पाठ का संक्षिप्त परिचय
संस्मरण शैली में रचित इस पाठ का संबंध पफादर कामिल बुल्के से है। भारत को अपनी कर्मभूमि बनाने वाले पफादर बुल्के का जन्म बेल्जियम (यूरोप) के रैम्सचैपल शहर में हुआ था। वे हिंदी को राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे। प्रसिद्ध अंग्रेजी-हिंदी कोश फादर बुल्के द्वारा ही तैयार किया गया है। फादर बुल्के पारंपरिक अर्थ में संन्यासी नहीं थे। लेखवफ के साथ उनके घनिष्ठ संबंधों की झलक हमें इस संस्मरण में मिलती है। लेखक का मानना है कि जब तक रामकथा है, इस विदेशी भारतीय साधु को याद किया जाएगा तथा
उन्हें हिंदी भाषा और बोलियों के अगाध प्रेम का उदाहरण माना जाएगा।
पाठ का सार
बेल्जियम के रेम्सचैपल में जनमे पफादर बुल्के बचपन से ही अत्यंत संवेदनशील थे। इनके स्वभाव की प्रमुख विशेषताओं शांति, करुणा और ममता को देखकर माँ ने बचपन में ही इनके बड़े होकर संन्यासी बनने की घोषणा कर दी थी। सचमुच इंजीनियरिंग की अंतिम वर्ष की पढ़ाई को छोड़कर पादरी बनने की उन्होंने विधिवत शिक्षा ली। भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता संवेदनशीलता को देखते हुए उन्होंने भारत आने की शर्त भी रखी और भारत आ गए। फादर के पिता व्यवसायी थे। एक भाई पादरी और एक परिवार के साथ रहकर अपना काम करने वाला था। पिता और भाइयों से उनका विशेष लगाव नहीं था। हाँ, बहुत दिनों तक विवाह न कर चिंता पैदा करने वाली और बाद में विवाह करने वाली एक जिद्दी और सख्त मिज़ाज़ बहन भी थी। माँ की उन्हें बहुत याद आती थी। उनके पत्रों को वे अपने मित्रा रघुवंश को दिखाते रहते थे।
भारत आने पर जिसेट संघ में दो साल तक फादर बुल्के ने पादरियों के बीच धर्माचार की शिक्षा प्राप्त की। 9-10 वर्ष तक दार्जिलिंग में रहकर अध्ययन कार्य किया। कलकत्ता (कोलकाता) में रहते हुए बी.ए. तथा इलाहाबाद से एम.ए. की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं। प्रयाग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग से सन 1950 में शोध प्रबधं ‘रामकथाः उत्पत्ति आरै विकास’ लिखा। राचीँ में सेंट जेवियर्स कालॅज के हिंदी तथा संस्कृत विभाग के विभागाध्यक्ष के रूप में उन्हानें कार्य किया। उन्होंने मातरलिकं के प्िर सद्ध्् नाटक ‘ब्लू बर्ड’ का रूपातं र ‘नीला पंछी’ के नाम से किया। बाइबिल का अनुवाद किया। एक अंग्रेजी-हिंदी कोश भी तैयार कर हिंदी के प्रति अपना प्रेम प्रकट किया। फादर भारत में रहते हुए दो-तीन बार ही अपने देश बेल्जियम गए।
लेखक का परिचय फादर से इलाहाबाद में रहते हुए हुआ और दिल्ली आने पर भी बना रहा। परिमल में हुई मुलाकातों के दौरान उनके महान व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उनके साथ पारिवारिक संबंध बन गए। नीली आँखों वाले गोरे रंग के फादर अपनी झाँई मारती भूरी दाढ़ी के साथ लंबे सफेद चोगे में लिपटे रहते। ईश्वर में उनकी गहरी आस्था थी। सभी के प्रति उनमें वात्सल्य उमड़ता रहता। वे निर्लिप्त होकर हँसी-मजाक और गोष्ठियों में शामिल होते थे। गंभीर बहसों में और चर्चाओं पर बेबाक राय देते थे। प्रियजनों के सभी उत्सवों और संस्कारों में, मुश्किल घड़ियों में भी शामिल होकर बड़े भाई और पुरोहितों जैसे आशीष देते और अपनत्व जताते थे। उनके संर्पफ में आने वाला उनकी करुणा से भीग जाता और कर्म का एक नया संकल्प लेने को प्रेरित होता था।
