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अधीनस्थ विधान की अवधारणा
संसद द्वारा अधीनस्थ प्राधिकरण को प्रत्यायोजित विधायी कार्यों के अनुसरण में बनाये गये नियमों, विनियमों, उप.नियमों आदेशों, योजनाओं आदि को प्रत्यायोजित अथवा अधीनस्थ विधान का नाम दिया गया है। इसे संसद के अधीनस्थ किसी प्राधिकरण द्वारा मूल विधान में प्रत्यायोजित शक्तियों का उपयोग करते हुए विख्यापित किया जाता है। 
सर जाॅन सालमंड के अनुसार, श्विधान या तो सर्वोपरि होता है अथवा अधीनस्थ होता है......अधीनस्थ विधान वह होता है जो प्रभुता संपन्न शक्ति के अतिरिक्त किसी अन्य प्राधिकार से जारी रहता है और इसलिए अपने सतत् अस्तित्व और वैधता के लिए किसी सर्वोच्च अथवा सर्वोपरि प्राधिकरण पर निर्भर है। इम्पीरियल पार्लियामेंट का विधान सर्वोपरि है.... विधायी क्रियाकलापों संबंधी अन्य सभी दूसरे स्वरूप जो इंग्लैंड के कानून द्वारा मान्यता प्राप्त हैं, अधीनस्थ होते हैं। उनका मूल संसद के अधिकार के प्रत्यायोजना में अधीनस्थ प्राधिकरण में हो सकता है जो प्रत्यायोजित शक्तियों का प्रयोग करने में प्रभुता संपन्न विधान मंडल के नियंत्रण के अधीनस्थ होते हैं।“ 

अधीनस्थ विधान की आवश्यकता
आधुनिक कल्याण राज्य की अवधारणा के संदर्भ में एक नागरिक के जीवन का शायद ही कोई ऐसा पहलू होगा जो राज्य द्वारा एक रूप में अथवा अन्य रूप में विनियमित न होता हो। परिणामस्वरूप विधान जिसे विधान मंडल द्वारा पास किया जाता है, इतना व्यापक और विविधता लिये होता है कि विधायकों के किसी भी निकाय द्वारा विधान संबंधी प्रत्येक बात पर विस्तार से चर्चा करना और स्वीकृत करना असंभव होता है जो कि समुचित प्रशासन के लिए आवश्यक है। संसदीय समय पर दबाव बने रहने के अलावा, विषय.वस्तु संबंधी तकनीकी, अप्रत्याशित आकस्मिकताओं को पूरा करने की आवश्यकता, लचीलेपन की आवश्यकाता आदि प्रत्यायोजित विधान को आवश्यक बनाती है। विधान मंडल एक विधान की व्यापक नीति और सिद्धांतों को ही निर्धारित कर सकती है और नियम, विनियम, उप.नियम आदि के रूप में विस्तृत रूपरेखा कार्यपालिका द्वारा तैयार की जाती है। 
विधायी शक्ति का प्रत्यायोजन अपरिहार्य और अनिवार्य है क्येंकि इसमें कतिपय अंतनिर्हत जोखिम हैं। बताये गये जोखिमों में एक जोखिम यह है कि संसदीय कानून रूपरेखा मात्र ही हो और उनमें केवल सामान्य सिद्धांतों का ही समावेश हो और ऐसे मामालें का उल्लेख न हो जिनका नागरिक के जीवन पर महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता हो। अन्य जोखिम यह बताया गया है कि प्रत्यायोजित शक्तियाँ इतनी व्यापक हो सकती हैं कि जिनके कारण प्रशासन नागरिकों पर कठोर और अनुचित कार्यवाही कर सकता है। तीसरा जोखिम यह है कि कुछ शक्तियाँ इतनी अस्पष्टता से परिभाषित की जा सकती हैं कि उनके अंतर्गत आने वाले क्षेत्रों की स्पष्ट जानकारी ही न हो। एक अन्य जोखिम यह है कि कार्यापालिका नियम बनाने की शक्ति का प्रयोग करते समय संसद द्वारा निर्धारित सीमाओं का अतिक्रमण कर सकती है। इसमें ये सभी जोखिम हैं। यह संसद की जिम्मेदाीर है कि वह यह देखे कि उसके द्वारा प्रत्यायोजित शक्तियों का दृरूपयोग न हो। इसलिए अधीनस्थ विधान पर संसदीय नियंत्रण का आवश्यकता है।

