पाठ का संक्षिप्त परिचय
राही मासूम रजा के उपन्यास टोपी शुक्ला के इस अशं के पात्र अपनपन की तलाश में भटकते हुए नज़र आते हैं। कथानायक टोपी के अपनेपन की पहली खोज पूरी होती है अपने प्यारे दोस्त हफफ की दादी माँ में, अपने घर की नौकरानी सीता में और अपने गाँव की बोली में।
कहते हैं ‘प्रेम न माने जात-पात, भूख न जाने खिचड़ी-भात।’ टोपी को भी इससे कोई अंतर नहीं पडत़ा कि जिसके आचँल की छावँ में बठै कर वह स्नेह का अपार भंडार पाता है, प्रेम के सागर में गोते लगाता है, उसका रहन-सहन क्या है, खान-पान क्या है, रीति-रिवाज क्या है, सामाजिक हैसियत क्या है?
हालाँकि टोपी के पिता एक जाने - माने डाक्टॅर हैं, परिवार भी भरा-पूरा है, घर में किसी चीज़ की कमी नहीं, फिर भीवह लाख मना करने के बावजूद इफ़्फ़न की हवेली की तरफ जरूर चला जाता है। उसे वहाँ जाने से रोकने वाले परिवार के लागों ने कभी इस बात का पता लगाने की कौशिश भी नहीं की कि टोपी जैसा आज्ञाकारी बालक आखिर उनका यह आदेश क्यों नहीं मानता।
पाठ का सार
‘टोपी शुक्ला’ कहानी राही मासूम रजा द्वारा लिखे उपन्यास का एक अंश है। कहानी ‘टोपी’ के इर्द- र्गिद घूमती है। वह इस कहानी का मुखय पात्र है। टौपी के पिता डाक्टर हैं। उनका परिवार भरा-पूरा है। यह परिवार अत्यधिक संस्कारवादी है। घर में किसी भी वस्तु की कमी नहीं है। टोपी का एक दोस्त है - हफफ। पर टोपी हमेशा उसे हफफ। कह कर पुकारता था। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे थे। दोनों के घर अलग-अलग थे। दोनों के मज़हब अलग थे। फिर भी दोनों में गहरी दोस्ती थी। दोनों में प्रेम का रिश्ता था।
कहानी के प्रारंभ में लेखक इफ़्फ़न के विषय में भी बताते हैं क्योंकि पूरी कहानी में इफ़्फ़न का जिक्र बार-बार आता है। लेखक हिंदू-मुस्लिम की बात भी नहीं करते। इस कहानी के दो पात्र हैं- बलभद्र नारायण शुक्ला यानी टोपी आरै सययद ज़रगाम मुर्तुज़ा यानी इफ़्फ़न। इफ़्फ़न के दादा आरै परदादा प्रसिद्ध् मौलवी थे। मरने से पहले उन्होंने वसीयत की कि उनकी लाश कर्बला ले जाए जाए। इफ़्फ़न के पिता ने ऐसी कोई वसीयत नहीं की थी। उन्हें एक हिदुस्तानी कब्रिस्तान में दपफनाया गया। इफ़्फ़न की दादी नमाज़-रोज़े की पाबंद थीं, पर जब उनके इकलौते बेटे को चेचक निकली तो वह चारपाई के पास एक टाँग पर खड़ी रहीं और बोलीं - माता मोरे बच्चे को माफ कर दयो। वे पूरब की रहने वाली थीं इसलिए मरते दम तक पूरबी बोलतीं रहीं। वे गाने-बजाने में रुचि लेती थी। इफ़्फ़न की छठी पर उन्होंने जी भरकर ज़श्न मनाया था। इफ़्फ़न की दादी ज़मीदांर की बेटी थीं। उन्हें दूध-घी बहतु पसंद था, परंतु लखनऊ आकर वह उन सब चीज़ों के लिए तरस गईं। यहाँ आते ही उन्हें मालकिन बन जाना पड़ता था क्योंकी उनके पति हर वक्त मालैवी ही बने रहते थे। इफ़्फ़न की दादी को मरते वक्त अपना घर, आम का पेड़ और अनेक चीज़ें याद आईं। उन्हें बनारस के फातमैन में दफन किया गया। इफ़्फ़न तब चैाथी कक्षा में पढ़ता था आरै टोपी उसका दोस्त बन चुका था। वह अपनी दादी से बहुत प्रेम करता था। दादी उसे तरह-तरह की कहानियाँ सुनाती थीं। टोपी को दादी की भाषा बहुत अच्छी लगती थी, परंतु उसके पिता उसे यह भाषा बोलने नहीं देते थे। वह जब भी इफ़्फ़न के घर जाता, तब दादी के पास बैठने की कोशिश करता था।
डाक्टर भृगु नारायण नीले तले वाले के घर में बीसवीं सदी प्रवेश कर चुकी थी यानी खाना मेज़-कुर्सी पर होने लगा था। टोपी को बैंगन का भुरता अच्छा लगा। वह बोला - अम्मी, जरा बैंगन का भुरता। अम्मी शब्द सुन कर सभी टोपी को देख आने लगे। टोपी की दादी सुभद्रादेवी ने कहा ‘अम्मी’ शब्द इस घर में कैसे आया? टोपी ने उत्तर दिया - ई हम इफ़्फ़न से सीखा है।
