प्रश्न.1. ग्रामीण बंगाल के बहुत से इलाकों में जोतदार एक ताकतवर हस्ती क्यों था?
ग्रामीण बंगाल के बहुत से इलाकों में जोतदार एक ताकतवर हस्ती निम्नलिखित कारणों से था:
(i) 18 वीं शताब्दी के अंत में एक ओर जहाँ कई जमींदार आर्थिक दृष्टि से संकट की स्थिति से गुजर रहे थे, वहीं दूसरी ओर जोतदार धनी किसानों के रूप में अनेक गाँवों में अपनी स्थिति मजबूत किए हुए थे।
(ii) 19वीं शताब्दी के शुरू के वर्षों के आते-आते इन जोतदारों ने जमीन के बड़े-बड़े भूखंडों को प्राप्त कर लिया था।
(iii) ये जोतदार प्रायः अपनी जमीन का बहुत बड़ा भाग बटाईदारों के माध्यम से जुतवाते थे। वे बटाईदार एक तरह से जोतदारों के अधीन होते थे तथा उपज के बाद कुल पैदावार का आधा भाग जोतदारों को दे देते थे।
(iv) कई गाँवों में जोतदारों की ताकत जमींदारों की ताकत की तुलना में अधिक प्रभावशाली थी। ये जोतदार जमींदारों की तरह जमीनों से दूर शहरों में नहीं बल्कि गाँव में रहते थे और इस तरह गाँवों के गरीब ग्रामीणों के काफी बड़े वर्ग पर सीधा नियंत्रण करते थे।
(v) जमींदारों द्वारा लगान बढ़ाने की कोशिश करने पर ये जोतदार उन जमींदारों का घोर विरोध करते थे तथा रैयत (काश्तकार या जमीन जोतने वाले) जोतदारों के पक्ष में होते थे। रैयत जमींदारों का जमा, लगान इन्हीं जोतदारों के इशारे पर देर से भुगतान करते थे। इस तरह जमींदारों की स्थिति खस्ता हो जाती थी। उनकी जमींदारियों की नीलामी होती थी तो जोतदार | अपने धन और बटाईदारों के सहयोग से जमीनों को खरीद लेते थे।
प्रश्न.2. जमींदार लोग अपनी जमींदारियों पर किस प्रकार नियंत्रण बनाए रखते थे?
जमींदार लोग अपनी जमींदारियों पर निम्नलिखित ढंग से नियंत्रण बनाए रखते थे:
(i) जमींदारों ने राजस्व की विशाल धन राशि न चुकाने की स्थिति में कंपनी राज से अपनी जमींदारियों को बचाने के लिए या | संभावित नीलामी की समस्या से निबटने के लिए कई रणनीतियाँ बनाई। इन्हीं रणनीतियों में एक रणनीति फर्जी बिक्री की | तकनीक थी।
(ii) फर्जी बिक्री एक ऐसी तरकीब थी जिसमें कई तरह के हथकंडे अपनाए जाते थे। उदाहरण के लिए, बर्दवान के राजा ने पहले तो अपनी जमींदारी का कुछ हिस्सा अपनी माता को दे दिया, क्योंकि कंपनी ने यह निर्णय ले रखा था कि स्त्रियों की संपत्तियों को नहीं छीना जाएगा।
(iii) जमींदार ने नीलामी की प्रक्रिया में अपने एजेंटों के माध्यम से जोड़-तोड़ किया। कंपनी की राजस्व माँग को कई बार जान-बूझकर रोक लिया गया और भुगतान न की गई बकाया राशि बढ़ाई गई। जब भू-संपदा का कुछ हिस्सा नीलाम किया गया तो जमींदार के आदमियों ने ही अन्य खरीददारों के मुकाबले ऊँची-ऊँची बोलियाँ लगाकर संपत्ति को खरीद लिया। आगे। चलकर उन्होंने खरीद की राशि को अदा करने से इनकार कर दिया, इसलिए उस भू-संपदा को फिर से बेचना पड़ा। एक बार फिर जमींदार के एजेंटों ने ही उसे खरीद लिया और फिर एक बार खरीद की रकम नहीं अदा की गई और एक बार फिर नीलामी करनी पड़ी। यह प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती रही और अंततोगत्वा राज और नीलामी के समय बोली लगाने वाले थक गए। जब किसी ने भी बोली नहीं लगाई तो उस संपदा को नीची कीमत पर फिर जमींदार को ही बेचना पड़ा।
(iv) जमींदार कभी भी राजस्व की पूरी माँग नहीं अदा करता था। इस प्रकार कंपनी कभी-कभार ही किसी मामले में इकट्ठी हुई बकाया राजस्व की राशियों को वसूल कर पाती थी।
(v) जमींदार लोग और भी कई तरीकों से अपनी जमींदारियों को छिनने से बचा लेते थे। जब कोई बाहरी व्यक्ति नीलामी में कोई जमीन खरीद लेता था, तो उसे जमीन पर कब्जा नहीं मिलता था। कभी-कभी पुराने जमींदार अपने लठैतों की मदद से नए खरीददार के लोगों को मार-पीटकर भगा देते थे और कभी-कभी तो पुराने रैयत बाहरी लोगों को यानी नए खरीददार के लोगों को जमीन में घुसने ही नहीं देते थे। वे अपने आपको पुराने जमींदार से जुड़ा हुआ महसूस करते थे और उसी के प्रति वफादार बने रहते थे और यह मानते थे कि पुराना जमींदार ही उनका अन्नदाता है और वे उसकी प्रजा हैं। जमींदारी की बिक्री से उनके तादात्म्य और गौरव को धक्का पहुँचता था, इसलिए जमींदार आसानी | से विस्थापित नहीं किए जा सकते थे।
