[नोट- पाठ्यक्रमानुसार इस अध्याय में अव्ययीभाव, कर्मधारय एवं द्वन्द्व समास का अध्ययन ही अपेक्षित है। तथापि पाठ्यपुस्तक में दिए गए इनके अलावा तत्पुरुष, द्विगु एवं बहुव्रीहि समासों को भी यहाँ छात्रों के अतिरिक्त ज्ञानार्जन के लिए दिया गया है।]
1. अव्ययीभावसमासः
यदा विभक्ति, समीप इत्यादिषु अर्थेषु वर्तमानम् अव्ययपदं सुबन्तेन सह नित्यं समस्यते तदा असौ अव्ययीभावसमासो भवति । अथवा इदमत्र अवगन्तव्यम्- (जब विभक्ति, समीप-इत्यादि अर्थों में वर्तमान अव्यय पद सुबन्त के साथ नित्य समास होता है तब यह अव्ययीभाव समास होता है। अथवा इसको इस प्रकार जानना चाहिए-)
ध्यातव्यम्- (अ) ”यथा विभक्ति, समीप-इत्यादिषु” से तात्पर्य है
1. विभक्ति, 2. समीप, 3. समृद्धि, 4. समृद्धि का नाश 5. अभाव 6. नाश 7. अनुचित 8. शब्द की अभिव्यक्ति 9. पश्चात् 10. यथा 11. क्रमशः 12. एकदम 13. समानता 14. सम्पत्ति 15. सम्पूर्णता 16. अन्त तक। इन सोलह में वर्तमान अव्यय का सुबन्त के साथ नित्य समास होता है।
(ब) नित्यसमास- प्रायः जिस समास का विग्रह न हो उसे ‘नित्यसमास’ कहते हैं। अथवा प्रायः जिसका अपने पदों से विग्रह नहीं होता अर्थात् जिन शब्दों का समास हुआ हो उन शब्दों के द्वारा जिसका विग्रह न हो, वह नित्यसमास’ होता है।
अन्य उदाहरणानि
अव्ययपदम् ‘उप’, अव्ययस्यार्थ = समीपम् (प्रथम पद में षष्ठी विभक्ति)
अव्ययपदम् ‘अनु’, अव्ययस्यार्थ = पश्चात्, योग्यम् (प्रथम पद में षष्ठी विभक्ति)
अव्ययपदम् ‘प्रति’, अव्ययस्यार्थ = वीप्सा अर्थे (उत्तर पद को दो बार, प्रथम पद में द्वितीया/सप्तमी विभक्ति)
अव्ययपदम् ‘निर्’, अव्ययस्यार्थ = अभावार्थे (प्रथम पद में षष्ठी विभक्ति)
अव्ययपदम् यथा’, अव्ययस्यार्थ = अनतिक्रम्य
अव्ययपदम् ‘स’, अव्ययस्यार्थ = सहितम् (प्रथम पद में तृतीया विभक्ति)
2. तत्पुरुषसमासः
तत्पुरुषसमासे प्रायेण उत्तरपदार्थस्य प्रधानता भवति । यथा- राज्ञः पुरुषः – राजपुरुषः। अत्र उत्तरपदं पुरुषः अस्ति, तस्य एव प्रधानता अस्ति। ‘राजपुरुषम् आनय’ इति उक्ते सति पुरुषः एव आनीयते न तु राजा । तत्पुरुषसमासे पूर्वपदे या विभक्तिः भवति, प्रायेण तस्याः नाम्ना एव समासस्य अपि नाम भवति । यथा– (तत्पुरुष समास में प्रायः उत्तरपदार्थ की प्रधानता होती है। जैसे- राज्ञः पुरुष ‘राजपुरुषः’ यहाँ उत्तरपद ‘पुरुष’ है उसकी ही प्रधानता है। ‘राजपुरुष आनय’ यह बोलने पर पुरुष ही लाया जाता है न कि राजा। तत्पुरुष समास में पूर्वपद में जो विभक्ति होती है, प्राय: उसका नाम ही समास का नाम भी होता है। जैसे-)
3. कर्मधारयसमासः
यदा तत्पुरुषसमासस्य द्वयोः पदयोः एकविभक्तिः अर्थात् समानविभक्तिः भवति तदा सः समानाधिकरणः तत्पुरुषसमासः कथ्यते। अयमेव समासः कर्मधारयः इति नाम्ना ज्ञायते । अस्मिन् समासे साधारणतया पूर्वपदं विशेषणम् उत्तरपदञ्च विशेष्यं भवति यथा- नीलम् कमलम् = नीलकमलम् ।
(कर्मधारय समास – जब तत्पुरुष समास के दोनों में एक विभक्ति अर्थात् समान विभक्ति होती है तब वह समानाधिकरण तत्पुरुष समास कहा जाता है। यही समास ‘कर्मधारय’ इस नाम से जाना जाता है। इस समास में साधारणतया पूर्व पद विशेषण और उत्तरपद विशेष्य होता है जैसे-नीलम् कमलम्=नीलकमलम् ।।
4. द्विगु समासः
1. ‘संख्यापूर्वो द्विगुः’ इति पाणिनीयसूत्रानुसारं यदा कर्मधारयसमासस्य पूर्वपदं संख्यावाची उत्तरपदञ्च संज्ञावाची भवति तदा सः ‘द्विगुसमासः’ कथ्यते ।।
2. अयं समासः प्रायः समूहार्थे भवति।
3. समस्तपदं सामान्यतया नपुंसकलिङ्गस्य एकवचने अथवा स्त्रीलिङ्गस्य एकवचने भवति ।
4. अस्य विग्रहे षष्ठीविभक्तेः प्रयोगः क्रियते । यथा –