अधीनस्थ विधान पर संसदीय नियंत्रण
अधीनस्थ विधान पर संसदीय नियंत्रणकई प्रकार से किया जाता है। प्रथमतः संसद के पास इस प्रकार के विधान बनाने के अधिकार की जाँच करने का अवसर होता है जबकि यह इसके समक्ष विधेयक के रूप में आता है। दूसरे मूल कानूनों के अंतर्गत अधीनस्थ नियमों को प्रायः संसद के समक्ष रखने की आवश्यकात होती है और कतिपय मामलों में संसदीय प्रक्रिया के अधीन बनाये जाते हैं। तीसरे, अधीनस्थ कानूनों पर संसद द्वारा अन्य प्रकार से प्रश्न पूछे जा सकते हैं अथवा वाद-विवाद किया जा सकता है। लेकिन संसद अधीनस्थ विधान पर अपना अत्यधिक प्रभावी नियंत्रण स्थायी जाँच समिति के माध्यम से करती है जिसे अधीनस्थ विधान संअंधी समिति के रूप में जाना जाता है। 

लोक सभा की अधीनस्थ विधान सभा समिति
अधीनस्थ विधान संबंधी स्थायी समिति बनाने के सुझाव पर सर्वप्रथम वर्ष 1950 में बजट सत्र के दौरान अंतरिम संसद में विचार किया गया था। इसप्रकार की समिति बनाने के लिए नियमों का एक सेट बनाया गया और 30 अप्रैल, 1951 को लोक सभा की प्रक्रिया तथा कार्य संचालन संबंधी नियमों में सम्मिलित किया गया। तथापि, इस प्रकार की पहली समिति अध्यक्ष द्वारा 1 दिसम्बर, 1953 को गठित की गयी थी। प्रारंभ में, समिति में 10 सदस्य थे। तथापि, 9 जनवरी, 1954 को संबंधित नियम में संशोधन करके समिति के सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 15 कर दी गयी।
नियमों में एक महत्वपूर्ण प्रावधान यह है कि किसी मंत्री को समिति का सदस्य नामांकित नही किया जा सकता और यदि कोई सदस्य समिति का सदस्य नामांकित होने के बाद, मंत्राी नियुक्त हो जाता है तो वह उस नियुक्ति की तारीख से समिति का सदस्य नहीं रह जाता है। इस प्रावधान का उद्देश्य समिति को सरकार के प्रभाव से मुक्त रखना है। इस प्रकार समिति स्वतंत्रतापूर्वक कार्य करती है और वह अपनी जानकारी में आये तथ्यों के आधार पर बिना किसी भय और पक्षपात के निष्कर्षों पर पहुँच सकती हैं।
समिति का कार्यकाल इसकी नियुक्ति की तारीख से एक वर्ष का होता है। अध्यक्ष द्वारा संसद में सदन के नेता और दूसरे दलों के नेताओं और अन्य समूहों के नेताओं से प्राप्त नामों के पैनल से चयन करने में उनको प्राथमिकता दी जाती है। जिनकी वैधानिक पृष्ठभूमि होती है और जिन्हें अनुभव होता है। अध्यक्ष द्वारा समिति का सभापति समिति के सदस्यों में से ही नियुक्त किया जाता है। तथापि, यदि उपाध्यक्ष समिति का सदस्य होता है, तो वही सभापति नियुक्त किया जाता है। दल संबद्धता को ध्यान में न रखते हुए विधिक्षेत्र में प्रसिद्ध व्यक्तियों को इस समिति का सभापति होने का गौरव प्राप्त है। 
प्रक्रिया संबंधी नियमों के अंतर्गत समिति को अपने कार्य को चलाने के लिए विस्तृत नियम बनाने का अधिकार प्राप्त है और इस अधिकार का प्रयोग करके समिति ने अपने आंतरिक कार्य के लिए नियम बनाये हैं। समिति की 37 वर्षों से भी अधिक कार्यकरण के दौरान विकसित कार्य संबंधी प्रक्रियाओं के फलस्वरूप कार्यपालिका प्रणाली द्वारा लाये गये अधीनस्थ विधान पर समिति संसदीय नियंत्रण के एक अधीनस्थ विधान पर दो स्तरों पर नियंत्रण रखती है। (एक) विधेयक स्तर, जबकि अधीनस्थ विधान बनाने के लिए अधिकारों का प्रत्यायोजन किया जाता है और (दो) "आर्डर" स्तर, जबकि नियम, विनियम प्रत्यायोजित शक्तियों के अनुसरण में कार्यपालिका द्वारा जारी किये जाते हैं। 
