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Geography (भूगोल): January 2024 UPSC Current Affairs | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के 150 वर्ष

सार्वजनिक मौसम सेवाएँ प्रदान करने के अधिदेश के साथ भारत मौसम विज्ञान विभाग (India Meteorological Department- IMD) 15 जनवरी, 2025 को अपनी उपस्थिति के 150 वर्ष पूरे कर लिये।

  • इस मील के पत्थर को चिह्नित करने के लिये IMD ने 15 जनवरी, 2024 से 15 जनवरी, 2025 तक सभी उप-कार्यालयों में एक राष्ट्रव्यापी उत्सव की योजना बनाई है।

भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) क्या है?

  • परिचय: 
    • यह देश की राष्ट्रीय मौसम विज्ञान सेवा है और मौसम विज्ञान एवं संबद्ध विषयों से संबंधित सभी मामलों में प्रमुख सरकारी एजेंसी है।
    • यह भारत सरकार के पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय की एक एजेंसी के रूप में कार्य करती है।
  • उद्देश्य:
    • कृषि, सिंचाई, नौवहन, विमानन, अपतटीय तेल अन्वेषण आदि जैसी मौसम-संवेदनशील गतिविधियों के इष्टतम संचालन के लिये मौसम संबंधी अवलोकन करना और वर्तमान एवं पूर्वानुमानित मौसम संबंधी जानकारी प्रदान करना।
    • उष्णकटिबंधीय चक्रवात, नॉर्थवेस्टर, धूल भरी आँधी, भारी बारिश और बर्फ, ठंड तथा ग्रीष्म लहरें आदि जैसी गंभीर मौसम की घटनाओं, जो जीवन एवं संपत्ति के विनाश का कारण बनती हैं, के प्रति चेतावनी देना।
    • कृषि, जल संसाधन प्रबंधन, उद्योगों, तेल की खोज और अन्य राष्ट्र-निर्माण गतिविधियों के लिये आवश्यक मौसम संबंधी आँकड़े प्रदान करना।
    • मौसम विज्ञान और संबद्ध विषयों में अनुसंधान का संचालन एवं प्रचार करना।

पिछले कुछ वर्षों में IMD का विकास कैसे हुआ है?

  • ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
    • वर्ष 1864 में दो विनाशकारी चक्रवात कोलकाता और आंध्र तट पर आये, जिससे जानमाल की भारी हानि हुई।
    • इन आपदाओं की गंभीरता ने वायुमंडलीय मापदंडों की निगरानी के लिये एक प्रणाली की अनुपस्थिति को उजागर किया, जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 1875 में भारत मौसम विज्ञान विभाग (IMD) की स्थापना की गई।
  • IMD का विकास:
    • IMD ने अपना आधिकारिक संचालन केवल एक व्यक्ति, HF ब्लैनफोर्ड, एक अंग्रेज़, जिसे इंपीरियल मौसम विज्ञान रिपोर्टर के रूप में मान्यता प्राप्त है, की नियुक्ति के साथ शुरू किया।
    • वर्ष 1903 में IMD के प्रमुख के रूप में नियुक्त गिल्बर्ट वॉकर के नेतृत्व में, मानसून को समझने में महत्त्वपूर्ण प्रगति हुई।
    • वॉकर ने वायुमंडलीय परिसंचरण में बड़े पैमाने पर दोलनों की पहचान की, जिससे अल नीनो घटना की आधुनिक समझ की नींव पड़ी।
    • 150 वर्षों में, IMD देश भर में स्थायी वेधशालाओं और स्वचालित मौसम स्टेशनों के साथ एक विशाल संगठन के रूप में विकसित हुआ है।
  • चक्रवात पूर्वानुमान में उन्नति:
    • वर्ष 1999 में ओडिशा सुपर चक्रवात के दौरान, IMD को एक संकटपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा, जिसके लिये  प्रौद्योगिकी और जनशक्ति में काफी व्यय की आवश्यकता पड़ी। तब से, चक्रवात से संबंधित हताहतों की संख्या में उल्लेखनीय रूप से कमी आई है, जिसका श्रेय  IMD के प्रभावी पूर्वानुमानों को जाता है।
    • IMD के चक्रवात पूर्वानुमान अब न केवल भारत बल्कि पूरे पड़ोसी क्षेत्र के लगभग 13 देश इन पूर्वानुमानों का उपयोग करके अपने चक्रवात प्रबंधन प्रणालियों का संचालन कर रहे हैं।
  • विविधतापूर्ण भूमिकाएँ:
    • प्रारंभ में मौसम पूर्वानुमान पर ध्यान केंद्रित करने वाला IMD अब चुनाव, खेल आयोजनों, अंतरिक्ष प्रक्षेपण और विभिन्न क्षेत्रों के लिये विशेष सेवाएँ प्रदान करता है।
  • वैश्विक भूमिका एवं मान्यता:
    • IMD की बढ़ी हुई क्षमताओं के कारण इसे दक्षिण एशिया के क्षेत्रीय जलवायु केंद्र के रूप में मान्यता मिली है।
    • IMD ने संयुक्त राष्ट्र के 'सभी के लिये पूर्व चेतावनी (Early Warning for All)' कार्यक्रम में योगदान देने के लिये साझेदारी की है, जिसके लिये 30 देशों की पहचान की गई है।

