प्रश्न 1: 'सपनों के से दिन' पाठ में लेखक को स्कूल जाने के नाम से उदासी क्यों आती थी? फिर भी कब और क्यों उसे स्कूल जाना अच्छा लगने लगा ?
उत्तर: 'सपनों के से दिन' पाठ में लेखक गुरदयाल सिंह कहते हैं कि उन्हें और उनके मित्रों को स्कूल जाना कभी अच्छा नहीं लगता था। पहली कच्ची श्रेणी से लेकर चौथी श्रेणी तक केवल कुछ लड़कों को छोड़कर लेखक और उसके साथी रोते-चिल्लाते ही स्कूल जाया करते थे। उनके मन में स्कूल के प्रति एक प्रकार का भय - सा बैठा हुआ था । उन्हें मास्टरों की डाँट फटकार का भय भी सताता रहता था। स्कूल उन्हें नीरस प्रतीत होता था। इसके बावजूद यही स्कूल उन्हें कुछ विशेष अवसरों पर अच्छा भी लगने लगता था । यह अवसर होता था स्काउटिंग के अभ्यास का । तब पीटी साहब अपना कठोर रूप भूलकर लड़कों के हाथों में नीली-पीली झंडियाँ पकड़ा देते थे। वे इन झंडियों को हवा में लहराने को कहते । हवा में लहराती ये झंडिया बड़ी अच्छी लगती थीं। जब पी०टी० साहब 'शाबाश' कहते, तब वे पी०टी० साहब लड़कों को बड़े अच्छे लगते थे। ऐसे अवसर पर लेखक और उनके साथियों को स्कूल जाना अच्छा लगने लगता था।
प्रश्न 2: ‘सपनों के-से दिन’ पाठ के आधार पर बताइए कि बच्चों का खेलकूद में अधिक रुचि लेना अभिभावकों को अप्रिय क्यों लगता था? पढ़ाई के साथ खेलों का छात्र जीवन में क्या महत्त्व है और इससे किन जीवन-मूल्यों की प्रेरणा मिलती है?
उत्तर: ‘सपनों के-से दिन’ पाठ में जिस समय का वर्णन हुआ है उस समय अधिकांश अभिभावक अनपढ़ थे। वे निरक्षर होने के कारण शिक्षा के महत्त्व को नहीं समझते थे। इतना ही नहीं वे खेलकूद को समय आँवाने से अधिक कुछ नहीं मानते थे। अपनी इसी सोच के कारण, बच्चे खेलकूद में जब चोटिल हो जाते और कई जगह छिला पाँव लिए आते तो उन पर रहम करने की जगह पिटाई करते। वे शारीरिक विकास और जीवन-मूल्यों के उन्नयन में खेलों की भूमिका को नहीं समझते थे, इसलिए बच्चों को खेलकूद में रुचि लेना उन्हें अप्रिय लगता था।
छात्रों के लिए पढ़ाई के साथ-साथ खेलों का भी विशेष महत्त्व है। ये खेलकूद एक ओर हमारे शारीरिक और मानसिक विकास के लिए आवश्यक हैं, तो दूसरी ओर सहयोग की भावना, पारस्परिकता, सामूहिकता, मेल-जोल रखने की भावना, हार-जीत को समान समझना, त्याग, प्रेम-सद्भाव जैसे जीवन-मूल्यों को उभारते हैं तथा उन्हें मजबूत बनाते हैं। इन्हीं जीवन-मूल्यों को अपना कर व्यक्ति अच्छा इनसान बनता है।
प्रश्न 3: मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल से निलंबित क्यों कर दिया गया ? निलंबन के औचित्य और उस घटना से उभरने वाले जीवन-मूल्यों पर अपने विचार लिखिए ।