द्विगु समास
1. “संख्यापूर्वो द्विगुः’ इस पाणिनीय सूत्रानुसार जब कर्मधारय समास का पूर्वपद संख्यावाची और उत्तरपद संज्ञावाची होता है तब वह द्विगु समास कहा जाता है।
2. यह समास प्रायः समूह के अर्थ में होता है।
3. समस्त पद सामान्यतया नपुंसकलिङ्ग के एकवचन में अथवा स्त्रीलिङ्ग के एकवचन में होता है।
4. इसके विग्रह में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग किया जाता है। जैसे
5. बहुव्रीहिंसमासः
समासे यदा अन्यपदार्थस्य प्रधानता भवति तदा सः बहुव्रीहिसमासः कथ्यते। अर्थात् अस्मिन् समासे न तु पूर्वपदार्थस्य प्रधानता भवति न हि उत्तरपदार्थस्य प्रत्युतः द्वौ अपि पदार्थो मिलित्वा अन्यपदार्थस्य बोधं कारयत:। समस्तपदस्य प्रयोगः अन्यपदार्थस्य विशेषणरूपेण भवति। यथा-‘पीतम्’ ‘अम्बर’ यस्य सः= पीताम्बरः (विष्णुः) ।
अत्र पीतम् तथा च अम्बरम् इत्यनयो: पदयो: अर्थस्य प्रधानता नास्ति अर्थात् ‘पीला वस्त्र’ इत्यर्थस्य ग्रहणं न भवति प्रत्युत उभौ पदार्थों तु मिलित्वा अन्यपदार्थस्य अर्थात् ‘विष्णुः’ इत्यस्य बोधं कारयत: अर्थात् पीताम्बरः इति समस्तपदस्यार्थः ‘विष्णुः अस्ति अत एव अत्र बहुव्रीहिसमासः अस्ति।
अस्य अन्यानि उदाहरणानि अधोलिखितानि सन्ति । यथा
(बहुव्रीहिसमास – समास में जब अन्य पदार्थ की प्रधानता होती है तब वह बहुव्रीहि समास कहा जाता है। अर्थात् इस समास में न तो पूर्व पदार्थ की प्रधानता होती है न ही उत्तर पदार्थ की बल्कि दोनों ही पदार्थ मिलकर अन्य पदार्थ का बोध कराते हैं। समस्त पद का प्रयोग अन्य पदार्थ के विशेषण रूप से होता है। जैसे- ‘पीतम्’ ‘अम्बर’ यस्य सः = पीताम्बरः (विष्णुः ) ।।
यहाँ पर ‘पीतम्’ और वैसे ही ‘अम्बर’ इन पदों के अर्थ की प्रधानता नहीं है अर्थात् ‘पीला वस्त्र’ इस अर्थ का ग्रहण नहीं होता है अपितु दोनों पदार्थ मिलकर अन्य पदार्थ का अर्थात् ‘विष्णुः’ इसका बोध कराते हैं अर्थात् ‘पीताम्बरः’ इस समस्तपद का अर्थ ‘विष्णुः’ है अतः यहाँ बहुव्रीहि समास है।
इसके अन्य उदाहरण निम्नलिखित हैं। जैसे-)
(1) समानाधिकरणबहुव्रीहिः – यदा समासस्य पूर्वोत्तरपदयोः समानविभक्तिः (प्रथमा विभक्तिः) भवति तदा सः समानाधिकरणबहुव्रीहिः भवति । यथा- (जब समास के पूर्व पद और उत्तरपद में समान विभक्ति (प्रथमा विभक्ति) होती है। तब वह समानाधिकरण बहुव्रीहि होता है। जैसे –
(2) व्यधिकरण-बहुव्रीहिः – यदा समासस्य पूर्वोत्तरपदयो: भिन्न-विभक्तिः भवति तदा सः व्यधिकरणबहुव्रीहिः भवति। यथा-(जब समास के पूर्व पद और उत्तर पद में अलग-अलग विभक्ति होती है तब वह ‘व्यधिकरण बहुव्रीहि’ समास होता है। जैसे –
(3) तुल्ययोगे बहुव्रीहिः – अत्र सह शब्दस्य तृतीयान्तपदेन सह समासो भवति । यथा(तुल्ययोगे बहुव्रीहि- यहाँ ‘सह’ शब्द का तृतीया विभक्ति पद के साथ समास होता है। जैसे –
6. द्वन्द्वसमासः
द्वन्द्वसमासे परस्परं साकांक्षयोः पदयोः मध्ये ‘च’ आगच्छति, अतएव द्वन्द्वसमास: उभयपदार्थप्रधान; भवति । यथा-धर्मः च अर्थः च-धर्मार्थी । अत्र पूर्वपदं ‘धर्म:’ उत्तरपदम् च ‘अर्थ:’, अनयो: द्वयोः अपि प्रधानता अस्ति । द्वन्द्वसमासे समस्तपदं प्रायशः द्विवचने बहुवचने वा भवति । यथा –
(द्वन्द्व समासः- द्वन्द्व समास में परस्पर साभिप्राय पदों के मध्य के ‘च’ आता है; इसलिए द्वन्द्व समास उभयपदार्थ प्रधान होता है। जैसे-“धर्म: च अर्थ: च- धर्मार्थों। यहाँ पूर्व पद ‘धर्म’ और उत्तरपद ‘अर्थ:’ इन दोनों (पदों) की ही प्रधानता है। द्वन्द्व समास में समस्तपद् प्रायः द्विवचन अथवा बहुवचन में होता है। जैसे-)
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