लिये लड़ते हैं।

भारत में बंधुत्व की अवधारणा:

  • भारत के समाजशास्त्र के अंदर भारतीय बंधुत्व की अपनी यात्रा है और भारतीय बंधुत्व की वर्तमान प्रकृति इसके संविधान में वर्णित राजनीतिक बंधुत्व से अलग है।
  • भारत में स्वतंत्रता और समानता के साथ-साथ बंधुत्व एक संवैधानिक मूल्य है, जिसका उद्देश्य सामाजिक सद्भाव तथा एकता प्राप्त करना है।
    • भारतीय संविधान के निर्माताओं ने पदानुक्रमित सामाजिक असमानताओं से ग्रस्त समाज में बंधुत्व के महत्त्व को पहचाना।
  • डॉ. भीम राव अंबेडकर ने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की अविभाज्यता पर बल दिया तथा इन्हें भारतीय लोकतंत्र का मूलभूत सिद्धांत माना।
  • बंधुत्व से संबंधित संवैधानिक प्रावधान:
  • प्रस्तावना:
    • प्रस्तावना के सिद्धांतों में स्वतंत्रता, समानता तथा न्याय के साथ-साथ बंधुत्व का सिद्धांत भी शामिल किया गया।
  • मौलिक कर्तव्य:
    • मौलिक कर्तव्यों पर अनुच्छेद 51A को 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया तथा 86वें संशोधन द्वारा संशोधित किया गया।
    • अनुच्छेद 51A(e) आमतौर पर प्रत्येक नागरिक के कर्तव्य को संदर्भित करता है जो 'भारत के सभी लोगों के मध्य सद्भाव तथा समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा देता' है।

भारतीय संदर्भ में बंधुत्व की सीमाएँ एवं चुनौतियाँ

सामाजिक और सांस्कृतिक अंतर:

  • भारत की विविध संस्कृतियों तथा परंपराओं के कारण विभिन्न समुदायों के मध्य भ्रांति/मिथ्या बोध एवं संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
    • धार्मिक अथवा जाति-आधारित मतभेदों के परिणामस्वरूप अमूमन अविश्वास, भेदभाव और यहाँ तक कि हिंसा भी होती है, जिससे बंधुत्व खतरे में पड़ सकता है।
    • धार्मिक असहिष्णुता अथवा संघर्ष की घटनाएं सामाजिक लगाव और एकता को बाधित कर सकती हैं, जिससे बंधुत्व की भावना को प्रोत्साहन नहीं मिलता है।
      • इस देश में धार्मिक अल्पसंख्यकों को अनगिनत बार ऐसे सामाजिक और राजनीतिक तिरस्कार का सामना करना पड़ा है।

आर्थिक असमानताएँ:

  • समाज के विभिन्न वर्गों के बीच आर्थिक असमानता, असंतोष और भेदभाव की भावनाओं को जन्म दे सकती है।
  • जब लोग अपनी सफलता में आर्थिक बाधाओं को महसूस करते हैं, तो वे सहयोग करने में झिझक सकते हैं, जिससे भाईचारे के एक प्रमुख तत्त्व, सामाजिक एकजुटता में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
  • राजनीतिक मतभेद:
    • राजनीतिक विचारधाराएँ समाज में गहन विभाजन की स्थिति उत्पन्न कर सकती हैं तथा सहयोग एवं संवाद में बाधा डाल सकती हैं।
    • इस तरह के मतभेद अमूमन ध्रुवीकरण की स्थिति उत्पन्न कर शत्रुता और असहिष्णुता के माहौल को बढ़ावा देते हैं जो सकारात्मक सहभागिता में बाधा डालता है।

विश्वास की कमी:

  • समूहों के बीच आपसी विश्वास और समझ की कमी भाईचारे को कमज़ोर कर सकती है।
  • जब विश्वास की कमी होती है, तो सामान्य लक्ष्यों की दिशा में एकजुट होकर काम करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।
  • संवैधानिक नैतिकता की विफलता:
    • भारतीय संवैधानिक मूल्यों पर आधारित संवैधानिक नैतिकता, भाईचारा बनाए रखने हेतु महत्त्वपूर्ण है।
      • इसकी विफलता से संस्थानों और कानून के शासन में विश्वास की कमी हो सकती है जिससे अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है तथा भाईचारा कमज़ोर हो सकता है।

अपर्याप्त नैतिक व्यवस्था:

  • मूल्यों और सामाजिक कर्तव्यों का पालन करना तथा समाज में एक कामकाज़ी नैतिक व्यवस्था का होना अति आवश्यक है ।
  • इस क्षेत्र में विफलता के परिणामस्वरूप भाईचारे की स्थिति बिगड़ सकती है तथा अनैतिक कार्यों से नागरिकों के बीच अविश्वास उत्पन्न हो सकता है।

शैक्षिक असमानताएँ:

  • गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच में असमानता सामाजिक असमानताओं की स्थिति को बरकरार रख सकती है और भाईचारे में बाधा डाल सकती है।
  • शैक्षिक असमानताओं के परिणामस्वरूप अमूमन असमान अवसर प्राप्त होते हैं, जिससे समुदायों के बीच विभाजन की स्थिति बनती है।

क्षेत्रीय असमानताएँ:

  • भारत की व्यापक भौगोलिक व क्षेत्रीय विविधता आर्थिक विकास एवं बुनियादी ढाँचे में असमानताएँ उत्पन्न कर सकती है।
  • ये क्षेत्रीय असमानताएँ कुछ समुदायों में हाशिये पर होने की भावना उत्पन्न कर सकती हैं, जिससे भाईचारे को बढ़ावा देने के प्रयासों को चुनौती उत्पन्न हो सकती है।

भाषा और सांस्कृतिक बाधाएँ:

  • भारत की भाषाओं और बोलियों की बहुलता कभी-कभी संचार बाधाएँ उत्पन्न कर सकती हैं।
    • भाषा और सांस्कृतिक मतभेद प्रभावी संवाद और सहयोग में बाधा डाल सकते हैं, जिससे भाईचारे की भावना प्रभावित हो सकती है।

आगे की राह

  • विभिन्न समुदायों के बीच सामाजिक और सांस्कृतिक सद्भाव को बढ़ावा देने वाली पहल मतभेदों को दूर करने तथा भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने के लिये आवश्यक हैं। इन कार्यक्रमों को विभिन्न पृष्ठभूमि के लोगों के बीच संवाद, समझ एवं सहयोग को प्रोत्साहित करना चाहिये।
  • नागरिक शिक्षा में छोटी उम्र से ही बंधुत्व, समानता और सामाजिक न्याय के मूल्यों को स्थापित किया जाना चाहिये। ज़िम्मेदार नागरिकता और नैतिक आचरण का उदाहरण स्थापित करने के लिये समाज के सभी स्तरों पर नैतिक नेतृत्व आवश्यक है।
  • धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता के प्रति सम्मान को प्रोत्साहित करना महत्त्वपूर्ण है। अंतर-धार्मिक संवाद, धार्मिक एवं सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के लिये सुरक्षा तथा सहिष्णुता की संस्कृति को बढ़ावा देने से सामाजिक एकता बनाए रखने में मदद मिल सकती है।
  • नैतिक आचरण और ज़िम्मेदार नागरिकता का उदाहरण स्थापित करने के लिये समाज के सभी स्तरों पर नैतिक नेतृत्व को प्रोत्साहित करना चाहिये।
  • ऐसी नीतियाँ और कार्यक्रम लागू करने चाहिये जो आर्थिक असमानताओं को कम कर सकें, उनका समाधान करें, सभी नागरिकों के लिये अवसरों और संसाधनों तक समान पहुँच सुनिश्चित करें।

संविधान में समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों पर बहस

चर्चा में क्यों?

हाल ही में कुछ लोकसभा सदस्यों ने दावा किया है कि भारत के संविधान की प्रस्तावना की नई प्रतियों में "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्द हटा दिये गए हैं।

  • हमें यह मालूम होना चाहिये कि ये दो शब्द मूल प्रस्तावना का हिस्सा नहीं थे। इन्हें तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान संविधान (42वाँ संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा संविधान में जोड़ा गया था।

भारतीय संविधान की प्रस्तावना

परिचय:

  • प्रत्येक संविधान का एक दर्शन होता है। भारतीय संविधान में अंतर्निहित दर्शन को उद्देश्य संकल्प (Objectives Resolution) में संक्षेपित किया गया था, जिसे 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा द्वारा अपनाया गया था।
  • संविधान की प्रस्तावना उद्देश्य संकल्प में निहित आदर्श की व्याख्या करती है।
  • यह संविधान के परिचय के रूप में कार्य करता है और इसमें इसके मूल सिद्धांत और उद्देश्य शामिल हैं।