उत्तर: एक दिन मास्टर प्रीतमचंद ने चौथी कक्षा के बच्चों को फ़ारसी का शब्द रूप याद करने के लिए दिया था। जब अगले दिन बच्चे उस शब्द-रूप को नहीं सुना पाए, तो प्रीतमचंद ने गुस्से में भरकर उन्हें मुर्गा बना दिया और बर्बरतापूर्वक उनकी पिटाई करने लगे, ऐसा करते हुए उन्हें हेडमास्टर शर्मा जी ने देख लिया। उनसे उनकी यह बर्बरता सहन नहीं हुई और उन्होंने उन्हें निलंबित कर दिया।
मेरे विचार में हेडमास्टर शर्मा जी वैसे बहुत अच्छे इंसान थे, किंतु इस घटना में उन्हें मास्टर प्रीतमचंद को निलंबित न करके इस बात का अहसास करवाना चाहिए था कि बच्चों के साथ इतनी क्रूरता बिलकुल भी उचित नहीं है । विद्यार्थियों के प्रति उनके इस क्रूर व्यवहार के लिए यदि पहले से ही उन्हें समझाया जाता या चेतावनी दी जाती, तो संभवतः वे ऐसा नहीं करते। ऐसा करने से हेडमास्टर शर्मा जी के क्षमाशीलता, सहानुभूति, उदारता जैसे जीवन मूल्यों का पता चलता और हो सकता है कि उनकी चेतावनी से ही मास्टर प्रीतमचंद सुधर जाते तथा उन्हें अपना सच्चा मार्गदर्शक मानने लगते।
प्रश्न 4: मास्टर प्रीतमचंद से डरने और नफरत करने के चार कारणों पर प्रकाश डालिए।
उत्तर: मास्टर प्रीतमचंद से अधिकतर बच्चे डरते थे और कहीं-न-कहीं उनके मन में पी०टी० सर के लिए घृणा की भावना भी थी। उसके बहुत सारे कारण थे। मास्टर प्रीतमचंद का स्वभाव अत्यंत कठोर था । अनुशासन स्थापित करने के नाम पर वे अत्यंत क्रूर हो जाते थे। बच्चों को शारीरिक दंड देना उनके लिए साधारण बात थी । यदि कोई बच्चा हलका सा हिल भी जाए तो मास्टर जी 'चमड़ी उधेड़ देना' वाला मुहावरा सही सिद्ध कर देते थे। पढ़ाते समय भी उनमें सहनशीलता का सर्वथा अभाव रहता था । पाठ याद न कर पाने की स्थिति में प्रायः छात्र उनकी क्रूरता के शिकार बन जाते थे। बच्चों के मन में उनके प्रति भय बैठ गया था। छोटे बच्चे तो उनकी कठोरता को झेल ही नहीं पाते थे । वे बच्चों को यमराज जैसे लगते थे। उनके इसी क्रूरतापूर्ण व्यवहार के कारण हेडमास्टर साहब ने उन्हें नौकरी से भी निकलवा दिया था । उनकी यह स्वभावगत थी कि वे न तो अपनी गलती को मानते थे और न ही उसके लिए क्षमा माँगने जाते थे। बच्चों के प्रति त्रुटि स्नेह और प्रेम का उनमें सर्वथा अभाव था। उनकी शाबाशी भी बस पी०टी० परेड के समय ही मिल पाती थी, अन्यथा वे छात्रों को प्रोत्साहित नहीं करते थे।
प्रश्न 5: ‘सपनों के-से दिन’ पाठ में हेडमास्टर शर्मा जी की, बच्चों को मारने-पीटने वाले अध्यापकों के प्रति क्या धारणा थी? जीवन-मूल्यों के संदर्भ में उसके औचित्य पर अपने विचार लिखिए।
उत्तर: ‘सपनों के-से दिन’ पाठ में वर्णित हेडमास्टर शर्मा जी बच्चों से प्यार करते थे। वे बच्चों को प्रेम, अपनत्व, पुरस्कार आदि के माध्यम से बच्चों को अनुशासित रखते हुए उन्हें पढ़ाने के पक्षधर थे। वे गलती करने वाले छात्र की भी पिटाई करने के पक्षधर न थे। जो अध्यापक बच्चों को मारने-पीटने या शारीरिक दंड देने का तरीका अपनाते थे, उनके प्रति उनकी धारणा अच्छी न थी। ऐसे अध्यापकों के विरुद्ध वे कठोर कदम उठाते थे। ऐसे अध्यापकों को स्कूल में आने से रोकने के लिए वे उनके निलंबन तक की सिफ़ारिश कर देते थे।