(vi) 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में कीमतों में मंदी की स्थिति समाप्त हो गई। इसलिए जो जमींदार 18वीं शताब्दी के अंत के दशक की तकलीफों को भूलने में सफल हो गए, उन्होंने अपनी सत्ता को सुदृढ़ बना लिया। राजस्व के भुगतान संबंधी नियमों को भी कुछ लचीला बना दिया गया। फलस्वरूप गाँवों पर जमींदार की सत्ता और अधिक मजबूत हो गई।
प्रश्न.3. पहाडिया लोगों ने बाहरी लोगों के आगमन पर कैसी प्रतिक्रिया दशई?
18वीं शताब्दी में पहाड़ी लोगों को पहाड़िया कहा जाता था। वे राजमहल की पहाड़ियों के इर्द-गिर्द रहा करते थे। वे जंगल की उपजे से अपना गुजर-बसर करते थे और झूम खेती किया करते थे। वे जंगल की छोटे-से हिस्से में झाड़ियों को काटकर और घास-फूस को जलाकर जमीन साफ कर लेते थे और राख की पोटाश से उपजाऊ बनी जमीन पर अपने खाने के लिए विभिन्न प्रकार की दालें और ज्वार-बाजरा पैदा करते थे। पहाड़ियों को अपना मूल आधार बनाकर पहाड़ी लोग वहाँ रहते थे। वे अपने क्षेत्र में बाहरी लोगों के प्रवेश का प्रतिरोध करते थे। उनके मुखिया लोग अपने समूह में एकता बनाए रखते थे, आपसी लड़ाई-झगड़े निपटा देते थे और मैदानी लोगों तथा अन्य जातियों से लड़ाई होने पर अपनी जनजाति का नेतृत्व करते थे।
इन पहाड़ियों को अपना मूलाधार बनाकर, पहाड़िया लोग बराबर उन मैदानों पर आक्रमण करते रहते थे जहाँ एक स्थान पर बस कर किसान अपनी खेती-बाड़ी किया करते थे। पहाड़ियों द्वारा ये आक्रमण अधिकतर अपने आपको विशेष रूप से अकाल या अभाव के वर्षों में जीवित रखने के लिए किए जाते थे। साथ-साथ यह मैदानों में बसे हुए समुदायों पर अपनी ताकत दिखलाने का भी एक तरीका था। इसके अलावा, ऐसे आक्रमण बाहरी लोगों के साथ अपने राजनीतिक संबंध बनाने के लिए भी किए | जाते थे। मैदानों में रहने वाले जमींदारों को अकसर इन पहाड़ी मुखियाओं को नियमित रूप से खिराज देकर उनसे शांति खरीदनी पड़ती थी। इसी प्रकार, व्यापारी लोग भी इन पहाड़ियों द्वारा नियंत्रित रास्तों का इस्तेमाल करने की अनुमति पत करने हेतु उन्हें कुछ पथ-कर दिया करते थे।
जब ऐसा पथ-कर पहाड़िया मुखियाओं की मिल जाता था तो वे व्यापारियों की रक्षा करते थे और यह भी आश्वस्त करते थे कि कोई भी उनके माल को नहीं लूटेगा। इस प्रकार कुछ ले-देकर की गई शांति संधि अधिक लंबे समय तक नहीं चली। यह 18वीं शताब्दी के अंतिम दशकों में उस समय भंग हो गई जब स्थिर खेती के क्षेत्र की सीमाएँ आक्रामक रीति से पूर्वी भारत में बढ़ाई जाने लगीं। ज्यों-ज्यों स्थायी कृषि का विस्तार होता गया, जंगलों तथा चारागाहों का क्षेत्र संकुचित होता गया। इससे पहाड़ी लोगों तथा स्थायी खेतीहरों के बीच झगड़ा तेज हो गया। पहाड़ी लोग पहले से अधिक नियमित रूप से बसे हुए गाँवों पर आक्रमण करने लगे और ग्रामवासियों से अनाज और पशु छीन-झपटकर ले जाने लगे। 1770 के दशक में शांति स्थापना की कोशिश की गई जिसके अनुसार पहाड़िया मुखियाओं को अंग्रेजों द्वारा एक वार्षिक भत्ता दिया जाना था और बदले में उन्हें अपने आदमियों का चाल-चलन ठीक रखने की जिम्मेदारी लेनी पड़ती थी। ज्यादातर मुखियाओं ने भत्ता लेने से इनकार कर दिया। और जिन्होंने इसे स्वीकार किया, उनमें से अधिकांश अपने समुदाय में अपनी सत्ता खो बैठे। औपनिवेशिक सरकार के वेतनभोगी बन जाने से उन्हें अधीनस्थ कर्मचारी या वैतनिक मुखिया माना जाने लगा।
प्रश्न.4. संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह क्यों किया?
संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह निम्नलिखित कारणों से किया
(i) संथाल अपनी खानाबदोश जिंदगी को छोड़ जंगलों के अंदरूनी हिस्सों में एक जगह बस गए और बाजार के लिए कई तरह के वाणिज्यिक फसलों की खेती करने लगे और व्यापारियों तथा साहूकारों के साथ लेन-देन करने लगे थे। किंतु संथालों ने जल्दी ही समझ लिया कि उन्होंने जिस भूमि पर खेती शुरू की थी, वह उनके हाथों से निकलती जा रही है क्योंकि संथालों ने जिस जमीन को साफ करके खेती शुरू की थी, उस पर सरकार भारी कर लगा रही थी साहूकार लोग ऊँची दर पर ब्याज लगा रहे थे और कर्ज अदा न किए जाने की स्थिति में जमीन पर ही कब्जा कर रहे थे। जमींदार लोग भी दामिन-ए-कोह के इलाके पर अपने नियंत्रण का दावा कर रहे थे।
(ii) 1850 के दशक तक संथाल लोग यह महसूस करने लगे थे कि अपने लिए एक ऐसे आदर्श संसार का निर्माण करना बहुत जरूरी है जहाँ उनका अपना शासन हो। अत: जमींदारों, साहूकारों तथा औपनिवेशिक राज के विरुद्ध विद्रोह करने का समय अब आ गया है। 1855-56 के संथाल विद्रोह के बाद संथाल परगना का निर्माण कर दिया गया, जिसके लिए 5500 वर्गमील का क्षेत्र भागलपुर और वीरभूम जिलों में से लिया गया।
(iii) ब्रिटिश सरकार ने संथालों के असंतोष को शांत करने के लिए एक नया परगना बनाया और कुछ विशेष तरह के कानून लागू करके उन्हें संतुष्ट करने की असफल कोशिश की। अपने एक अधिकारी बुकानन को उनके बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त करने के लिए विस्तृत आदिवासी क्षेत्रों का सर्वे करने का कार्य सौंपा। कंपनी मूलतः एक मुनाफा कमाने वाली आर्थिक इकाई थी। जब कंपनी ने अपनी शक्ति को सुदृढ़ बना लिया और अपने व्यवसाय का विकास कर लिया तो वह उन प्राकृतिक संसाध नों की खोज में जुट गई जिन पर कब्जा करके उनका मनचाहा उपयोग कर सकती थी। फलतः उसने अपने परिदृश्यों तथा राजस्व स्रोतों का सर्वेक्षण किया, खोज-यात्राएँ आयोजित कीं और जानकारी इकट्ठी करने के लिए भू-विज्ञानियों, भूगोलवेत्ताओं, वनस्पति विज्ञानियों और चिकित्सकों को भेजा।
(iv) अंग्रेज अधिकारियों ने संथालों के नियंत्रित प्रदेशों और भू-भागों में मूल्यवान पत्थरों और खनिजों को खोजने की कोशिश की। उन्होंने लौह-खनिज, अभ्रक, ग्रेनाइट और साल्टपीटर से संबंधित सभी स्थानों की जानकारी प्राप्त कर ली। यही नहीं, उन्होंने बड़ी चालाकी के साथ नमक बनाने और लोहा निकालने की संथालों और स्थानीय पद्धतियों का निरीक्षण किया। इन सबसे संथाल बहुत चिढ़ गए।
(v) अंग्रेज कम-से-कम समय में, कम-से-कम मेहनत करके ज्यादा-से-ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों, खनिजों, वन-उत्पादों आदि | का दोहन करना चाहते थे। कुछ अंग्रेज़ संथालों की जीवन-शैली की कटु आलोचना करते थे। वे पर्यावरण संरक्षण की चिंता न करके वनों को काटकर कृषि विस्तार के समर्थक थे। ऐसा करने से संथालों को मिलने वाले स्वच्छ प्राकृतिक वातावरण, शिकार स्थलों, चारागाहों, वन में रह रहे पशुओं और जीव-जंतुओं तथा उत्पादों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता था। इन सबके कारण संथालों ने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध विद्रोह किए।
प्रश्न.5. वक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति ऋद्ध क्यों थे?