रामदुलारी बोली तैं कउनो मियाँ के लडक़ा से दोस्ती कर लिहले बाय का रे? । इस पर सुभद्रा देवी गरज उठीं बहू, तुम से कितनी बार कहा है कि मेरे सामने गवाँरों की यह जबान न बोला करो।, लडा़ई का मोर्चा बदल गया। जब भृगु नारायण को पता चला कि टोपी ने कलेक्टर साहब के लड़के से दोस्ती कर ली है तो वे अपना गुस्सा पी गए। इसके बाद टोपी को बहुत मार पड़ी। फिर भी टोपी ने इफ़्फ़न के घर न जाने की हाँ नहीं भरी। मुन्नी बाबू आरै भरैव उसकी कुटाई का तमाशा देखते रहे। मुन्नी बाबू ने टोपी की शिकायत करते हुए कहा कि ये उस दिन कबाब खा रहा था। यह बात सरासर गलत थी जबकि मुन्नी बाबू स्वयं कबाब खा रहे थे, पर टोपी के पास अपनी सफाई देने का कोई रास्ता नहीं था। अगले दिन टोपी स्कूल गया तब उसने इफ़्फ़न को सारी घटना बताई। दोनों जुगराफिया का घंटा छाडे कर सरक गए। उन्होनें पचंम की दुकान से केले खरीदे। टोपी केवल फल खाता था। टोपी ने कहना शुरू किया कि क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम अपनी दादी बदल लें, पर यह बात इफ़्फ़न को अच्छी नहीं लगी। इफ़्फ़न ने कहा, मेरी दादी कहती हैं कि बूढ़े लोग मर जाते हैं। इतने में नौकर ने आकर सूचना दी कि इफ़्फ़न की दादी मर गई हैं। शाम को जब टोपी इफ़्फ़न के घर गया तो वहाँ सन्नाटा पसरा पडा़ था। वहाँ लोगों की भीड़ जमा थी। टोपी के लिए सारा घर मानो खाली हो चुका था। टोपी ने इफ़्फ़न से कहा तोरी दादी की जगह हमरी दादी मर गई होती तब ठीक भया होता।
टोपी ने दस अक्तूबर सन पैंतालीस को कसम खाई कि अब वह किसी ऐसे लड़के से दोस्ती नहीं करेगा जिसके पिता ऐसी नौकरी करते हों जिसमें बदली होती रहती है। इसी दिन इफ़्फ़न के पिता की बदली मुरादाबाद हो गई। अब टोपी अकेला रह गया। नए कलेक्टर ठाकुर हरिनाम सिह के तीनों लड़कों में से कोई उसका दोस्त न बन सका। डब्बू बहुत छोटा था। बीलू बहुत बड़ा था। गुड्डू केवल अंग्रेज़ी बोलता था। उनमें से किसी ने टोपी को अपने पास फटकने न दिया। माली और चपरासी टोपी को जानते थे इसलिए वह बँगले में घुस गया। उस समय तीनों लड़के क्रिकेट खेल रहे थे। उनके साथ टोपी का झगड़ा हो गया। डब्बू ने अलसेशियन कुत्ते को टोपी के पीछे लगा दिया। टोपी के पटे में सात सइुयाँ लगीं तो उसे होश आया। फिर उसने कभी कलेक्टर के बँगले का रुख नहीं किया। घर में टोपी का दुःख समझने वाला कोई न था। बस घर की नौकरानी सीता उसका दुःख समझती थी। जाड़ों के दिनों में मुन्नी बाबू और भैरव के लिए नया कोट आया। टोपी को मुन्नी बाबू का काटे मिला - काटे नया था, पर था तो उतरन। टोपी ने वह कोट उसी वक्त नोकरानी के बेटे को दे दिया। वह खुश हो गया। टोपी को बिना कौट के जाड़ा सहन करने के लिए मजबरू होना पड़ा। टोपी दादी से झगड़ पड़ा। दादी ने आसमान सिर पर उठा लिया। फिर माँ ने टोपी की बहुत पिटाई की। टोपी दसवीं कक्षा में पहुँच गया। वह दो साल फेल हो गया था। उसे पढ़ने का उचित समय नहीं मिलता था। पिछले दर्जे के छात्रों के साथ बैठना उसे अच्छा नहीं लगता था। अब वह अपने घर के साथ-साथ स्कुल में भी अकेला हो गया था। मास्टर ने भी उस पर ध्यान देना बंद कर दिया। टोपी को भी शर्म आने लगी थी। जब उसके सहपाठी अब्दलु वहीद ने उस पर व्यग्ंय बाण कसा तो टोपी को बहतु बुरा लगा। उसने पास होने की कसम खाई। इसी बीच चुनाव आ गए। डाॅ. भृगु नारायण चुनाव में खड़े हो गए पर उनकी ज़मानत ज़ब्त हो गई। ऐसे वातावरण में टोपी का पास हो जाना ही काफी था। इस पर भी दादी बाले उठी तीसरी बार तीसरे दर्जे में पास हुए हो, भगवान नज़र से बचाए।
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