हेडमास्टर शर्मा जी का ऐसा करना पूरी तरह उचित था, क्योंकि बच्चों के मन से शिक्षा का भय निकालने के लिए मारपीट जैसे तरीके को बच्चों से कोसों दूर रखा जाना चाहिए। मारपीट के भय से अनेक बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं तो बहुत से डरे-सहमें कक्षा में बैठे रहते हैं और पढ़ाई के नाम पर किसी तरह दिन बिताते हैं। ऐसे बच्चों के मन में अध्यापकों के सम्मान के नाम पर घृणा भर जाती है।
प्रश्न 6: मास्टर प्रीतमचंद को स्कूल से क्यों निलंबित कर दिया गया? निलंबन के औचित्य और उस घटना से उभरने वाले जीवन-मूल्यों पर विचार कीजिए।
उत्तर: मास्टर प्रीतमचंद सख्त अध्यापक थे। वे छात्रों की जरा-सी गलती देखते ही उनकी पिटाई कर देते थे। वे छात्रों को फ़ारसी पढ़ाते थे। छात्रों को पढ़ाते हुए अभी एक सप्ताह भी न बीता था कि प्रीतमचंद ने उन्हें शब्द रूप याद करके आने को कहा। अगले दिन जब कोई भी छात्र शब्द रूप न सुना सका तो उन्होंने सभी को मुरगा बनवा दिया और पीठ ऊँची करके खड़े होने के लिए कहा। इसी समय हेडमास्टर साहब वहाँ आ गए। उन्होंने प्रीतमचंद को ऐसा करने से तुरंत रोकने के लिए कहा और उन्हें निलंबित कर दिया।
प्रीतमचंद का निलंबन उचित ही था, क्योंकि बच्चों को इस तरह फ़ारसी क्या कोई भी विषय नहीं पढ़ाया जा सकता है। शारीरिक दंड देने से बच्चों को ज्ञान नहीं दिया जा सकता है। इससे बच्चे दब्बू हो जाते हैं। उनके मन में अध्यापकों और शिक्षा के प्रति भय समा जाता है। इससे पढ़ाई में उनकी रुचि समाप्त हो जाती है।
प्रश्न 7: 'सपनों के से दिन' पाठ के आधार पर लिखिए कि अभिभावकों को बच्चों की पढ़ाई में रुचि क्यों नहीं थी? पढ़ाई को व्यर्थ समझने में उनके क्या तर्क थे? स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर: 'सपनों के से दिन' पाठ में लेखक ने बताया कि उस समय अधिकांश अभिभावकों को बच्चों की पढ़ाई में कोई विशेष रुचि नहीं थी क्योंकि ज़्यादातर परिवार आर्थिक दृष्टि से विपन्न थे । वे पढ़ाई पर ज़्यादा खर्च नहीं कर सकते थे। उस समय में कॉपियों, पैंसिलों, होल्डरों और स्याही पर साल भर में एक-दो रुपए खर्च होते थे, लेकिन एक रुपए में एक सेर घी या एक मन गंदम (गेहूँ) आ जाता था इसलिए गरीब घरों के लोग पढ़ाई के स्थान पर बच्चों को अपने साथ काम करवाने लग जाते थे। साथ ही वे लोग यह भी सोचते थे कि स्कूल की पढ़ाई धीमी है और जीवन में किसी काम नहीं आएगी। इस पढ़ाई से तो अच्छा यही होगा कि वे अपने बच्चों को हिसाब-किताब सिखाकर मुनीमगिरी करवाएँ या फिर बच्चे खेती या दुकान में उनका हाथ बँटवाएँ।
प्रश्न 8: लेखक ने अपने विद्यालय को हरा-भरा बनाने के लिए किए गए प्रयासों का वर्णन किया है। इससे आपको क्या प्रेरणा मिलती है?