दक्कन के रैयत ऋणदाताओं के प्रति निम्नलिखित कारणों से ऋद्ध थे:
(i) दक्कन में एक ओर ऋण का स्रोत सूख गया, वहीं दूसरी ओर राजस्व की माँग बढ़ा दी गई। कंपनी उपज का लगभग 50 | प्रतिशत रैयत से ले लेती थी। रैयत उस हालत में नहीं थे कि इस बढ़ी माँग को पूरा कर सकें।
(ii) 1832 के बाद कृषि उत्पादों की कीमतों में तेज़ी से गिरावट आई और लगभग डेढ़ दशक तक इस स्थिति में कोई सुधार नहीं आया। इसके परिणामस्वरूप किसानों की आय में और भी गिरावट आई। इस दौरान 1832-34 के वर्षों में देहाती इलाके अकाल की चपेट में आकर बरबाद हो गए। दक्कन का एक-तिहाई पशुधन मौत के मुँह में चला गया और आधी मानव जनसंख्या भी काल का ग्रास बन गई। और जो बचे, उनके पास भी उस संकट का सामना करने के लिए खाद्यान्न नहीं था। राजस्व की बकाया राशियाँ आसमान को छुने लगीं। ऐसे समय किसान लोग ऋणदाता से पैसा उधार लेकर राजस्व चुकाने लगे। लेकिन यदि रैयत ने एक बार ऋण ले लिया तो उसे वापस करना उनके लिए कठिन हो गया। कर्ज बढ़ता गया, उधार की राशियाँ बकाया रहती गईं और ऋणदाताओं पर किसानों की निर्भरता बढ़ती गई।
(iii) महाराष्ट्र में निर्यात व्यापारी और साहूकार अब दीर्घावधिक ऋण देने के लिए उत्सुक नहीं रहे। क्योंकि उन्होंने यह देख लिया था कि भारतीय कपास की माँग घटती जा रही है और कपास की कीमतों में भी गिरावट आ रही है। इसलिए उन्होंने अपना कार्य-व्यवहार बंद करने, किसानों को अग्रिम राशियाँ प्रतिबंधित करने और बकाया ऋणों को वापिस माँगने का निर्णय लिया। एक ओर तो ऋण का स्रोत सूख गया, वहीं दूसरी ओर राजस्व की माँग बढ़ा दी गई। पहला राजस्व बंदोबस्त 1820 और 1830 के दशकों में किया गया था। अब अगला बंदोबस्त करने का समय आ गया था और इस नए बंदोबस्त में माँग को, नाटकीय ढंग से 50 से 100 प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया।
(iv) ऋणदाता द्वारा ऋण देने से इनकार किए जाने पर रैयत समुदाय को बहुत गुस्सा आया। वे इस बात के लिए ही क्रुद्ध नहीं थे कि वे ऋण के गर्त में गहरे-से-गहरे डूबे जा रहे थे अथवा वे अपने जीवने को बचाने के लिए ऋणदाता पर पूर्ण रूप से निर्भर थे, बल्कि वे इस बात से ज्यादा नाराज थे कि ऋणदाता वर्ग इतना संवेदनहीन हो गया है कि वह उनकी हालत पर कोई तरस नहीं खा रहा है। ऋणदाता लोग देहात के प्रथागत मानकों यानी रूढ़ि–रिवाजों का भी उल्लंघन कर रहे थे।
प्रश्न.6. इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद बहुत-सी जमींदारियाँ क्यों नीलाम कर दी गईं?
