Table of contents | |
महान लेखक : मुंशी प्रेमचंद | |
आर्थिक एवं सामरिक क्षेत्र में महिलाएँ | |
बेरोज़गारी निवारण में शिक्षा की भूमिका | |
अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि के दुष्परिणाम |
मुंशी प्रेमचंद से उनके समकालीन पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी ने 1930 में उनकी प्रिय रचनाओं के बारे में प्रश्न किया, ‘‘आपकी सर्वोत्तम पंद्रह गल्पें’’ कौन-सी हैं?
प्रेमचंद ने उत्तर दिया, ‘‘इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। 200 से ऊपर गल्पों में कहाँ से चुनूँ, लेकिन स्मृति से काम लेकर लिखता हूँ- बड़े घर की बेटी, रानी सारन्धा, नमक का दरोगा, सौत, आभूषण, प्रायश्चित, कामना, मंदिर और मस्जिद, घासवाली, महातीर्थ, सत्याग्रह, लांछन, सती, लैला, मंत्र।’’
इन कृतियों को कौन नहीं जानता होगा, कम-से-कम किसी एक रचना का नाम तो अवश्य सुना होगा। ऐसी और भी कई महान रचनाओं का जन्म मुंशी प्रेमचंद की लेखनी से हुआ और वे कृतियाँ दुनिया में अजर-अमर हो गई। उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में जन्मे मुंशी प्रेमचंद, जिनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, की आरंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी में हुई थी। सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, गबन, गोदान आदि उपन्यासों से लेकर नमक का दरोगा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेम तीर्थ, पाँच फूल, सप्त सुमन, बाल साहित्य जैसे कहानी संग्रहों की रचना कर इन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया। इन्हें उपन्यास सम्राट भी माना जाता है। उनकी कहानियाँ अधिकांशत: ग्रामीण भारतीय परिवेश पर आधारित होती थी जिसके माध्यम से वह किसानों एवं निम्न आय वाले परिवारों की हालात का वर्णन किया करते थे। उनकी पहली कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’, जिसका अर्थ ‘राष्ट्र का विलाप’ होता है, के प्रकाशन पर अंग्रेज सरकार ने रोक लगा दी थी
प्रेमचंद एक दृढ़ राष्ट्रवादी थे, जिसकी झलक उनकी रचनाओं में बखूबी देखने को मिलती है। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में राष्ट्रवादी नेताओं की स्वार्थ लिप्सा एवं कमज़ोरियों को भी उजागर किया। उन्होंने रंगभूमि एवं कर्मभूमि उपन्यास के ज़रिये शिक्षित राष्ट्रवादी नेताओं को उनकी कमजोरियों का एहसास कराते हुए उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। इन शिक्षित एवं स्वार्थी प्रकृति के लोगों पर व्यंग्य करते हुए ‘आहुति’ में एक स्त्री कहती है- ‘‘अगर स्वराज्य आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यूँ ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूंगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेज़ी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। उनकी बुराइयों को क्या प्रजा इसलिये सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी है?’’
प्रेमचंद ने श्रेष्ठ साहित्य के मानकों को रेखांकित करते हुए कहा था कि ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, जो इसमें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’
प्रेमचंद ने उपर्युक्त आदर्शों एवं मापदंडों को प्रत्येक साहित्यकार हेतु ज़रूरी माना और स्वयं भी इन मानदंडों का अनुपालन किया तथा उन्हीं आदर्शों को ध्यान में रखते हुए अपने कालजयी कृतियों की रचना की। उनकी रचनाएँ जीवन की सच्चाइयों से इतनी भरी हुई थीं कि शायद ही कोई पहलू अछूता रहा हो। उन्होंने उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से ग्रामीण जीवन के साथ-साथ शहरी जीवन की दुर्दशा का भी सजीव चित्रण किया है। ‘पूस की रात’ कहानी का पात्र ‘हल्कू’ अपनी पत्नी से कंबल खरीदने की इच्छा व्यक्त करता है और जैसे ही उसे साहूकार का कर्ज़ चुकाने की बात याद आती है, तो सारे ख्वाब धुआँ बनकर उड़ जाते हैं।
