इस कविता "हम अनेक किंतु एक" को द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी जी ने लिखा है। यह कविता भारत के विविधता और एकता को दर्शाती है। इसमें बताया गया है कि भले ही भारत में कई प्रकार की भाषाएँ, पहनावे और रीति-रिवाज हों, फिर भी हम सभी भारतीय एक हैं।
पहला प्रसंग:
"हैं कई प्रदेश के,
किंतु एक देश के,
विविध रूप-रंग हैं,
भारत के अंग हैं।"
व्याख्या: इस पंक्ति में कवि यह बता रहे हैं कि भारत में कई राज्य और प्रदेश हैं, लेकिन सभी एक ही देश के हिस्से हैं। यहाँ लोगों के अलग-अलग रूप और रंग हैं, लेकिन सब भारत के अंग हैं।
दूसरा प्रसंग:
"बोलियाँ हजार हैं,
टोलियाँ हजार हैं,
कंठ भी अनेक हैं,
राग भी अनेक हैं,
किंतु गीत-बोल एक,
हम अनेक किंतु एक।"
व्याख्या: यहाँ कवि कह रहे हैं कि भारत में कई भाषाएँ और बोलियाँ हैं, बहुत से समूह और लोग हैं, लेकिन फिर भी हम सब एक ही गान गाते हैं। हम भले ही अलग-अलग बोलते हों, लेकिन हमारा देश एक है।
तीसरा प्रसंग:
"एक मातृभूमि है,
एक पितृभूमि है,
एक भारतीय हम,
चल रहे मिला कदम,
लक्ष्य के समक्ष एक,
हम अनेक किंतु एक।"
व्याख्या: इस पंक्ति में कवि बताते हैं कि हमारी मातृभूमि और पितृभूमि एक ही है - भारत। हम सभी भारतीय हैं और साथ मिलकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। हम सभी एक साथ खड़े हैं, भले ही हम अनेक हों।
इस कविता में कवि द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी ने भारत की विविधता और एकता का सुंदर चित्रण किया है। उन्होंने बताया कि भले ही हमारे देश में अनेक भाषाएँ, रंग, और रीति-रिवाज हों, फिर भी हम सभी एक हैं। यह कविता हमें सिखाती है कि हमें अपनी विविधता का सम्मान करना चाहिए और एकता बनाए रखनी चाहिए।
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