गवर्नर जनरल लॉर्ड कार्नवालिस ने 1793 ई० में भू-राजस्व वसूली की एक नयी पद्धति प्रचलित की जिसे ‘स्थायी बंदोबस्त’, ‘ज़मींदारी प्रथा’ अथवा ‘इस्तमरारी बंदोबस्त’ के नाम से जाना जाता है। इस बंदोबस्त के अंतर्गत ज़मींदारों द्वारा सरकार को दिया जाने वाला वार्षिक लगान स्थायी रूप से निश्चित कर दिया गया। जमींदार द्वारा लगान की निर्धारित धनराशि का भुगतान न किए जाने पर सरकार उसकी भूमि का कुछ भाग बेचकर लगान की वसूली कर सकती थी। इस्तमरारी बंदोबस्त के बाद बहुत-सी ज़मींदारियाँ नीलाम की जाने लगीं।
इसके अनेक कारण थे:
(i) कंपनी द्वारा निर्धारित प्रारंभिक राजस्व माँगें अत्यधिक ऊँची थीं। स्थायी अथवा इस्तमरारी बंदोबस्त के अंतर्गत राज्य की राजस्व माँग का निर्धारण स्थायी रूप से किया गया था। इसका तात्पर्य था कि आगामी समय में कृषि में विस्तार तथा मूल्यों में होने वाली वृद्धि का कोई अतिरिक्त लाभ कंपनी को नहीं मिलने वाला था। अतः इस प्रत्याशित हानि को कम-से-कम करने के लिए कंपनी राजस्व की माँग को ऊँचे स्तर पर रखना चाहती थी। ब्रिटिश अधिकारियों का विचार था कि कृषि उत्पादन एवं मूल्यों में होने वाली वृद्धि के परिणामस्वरूप ज़मींदारों पर धीरे-धीरे राजस्व की माँग का बोझ कम होता जाएगा और उन्हें राजस्व भुगतान में कठिनता का सामना नहीं करना पड़ेगा। किंतु ऐसा संभव नहीं हो सका। परिणामस्वरूप ज़मींदारों के लिए राजस्व-राशि का भुगतान करना कठिन हो गया।
(ii) उल्लेखनीय है कि भू-राजस्व की ऊँची माँग का निर्धारण 1790 के दशक में किया गया था। इस काल में कृषि उत्पादों के मूल्य कम थे जिसके परिणामस्वरूप रैयत (किसानों) के लिए जमींदारों को उनकी देय राशि का भुगतान करना कठिन था। इस प्रकार जमींदार किसानों से राजस्व इकट्ठा नहीं कर पाता था और कंपनी को अपनी निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थ हो जाता था।
(iii) राजस्व की माँग में परिवर्तन नहीं किया जा सकता था। उत्पादन अधिक हो या बहुत कम, राजस्व का भुगतान ठीक समय पर करना होता था। इस संबंध में सूर्यास्त कानून का अनुसरण किया जाता था। इसका तात्पर्य था कि यदि निश्चित तिथि को सूर्य छिपने तक भुगतान नहीं किया जाता था तो ज़मींदारियों को नीलाम किया जा सकता था।
(iv) इस्तमरारी अथवा स्थायी बंदोबस्त के अंतर्गत ज़मींदारों के अनेक विशेषाधिकारों को समाप्त कर दिया गया था। उनकी सैनिक टुकड़ियों को भंग कर दिया गया; उनके सीमाशुल्क वसूल करने के अधिकार को समाप्त कर दिया गया था। उन्हें उनकी स्थानीय न्याय तथा स्थानीय पुलिस की व्यवस्था करने की शक्ति से भी वंचित कर दिया गया। परिणामस्वरूप अब ज़मींदार शक्ति प्रयोग द्वारा राजस्व वसूली नहीं कर सकते थे।
(v) राजस्व वसूली के समय ज़मींदार का अधिकारी जिसे सामान्य रूप से ‘अमृला’ कहा जाता था, ग्राम में जाता था। कभी कम मूल्यों और फ़सल अच्छी न होने के कारण किसान अपने राजस्व का भुगतान करने में असमर्थ हो जाते थे, तो कभी रैयत जानबूझकरे ठीक समय पर राजस्व का भुगतान नहीं करते थे। इस प्रकार जमींदार ठीक समय पर राजस्व का भुगतान नहीं कर पाता था और उसकी जमींदारी नीलाम कर दी जाती थी।
(vi) कई बार ज़मींदार जानबूझकर राजस्व का भुगतान नहीं करते थे। भूमि के नीलाम किए जाने पर उनके अपने एजेन्ट कम-से-कम | बोली लगाकर उसे (अपने जमींदार के लिए) प्राप्त कर लेते थे। इस प्रकार जमींदार को राजस्व के रूप में पहले की अपेक्षा कहीं कम धनराशि का भुगतान करना पड़ता था।
प्रश्न.7. पहाड़िया लोगों की आजीविका संथालों की आजीविका से किस रूप से भिन्न थी?