‘गोदान’ की बात करें तो प्रेमचंद जी ने इसमें सामंतवादी व्यवस्था में जकड़े हुए ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण किया है और यह दर्शाने की कोशिश की है कि समाज की कुछ विशेष प्रकार की समाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से शोषण का जन्म होता है।
उन्होंने समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों एवं बाह्य आडंबरों पर भी प्रहार करते हुए उन्हें दूर करने का प्रयास किया। उनकी रचनाएँ सिर्फ मनोरंजन के लक्ष्य से नहीं लिखी गई थीं बल्कि वे अपनी कृतियों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों पर भी चोट करते थे। ‘सद्गति’ एवं ‘सवा सेर गेहूँ’ कहानियों के माध्यम से उन्होंने बताया कि किस प्रकार लोग वर्तमान जीवन की चिंता छोड़कर परलोक के चक्कर में पुरोहिताई के चंगुल में फँस कर प्राण तक गवाँ देते हैं।
‘सेवासदन’ प्रेमचंद जी का पहला उपन्यास है जिसमें उन्होंने वेश्याओं की समस्या को प्रमुखता से उठाया है। वेश्यावृत्ति जैसी समस्या हेतु उन्होंने पुरुषों की अधम प्रवृत्ति को ही ज़िम्मेदार ठहराया है। प्रेमचंद जी कहते है कि ‘‘हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएँ, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएँ हैं, जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया है।’’
प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को एक आदर्श रूप देने हेतु प्रेरणा करने की भी कोशिश की। उन्होंने भारतीय नारी के आदर्श स्वरूप का भी वर्णन किया है। इसकी झलक हमें गोदान की ‘धनिया’ और ‘बड़े घर की बेटी’ में देखने को मिलती है। गोदान की ‘धनिया’ जीवन भर दुख झेलती रही परंतु अपने मान-सम्मान से कभी समझौता नहीं किया। आवश्यकता पड़ने पर आदर्श पत्नी की तरह वह हमेशा ‘होरी’ के साथ खड़ी रही।
प्रेमचंद जी ने समाज में व्याप्त छूआ-छूत, भेदभाव एवं ऊँच-नीच जैसी कुरीतियों का भी गंभीरता से चित्रण किया। समाज में व्याप्त बिखराव से उन्हें बहुत कष्ट होता था। उन्होंने इसे कर्मभूमि, ठाकुर का कुआँ, ‘सदगति’ आदि कहानियों में बहुत बारीकी से उकेरा है। प्रेमचंद जी की कहानियों में कहीं भी सांप्रदायिकता का पुट नहीं रहा। उन्होंने मुसलमान एवं हिंदू पात्रों को उकेरने में कोई भी भेदभाव नहीं दिया एवं हर पात्र के साथ सहृदयता बरती। उनकी प्रमुखता आर्थिक-सामाजिक समस्याओं को चित्रित करने पर रहती थी, न कि जाति या धर्म पर। मुंशी प्रेमचंद ने हमेशा मनुष्य के अंदर छिपे देवत्व को उभारने की कोशिश की, जिसे बड़े घर की बेटी एवं पंच परमेश्वर कहानियों में आसानी से देखा जा सकता है।
प्रेमचंद की लेखनी में वर्णन की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। उनकी भाषा द्वारा घटनाओं के दृश्य साकार हो उठते हैं। प्रेमचंद की प्रमुख कथा शैली वर्णनात्मक है एवं कहानियों में संवाद-शैली के अच्छे उदाहरण मिल जाते हैं। प्रेमचंद ने साहित्य के असली उद्देश्य से परिचय कराते हुए ‘साहित्य का उद्देश्य’ नामक कृति में लिखा, ‘‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी।’’ क्योंकि अभी तक सुंदरता की तलाश अमीरी और विलासिता के मसलों में की जाती रही थी। प्रेमचंद ने एक नए दृष्टिकोण से परिचय कराते हुए बताया कि साहित्य तो है ही जीवन की अभिव्यक्ति और साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचना है। चूँकि जीवन में आडंबर, पाखंड, सहिष्णुता, संकीर्णता एवं कुटिलता सब कुछ है और इन सबकी धुंध के बीच वहीं किसी कोने में छिपी जीवन की सच्चाई का प्रकाश भी है। इसी प्रकाश को खोजना और उसे सामने लाना ही साहित्य का मुख्य उद्देश्य है।