कार्यपालिका द्वारा मनमानी शक्तियों का ग्रहण करने के विरुद्ध महत्वपूर्ण सुरक्षोपाय यह है कि विधान की प्रत्यायोजित शक्तियों का प्रयोग करते हुए इसके द्वारा बनाये गये नियम न केवल विधान मंडल के समक्ष रखे जाने चाहिये अपितु विधान मंडल को इन्हें रद्द करने व इनमें संशोधन करने के अपने संवैधानिक अधिकार के प्रति भी जागरूक रहना चाहिये। इस प्रयोजन के लिए, समिति ने बहुत पहले एक मान सूत्र तैयार किया था कि सभी विधेयकों में नियम बनाने संबंधी प्रत्यायोजित की जाये। सदन में प्रस्तुत किये गये अथवा राज्य सभा द्वारा भेजे गये प्रत्येक विधेयक की समिति द्वारा यह देखने के लिए जाँच की जाती है कि कया इसमें समिति द्वारा निर्धारित रूप में नियमों को सभा पटल पर रखने तथा उसमें संधोधन करने के प्रावधान किये गये हैं।

निदेश 103क के अधीन अध्यक्ष विधायी शक्तियों के प्रत्यायोजना संबंधी उपबंधों वाले विधेयक को भी समिति की जाँच के लिए निर्दिष्ट कर सकेगा। समिति को प्रत्यायोजित की जाने वाली शक्त्यिों की व्यापकता की जाँच करनी होती है यथा यदि समिति का यह विचार होता है कि इसके उपबंधों के कुछ भाग को अथवा पूरे को रद्द किया जाना चाहिये अथवा उसमें किसी प्रकार का संशोधन किया जाना चाहिये तो यह विधेयक को विचार के लिए जाने से पहले अपना मत और उसके आधार संसद के समक्ष प्रकट करती है। सदस्यों की सुविधा के लिए विधायी शक्तियों को प्रत्यायोजित करने संबंधी प्रस्तावांे वाले प्रत्येक विधेयक के साथ एक व्याख्यात्मक ज्ञापन संलगन होता है जिसमें ऐसे प्रस्तावेां की व्याख्या की जाती है और यह भी बताया जाता है कि वे सामान्य अथवा अआपवादिक स्वरूप के हैं। 

नियम 317 के अधीन समिति का यह कार्य है कि वह इस बात की छानबीन करे और सभा को प्रतिवेदित करे कि संविधान द्वारा प्रदत्त या संसद द्वारा प्रत्यायोजित विनियम, नियम उप.नियम, उप.विधियाँ आदि बनाने की शक्तियों का प्रयोग ऐसे प्रत्यायोजन के अंतर्गत उचित रूप से किया जा रहा है। समिति संविधान के उपबंधों के अनुसरण में अथवा किसी अधीनस्थ प्राधिकारी को प्रत्यायोजित वैधानिक कृत्य के अनुसरण में तैयार किए गए सभी आदेशों की जाँच करती है, चाहे वह सभा पटल पर रखे गए हों अथवा नहीं। वास्तव में समिति आदेशों की छानबीन चाहे वे सभापटल पर रखे गए हों अथवा नहीं, शासकीय राजपत्र में उनके प्रकाशित होने के बाद कर देती हैं। समिति संविधान के अनुच्छेद 309 के परन्तुक के अंतर्गत बनाए गए भर्ती नियमों की भी जाँच करती है जिन्हें शासकीय राजपत्र जिन्हें विधायी नियमों के अनतर्गत प्रत्यायोजित शक्तियों के अन्तर्गत बनाये गये अन्य सभी सांवधिक "आदेशो" की तरह संख्यांकित किया जाता है, चाहे उनको सभा पटल पर रखा जाना आवश्यक नहीं है। 

