Table of contents |
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लेखक परिचय |
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मुख्य बिंदु |
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पाठ का सार |
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कहानी से शिक्षा |
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शब्दार्थ |
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रामवृक्ष बेनीपुरी का जन्म सन् 1899 में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के बेनीपुर गाँव में हुआ था। उनके माता-पिता का निधन बचपन में ही हो गया था, जिससे उनका बचपन बहुत कठिनाइयों और संघर्षों में बीता। वे पढ़ाई में होशियार थे और 15 साल की उम्र से ही उनकी रचनाएँ पत्र-पत्रिकाओं में छपने लगी थीं। उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया और कई बार जेल भी गए। वे एक अच्छे लेखक और पत्रकार थे। उन्होंने कई पत्रिकाओं का संपादन किया और कहानियाँ, नाटक, यात्रा-वृत्तांत और संस्मरण जैसे कई रूपों में लिखा। उनकी भाषा की शैली इतनी प्रभावशाली थी कि लोग उन्हें "कलम का जादूगर" कहते थे। उनका निधन सन् 1968 में हुआ।
रामवृक्ष बेनीपुरी
बालगोबिन भगत मँझोले कद के गोरे-चिट्टे आदमी थे। उनकी उम्र साठ वर्ष से ऊपर थी और बाल पक गए थे। वे लंबी दाढ़ी नहीं रखते थे और कपड़े बिल्कुल कम पहनते थे। कमर में लंगोटी पहनते और सिर पर कबीरपंथियों की सी कनफटी टोपी। सर्दियों में ऊपर से कंबल ओढ़ लेते। वे गृहस्थ होते हुए भी सही मायनों में साधु थे। माथे पर रामानंदी चंदन का टीका और गले में तुलसी की जड़ों की बेडौल माला पहने रहते। उनका एक बेटा और पतोहू थी। वे कबीर को साहब मानते थे। किसी दूसरे की चीज़ नहीं छूते और न बिना वजह झगड़ा करते। उनके पास खेती-बाड़ी थी तथा साफ-सुथरा मकान था। खेत से जो भी उपज होती, उसे पहले सिर पर लादकर कबीरपंथी मठ ले जाते और प्रसाद स्वरूप जो भी मिलता, उसी से गुज़र-बसर करते।
वे कबीर के पद का बहुत मधुर गायन करते। आषाढ़ के दिनों में जब समूचा गाँव खेतों में काम कर रहा होता तब बालगोबिन पूरा शरीर कीचड़ में लपेटे खेत में रोपनी करते हुए अपने मधुर गानों को गाते। भादो की अंधियारी में उनकी खँजरी बजती थी, जब सारा संसार सोया होता तब उनका संगीत जागता था। कार्तिक मास में उनकी प्रभातियाँ शुरू हो जातीं। वे अहले सुबह नदी-स्नान को जाते और लौटकर पोखर के ऊँचे भिंडे पर अपनी खँजरी लेकर बैठ जाते और अपना गाना शुरू कर देते। गर्मियों में अपने घर के आँगन में आसन जमा बैठते। उनकी संगीत साधना का चरमोत्कर्ष तब देखा गया जिस दिन उनका इकलौता बेटा मरा।
बड़े शौक से उन्होंने अपने बेटे की शादी करवाई थी, बहू भी बड़ी सुशील थी। उन्होंने मरे हुए बेटे को आँगन में चटाई पर लिटाकर एक सफेद कपड़े से ढक रखा था तथा उस पर कुछ फूल बिखेरे थे। सामने बालगोबिन ज़मीन पर आसन जमाए गीत गा रहे थे और बहू को रोने के बजाय उत्सव मनाने को कह रहे थे, चूँकि उनके अनुसार आत्मा परमात्मा के पास चली गई है — यह आनंद की बात है। उन्होंने बेटे की चिता को आग भी बहू से दिलवाई। जैसे ही श्राद्ध की अवधि पूरी हुई, बहू के भाई को बुलाकर उसका दूसरा विवाह करने का आदेश दिया। बहू जाना नहीं चाहती थी, वह साथ रहकर उनकी सेवा करना चाहती थी, परंतु बालगोबिन के आगे उसकी एक न चली। उन्होंने दलील दी कि अगर वह नहीं गई, तो वे घर छोड़कर चले जाएँगे।
बालगोबिन भगत की मृत्यु भी उनके अनुरूप ही हुई। वे हर वर्ष गंगा स्नान को जाते। गंगा तीस कोस दूर पड़ती थी, फिर भी वे पैदल ही जाते। घर से खाकर निकलते तथा वापस आकर ही खाते थे, बाकी दिन उपवास पर रहते। किन्तु अब उनका शरीर बूढ़ा हो चुका था। इस बार लौटे तो तबीयत खराब हो चुकी थी, किन्तु वे नियम-व्रत छोड़ने वाले न थे — वही पुरानी दिनचर्या शुरू कर दी। लोगों ने मना किया, परन्तु वे टस से मस न हुए। एक दिन संध्या में गाना गया, परन्तु भोर में किसी ने गीत नहीं सुना। जाकर देखा तो पता चला — बालगोबिन भगत नहीं रहे।
"बालगोबिन भगत" कहानी हमें सच्चे भक्ति भाव, त्याग, अनुशासन और आत्मिक शांति की प्रेरणा देती है। बालगोबिन भगत ने परिवार और खेती करते हुए भी अपने जीवन को पूरी तरह ईश्वर को समर्पित कर दिया था। उन्होंने कभी झूठ नहीं बोला, किसी का नुकसान नहीं किया और सच्चाई की राह पर डटे रहे। अपने बेटे की मृत्यु पर भी उन्होंने दुख की जगह भक्ति और विश्वास को महत्व दिया। इस कहानी से हमें सिखने को मिलता है कि यदि हमारा मन शुद्ध हो और हमारा विश्वास मजबूत हो, तो हम हर दुख को शांति से सह सकते हैं और सच्चा जीवन जी सकते हैं।
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