पहले प्रेमचंद गांधीवादी सोच से प्रभावित थे, इसलिये अपने कथानक को एक आदर्शवादी अंत प्रदान करते थे परंतु जब उनका गांधीवाद से मोह-भंग हुआ तब गोदान, कफन और पूस की रात जैसी नग्न यथार्थवाद से लोगों का परिचय होता है जहाँ प्रेमचंद समस्या का कोई समाधान प्रदान नहीं करते। प्रेमचंद साहित्य को राजनीति का भी पथ-प्रदर्शक मानते हैं। उन्होंने साहित्यकार के महान उत्तरदायित्व को समझते हुए यथासंभव उसका निर्वहन किया। हम पाते हैं कि प्रेमचंद केवल साहित्यकार ही नहीं बल्कि सामाजिक समस्याओं के चिंतक भी थे। उनकी इस प्रवृत्ति की झलक उनके साहित्य में स्पष्ट है। आज प्रेमचंद जैसे सामाजिक चिंतकों की इस समाज को बेहद ज़रूरत है जो उनकी भाषिक और वैचारिक समझ द्वारा व्यक्त होती है ।
स्त्री शक्ति राष्ट्र शक्ति का अभिन्न अंग होती है जिसे सशक्त और शामिल किये बिना कोई भी राष्ट्र शक्तिशाली नहीं हो सकता।
महिला सशक्तीकरण को प्राथमिकता देने के क्रम में वर्तमान भारतीय प्रधानमंत्री द्वारा महिलाओं को पुरुषों के बराबर अवसर प्रदान करने का प्रयास किया है जो सुरक्षा के पाँच पहलुओं पर आधारित एक व्यापक मिशन है। ये पाँच पहलू है- माँ एवं शिशु की स्वास्थ्य सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, वित्तीय सुरक्षा, शैक्षणिक एवं वित्तीय कार्यक्रमों के माध्यम से भविष्य की सुरक्षा तथा महिलाओं की सलामती। इस प्रकार हम पाते हैं कि जब भी राष्ट्र को सशक्त करने की बात आती है तो महिला सशक्तीकरण के पहलू को अनदेखा नहीं किया जा सकता।
किसी संस्कृति को अगर समझना है तो सबसे आसान तरीका है कि उस संस्कृति में नारी के हालात को समझने की कोशिश की जाए। किसी भी देश के विकास संबंधी सूचकांक को निर्धारित करने हेतु उद्योग, व्यापार, खाद्यान्न उपलब्धता, शिक्षा इत्यादि के स्तर के साथ ही इस देश की महिलाओं की स्थिति का भी अध्ययन किया जाता है। नारी की सुदृढ़ एवं सम्मानजनक स्थिति एक उन्नत, समृद्ध तथा मज़बूत समाज की द्योतक है।
वर्तमान में नारियाँ प्रत्येक क्षेत्र में अपना वर्चस्व स्थापित कर रही हैं। शिक्षा एवं आर्थिक स्वतंत्रता ने महिलाओं में नवीन चेतना भर दी है। जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका में वृद्धि हो रही है। आज महिलाएँ राजनीति, बिज़नेस, कला तथा खेल सहित रक्षा क्षेत्र में भी नए आयाम गढ रही हैं। सेना जैसे संवेदनशील क्षेत्र में भी महिलाएँ अपनी भूमिका का पुरुषों के साथ कदम मिलाकर निवर्हन कर रही हैं। हाल ही में अवनी चतुर्वेदी सहित तीन लड़कियों को वायुसेना में फाइटर प्लेन उड़ाने की अनुमति प्रदान की गई है।
यह उनकी कार्यक्षमता का द्योतक है, क्योंकि प्राय: कमज़ोर समझी जाने वाली महिलाएँ आज कठिन माने जाने वाले क्षेत्रों में भी अपनी क्षमता का प्रदर्शन कर रही हैं। गांधी जी ने कहा था कि ‘‘महिलाएँ पुरुषों से बेहतर सैनिक साबित हो सकती हैं। बस उनको मौका देने की ज़रूरत है।’’ कल्पना चावला, सुनीता विलियम्स, टेंसी थॉमस, अवनी चतुर्वेदी जैसी अनेक नारियाँ आज समाज में महिलाओं की मज़बूत छवि प्रस्तुत कर रही हैं। अग्नि-V मिसाइल के विकास में प्रमुख भूमिका निभाने वाली टेंसी थॉमस को ‘मिसाइल वुमेन’ के नाम से जाना जाता है।
शीर्ष क्षेत्र में भी महिलाओं ने अपनी सफलता की कहानी दुनिया के सामने रखी है। आर्थिक अधिकारों की प्राप्ति तथा आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के कारण महिलाओं का सशक्तीकरण हुआ है। देश के कई आर्थिक संस्थानों के शीर्ष पदों पर महिलाएँ कार्यभार संभाल रही हैं तथा देश के विकास में अपना योगदान दे रही हैं। अरुंधति महाचार्य, शिखा शर्मा, नैनालाल किदवई, सावित्री जिंदल आदि आर्थिक क्षेत्र में शीर्ष पदों पर काबिज हैं।
भारत के संबंध में कई बार वर्ल्ड बैंक ग्रुप आदि ने कहा है कि अगर यहाँ पर महिलाओं की आर्थिक भागीदारी में वृद्धि की जाए तो भारत की विकास दर में तीव्र वृद्धि हो सकती है। गौरतलब है कि 1994 से 2012 के मध्य कई लाख भारतीय गरीबी रेखा से बाहर निकल चुके हैं। इन आँकड़ों में और बढ़ोतरी होती अगर कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में और इज़ाफा होता। 2012 में सिर्फ 27% वयस्क भारतीय महिलाएँ विभिन्न क्षेत्रों में कार्यरत थीं। चिंता की बात यह है कि भारत के तीव्र शहरीकरण ने कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में कोई वृद्धि नहीं की है।
कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी के मामले में भारत की रैंकिंग विभिन्न देशों के मध्य निम्न है परंतु लिंग आधारित हिंसा की दर के मामले में यह काफी उच्च है। देश के कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी 2016 के 37% से नीचे गिरकर 2019 में 18% रह गई है एवं जेंडर गैप के मामले में 23% पर आ गई है। यह माना जाता है कि कार्यबल में महिलाओं के प्रवेश को सुनिश्चित करने और उनकी भागीदारी बढ़ाने में जेंडर सेंसेटिव इंफ्रास्ट्रक्चर महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जेंडर सेंसेटिव इंफ्रास्ट्रक्चर के तहत बच्चों हेतु पूर्वकालिक शिशुगृह, कार्यशील महिलाओं हेतु वहनीय एवं सुरक्षित हॉस्टल एवं आधारभूत सार्वजनिक सुविधाएँ शामिल हैं।
इन सबके बावजूद सिक्के का एक अन्य पहलू यह भी है कि आज भी महिला कार्यबल का एक बड़ा हिस्सा अन्याय एवं शोषण का शिकार होता है। भारत में आज भी कई कार्यस्थलों पर महिलाओं का यौन शोषण होता है। ‘मी टू’ अभियान यह सिद्ध करता है कि महिलाएँ किस प्रकार से कार्यस्थल पर प्रताड़ित की जाती हैं। परंतु सभी सामाजिक वजनाओं को तोड़ते हुए उन्होंने इसके खिलाफ अपनी आवाज भी बुलंद की है। महिलाओं को अपने स्वतंत्र अस्तित्व का निर्माण करने और उसे कायम रखने हेतु स्वावलंबी और आत्मनिर्भर होना बहुत जरूरी है। साथ ही जो समाज और रिवाज स्त्रियों के विकास को उचित नहीं समझता उसे बदल देना आवश्यक है।
वैश्वीकरण के इस अर्थप्रधान युग में एक ओर जहाँ स्त्रियाँ वर्जनाओं को तोड़ते हुए नित सफलता के नए सोपान पर चढ़ती जा रही हैं, वहीं दूसरी ओर उन्हें भोग की वस्तु के रूप में प्रचारित और प्रसारित भी किया जा रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के उत्पादों के विज्ञापनों में इसकी झलक बड़ी आसानी से देखी जा सकती है। चाहे वह फिल्म इंडस्ट्री की शोषित कोई स्त्री कलाकार हो या विज्ञापनों में बड़े ही शर्मसार तरीके से चित्रित की गई कोई नारी हो। इसका यह नतीजा हुआ कि स्त्री आज भी उसी चौराहे पर खड़ी है और खुद से अनेक प्रश्न पूछती है कि क्या यही वह मंजिल है जिसे वह हासिल करना चाहती थी या फिर इस मुकाम तक पहुँच कर भी लोगों की मानसिकता में कोई परिवर्तन क्यों नहीं दिखता? अगर एक ऊंचे ओहदे पर स्थित स्त्री की हालत ऐसी है तो एक साधारण स्त्री की स्थिति क्या होगी? स्त्री को उसके देह से अलग एक स्त्री के रूप में देखने की आदत में परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। किसी की मजबूरी को किसी का व्यवसाय बनने से रोकना होगा एवं नग्नता और शालीनता के मध्य की बारीक रेखा को समझना होगा जिसका निर्माता भी समाज होता है एवं जिसका विध्वंसक भी यही समाज होता है। उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय, विवेकपूर्ण-अविवेकपूर्ण, स्वाधीनता एवं उच्छृंखलता, दायित्व और दायित्वहीनता, शालीनता और अश्लीलता के मध्य विद्यमान धुँधलके को स्पष्ट करना होगा। स्त्री की आज़ादी पूर्ण तभी मानी जाएगी जब उसकी प्रतिभा को स्वीकार्यता मिले, न कि उसके दैहिक सौंदर्य को।
यह सत्य है कि वर्तमान में स्त्रियों की स्थिति में काफी बदलाव आया है। सामरिक क्षेत्र तक पहुँच उनकी क्षमता का द्योतक है, फिर भी स्त्रियाँ अनेक स्थानों पर पुरुष प्रधान मानसिकता से पीड़ित रहती है।
आर्थिक एवं सामरिक क्षेत्र में महिलाओं की भूमिका को सुदृढ़ बनाने हेतु आवश्यक कदम-