वर्ष 1950 में लागू की गई प्रस्तावना:

  • हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिये तथा उसके समस्त नागरिकों को:
    • सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
    • विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
    • प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त कराने के लिये तथा 
    • उन सब में, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता एवं अखंडता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिये,
  • दृढ़ संकल्पित होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ईस्वी (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हज़ार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों का समावेश:

  • प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार के समय आपातकाल की अवधि के दौरान संविधान (42वें संशोधन) अधिनियम, 1976 के माध्यम से प्रस्तावना में "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्द जोड़े गए थे।
    • "समाजवादी" शब्द को शामिल करने का उद्देश्य भारतीय राज्य द्वारा लक्ष्य और दर्शन के रूप में समाजवाद पर बल देना था, जिसमें गरीबी उन्मूलन तथा समाजवाद का एक अनूठा रूप अपनाने पर ध्यान केंद्रित किया गया था जिसमें केवल विशिष्ट एवं आवश्यक क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण शामिल था।
    • "पंथनिरपेक्ष" को शामिल करने से एक पंथनिरपेक्ष राज्य के विचार को बल मिला, जिसमें सभी धर्मों के साथ समान व्यवहार, तटस्थता बनाए रखने को प्रोत्साहित किया गया और किसी विशेष धर्म को राज्य धर्म के रूप में समर्थन नहीं दिया गया।

प्रस्तावना से समाजवादी और पंथनिरपेक्ष शब्दों को हटाने पर बहस का कारण:

  • राजनीतिक विचारधारा और प्रतिनिधित्व:
    • इन शब्दों को हटाने की वकालत करने वालों का तर्क है कि "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्द वर्ष 1976 में आपातकाल के दौरान शामिल किये गए थे।
    • उनका मानना है कि यह एक विशेष राजनीतिक विचारधारा ढोने जाने जैसा है और यह प्रतिनिधित्व और लोकतांत्रिक निर्णय लेने के सिद्धांतों के खिलाफ है।
  • मूल आशय और संविधान का दर्शन:
    • आलोचकों का तर्क है कि वर्ष 1950 में अपनाई गई मूल प्रस्तावना में ये शब्द शामिल नहीं थे। वे इस बात पर ज़ोर देते हैं कि संविधान के दर्शन में पहले से ही समाजवाद और पंथनिरपेक्षता का स्पष्ट उल्लेख किये बिना न्याय, समानता, स्वतंत्रता तथा भाईचारे के विचार शामिल हैं।
    • उनका तर्क है कि ये मूल्य हमेशा संविधान में निहित थे।
  • गलत व्याख्या किये जाने पर चिंता:
    • कुछ आलोचकों ने चिंता व्यक्त की है कि "समाजवादी" और "पंथनिरपेक्ष" शब्दों की गलत व्याख्या या दुरुपयोग किया जा सकता है, जिससे संभावित रूप से ऐसी नीतियाँ के निर्माण और गतिविधियाँ होंगी जो उनके मूल इरादे से भटक जाएंगे।
    • वे प्रस्तावना में अधिक तटस्थ और लचीले दृष्टिकोण का तर्क देते हैं।
  • सामाजिक निहितार्थ:
    • इन शब्दों की उपस्थिति या अनुपस्थिति का सार्वजनिक नीति, शासन और सामाजिक विमर्श पर प्रभाव पड़ सकता है।
    • धार्मिक विविधता वाले देश में "पंथनिरपेक्ष" शब्द विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है, और इसके हटने से धार्मिक तटस्थता के प्रति राज्य की प्रतिबद्धता को लेकर चिंताएँ बढ़ सकती हैं।

आगे की राह 

  • प्रस्तावना में इन शर्तों के निहितार्थ पर एक सुविज्ञ तथा समावेशी सार्वजनिक चर्चा को बढ़ावा दें। इसमें विभिन्न दृष्टिकोणों और चिंताओं को समझने के लिये शिक्षा जगत, नागरिक समाज, राजनीतिक दलों एवं नागरिकों को शामिल किया जाना चाहिये।
  • प्रस्तावना में "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों के महत्त्व, व्याख्या और ऐतिहासिक संदर्भ पर विचार-विमर्श करने के लिये संसद जैसे संवैधानिक निकायों के भीतर एक संरचित बहस की सुविधा प्रदान करें। किसी भी संभावित संशोधन के निहितार्थों का विश्लेषण करने के लिये गहन चर्चा को प्रोत्साहित करें।
  • प्रस्तावना में "समाजवादी" और "धर्मनिरपेक्ष" शब्दों के ऐतिहासिक संदर्भ, संवैधानिक दर्शन तथा कानूनी निहितार्थ का अध्ययन करने के लिये संवैधानिक विशेषज्ञों, कानूनी विद्वानों, इतिहासकारों एवं समाजशास्त्रियों की एक स्वतंत्र समिति की स्थापना करें। उनके द्वारा दिये गए निष्कर्ष बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकते हैं।

महिला आरक्षण विधेयक 2023

चर्चा में क्यों?