रॉक ग्लेशियर

चर्चा में क्यों? 

एक हालिया अध्ययन ने कश्मीर हिमालय के झेलम बेसिन में 100 से अधिक सक्रिय पर्माफ्रॉस्ट संरचनाओं की उपस्थिति पर प्रकाश डाला है। ये संरचनाएँ, जिन्हें रॉक ग्लेशियर के रूप में जाना जाता है, क्षेत्र के जल विज्ञान पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालती हैं और जलवायु के गर्म होने पर संभावित जोखिम उत्पन्न करती हैं।

रॉक ग्लेशियर क्या है?

  • परिचय:
    • रॉक ग्लेशियर एक प्रकार की भू-आकृति हैं जिसमें चट्टान के टुकड़े और बर्फ का मिश्रण होता है।
    • रॉक ग्लेशियर आमतौर पर पहाड़ी क्षेत्रों में बनते हैं जहाँ पर्माफ्रॉस्ट, रॉक मलबे और बर्फ का संयोजन होता है।
    • पर्माफ्रॉस्ट एक स्थायी रूप से जमी हुई परत है जो पृथ्वी की सतह पर या उसके नीचे मौजूद होती है। यह मिट्टी, बजरी और रेत से बना होता है जो आमतौर पर बर्फ से एक साथ जुड़ा रहता है।
    • एक सामान्य परिदृश्य में पहले से मौजूद ग्लेशियर जो आगे बढ़ने पर मलबा और चट्टानें इकट्ठा करता है, एक सामान्य घटना है। यदि ग्लेशियर पिघलता है, तो मलबे से ढकी बर्फ अंततः चट्टानी ग्लेशियर में परिवर्तित हो सकती है।
    • ये चट्टानी ग्लेशियर तीव्र ढलान वाले अत्यधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों में पाए जाते हैं।
    • नग्न आँखों से चट्टानी ग्लेशियर मुख्यतः सतह की तरह दिखते हैं, उनकी सही पहचान के लिये भू-आकृति विज्ञान संबंधी दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है।
  • वर्गीकरण:
    • उनमें बर्फ और गति है या नहीं, इसके आधार पर उन्हें सक्रिय या अवशेष के रूप में जाना जाता है। अवशेष चट्टानी ग्लेशियर अधिक स्थिर और निष्क्रिय होते हैं, जबकि सक्रिय चट्टानी ग्लेशियर अधिक गतिशील व खतरनाक होते हैं।
  • महत्त्व:
    • रॉक ग्लेशियर पर्माफ्रॉस्ट पर्वत के महत्त्वपूर्ण संकेतक हैं, जो स्थायी रूप से स्थिर भूमि है जिसके अंतर्गत कई ऊँचाई वाले क्षेत्र आते हैं।
    • रॉक ग्लेशियर के अपने जमे हुए कोर में वृहद मात्रा में जल संग्रहित होता है जो जल की कमी और हिमनदों के खिसकने की स्थिति में एक मूल्यवान संसाधन हो सकता है।

क्षेत्र पर सक्रिय रॉक ग्लेशियरों के संभावित प्रभाव क्या हैं?