हम पाते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था एवं रक्षा क्षेत्र में महिलाएँ अग्रणी भूमिका निभा रही हैं। अगर हाल- फिलहाल की भारत की आर्थिक स्थिति को छोड़ दें, जो कि कोविड-19 से प्रभावित है, तो भारत की विकास दर पिछले कुछ समय से उच्च बनी हुई है जिसका कारण बचत और पूंजी निर्माण की उच्च दर बताई जाती है। इन आर्थिक गतिविधियों में महिलाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। बचत, उपभोग-अभिवृत्ति और पुनर्चक्रण-प्रवृत्ति के मामले में भारत की अर्थव्यवस्था महिला केंद्रित मानी गई है। साथ ही हाल-फिलहाल में रक्षा क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि कर सरकार महिलाओं को इस क्षेत्र में भी मुख्य भूमिका निभाने का मौका देना चाह रही है। अत: महिलाओं की असीमित क्षमता और योग्यता को ध्यान में रखते हुए ज़रूरी है कि इन्हें आर्थिक एवं सामरिक क्षेत्र के केंद्र में रखा जाए ताकि देश विकास के नए आयाम स्थापित कर सके।
घर की दीवार भी अब टूट कर मुँह चिढ़ा रही,
बेरोज़गारी के जश्न में सबको शरीक होना था।
बेरोज़गारी के दर्द को बयाँ करती ये पंक्तियाँ बोल रही हों जैसे कि अब तो घर की दीवारों को भी इंतजार है, अगली पीढ़ी के रोज़गार का। बेरोज़गारी आज भारत की ही नहीं वरन् विश्व की सबसे बड़ी सामाजिक-आर्थिक समस्याओं में से एक है। भारत में इस समय करोड़ों लोग बेरोज़गारी का सामना कर रहे हैं। कार्य अनुभव तथा आय के निश्चित क्षेत्र की अनुपस्थिति निर्धनता को जन्म देती हैं तथा इसके बाद निर्धनता व बेरोज़गारी का यह दुश्चव्र सदा चलता रहता है। बेहतर अवसरों की तलाश में युवा गाँव, प्रदेश अथवा देश से पलायन करते रहते हैं। ऐसे पलायन के फलस्वरूप उनका शोषण किये जाने का संकट बना रहता है। बेरोज़गारी की अधिकता से उनका शोषण किये जाने का संकट बना रहता है। बेरोज़गारी की अधिकता राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की प्रगति को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करती है।
युवाओं में बेरोज़गारी का मूल कारण अशिक्षा तथा रोज़गारपरक कौशल की कमी है। बेरोज़गारी व निर्धनता के निवारण का सबसे सशक्त माध्यम शिक्षा ही है। शिक्षा व्यापक अर्थों में लगभग हर सामाजिक-आर्थिक समस्या का समाधान बन सकती है, परंतु बेरोज़गारी निवारण में इसकी भूमिका अतुलनीय है। यदि भारत में शिक्षा तंत्र को जड़ से लेकर उच्चतम स्तर तक सशक्त बना दिया जाए तो बेरोज़गारी की समस्या का हल ढूँढना बेहद आसान हो जाएगा। यह ध्यान देने योग्य है कि प्राथमिक स्तर पर अवधारणा विकास तथा उच्च स्तरों पर रोज़गारपक कौशल विकास आधारित शिक्षा तंत्र को विकसित किया जाए।
प्राचीन समय में शिक्षा बिना किसी औपचारिक शिक्षण संस्थाओं के माध्यम से दी जाती थी किंतु कालांतर में ‘शिक्षा’ संस्थाओं के माध्यम से दी जाने लगी। पहले मनुष्य प्रकृति, परिवेश एवं अपने अनुभवों तथा जीवन के संघर्षों के माध्यम से सीखता था। जब शिक्षा का संस्थानीकरण हुआ तो भेदभाव की भी शुरुआत हुई। हालाँकि शिक्षा सभी को समान रूप से प्रदान की जाती है लेकिन उसे ग्रहण करना व्यक्ति विशेष की मानसिक क्षमता पर निर्भर करने लगा। इससे सबकी योग्यताओं में भिन्नता आने लगी एवं ऐसे लोगों की संख्या में वृद्धि होने लगी। आगे चलकर जब उन्हें अपनी योग्यता अनुरूप कार्य नहीं मिला तो वे बेरोज़गार की श्रेणी में शामिल होते गए । हालाँकि शिक्षित या गैर-शिक्षित मनुष्य का बेरोज़गार होना ‘उत्पादन प्रणाली’ से जुड़ा हुआ मुद्दा माना जाता है। वर्तमान समय में शिक्षा सभी के लिये सुलभ नहीं है परंतु शिक्षा प्राप्त करने के उपरांत भी रोज़गार प्राप्त नहीं हो रहा। इसलिये शिक्षा प्राप्त करने भर से रोज़गार मिलना ज़रूरी नहीं है। बेरोज़गारी एक सापेक्षिक अवधारणा है एवं शिक्षा द्वारा समझ विकसित की जाती है जिससे चेतना का आविर्भाव होता है। अतएव बेरोज़गारी एवं शिक्षा को दो भिन्न प्रकार से देखने की आवश्यकता है। बेरोज़गारी की समस्या का वास्तविक हल रोज़गार सृजन में ही निहित है।