हाल ही में लोकसभा और राज्यसभा दोनों ने महिला आरक्षण विधेयक 2023 (128वाँ संवैधानिक संशोधन विधेयक) अथवा नारी शक्ति वंदन अधिनियम पारित कर दिया।

  • यह विधेयक लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और दिल्ली विधानसभा में महिलाओं के लिये एक-तिहाई सीटें आरक्षित करता है। यह लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित सीटों पर भी लागू होगा।

विधेयक की पृष्ठभूमि और आवश्यकता

पृष्ठभूमि:

  • महिला आरक्षण विधेयक पर चर्चा वर्ष 1996 में पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई के कार्यकाल से ही की जाती रही है।
    • चूँकि तत्कालीन सरकार के पास बहुमत नहीं था, इसलिये विधेयक को मंज़ूरी नहीं मिल सकी।
  • महिलाओं के लिये सीटें आरक्षित करने हेतु किये गए प्रयास:
    • 1996: पहला महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश किया गया।
    • 1998 - 2003: सरकार ने 4 अवसरों पर विधेयक पेश किया लेकिन पारित कराने में असफल रही।
    • 2009: विभिन्न विरोधों के बीच सरकार ने विधेयक पेश किया।
    • 2010: केंद्रीय मंत्रिमंडल और राज्यसभा द्वारा पारित।
    • 2014: विधेयक को लोकसभा में पेश किये जाने की उम्मीद थी।

आवश्यकता:

  • लोकसभा में 82 महिला सांसद (15.2%) और राज्यसभा में 31 महिलाएँ (13%) हैं।
    • जबकि पहली लोकसभा (5%) के बाद से यह संख्या काफी बढ़ी है लेकिन कई देशों की तुलना में अभी भी काफी कम है।
  • हाल के संयुक्त राष्ट्र महिला आँकड़ों के अनुसार, रवांडा (61%), क्यूबा (53%), निकारागुआ (52%) महिला प्रतिनिधित्व में शीर्ष तीन देश हैं। महिला प्रतिनिधित्व के मामले में बांग्लादेश (21%) और पाकिस्तान (20%) भी भारत से आगे हैं।

विधेयक की मुख्य विशेषताएँ

निचले सदन में महिलाओं को आरक्षण:

  • विधेयक में संविधान में अनुच्छेद 330A शामिल करने का प्रावधान किया गया है, जो अनुच्छेद 330 के प्रावधानों से लिया गया है। यह लोकसभा में अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिये सीटों के आरक्षण का प्रावधान करता है।
  • विधेयक में प्रावधान किया गया कि महिलाओं के लिये आरक्षित सीटें राज्यों या केंद्रशासित प्रदेशों में विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में रोटेशन द्वारा आवंटित की जा सकती हैं।
  • अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिये आरक्षित सीटों में, विधेयक में रोटेशन के आधार पर महिलाओं के लिये एक-तिहाई सीटें आरक्षित करने की मांग की गई है।

राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिये आरक्षण:

  • विधेयक अनुच्छेद 332A प्रस्तुत करता है, जो हर राज्य विधानसभा में महिलाओं के लिये सीटों के आरक्षण को अनिवार्य करता है। इसके अतिरिक्त SC और ST के लिये आरक्षित सीटों में से एक-तिहाई महिलाओं के लिये आवंटित की जानी चाहिये तथा विधान सभाओं के लिये सीधे मतदान के माध्यम से भरी गई कुल सीटों में से एक-तिहाई भी महिलाओं के लिये आरक्षित होनी चाहिये।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली में महिलाओं के लिये आरक्षण (239AA में नया खंड):

