Table of contents |
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परिचय |
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सुभाषितरसं पीत्वा जीवनं सफलं कुरु |
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प्रथमः श्लोकः |
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द्वितीयः श्लोकः |
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तृतीयः श्लोकः |
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चतुर्थः श्लोकः |
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पञ्चमः श्लोकः |
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षष्ठः श्लोकः |
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सप्तमः श्लोकः |
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अष्टमः श्लोकः |
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इस पाठ में हमें उपदेशात्मक श्लोकों के माध्यम से जीवन को सफल बनाने की दिशा में प्रेरणा दी जाती है। यह श्लोक जीवन के आदर्श रूप को प्रस्तुत करते हैं, जिसमें हमें अच्छे कार्य करने की प्रेरणा मिलती है। सभाषितों के माध्यम से जीवन के रहस्यों को समझना और उसे सही दिशा में लगाना, यह इस पाठ का मुख्य उद्देश्य है।
सुभाषितपठनेन जीवननिर्माणाय प्रेरणा
श्लोक: गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारतभूमिभागे।
स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषाः सुरत्वात् ॥ १ ॥
अर्थ: देवता भारतभूमि के गुणगान करते हैं और कहते हैं कि जो इस भूमि पर जन्म लेते हैं, वे धन्य हैं।
भारतभूमि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्ति का मार्ग है, अतः यहाँ देवता भी मनुष्यरूप में जन्म लेना चाहते हैं।
श्लोक: गुणी गुणं वेत्ति न वेत्ति निर्गुणः बली बलं वेत्ति न वेत्ति निर्बलः।
पिको वसन्तस्य गुणं न वायसः करी च सिंहस्य बलं न मूषकः ॥ २ ॥
अर्थ: गुणवान् व्यक्ति दूसरों के गुण जानता है, किन्तु गुणहीन नहीं जानता।
बलवान् दूसरों का बल समझता है, किन्तु निर्बल नहीं समझता।
कोयल वसन्त के गुण को गाती है, किन्तु कौआ नहीं गा सकता।
हाथी सिंह का बल जानता है, किन्तु चूहा नहीं जानता।
श्लोक: भवन्ति नम्रास्तरवः फलोद्गमैः नवाम्बुभिर्दूरविलम्बिनो घनाः।
अनुद्धताः सत्पुरुषाः समृद्धिभिः स्वभाव एवैष परोपकारिणाम् ॥ ३ ॥
अर्थ: फल के भार से वृक्ष झुक जाते हैं, नए जल से मेघ नीचे आते हैं और वर्षा करते हैं।
समृद्धि पाकर भी सज्जन लोग अभिमानहीन रहते हैं, यह परोपकारी का स्वभाव होता है।
श्लोक: यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निघर्षणच्छेदनतापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते कुलेन शीलेन गुणेन कर्मणा ॥ ४ ॥
अर्थ: सोने की शुद्धता घर्षण, काटने, ताप और प्रहार से जाँची जाती है।
उसी तरह पुरुष की परीक्षा कुल, स्वभाव, गुण और कर्म से की जाती है।
श्लोक: अष्टौ गुणाः पुरुषं दीपयन्ति प्रज्ञा च कौल्यं च दमः श्रुतं च।
पराक्रमश्चाबहुभाषिता च दानं यथाशक्ति कृतज्ञता च ॥ ५ ॥
अर्थ: प्रज्ञा, कुलीनता, संयम, शास्त्रज्ञान, पराक्रम, अल्पभाषिता, दान और कृतज्ञता ये आठ गुण पुरुष को सम्मानित करते हैं।
श्लोक: न सा सभा यत्र न सन्ति वृद्धाः वृद्धा न ते ये न वदन्ति धर्मम्।
धर्मः स नो यत्र न सत्यमस्ति सत्यं न तद्यच्छलमभ्युपैति ॥ ६॥
अर्थ: जहाँ वृद्धजन न हों, वह सभा नहीं।
जो वृद्ध धर्म न बोलें, वे वृद्ध नहीं।
जहाँ सत्य न हो, वहाँ धर्म नहीं, और जो छल से मिले, वह सत्य नहीं।
श्लोक: दुर्जनेन समं सख्यं प्रीतिं चापि न कारयेत्।
उष्णो दहति चाङ्गारः शीतः कृष्णायते करम् ॥ ७ ॥
अर्थ: दुष्ट व्यक्ति के साथ मित्रता और प्रीति नहीं करनी चाहिए।
गरम अंगार जलाता है और ठंडा हाथ को काला करता है, उसी तरह दुष्ट हानि पहुँचाता है।
श्लोक: यथा ह्येकेन चक्रेण न रथस्य गतिर्भवेत्।
एवं पुरुषकारेण विना दैवं न सिध्यति ॥ ८ ॥
अर्थ: एक चक्र से रथ नहीं चलता, उसी तरह पुरुषार्थ के बिना भाग्य सफल नहीं होता।
प्रयत्न और भाग्य दोनों मिलकर फल देते हैं।
1. "सुभाषितरसं" का अर्थ क्या है और यह हमारे जीवन में कैसे महत्वपूर्ण है? | ![]() |
2. "जीवनं सफलं कुरु" का क्या अर्थ है? | ![]() |
3. सुभाषितों का प्रयोग किस प्रकार किया जा सकता है? | ![]() |
4. क्या सुभाषितों का अध्ययन करना फायदेमंद है? | ![]() |
5. किस प्रकार के सुभाषित जीवन में प्रेरणा प्रदान कर सकते हैं? | ![]() |