यहाँ पर गांधी जी की प्रासंगकिता बढ़ जाती है जिन्होंने ‘चरखा’ को आधुनिक मशीनी सभ्यता के विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया था। वर्तमान समय में भारतीय अर्थव्यवस्था विश्व की सर्वाधिक तीव्र गति से विकास करती अर्थव्यवस्थाओं में शामिल है। देश की तीव्र आर्थिक विकास दर को बनाए रखने के लिये हमें बड़े पैमाने पर कुशल मानव श्रम की आवश्यकता है। वर्तमान कोविड महामारी के दौरान बेरोज़गारी की संख्या में भी वृद्धि हुई है एवं लोगों के समक्ष जीविका का प्रश्न उपस्थित हो गया है। साथ ही इस विपदा के समय कुशल श्रम की आवश्यकता में भी वृद्धि हुई है। लेकिन यह विडंबना ही है कि भारत जैसे युवा देश में कुशल मानव कार्यबल की अत्यधिक कमी है। यह भी देखा गया है कि भारतीय युवा विनिर्माण उद्योगों में कार्य हेतु आवश्यक योग्यता नहीं रखते। ऐसे में यह आवश्यक है कि युवाओं को कौशल प्रशिक्षण एवं रोज़गारपरक शिक्षा दी जाए। इस समस्या के समाधान हेतु ही भारत सरकार द्वारा ‘‘स्किल इंडिया’’ कार्यक्रम चलाया जा रहा है जिसका उद्देश्य युवाओं को रोज़गारपरक कौशल प्रशिक्षण प्रदान करना है।
भारत सरकार द्वारा ‘प्रधानमंत्री कौशल विकास योजना’ के तहत युवाओं में कौशल निर्माण के उद्देश्य से जगह-जगह कौशल विकास केंद्रों की स्थापना की गई है। इन केंद्रों के माध्यम से विभिन्न प्रकार के प्रशिक्षणों द्वारा युवाओं के कौशल का विकास किया जाता है। स्टार्टअप इंडिया, स्टैंडअप इंडिया जैसी योजनाएँ भी इस संदर्भ में उल्लेखनीय है। इन योजनाओं के तहत भारत में प्रौद्योगिकी आधारित उद्योगों को विभिन्न प्रकार के अनुदान तथा कर लाभ प्रदान किये जाते हैं। इन योजनाओं के माध्यम से सरकार का लक्ष्य देश को विनिर्माण गतिविधियों का हब बनाना है, जिसके लिये लाखों की संख्या में कौशल प्रशिक्षित युवाओं की आवश्यकता है। यदि इन योजनाओं को सुचारु रूप से संचालित किया जाए तो न केवल उच्च आर्थिक संवृद्धि दर प्राप्त की जा सकती है बल्कि काफी हद तक बेरोज़गारी की समस्या का भी समाधान किया जा सकता है।
शिक्षा बेरोज़गारी दूर करने का लगभग अकेला माध्यम है, परंतु यह भी सुनिश्चित व विनियमित किया जाना आवश्यक है कि कितने लोगों को गुणवत्तापरक शिक्षा प्रदान की जा रही है तथा शिक्षा प्राप्ति के बाद उनकी रोज़गार तक पहुँच सुनिश्चित हो पाती है या नहीं। शिक्षित बेरोज़गारी की समस्या उत्पन्न होने पर यह स्थिति राष्ट्र व अर्थव्यवस्था के लिये अच्छी नहीं मानी जाती। भारत वर्ममान में शिक्षित बेरोज़गारी की समस्या से ग्रस्त है। ऐसे में आगे बढ़ने के लिये अशिक्षितों को शिक्षा तथा शिक्षितों को उनकी क्षमता के अनुरूप रोज़गार दिलाने हेतु पर्याप्त प्रयास किये जाने चाहिये।
वर्तमान भूमंडलीकरण के दौर में शिक्षा व्यवस्था का स्वरूप कैसा हो तथा आधारभूत संरचनात्मक संसाधनों की प्रकृति कैसी हो? यह एक विवाद का विषय है। देखा जाता है कि सरकारी प्राइमरी स्कूलों में कक्षा पाँच के छात्रों के पास न्यूनतम सामान्य ज्ञान भी नहीं होता। इस तरह से प्राथमिक स्तर पर ही असमान शिक्षा प्रणाली दो भिन्न मानसिक स्तर एवं योग्यता वाले छात्रों को जन्म देती है, जिन्हें रोज़गार प्राप्त करने हेतु भविष्य में एक ही प्रतियोगी परीक्षा में प्रतिस्पर्द्धी बनना पड़ता है। सरकारी हाईस्कूल व इंटर कॉलेजों में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम व उनमें पढ़ाने वाले अध्यापकों की योग्यता भी वर्तमान समय की मांग अनुरूप नहीं है। वहीं दूसरी तरफ सीबीएसई व आईएससी जैसे केंद्रीय बोर्डों से निकलने वाले छात्र अपेक्षित रूप से राज्य बोर्ड के छात्रों से कुशल व भिन्न सोच वाले होते हैं। इस तरह माध्यमिक स्तर पर भी असमान प्रतिभा व योग्यता वाले छात्रों का एक वर्ग तैयार हो जाता है।
ऐसे में आवश्यक है कि प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक एक समान शिक्षा प्रणाली लागू की जाए। स्कूलों के विभिन्न स्तरों को समाप्त कर एक समान स्कूल प्रणाली अगर लागू कर दी जाए तो गरीब व अमीर परिवार दोनों के बच्चों की मानसिक योग्यता एक प्रकार की होगी। शिक्षण संस्थानों में पढ़ाने वाले अध्यापकों के लिये निरंतर मूल्यांकन प्रक्रिया का होना बहुत आवश्यक है। इसके अलावा शिक्षा संस्थानों को अत्याधुनिक संसाधनों जैसे- कंप्यूटर, प्रोजेक्टर, वाई-फाई अरि सुविधाओं से भी सुसज्जित होना चाहिये।