  • संविधान का अनुच्छेद 239AA केंद्रशासित प्रदेश दिल्ली को उसके प्रशासनिक और विधायी कार्य के संबंध में राष्ट्रीय राजधानी के रूप में विशेष दर्जा देता है।
  • विधेयक द्वारा अनुच्छेद 239AA(2)(b) में तद्नुसार संशोधन किया गया और इसमें यह जोड़ा गया कि संसद द्वारा बनाए गए कानून दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र पर लागू होंगे।

आरक्षण की शुरुआत (नया अनुच्छेद - 334A):

  • इस विधेयक के लागू होने के बाद होने वाली जनगणना के प्रकाशन में आरक्षण प्रभावी होगा। जनगणना के आधार पर महिलाओं के लिये सीटें आरक्षित करने हेतु परिसीमन किया जाएगा।
  • आरक्षण 15 वर्ष की अवधि के लिये प्रदान किया जाएगा। हालाँकि यह संसद द्वारा बनाए गए कानून द्वारा निर्धारित तिथि तक जारी रहेगा।

सीटों का रोटेशन:

  • महिलाओं के लिये आरक्षित सीटें प्रत्येक परिसीमन के बाद रोटेट की जाएंगी, जैसा कि संसद द्वारा बनाए गए कानून द्वारा निर्धारित किया जाएगा।

विधेयक के विरोध में तर्क:

  • विधेयक में केवल इतना कहा गया है कि यह "इस उद्देश्य के लिये परिसीमन की कवायद शुरू होने के बाद पहली जनगणना के लिये प्रासंगिक आँकड़े प्राप्त करने के बाद लागू होगा।" यह चुनाव के चक्र को निर्दिष्ट नहीं करता है जिससे महिलाओं को उनका उचित हिस्सा मिलेगा।
  • वर्तमान विधेयक राज्यसभा और राज्य विधानपरिषदों में महिला आरक्षण प्रदान नहीं करता है। राज्यसभा में वर्तमान में लोकसभा की तुलना में महिलाओं का प्रतिनिधित्व कम है। प्रतिनिधित्व एक आदर्श है जो निचले और ऊपरी दोनों सदनों में प्रतिबिंबित होना चाहिये।

महिला आरक्षण विधेयक, 2023 में OBC

चर्चा में क्यों? 

हाल ही में लोकसभा और राज्यसभा से पारित महिला आरक्षण विधेयक, 2023 में अन्य पिछड़ा वर्ग की महिलाओं के लिये कोटा खत्म किया जाना चर्चा का विषय बना हुआ है। आलोचकों ने इस कदम को प्रमुख सरकारी पदों पर OBC के निम्न प्रतिनिधित्व को लेकर चिंता के रूप में इंगित किया है।

अन्य पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधित्व संबंधी चिंताएँ

संदर्भ: 

  • महिला आरक्षण विधेयक 2023, जो लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिये 33% सीटें आरक्षित करता है, में OBC की महिलाओं के लिये कोई प्रावधान नहीं है।
    • इसके अलावा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के विपरीत भारतीय संविधान लोकसभा अथवा राज्य विधानसभाओं में OBC के लिये राजनीतिक आरक्षण का प्रावधान नहीं करता है।

प्रमुख मुद्दे

  • आलोचकों का तर्क है कि OBC, जो आबादी का 41% हिस्सा हैं (राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण संगठन के वर्ष 2006 के सर्वे के अनुसार), का लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय सरकारों में प्रतिनिधित्व अपर्याप्त है।
    • ये एससी और एसटी के लिये आरक्षण की तरह ही लोकसभा और राज्य विधानसभाओं में अपने लिये अलग कोटा की मांग कर रहे हैं।
    • हालाँकि सरकार ने विधिक एवं संवैधानिक बाधाओं का हवाला देते हुए ऐसा कोटा लागू नहीं किया है।

उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र जैसी कई राज्य सरकारों ने इन्हें स्थानीय निकाय चुनावों में उचित प्रतिनिधित्व प्रदान किया है।

  • लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने समग्र आरक्षण पर 50% की सीमा आरोपित की है (विकास किशनराव गवली बनाम महाराष्ट्र राज्य), जिसमें OBC आरक्षण को 27% तक सीमित किया गया है।
    • 50% की यह ऊपरी सीमा इंदिरा साहनी बनाम भारत संघ फैसले के अनुरूप है।
    • इस निर्णय की इस आधार पर आलोचना की गई कि 27% आरक्षण, राज्यों में OBC जनसख्या के अनुपात में नहीं है। 