लेखक को पैंतीस वर्ष तक फादर से अपनत्व का वरदान मिला था। लेखक इलाहाबाद की सड़कों पर साइकिल चलाते फादर के पास दौड़कर चला आता, उनकी साइकिल रोक देता और अपने पढ़ने की जानकारी देता था, परंतु वे कभी आवेश में नहीं आते थे और न ही क्रोधित होते थे। लेखक ने अपने पत्रु को पहली बार अन्न खिलाए जाने के संस्कार के अवसर पर फादर की आँखों में तैरते वात्सल्य का अनुभव किया था। पत्नी और पुत्र की मृतयु पर फादर की दी सांत्वना में ‘‘हर मौत दिखाती है जीवन को नई राह’’ कही पंक्ति ने लेखक को एक अनोखी शांति प्रदान की थी। वास्तव में फादर की सांत्वना के दो शब्द बड़े से बड़े दुख में भी गहरी तपस्या के बाद मिलने वाली, अनोखे जीवन की मार्गदर्शक रोशनी प्रदान करते थे।
फादर अपने अकाट्य तर्कों से हिंदी को राष्ट्रीय एकता की दृढ़ता में सहायिका सिद्ध करते थे तथा उसे राष्ट्रभाषा बनाने पर जारे देते थे। वे हिंदी भाषियों को ही हिंदी की उपेक्षा करने पर झुँझलाते और दुखी हो जाते थे।
फादर की मृत्यु दिल्ली में जहरबाद से पीड़ित होकर हुई। अंतिम समय में उनकी दोनों हाथों की अँगुलियाँ सूज गई थीं। दिल्ली में रहकर भी लेखक को उनकी बीमारी और उपस्थिति का ज्ञान न होने पर बहुत अफसोस हुआ। 18 अगस्त, 1982 की सुबह दस बजे कश्मीरी गेट के निकलसन कब्रगाह में उनका ताबूत एक नीली गाड़ी से रघुवंश जी के बेटे, परिजन राजेश्वर सिंह और कुछ पादरियों ने उतारा और अंतिम छोर पर पेड़ों की घनी छाया से ढकी कब्र तक ले जाया गया। उपस्थित लोगों में जैनेंद्र कुमार, विजयेंद्र स्नातक, अजित कुमार, डाॅ. निमर्ला जनै , इलाहाबाद के प्रसिद्ध विज्ञान शिक्षक डाॅ. सत्यप्रकाश, डाॅ. रघुवंश, मसीही समुदाय के लागे आरै पादरी-गण थे। फादर के मृत शरीर को कब्र पर लिटाने के बाद राँची के फादर पास्कल तोयना ने मसीही विधि से अंतिम संस्कार किया। फिर फादर बुल्के धरती में जा रहे हैं। इस धरती से ऐसे रत्न और पैदा हों कहकर उनके जीवन और कर्मों के प्रति अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की। डाॅ. सत्यप्रकाश ने भी अपनी श्रदधंजलि में उनके अनुकरणीय जीवन को नमन किया।
फादर बुल्के ने सभी को जीवन का अमृत पिलाया, फिर भी ईश्वर ने उनके लिए शहरबाद जैसी बीमारी का विधन क्यों दिया। लेखक समझ नहीं पाया। उसे यह अन्यायपूर्ण लगा। लेखक फादर को एक ऐसे सघन वृक्ष की उपमा देता है, जो अपनी घनी छाया, फल, फूल आरै गंध से सबका होने के बाद भी सबसे अलग और सर्वश्रेष्ठ था।
लेखक परिचय
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
इनक जन्म 1927 में जिला बस्ती, उत्तर प्रदेश में हुआ। इनकी उच्च शिक्षा इलाहबाद विश्वविधयालय से हुई। अध्यापक, आकाशवाणी में सहायक प्रोड्यूसर, दिनमान में उपसंपादक और पराग के संपादक रहे। ये बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। सन 1983 में इनका आकस्मिक निधन हो गया।
प्रमुख कार्य
कविता संग्रह – काठ की घंटियाँ, कुआनो नदी, जंगल का दर्द और खुटियों पर टंगे लोग।
उपन्यास – पागल कुत्तों का मसीहा सोया हुआ जल।
कहानी संग्रह- लड़ाई
नाटक – बकरी
बाल साहित्य – भौं भौं खौं खौं, बतूता का जूता, लाख की नाक।
लेख संग्रह – चर्चे और चरखे।
कठिन शब्दों के अर्थ
1. मानवीय करुणा क्या है? |
2. मानवीय करुणा का महत्व क्या है? |
3. मानवीय करुणा की विशेषताएं क्या हैं? |
4. मानवीय करुणा के द्वारा क्या समस्याओं का समाधान हो सकता है? |
5. मानवीय करुणा का उपयोग किस समस्या के लिए किया जा सकता है? |
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