Table of contents | |
कवि परिचय | |
आत्मत्राण पाठ प्रवेश | |
कविता का सार | |
कविता की व्याख्या |
1.
विपदाओं से मुझे बचाओ, यह मेरी प्रार्थना नहीं
केवल इतना हो (करुणामय)
कभी न विपदा में पाऊँ भय।
दुःख-ताप से व्यथित चित्त को न दो सांत्वना नहीं सही
पर इतना होवे (करुणामय)
दुख को मैं कर सकूँ सदा जय।
कोई कहीं सहायक न मिले
तो अपना बल पौरुष न हिले
हानि उठानी पड़े जगत् में लाभ अगर वंचना रही
तो भी मन में ना मानूँ क्षय।।
शब्दार्थ:
विपदाओं = मुसीबतों, कष्टों
करुणामय = दूसरों पर दया करने वाला
भय = डर
दुख-ताप = कष्ट की पीड़ा
व्यथित = दुखी
चित्त = हृदय
सांत्वना = तसल्ली
जय = जीत
सहायक = सहायता करने वाला
बल = शक्ति
पौरुष = पराक्रम
वंचित = धोखा
क्षय = नाश।
व्याख्या: कवि कहता है - हे ईश्वर! मेरी आपसे यह विनती है कि आप मुझे मुसीबतों से बचाइए। मैं इन मुसीबतों का सामना पूर्ण शक्ति से कर सकूँ। मुझमें इतना सामथ्र्य भर दीजिए कि कोई भी मुसीबत आने पर मेरा मन विचलित न हो। हे करुणा वेफ सागर ईश्वर! मैं तुमसे यही प्रार्थना करता हूँ कि कभी भी मुसीबत आने पर मैं न डरूँ। चाहे मेरे कष्ट से पीड़ित मन को तुम कभी तसल्ली भले ही न दो, परंतु हे करुणामय! इतनी करुणा अवश्य कर दो कि मैं दुख पर विजय प्राप्त कर सकूँ। मुझे चाहे कोई सहायता करने वाला सहायक न मिले परंतु हे ईश्वर, मुझ पर इतनी कृपा कर दो कि मेरी शक्ति, मेरा पुरुषार्थ न डगमगाए। मेरा आत्मविश्वास सदैव कायम रहे। भले ही मुझे इस संसार में हानि उठानी पड़े, भले ही मुझे कोई लाभ प्राप्त न हो, मुझे धेखा ही खाना पड़े, तब भी मेरा मन कभी दुखी न हो। कभी भी मेरे मन की शक्ति का क्षय न होने पाए अर्थात मुझे मन की शक्ति दो तथा हर समय मुझमें पुरुषार्थ बनाए रखें।
भाव पक्ष: 1. कवि ईश्वर से विपदाओं वेफ समय पौरुष एवं शक्ति देने की प्रार्थना कर रहे हैं।
2. संघर्षमय समय में व्यथित न होने वेफ लिए वह ईश्वर से प्रार्थना कर रहे हैं।
कला पक्ष: 1. भाषा सहज एवं सरल है। भाषा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
2. ‘कोई कहीं’ में अनुप्रास अलंकार है।
2.
मेरा त्राण करो अनुदिन तुम यह मेरी प्रार्थना नहीं
बस इतना होवे (करुणामय)
तरने की हो शक्ति अनामय।
मेरा भार अगर लघु करवेफ न दो सांत्वना नहीं सही।
केवल इतना रखना अनुनय -
वहन कर सकूँ इसको निर्भय।
नत शिर होकर सुख के दिन में
तव मुख पहचानूँ छिन-छिन में।
दुःख-रात्रि में करे वंचना मेरी जिस दिन निखिल मही।
उस दिन ऐसा हो करुणामय,
तुम पर करूँ नहीं कुछ संशय।।
शब्दार्थ: त्राण = भय से छटुकारा, अनुदिन = प्रतिदिन,तरने =€पार लगने, अनामय = स्वस्थ, सांत्वना = तसल्ली, अनुनय = प्रार्थना, वहन = भार उठाना, निर्भय = बिना डर के, भय रहित, नत शिर = सिर झुकाकर, छिन-छिन = क्षण-क्षण, दुःख-रात्रि€=€कष्ट से भरी हुई रात, वंचना = धेखा, निखिल = संपूर्ण, मही€= ध्रती, संशय = शक, संदेह।
व्याख्या: कवि कहते हैं - हे भगवान! मेरी आपसे यह विनती नहीं है कि आप प्रतिदिन मुझे भय से छुटकारा दिलाएँ। हे ईश्वर! आप केवल इतनी कृपा करें कि मुझे स्वास्थ्य प्रदान करें। मुझे रोग रहित कर दें। मैं आपसे यह प्रार्थना नहीं करता कि आप मेरा भार हलका करके मुझे तसल्ली दें। आप केवल मुझ पर इतनी दया करना कि हर दुख को मैं निडर होकर सहन कर सकूँ। हे ईश्वर! मुझमें इतनी शक्ति भर दें कि सुख के दिनों में मैं अपना सिर झुकाकर क्षण-क्षण आपको पहचानता रहूँ। दुख से भरी रात में जब भले ही संपूर्ण पृथ्वी मुझे धेखा दे अर्थात भले संपूर्ण संसार मुझे दुतकार दे, ऐसी विपरीत परिस्थितियों में भी हे ईश्वर, मैं आप पर संदेह न करूँ। मुझमें इतनी शक्ति भर दें।
भाषा:1. सहज एवं सरल भाषा का प्रयोग किया गया है। भाषा भावाभिव्यक्ति में सक्षम है।
2. ‘छिन-छिन’ में पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार है।
3. छंदमुक्त कविता है।
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1. कवि परिचय क्या है? |
2. आत्मत्राण पाठ प्रवेश क्या है? |
3. कविता का सार क्या होता है? |
4. कविता की व्याख्या क्या होती है? |
5. आत्मत्राण कविता का सार क्या है? |
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