लोकसभा में OBC सदस्यों की वर्तमान संख्या:

  • 17वीं लोकसभा में OBC समुदाय से लगभग 120 सांसद हैं, जो लोकसभा की कुल सदस्य क्षमता का लगभग 22% है।
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गीता मुखर्जी रिपोर्ट:

  • गीता मुखर्जी रिपोर्ट में महिला आरक्षण विधेयक की व्यापक समीक्षा की गई थी जिसे पहली बार वर्ष 1996 में संसद में प्रस्तुत किया गया था।
  • इस रिपोर्ट में विधेयक में सुधार हेतु सात सिफारिशें की गईं थीं, जिसका उद्देश्य लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं में महिलाओं के लिये 33% आरक्षण प्रदान करना था।
  • कुछ सिफारिशें इस प्रकार हैं:
    • 15 वर्ष की अवधि के लिये आरक्षण
    • एंग्लो इंडियंस के लिये उप-आरक्षण भी शामिल हो
    • ऐसे मामलों में आरFक्षण जहाँ राज्य में लोकसभा में तीन से कम सीटें हैं (या अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के लिये तीन से कम सीटें हैं)
    • इसमें दिल्ली विधानसभा के लिये आरक्षण भी शामिल है
    • राज्यसभा और विधानपरिषदों में सीटों का आरक्षण
    • संविधान द्वारा OBC के लिये आरक्षण का विस्तार करने के बाद OBC महिलाओं को उप-आरक्षण प्रदान करना

OBC महिलाओं के लिये सीटों के आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में तर्क

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FAQs on Indian Society and Social Issues (भारतीय समाज और सामाजिक मुद्दे): September 2023 UPSC Current Affairs - Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly

1. पैतृक संपत्ति क्या होती है?
Ans. पैतृक संपत्ति वह संपत्ति होती है जो एक व्यक्ति के अधिकार के अनुसार उसके पूर्वजों से आयी होती है। इसमें जमीन, मकान, संचार साधन, निवेश, या अन्य वस्त्रादि शामिल हो सकते हैं। पैतृक संपत्ति में व्यक्ति को उसके पूर्वजों से आयी हुई संपत्ति का अधिकार होता है।
2. पैतृक संपत्ति का महत्व क्या है?
Ans. पैतृक संपत्ति मानव समाज के लिए महत्वपूर्ण है। यह संपत्ति व्यक्ति के पूर्वजों द्वारा उसे सौंपी गई होती है और इसका हक व्यक्ति को उसके पूर्वजों के प्रति आभार व्यक्त करता है। इसके अलावा, पैतृक संपत्ति विभिन्न सामाजिक और आर्थिक लाभों के साथ आती है, जैसे आर्थिक सुरक्षा, एकांतता, और समाजिक स्थिति की सुरक्षा।
3. पैतृक संपत्ति विवाद क्या है?
Ans. पैतृक संपत्ति विवाद उस समय होता है जब किसी व्यक्ति को उसकी पैतृक संपत्ति पर किसी अन्य व्यक्ति या संगठन का दावा होता है। इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं, जैसे वसीयत, धार्मिक या सांस्कृतिक आधार पर विवाद, वसीयत के नियमों के अनुपालन के मामले, या वारिसों के बीच वितरण और वारसत के मामले।
4. पैतृक संपत्ति के लिए सर्वोच्च न्यायालय का क्या भूमिका है?
Ans. सर्वोच्च न्यायालय पैतृक संपत्ति के मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह न्यायालय संबंधित कानूनी मुद्दों के निर्णय करता है और विवादों के न्यायिक समाधान को सुनिश्चित करता है। सर्वोच्च न्यायालय के फैसले उच्चतम न्यायिक प्राधिकरण के रूप में मान्यता प्राप्त करते हैं और उनका पालन किया जाना चाहिए।
5. सर्वोच्च न्यायालय का फैसला पैतृक संपत्ति को लेकर किन मुद्दों पर निर्णय देता है?
Ans. सर्वोच्च न्यायालय पैतृक संपत्ति के मामलों में निर्णय देता है जैसे कि धार्मिक विवाद, वसीयत के नियमों के अनुपालन के मामले, और वारिसों के बीच वितरण और वारसत के मामले। इसके अलावा, यह न्यायालय पैतृक संपत्ति की प्राकृतिक और कानूनी अधिकारिता को भी मध्यस्थता करता है, जैसे कि जमीन और संपत्ति के खुदरा।
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