पहाड़िया लोग राजमहल की पहाड़ियों के आस-पास रहते थे। संथालों को ब्रिटिश अधिकारियों ने जमीनें देकर राजमहल को तलहटी में बसने के लिए तैयार किया था। उल्लेखनीय है कि ब्रिटिश अधिकारियों की नीति कृषि भूमि का विस्तार करके कंपनी के राजस्व में वृद्धि करने की थी। इसके लिए उन्होंने राजमहल की पहाड़ियों में रहने वाले पहाड़िया लोगों को एक स्थान पर रहकर स्थायी खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया था। किंतु पहाड़िया लोग जंगलों को काटकर स्थायी कृषि करने के लिए। तैयार नहीं हुए। अतः ब्रिटिश अधिकारियों ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए संथालों को वहाँ बसा दिया। पहाड़िया लोगों की आजीविका संथालों की आजीविका से कई रूपों में भिन्न थी।
(i) पहाड़िया लोग झूम खेती करते थे और जंगल के उत्पादों से अपना जीविकोपार्जन करते थे। जंगल के छोटे से भाग में झाड़ियों को काटकर तथा घास-फूस को जलाकर वे ज़मीन साफ़ कर लेते थे। राख की पोटाश से ज़मीन पर्याप्त उपजाऊ बन जाती थी। पहाड़िया लोग उस ज़मीन पर अपने खाने के लिए विभिन्न प्रकार की दालें और ज्वार-बाजरा उगाते थे। इस प्रकार वे अपनी आजीविका के लिए जंगलों और चरागाहों पर निर्भर थे। किंतु संथाल स्थायी खेती करते थे। उन्होंने अपने परिश्रम से अपने कृषि क्षेत्र की सीमाओं में पर्याप्त वृद्धि करके इसे एक उपजाऊ क्षेत्र के रूप में बदल दिया था।
(ii) पहाड़िया लोगों की खेती मुख्य रूप से कुदाल पर आश्रित थी। वे कुदाल से जमीन को थोड़ा खुरच लेते थे और कुछ वर्षों तक उस साफ़ की गई ज़मीन में खेती करते रहते थे। तत्पश्चात् वे उसे कुछ वर्षों के लिए परती छोड़ देते थे और नए क्षेत्र में जमीन तैयार करके खेती करते थे। कुछ समय के बाद परती छोड़ी गई जमीन अपनी खोई हुई उर्वरता को प्राप्त करके पुनः खेती योग्य बन जाती थी। संथाल हल से खेती करते थे। वे नई ज़मीन साफ करने में अत्यधिक कुशल थे। अपने परिश्रम से उन्होंने चट्टानी भूमि को भी अत्यधिक उपजाऊ बना दिया था।
(iii) कृषि के अतिरिक्त जंगल के उत्पाद भी पहाड़िया लोगों की आजीविका के साधन थे। जंगल के फल-फूल उनके भोजन के महत्त्वपूर्ण अंग थे। वे खाने के लिए महुआ के फूल एकत्र करते थे। वे काठ कोयला बनाने के लिए लकड़ियाँ एकत्र करते थे। रेशम के कोया (रेशम के कीड़ों का घर या घोंसला) एवं राल इकट्ठी करके बेचते थे। पेड़ों के नीचे उगने वाले छोटे-छोटे पौधे अथवा परती जमीन पर उगने वाली घास-फूस उनके पशुओं के चारे के काम आती थी। इस प्रकार शिकार करना, झूम खेती करना, खाद्य संग्रह, काठ कोयला बनाना, रेशम के कीड़े पालना आदि पहाड़िया लोगों के मुख्य व्यवसाय थे। खानाबदोश जीवन को छोड़कर एक स्थान पर बस जाने के कारण संथाल स्थायी खेती करने लगे थे, वे बढ़िया तम्बाकू और सरसों जैसी वाणिज्यिक फसलों को उगाने लगे थे। परिणामस्वरूप, उनकी आर्थिक स्थिति उन्नत होने लगी और वे व्यापारियों एवं साहूकारों के साथ लेन-देन भी करने लगे।
(iv) अपने व्यवसायों के कारण उनका जीवन जंगल से घनिष्ठ रूप से जुड़ा हुआ था। वे सीधा-सादा जीवन व्यतीत करते थे और प्रकृति की गोद में निवास करते थे। वे इमली के पेड़ों के झुरमुटों में अपनी झोंपड़ियाँ बनाते थे और आम के पेड़ों की ठंडी छाँव में आराम करते थे। संपूर्ण क्षेत्र की भूमि को वे अपनी निजी भूमि समझते थे। यह भूमि ही उनकी पहचान तथा जीवन का प्रमुख आधार थी। पहाड़िया लोग समूहों में संगठित थे। प्रत्येक समूह का एक मुखिया होता था। उसका प्रमुख कार्य अपने समूह में एकता बनाए रखना था। मुखिया अपने-अपने समूह के पारस्परिक झगड़ों का निपटारा करके उनमें शांति बनाए रखते थे। वे अन्य जनजातियों अथवा मैदानी लोगों के साथ संघर्ष की स्थिति में अपनी जनजाति का नेतृत्व भी करते थे। संथाल एक क्षेत्र विशेष में रहते थे। 1832 ई० तक एक विशाल भू-क्षेत्र का सीमांकन दामिन-ए-कोह अथवा संथाल परगना के रूप में कर दिया गया था। इस क्षेत्र को संथाल भूमि घोषित कर दिया गया और इसके चारों तरफ खंभे लगाकर इसकी परिसीमा का निर्धारण कर दिया गया।
(v) पहाड़िया लोग उन मैदानी भागों पर बार-बार आक्रमण करते रहते थे, जहाँ किसानों द्वारा एक स्थान पर बसकर स्थायी खेती की जाती थी। इस प्रकार के आक्रमण प्रायः अभाव अथवा अकाल के वर्षों में खाद्य-सामग्री को लूटने, शक्ति का प्रदर्शन करने अथवा बाहरी लोगों के साथ राजनैतिक संबंध स्थापित करने के लिए किए जाते थे। इस प्रकार मैदानों में रहने वाले लोग प्रायः पहाड़िया लोगों के आक्रमणों से भयभीत रहते थे। मैदानों में रहने वाले जमींदार पहाड़िया लोगों के आक्रमणों से बचाव के लिए पहाड़िया मुखियाओं को नियमित रूप से खिराज का भुगतान करते थे। व्यापारियों को भी पहाड़िया लोगों द्वारा नियंत्रित मार्गों का प्रयोग करने के लिए पथकर का भुगतान करना पड़ता था। किंतु संथाल लोगों के जमींदारों और व्यापारियों के साथ संबंध प्रायः मैत्रीपूर्ण होते थे। वे व्यापारियों एवं साहूकारों के साथ लेन-देन भी करते थे।
प्रश्न.8. अमेरिकी गृहयुद्ध ने भारत में रैयत समुदाय के जीवन को कैसे प्रभावित किया?