हम पाते हैं कि शिक्षा समाज में आमूलचूल परिवर्तन लाने में सक्षम एक अस्त्र है, परंतु उसे कारगर बनाने हेतु उसका कुशल संचालन तथा लक्ष्य तय करना आवश्यक है। शिक्षा को रोज़गार से जोड़कर बेरोज़गारी एवं अन्य कई सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का हल निकाला जा सकता है।
अक्सर देश में जनसंख्या नियंत्रण के मुद्दे पर प्रारंभ होने वाले वैचारिक विमर्श को कुछ लोगों द्वारा एक हक छीनने जैसी प्रतिक्रिया मिलती है। ऐसा लगता है जैसे उनके निजी जीवन पर हमला किया गया हो। कुछ बुद्धिजीवी वर्ग इसे धार्मिक रंग चढ़ाने से भी पीछे नहीं हटते और ज़रूरी मुद्दों के प्रति जागरूकता को लेकर समाज को भटकाने का प्रयास करते हैं।
अब सबसे पहले यह जानते हैं कि अनियंत्रित जनसंख्या वृद्धि क्या होती है? जनसंख्या में अनियंत्रित वृद्धि एक सापेक्ष शब्द है। देश में उत्पादित खाद्यान्नों या उपलब्ध संसाधनों के परिप्रेक्ष्य में अधिक तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या आर्थिक वृद्धि दर और सामाजिक संतुलन दोनों को नकारात्मक ढंग से प्रभावित करती है। वस्तुत: स्वास्थ्य संबंधी प्रगति दर के कारण घटती मृत्यु दर और स्थायी जन्म दर इस विसंगति के मूल में स्थित है। यद्यपि मानव संसाधन किसी भी देश की प्रगति के लिये आवश्यक है तथापि इसमें कमी या वृद्धि से उस देश का विकास प्रभावित हो जाता है। अतएव एक आदर्श स्थिति के निर्माण हेतु इसमें संतुलन आवश्यक है।
जनसंख्या की दृष्टि से भारत का विश्व में द्वितीय स्थान है एवं जनघनत्व के मामले में भी भारत काफी ऊपर है। भारत में जनसंख्या वृद्धि के कारण भूमि एवं अन्य संसाधनों पर काफी दवाब महसूस किया जाता रहा है। किसी भी देश की जनसंख्या को घटाने या बढ़ाने में मुख्यत: तीन कारक प्रमुख होते हैं- जन्म दर, मृत्यु दर तथा आवास-प्रवास। जन्म दर अधिक एवं मृत्यु दर कम होने पर जनसंख्या में वृद्धि होती है एवं जन्म दर कम हो तथा मृत्यु दर अधिक हो तो जनसंख्या में कमी आती है। इसी प्रकार यदि दूसरे देशों से आने वालों की संख्या विदेश जाने वाले लोगों की संख्या से अधिक होगी तो जनसंख्या में वृद्धि होगी एवं विपरीत स्थिति में जनसंख्या में कमी आएगी।
संयुक्त राष्ट्र की द वर्ल्ड पॉपुलेशन प्रोस्पोट्स 2019 : हाईलाइट्स नामक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2027 तक चीन को पीछे छोड़ते हुए भारत दुनिया का सबसे ज़्यादा आबादी वाला देश बन जाएगा। रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2050 तक भारत की कुल आबादी 1.64 बिलियन के आँकड़े को पार कर जाएगी एवं वैश्विक जनसंख्या में 2 बिलियन हो जाएगी। रिपोर्ट में यह भी रेखांकित किया गया है कि इस अवधि में भारत में युवाओं की बड़ी संख्या मौजूद होगी, लेकिन आवश्यक प्राकृतिक संसाधनों के अभाव में इतनी बड़ी आबादी की आधारभूत आवश्यकताओं जैसे- भोजन, आश्रय, चिकित्सा और शिक्षा को पूरा करना भारत के लिये सबसे बड़ी चुनौती होगी। उच्च प्रजनन दर, बुजुर्गों की बढ़ती संख्या और बढ़ते प्रवासन को जनसंख्या वृद्धि के कुछ प्रमुख कारणों के रूप में बताया गया है।
गौरतलब है कि भारत में जनसंख्या समान रूप से नहीं बढ़ रही है। नवीनतम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS) के अनुसार, संपत्ति तथा धन के आधार पर कुल प्रजनन दर (TFR) में विभिन्नता देखने को मिलती है। यह सबसे निर्धन समूह में 3.2 बच्चे प्रति महिला, मध्य समूह में 2.5 बच्चे प्रति महिला तथा उच्च समूह में 1.5 बच्चे प्रति महिला है। इससे पता चलता है कि समाज के आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों में जनसंख्या वृद्धि अधिक देखने को मिलती है। जनसंख्या वृद्धि की वजह से गरीबी, भूख और कुपोषण की समस्या को प्रभावी ढंग से दूर करने और बेहतर स्वास्थ्य एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में बाधा आती है। इससे सतत् विकास लक्ष्य (SGD) 1, 2, 3 और 4 प्रतिकूल रूप से प्रभावित हो रहे हैं।