  • ग्लेशियर लेक आउटबर्स्ट फ्लड/हिमनद झील विच्छेद बाढ़ (Glacial lake outburst floods- GLOF):  
    • These are sudden and catastrophic floods that occur when a glacial lake bursts its natural or artificial dam, releasing large volumes of water and debris downstream. ये आकस्मिक और विनाशकारी बाढ़ जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं, जो तब होती हैं जब एक हिमनद झील का प्राकृतिक या कृत्रिम बाँध टूट जाता है, जिससे भारी मात्रा में जल तथा मलबा निचले क्षेत्र की ओर विनाशकारी रूप से प्रवाहित हो जाता है।
    • सक्रिय रॉक ग्लेशियर ढालों या हिमनद झीलों के बाँधों को अस्थिर करके GLOF के खतरे को बढ़ाते हैं।
    • हिमनद झीलों, जैसे चिरसर और ब्रैमसर झील के निकटवर्ती रॉक ग्लेशियर, GLOF के खतरे को बढ़ाते हैं।
  • भू-स्खलन:
    • भूस्खलन (Landslide) एक भूवैज्ञानिक घटना है जिसमें शैल, मिट्टी और मलबे के एक भाग का नीचे की ओर खिसकना या संचलन करना शामिल होता है।
    • भूस्खलन प्राकृतिक और मानव-निर्मित, दोनों ही ढलानों पर हो सकते हैं तथा वे प्रायः भारी वर्षा, भूकंप, ज्वालामुखीय गतिविधियों, मानव गतिविधियों (जैसे– निर्माण या खनन) और भूजल स्तर में परिवर्तन जैसे कारकों के संयोजन से उत्पन्न होते हैं। 
    • सक्रिय रॉक ग्लेशियर ढलान की स्थिरता को कमज़ोर करके या पिघलकर जल मुक्त करने से भू-स्खलन का कारण बनते हैं जो फिसलती हुई सतह के स्खलन में योगदान देता है। 
    • पिघलती पर्माफ्रॉस्ट इन क्षेत्रों को अस्थिर बनाती है, जिससे आस-पास की बस्तियों और महत्त्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे के लिये खतरा उत्पन्न हो जाता है।
    • उदाहरण के लिये क्यूबेक में नुनाविक क्षेत्र कई वर्ष पूर्व मुख्यतः पर्माफ्रॉस्ट मैदान पर बसाया गया था। पिछले दशकों में ग्लोबल वार्मिंग के कारण निचली स्तरों में बर्फ पिघलनी शुरू हो गई, जिससे भू-स्खलन की आवृत्ति और अन्य खतरे बढ़ गए।
  • थर्मोकार्स्ट:
    • यह एक प्रकार का भू-भाग है जो बर्फ से समृद्ध पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने से बनने वाली दलदली खोखली और छोटी-छोटी चट्टानों (कटक) की अनियमित सतहों का रूप है।
    • सक्रिय रॉक ग्लेशियरों से तालाबों अथवा झीलों जैसी थर्मोकार्स्ट संरचनाओं का निर्माण हो सकता है जो संबद्ध क्षेत्र के जल-विज्ञान (Hydrology), पारिस्थितिकी तथा कार्बन चक्र को प्रभावित कर सकते हैं।
    • जम्मू-कश्मीर के कुलगाम शहर के समीप जल निकायों की उपस्थिति भूमिगत पर्माफ्रॉस्ट के अस्तित्व का सुझाव देती है जो 'थर्मोकार्स्ट झीलों' के समान है जिनके परिणामस्वरूप भविष्य में  जोखिम की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।
    • पृथ्वी की सतह के नीचे हिम के पिघलने से सतह के ढहने का खतरा अधिक होता है। जिसके परिणामस्वरूप सिंकहोल्स, टेकरी (Hummocks), गुफाओं तथा सुरंगों की उत्पत्ति हो सकती है जो जोखिमपूर्ण हो सकता है।
    • बटागाइका क्रेटर थर्मोकार्स्ट का एक उदाहरण है, यह विश्व का सबसे बड़ा पर्माफ्रॉस्ट क्रेटर है जो सखा गणराज्य, रूस में स्थित है।