जब 1861 में अमेरिका में गृहयुद्ध छिड़ गया तो ब्रिटेन के कपास क्षेत्र में तहलका मच गया। अमेरिका से आने वाली कच्ची कपास के आयात में काफी गिरावट आई। 1860 के दशक से पहले, ब्रिटेन में कच्चे माल के तौर पर आयात की जाने वाली समस्त कपास का तीन-चौथाई भाग अमेरिका से आता था। ऐसे में ब्रिटेन के सूती वस्त्रों के निर्माता काफी लंबे समय से अमेरिकी कपास पर अपनी निर्भरता के कारण बहुत परेशान थे, क्योंकि इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी और अमेरिका जैसी बढ़िया कपास न तो भारत में और न ही मिस्र में पैदा होती थी।
अमेरिकी गृहयुद्ध ने भारत में रैयत समुदाय के जीवन को निम्न तरीके से प्रभावित किया:
(i) ब्रिटेन के सूती वस्त्र निर्माता अमेरीकी कपास पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए काफी समय से कपास आपूर्ति के वैकल्पिक स्त्रोत की खोज कर रहे थे। भारत की भूमि और जलवायु दोनों ही कपास की खेती हेतु उपयुक्त थी। यहाँ श्रम भी सस्ता था।
(ii) 1861 ई० में अमेरीकी गृहयुद्ध आरंभ हो जाने की वजह से ब्रिटेन ने भारत को अधिकाधिक कपास निर्यात का संदेश भेजा। फलतः बंबई में, कपास के सौदागरों ने कपास की आपूर्ति का आकलन करने और कपास की खेती को अधिकाधिक प्रोत्साहन देने के लिए कपास पैदा करने वाले जिलों का दौरा किया। जब कपास की कीमतों में उछाल आया तो बंबई के कपास निर्यातकों ने ब्रिटेन की माँग को पूरा करने के लिए शहरी साहूकारों को अधिक-से-अधिक अग्रिम (Advance) राशियाँ दी ताकि वे भी आगे उन ग्रामीण ऋणदाताओं को जिन्होंने उपज उपलब्ध कराने का वचन दिया था, अधिक-से-अधिक मात्रा में राशि उधार दे सकें। जब बाजार में तेजी आती है तो ऋण आसानी से मिल जाता है, क्योंकि ऋणदाता अपनी उधार दी गई राशियों की वसूली के बारे में अधिक आश्वस्त रहता है।
(iii) उपर्युक्त बातों का दक्कन के देहाती इलाकों में काफी असर हुआ। दक्कन के गाँवों के रैयतों को अचानक असीमित ऋण उपलब्ध होने लगा। उन्हें प्रति एकड़ 100 रु. अग्रिम राशि दी जाने लगी। साहूकार भी लंबे समय तक ऋण देने के लिए एकदम तैयार हो गए।
(iv) जब तक अमेरिका में संकट की स्थिति बनी रही तब तक बंबई दक्कन में कपास का उत्पादन बढ़ता गया। 1860 से 1864 के दौरान कपास उगाने वाले एकड़ों की संख्या दोगुनी हो गई। 1862 तक स्थिति यह आई कि ब्रिटेन में जितना भी कपास का आयात होता था, उसका 90 प्रतिशत भाग अकेले भारत से जाता था।
(v) इस तेजी में भी सभी कपास उत्पादकों को समृद्धि प्राप्त नहीं हो सकी। कुछ धनी किसानों को तो लाभ अवश्य हुआ, लेकिन अधिकांश किसान कर्ज के बोझ से और अधिक दब गए।
(vi) जिन दिनों कपास के व्यापार में तेजी रही, भारत के कपास व्यापारी, अमेरिका को स्थायी रूप से विस्थापित करके, कच्ची कपास के विश्व बाजार को अपने कब्जे में करने के सपने देखने लगे। 1861 में बांबे गजट के संपादक ने लिखा, “दास राज्यों (संयुक्त राज्य अमेरिका) को विस्थापित करके, लंकाशायर को कपास का एकमात्र आपूर्तिकर्ता बनने से भारत को कौन रोक सकता है?”