जनसंख्या वृद्धि के कारण अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। बेरोज़गारी, पर्यावरण का अवनयन, आवासों की कमी, निम्न जीवन स्तर जैसी समस्याएँ जुड़ी रहती हैं। भारत में गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों की संख्या काफी अधिक है। यह गरीबी और अभाव, अपराध, चोरी, भ्रष्टाचार, कालाबाज़ारी व तस्करी जैसी समस्याओं को जन्म देती हैं।
पर्यावरण की दृष्टि से भी जनसंख्या वृद्धि हानिकारक है। बढ़ती आवश्यकताओं के कारण प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन किया जा रहा है जिसके परिणाम विनाशकारी सिद्ध हो रहे हैं। जनसंख्या वृद्धि को जल-प्रदूषण, वायु प्रदूषण एवं मृदा प्रदूषण के लिये भी दोषी माना जा रहा है।
हालाँकि कुछ लोगों का यह भी मानना है कि मानव संसाधन सबसे बड़ा और प्रमुख संसाधन होता है। इस दृष्टि से भारत की स्थिति चिंताजनक नहीं, बल्कि अग्रणी होनी चाहिये, क्योंकि भारत की विशाल जनसंख्या में युवाओं का प्रतिशत तेज़ी से बढ़ रहा है। इसे देखते हुए सामाजिक व आर्थिक समस्याओं की जड़ जनसंख्या नहीं, अपितु भ्रष्टाचार, संसाधनों का असमान वितरण, गरीबी-अमीरी के बीच बढ़ती खाई एवं विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी के अल्प विकास को माना जा सकता है।
हालाँकि वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि फिलहाल भारत अपनी तेज़ी से बढ़ती जनसंख्या को विकास की सीढ़ी नहीं बना पाया है, इसलिये भारत को अभी जनसंख्या पर नियंत्रण करना बहुत ज़रूरी है। सरकार को जनसंख्या नियंत्रण के साथ-साथ खाद्यान्न की सुनिश्चितता, कृषि को लाभकारी बनाना एवं कीमतों पर नियंत्रण जैसे उपाय करने की आवश्यकता है। वन और जल-संसाधनों का उचित प्रबंधन किया जाना चाहिये। अमूर्त, स्मार्ट सिटी, मेक इन इंडिया और सतत् विकास लक्ष्य जैसी योजनाएँ निश्चित रूप से देश की सामाजिक आधारिक संरचना को बढ़ाने में सहायता करेंगी। जनसंख्या में कमी, अधिकतम समानता, बेहतर पोषण, सार्वभौमिक शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं जैसे सभी लक्ष्यों की प्राप्ति के लिये सरकारों और मज़बूत नागरिक सामाजिक संस्थाओं के बीच बेहतर सामंजस्य की आवश्यकता है। जनसंख्या समस्या समाधान का श्रेष्ठतम तरीका है कि स्वास्थ्य और शिक्षा संबंधी सुविधाओं के प्रसार और गुणवत्ता में तेजी लाई जाए।
शिक्षा है न केवल महिलाओं को सशक्त बनाने के लिये बल्कि प्रजनन क्षमता में गिरावट हेतु भी बहुत महत्त्वपूर्ण। बेहतर शिक्षित महिला परिवार नियोजन के संबंध में सही निर्णय ले सकेगी। जब तक महिलाएँ कार्यबल का हिस्सा नहीं होंगी कोई भी समाज प्रजनन दर में कमी नहीं ला सकता। ऐसे में प्रभावी नीतियाँ बनाकर कार्यबल में महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि की जानी चाहिये। जनसंख्या वृद्धि के मुद्दे को न केवल राष्ट्रीय दृष्टिकोण से बल्कि राज्य के दृष्टिकोण से भी देखना महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि विभिन्न राज्यों को जनसंख्या वृद्धि को रोकने हेतु अलग-अलग कदम उठाने हेतु प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। इन सब प्रयासों से जनसंसाधन के गुणात्मक विकास को प्रोत्साहन मिलेगा और सामाजिक परिवर्तन की दिशा सुनिश्चित हो सकेगी। सरकार सहित राजनेताओं, नीति-निर्मताओं और आम नागरिकों सभी को साथ मिलकर एक ठोस जनसंख्या नीति का निर्माण करना होगा ताकि देश की आर्थिक विकास दर बढ़ती आबादी के साथ तालमेल स्थापित कर सके।
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