आगे की राह

  • यह अध्ययन हिमालय क्षेत्र में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को समझने तथा उन्हें कम करने में पर्माफ्रॉस्ट अनुसंधान की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर प्रकाश डालता है।
  • सक्रिय रॉक ग्लेशियरों की जलीय क्षमता पर आगे के अध्ययन के लिये संसाधन आवंटित करना, जल की कमी का सामना करने वाले क्षेत्रों में स्थायी उपयोग के लिये संग्रहीत जल का दोहन करने के तरीकों की खोज करना।
  • संभावित आपदाओं के बारे में समुदायों और अधिकारियों को सचेत करने के लिये पहचाने गए सक्रिय रॉक ग्लेशियरों वाले क्षेत्रों में प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली को विकसित एवं कार्यांवित करें।
  • ग्लेशियरों से रॉक ग्लेशियरों में संक्रमण से उत्पन्न विशिष्ट चुनौतियों पर विचार करते हुए, पर्माफ्रॉस्ट अध्ययन के निष्कर्षों को क्षेत्रीय और राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन अनुकूलन योजनाओं में एकीकृत करें।
  • पर्माफ्रॉस्ट क्षरण से जुड़े जोखिमों के बारे में स्थानीय समुदायों, योजनाकारों और नीति निर्माताओं के बीच जागरूकता बढ़ाने की आवश्यकता है।

कृष्णा-गोदावरी बेसिन में तेल की उपलब्धता

संदर्भ 

ONGC ने कृष्णा-गोदावरी बेसिन के गहरे पानी (KG-DWN-98/2 ब्लॉक) वाले क्षेत्र से पहली बार तेल का उत्पादन शुरू किया।

संबंधित तथ्य 

  • अवस्थिति: यह ब्लॉक, जहाँ तेल का उत्पादन शुरू हुआ है, बंगाल की खाड़ी में  कृष्णा-गोदावरी बेसिन के काकीनाडा तट से लगभग 25 किमी. दूर है।
  • अपेक्षित उत्पादन
  • यहाँ प्रतिदिन लगभग 45,000 बैरल तेल और 10 मिलियन क्यूबिक मीटर से अधिक गैस का उत्पादन होगा। 
  • इससे देश के तेल उत्पादन और प्राकृतिक गैस उत्पादन में 7% का योगदान बढ़ जाएगा।
  • इससे ONGC के कुल तेल उत्पादन में 11% और प्राकृतिक गैस उत्पादन में 15% की बढ़ोतरी होगी।
  • वर्ष 2024 के मध्य तक 98/2 ब्लॉक परियोजना के अंतिम चरण के रूप में तेल और प्राकृतिक गैस का उत्पादन शुरू हो जाएगा।

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कृष्णा-गोदावरी बेसिन 

  • यह भारत के पूर्वी तट पर आंध्र प्रदेश में एवं बंगाल की खाड़ी के 16 निकटवर्ती क्षेत्रों में कृष्णा और गोदावरी नदियों द्वारा निर्मित एक विस्तृत डेल्टाई मैदान है।
  • बेसिन में कई चक्रों के जमाव के कारण लगभग 5 किमी. मोटी तलछट का निर्माण हुआ है, जो मृत-कार्बोनिफेरस से लेकर प्लीस्टोसीन युग तक की हो सकती है।
  • प्रमुख भू-आकृतियाँ: ऊपरी मैदान, तटीय मैदान और डेल्टा मैदान।
  • हाइड्रोकार्बन क्षमता: कृष्णा गोदावरी बेसिन की हाइड्रोकार्बन क्षमता 1130 MMT की है, जिसमें से 555 MMT की क्षमता अपतटीय क्षेत्र से संबंधित है।
  • पेट्रोलियम क्षेत्र: भूमि पर स्थित सर्वाधिक पुराने ‘पर्मो-ट्राइसिक मंडापेटा’ बलुआ पत्थर तथा गहरे अपतटीय भाग में स्थित नवीनतम प्लीस्टोसीन चैनल वाणिज्यिक हाइड्रोकार्बन भंडार से संबंधित पेट्रोलियम क्षेत्र हैं।
  • उनकी विशिष्ट विवर्तनिक और अवसादी विशेषताओं को देखते हुए बेसिन के पेट्रोलियम क्षेत्र को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है- प्री-ट्रैपियन और पोस्ट-ट्रैपियन। 
  • निक्षेपण क्षेत्र: गोदावरी डेल्टा क्षेत्र, मसूलीपट्टनम का समुद्री ढलान, निजामपट्टनम (Nizampatnam) का समुद्री ढलान और कृष्णा डेल्टा क्षेत्र।