(vii) लेकिन 1865 तक ऐसे सपने आने बंद हो गए। जब अमेरिका में गृहयुद्ध समाप्त हो गया तो वहाँ कपास का उत्पादन फिर से चालू हो गया और ब्रिटेन में भारतीय कपास के निर्यात में गिरावट आती चली गई। 8. महाराष्ट्र में निर्यात व्यापारी और साहूकार अब दीर्घावधिक ऋण देने के लिए उत्सुक नहीं रहे। उन्होंने यह देख लिया था कि भारतीय कपास की माँग घटती जा रही है और कपास की कीमतों में गिरावट आ रही है। इसलिए उन्होंने अपना कार्य-व्यवहार बंद करने, किसानों को अग्रिम राशियाँ प्रतिबंधित करने और बकाया ऋणों को वापिस माँगने का निर्णय लिया। इन परिस्थितियों में किसानों की दशा अत्यधिक दयनीय हो गई।
प्रश्न.9. किसानों का इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों के उपयोग के बारे में क्या समस्याएँ आती हैं?
यह सत्य है कि इतिहास के पुनर्निर्माण में सरकारी स्रोतों; जैसे-राजस्व अभिलेखों, सरकार द्वारा नियुक्त सर्वेक्षणकर्ताओं की रिपोर्टों और पत्रिकाओं आदि का महत्त्वपूर्ण स्थान है। किंतु किसानों का इतिहास लिखने में सरकारी स्रोतों का उपयोग करते समय लेखक को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ता है
(i) सरकारी स्रोत वास्तविक स्थिति को निष्पक्ष वर्णन नहीं करते। अतः उनके द्वारा प्रस्तुत विवरणों को पूरी तरह सत्य नहीं माना जा सकता।
(ii) सरकारी स्रोत विभिन्न घटनाओं के संबंध में किसी-न-किसी रूप में सरकारी दृष्टिकोण एवं अभिप्रायों के पक्षधर होते हैं। वे विभिन्न घटनाओं का विवरण सरकारी दृष्टिकोण से ही प्रस्तुत करते हैं।
(iii) सरकारी स्रोतों की सहानुभूति प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सरकार के प्रति ही होती है।
वे किसी-न-किसी रूप में पीड़ितों के स्थान पर सरकार के ही हितों के समर्थक होते हैं। उदाहरण के लिए, दक्कन दंगा आयोग की नियुक्ति विशेष रूप से यह पता लगाने के लिए की गई थी कि सरकारी राजस्व की माँग का विद्रोह के प्रारंभ में क्या योगदान था अथवा क्या किसान राजस्व की ऊँची दर के कारण विद्रोह के लिए उतारू हो गए थे। आयोग ने संपूर्ण जाँच-पड़ताल करने के बाद जो रिपोर्ट प्रस्तुत की उसमें विद्रोह का प्रमुख कारण ऋणदाताओं अथवा साहूकारों को बताया गया। रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से यह कहा गया कि सरकारी माँग किसानों की उत्तेजना अथवा क्रोध का कारण बिलकुल नहीं थी।
किन्तु आयोग इस प्रकार की टिप्पणी करते हुए यह भूल गया कि आखिर किसान साहूकारों की शरण में जाते क्यों थे। वास्तव में, सरकार द्वारा निर्धारित भू-राजस्व की दर इतनी अधिक थी और वसूली के तरीके इतने कठोर थे कि किसान को विवशतापूर्वक साहूकार की शरण में जाना ही पड़ता था। इसका स्पष्ट अभिप्राय यह था कि औपनिवेशिक सरकार जनता में व्याप्त असंतोष अथवा रोष के लिए स्वयं को उत्तरदायी मानने के लिए तैयार नहीं थी। अत: किसान इतिहास लेखन में सरकारी स्रोतों का उपयोग करते हुए कुछ बातों का विशेष रूप से ध्यान रखा जाना चाहिए।उदाहरण के लिए:
(i) सरकारी रिपोर्टों का अध्ययन अत्यधिक सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए।
(ii) सरकारी रिपोर्टों से उपलब्ध साक्ष्य का मिलान समाचार-पत्रों, गैर-सरकारी विवरणों, वैधिक अभिलेखों आदि में उपलब्ध साक्ष्यों से करने के बाद ही किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहिए।
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