उत्तर: लेखक के विद्यालय में अंदर जाने के रास्ते के दोनों ओर अलियार के बडे ढंग से कटे-छाँटे झाड उगे थे। उसे उनके नीम जैसे पत्तों की गंध अच्छी लगती थी। इसके अलावा उन दिनों क्यारियों में कई तरह के फूल उगाए जाते थे। इनमें गुलाब, गेंदा और मोतिया की दूध-सी कलियाँ होती थीं जिनकी महक बच्चों को आकर्षित करती थी। ये फूलदार पौधे विद्यालय की सुंदरता में वृद्धि करते थे। इससे हमें यह प्रेरणा मिलती है कि हमें भी अपने विद्यालय को स्वच्छ बनाते हुए हरा-भरा बनाने का प्रयास करना चाहिए। हमें तरह-तरह के पौधे लगाकर उनकी देखभाल करना चाहिए और विद्यालय को हरा-भरा बनाने में अपना योगदान देना चाहिए।
प्रश्न 9: आज की शिक्षा-व्यवस्था में विद्यार्थियों को अनुशासित बनाए रखने के लिए क्या तरीके निर्धारित हैं? 'सपनों के से दिन' पाठ में अपनाई गई विधियाँ आज के संदर्भ में कहाँ तक उचित लगती हैं? जीवन-मूल्यों के आलोक में अपने विचार प्रस्तुत कीजिए ।
उत्तर: 'सपनों के से दिन' पाठ के अनुसार विद्यार्थियों को अनुशासन में रखने के लिए उन्हें डराया जाता था। छात्र पी०टी० के अध्यापक से बहुत डरते थे । वे छात्रों को बुरी तरह मारते-पीटते थे उनकी डाँट सुनकर छात्र थर-थर काँपते थे । उनके व्यवहार को दिखाने के लिए पाठ में 'खाल खींचने' जैसे मुहावरे का प्रयोग किया गया है उस समय की शिक्षा पद्धति में डाँट फटकार की बहुत अहमियत थी । शिक्षा भय की वस्तु समझी जाती थी । मुर्गा बनाना, थप्पड़ मारना, झिड़कना और डंडे मारना, उस समय ऐसे कठोर दंड थे कि जिनसे बालकों को न केवल शारीरिक कष्ट होता था, बल्कि उन्हें मानसिक यंत्रणा भी दी जाती थी ।
इन सबसे हटकर वर्तमान शिक्षा प्रणाली में इस प्रकार के दंड का कोई प्रावधान नहीं है। अब छात्रों को मारना या पीटना कानूनी अपराध है । आजकल बच्चों को सुधारने के लिए मनोवैज्ञानिक तरीके अपनाए जाते हैं। इन तरीकों से उनके अंदर अनुशासन, आदर-भाव, सहयोग, परस्पर प्रेम, कर्मनिष्ठा आदि गुणों का विकास होता है । उत्कृष्ट प्रदर्शन करने वाले बच्चों को पुरस्कार दिए जाते हैं। जो अपने आप में शिक्षा के क्षेत्र में उठाया गया एक उत्तम कदम है। यूँ भी मारने-पीटने से बच्चों के मन में शिक्षा के प्रति अरुचि ही पैदा होती है। तनाव मुक्त एवं शांत सौहार्दपूर्ण वातावरण में दी गई शिक्षा अधिक जीवनोपयोगी सिद्ध होगी।
प्रश्न 10: लेखक और उसके साथियों द्वारा गरमी की छुट्टियाँ बिताने का ढंग आजकल के बच्चों द्वारा बिताई जाने वाली छुट्टियों से किस तरह अलग होता था?
उत्तर: लेखक और उसके साथी गरमी की छुट्टियाँ खेलकूद कर बिताते थे। वे घर से कुछ दूर तालाब पर चले जाते, कपड़े उतार पानी में कूद जाते और कुछ समय बाद, भागते हुए एक रेतीले टीले पर जाकर, रेत के ऊपर लेटने लगते। गीले शरीर को गरम रेत से खूब लथपथ कर उसी तरह भागते, किसी ऊँची जगह से तालाब में छलाँग लगा देते। रेत को गंदले पानी से साफ़ कर फिर टीले की ओर भाग जाते।
याद नहीं कि ऐसा, पाँच-दस बार करते या पंद्रह-बीस बार करते हुए आनंदित होते। आजकल के बच्चों द्वारा ग्रीष्मावकाश पूरी तरह अलग ढंग से बिताया जाता है। अब तालाब न रहने से वहाँ नहाने का आनंद नहीं लिया जा सकता। बच्चे घर में रहकर लूडो, चेस, वीडियो गेम, कंप्यूटर पर गेम जैसे इंडोर गेम खेलते हैं। वे टीवी पर कार्टून और फ़िल्में देखकर अपना समय बिताते हैं। कुछ बच्चे माता-पिता के साथ ठंडे स्थानों या पर्वतीय स्थानों की सैर के लिए जाते हैं।
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