चिल्का झील: ओडिशा

चिल्का झील में किये गए जलपक्षी स्थिति सर्वेक्षण-2022 के अनुसार, लगभग 11 लाख जलपक्षी और आर्द्रभूमि पर निर्भर अन्य प्रजातियाँ इस झील की तरफ आईं। चिल्का झील भारतीय उपमहाद्वीप में स्थित सबसे बड़ी खारे पानी की झील और शीत ऋतु के दौरान पक्षियों के आगमन हेतु सबसे बड़ा स्थान है।

प्रमुख बिंदु

  • चिल्का झील के विषय में:
    • चिल्का एशिया का सबसे बड़ा और विश्व का दूसरा सबसे बड़ा लैगून है।
    • शीतकाल के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवासी पक्षियों को आकर्षित करने वाला सबसे बड़ा मैदान होने के साथ ही यह पौधों और जानवरों की कई संकटग्रस्त प्रजातियों का निवास स्थान है।
    • वर्ष 1981 में चिल्का झील को रामसर कन्वेंशन के तहत अंतर्राष्ट्रीय महत्त्व का पहला भारतीय आर्द्रभूमि नामित किया गया था।
    • चिल्का में प्रमुख आकर्षण इरावदी डॉलफिन (Irrawaddy Dolphins) हैं जिन्हें अक्सर सातपाड़ा द्वीप के पास देखा जाता है।
    • लैगून क्षेत्र में लगभग 16 वर्ग किमी. में फैला नलबाना द्वीप (फारेस्ट ऑफ रीडस) को वर्ष 1987 में पक्षी अभयारण्य घोषित किया गया था।
    • कालिजई मंदिर- यह मंदिर चिल्का झील में एक द्वीप पर स्थित है।
    • चिल्का झील कैस्पियन सागर, बैकाल झील, अरल सागर, रूस के सुदूर हिस्सों, मंगोलिया के किर्गिज़ स्टेप्स, मध्य और दक्षिण-पूर्व एशिया, लद्दाख तथा हिमालय से हज़ारों मील दूर प्रवास करने वाले पक्षियों की मेज़बानी करती है।
    • यहाँ मौजूद विशाल मिट्टी के मैदान और प्रचुर मात्रा में मछली भंडार, पक्षियों के लिये उपयुक्त हैं।
  • भारत में प्रवासी प्रजातियाँ:
    • भारत कई प्रवासी जानवरों और पक्षियों का अस्थायी निवास स्थान है।
    • इनमें अमूर फाल्कन्स (Amur Falcons), बार-हेडेड गीज़ (Bar-Headed Geese), ब्लैक-नेक्ड क्रेन (Black-Necked Cranes), मरीन टर्टल (Marine Turtles), डूगोंग (Dugongs), हंपबैक व्हेल (Humpback Whales) आदि शामिल हैं।
    • भारत ने मध्य एशियाई फ्लाईवे (Central Asian Flyway) के तहत प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण हेतु राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan) भी शुरू की है क्योंकि भारत प्रवासी प्रजातियों के संरक्षण पर अभिसमय (Convention on Migratory Species-CMS) का एक पक्षकार है।
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