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जब भी ऊंचे पहाड़ों और उनमें बने सीढ़ीदार खेतों को देखता हूँ, कानों में भगवत गीता का यह श्लोक गूंजने लगता है: ‘अन्नादभवंति भूतानि पर्जन्याद अन्न संभवः’ , यानि अन्न पर ही जीव पनपते हैं और अन्न वर्षा से पैदा होता है। उन शैल-शिखरों में तो सच ही केवल वर्षा के बूते पर अन्न उपजता है। सीढ़ीदार खेतों में खेती करने वाला किसान भी जैसे सदियों से उस स्थानीय बौड़े पक्षी की तरह आसमान ताकता मन ही मन कहता रहा है, ‘सरग दिदी पांणि-पांणि’। और विडम्बना यह है कि इन्हीं पहाड़ों की गोंद से अनेक नदियाँ निकल-निकल कर, कल-कल करतीं, उछलती-कूदतीं नीचे मैदानों की ओर बहती हैं। पहाड़ की ये ज्यादातर जल-बेटियां पहाड़ों के पैरों को ही प्रणाम करके आगे निकल जाती हैं।
हालांकि, पहाड़ों का अधिकांश हिस्सा प्राचीन काल से ही घने वनों से ढंका रहा है, लेकिन ज्यों-ज्यों मनुष्यों की बसासत बढ़ती गई, वनों का क्षेत्रफल घटता गया। फिर भी, अगर आज की तस्वीर देखें, पूरे उत्तराखण्ड के कुल क्षेत्रफल 56.72 लाख हेक्टेयर में से मात्र 7.41 लाख हेक्टेयर भूमि में ही खेती की जा रही है। इनमें में से करीब 89 प्रतिशत क्षेत्रफल में खेतिहारों के पास छोटी और सीमान्त जोतें हैं। उत्तराखण्ड की खेती योग्य भूमि में से लगभग 3.38 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचित खेती की जा रही है। यह सिंचित क्षेत्र मुख्य रूप से नदी घाटियों में और कुछ एक जगहों पर पहाड़ों के पैताने के चौरस हिस्से में हैं, जहाँ नदियाँ-गधेरों से गूलें खोदकर लोग खेतों तक पानी लाते रहे हैं। लेकिन, पहाड़ों के पैताने से नीचे उतरकर भाबर की बलुई भूमि के पार तराई का नम और समतल इलाका देस के सबसे उर्वर इलाकों में गिना जाता है। देश का पहला कृषि विश्वविद्यालय यहीं 1960 में पंतनगर में खोला गया, जहाँ आधुनिक खेती पनपी और वहाँ पैदा किये गये उन्नत बीजों ने देश-विदेश में नई खेती की अलख जगाई। नोबल विजेता विश्व प्रसिद्द कृषि वैज्ञानिक डॉ. नार्मन बोरलॉग ने तो यहाँ तक कहा कि हरित क्रांति का जन्म तराई की इसी उर्वरा भूमि में हुआ।
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