वास्तव में, प्रत्यायोजित शक्तियों के प्राधिकार के अधीन बनाए गए नियमेां की वैधता के साथ ही समिति संतुष्ट नहीं हो जाती। समिति का उद्देश्य विधान (अधीनस्थ विधान सहित) का  "अंतिम " उद्देश्य अधिक से अधिक जनता का हित है। एक और समिति यह सुनिश्चित करती है कि कार्य पालिका द्वारा बनाया गया अधीनस्थ विधान मूल संविधि में निर्धारित सीमाओं का उल्लंघन न करे तथा दूसरी ओर इस बात पर नजर रखती है कि यह समानता तथा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के अनुरूप हो तथा किसी भी तरह जनता के लिए अनावश्यक कष्ट, परेशानी और असुविधा का कारण न बने। क्योंकि जनता में मुख्यतः सामान्य जन होते हैं इसलिए यह आवश्यक है कि अधीनस्थ विधान बनाने के उद्देश्य को साधारण भाषा में अभिव्यक्त किया जाए जिसे साधारण व्यक्ति बिना किसी कठिनाई के समझ सके। इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समिति ने हमेशा इस आवश्यकता को स्वीकार किया है कि सांविधिक आदेश संक्षिप्त स्पष्ट हों तथा गूढ़, स्थूल तथा निरर्थक न हों। समिति आगे सुनिश्चित करती है कि इस प्रकार का विधान किसी भी प्रकार से संविधान के सामान्य उद्देश्यों अथवा उस संविधि के विपरीत न हों जिसके अनुसरण में यह बनाया गया है। 
निदेश 105 के अंतर्गत, किसी  "आदेश " के राजपत्र में प्रकाशित होने के बाद लोक सभा सचिवालय यह निश्चित करने के लिए उसकी जाँच करेगा कि क्या उसको नियमों में दिये गये किसी आधार पर अथवा समिति की किसी प्रथा अथवा निदेश के अनुसार समिति के ध्यान मे लाना आवश्यक हैं। यदि जाँच के दौरान किसी बात के संबंध में कोई स्पष्टीकरण आवश्यक समझा जाये तो वह संबंधित मंत्रालय को निर्दिष्ट किया जायेगा और इस विषय पर यदि आवश्यक हुआ तो, उनके उत्तर को दृष्टि में रखते हुए पुनर्विचार किया जायेगा। यदि किसी बात को समिति के ध्यान में लाना आवश्यक समझा जाता है तो उस विषय पर एक परिपूर्ण ज्ञापन तैयार किया जाता है और उसे सभापति के अनुमोदन के पश्चात् समिति के समक्ष रखा जाता है। जहाँ समिति आवश्यक समझे, समिति संबद्ध मंत्रालय के प्रतिनिधियों को मौखिक साक्ष्य लेती है। समिति के निर्णयों को कार्यवाही सारांशों में रिकार्ड किया जाता है। तत्पश्चात् कार्यवाही सारांशों में रिकार्ड सचिवालय प्रारूप प्रतिवेदन तैयार करता है। प्रारूप प्रतिवेदन को सभापति द्वारा  अनुमोदित समिति के समक्ष स्वीकृति में रखा जाता है। यह सुनिश्चित करने के लिए कि समिति के सदस्य श्आदेशोंश् की जाँच करने और सुझाव देने से वंचित न रहें, सभा पटल पर रखे गये सभी आदेशों की प्रतियों को सुविधाजनक बैचों में उनको परिचालित किया जाता है। 
समिति की सिफारिशों के क्रियान्वयन संबंधी प्रक्रिया का वर्णन अध्यक्ष द्वारा निदेश 108 में किया गया हैं। मंत्रियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे समय.समय पर समिति की सिफारिशों तथा समिति के साथ पत्राचार के दौरान उनके द्वारा दिए गए आश्वासनों पर की गई कार्यवाही अथवा की जाने वाली कार्यवाही सें संबंधित विवरण प्रस्तुत करें। जानकारी सभापति के अनुमोदन से स्वतः पूर्ण ज्ञापन के रूप में समिति के समक्ष प्रस्तुत की जाती है। समिति ने छः माह की समय-सीमा निर्धारित की है। जिसके भीतर सरकार द्वारा इसकी सिफारिशों को क्रियान्वित किया जाना अपेक्षित है। उन मामलों में जबकि सरकार समिति द्वारा की गई सिफारिशों को लागू करने की स्थिति में नहीं होती है अथवा उसे प्रभावी बनाने में किसी प्रकार की कठिनाई का अनुभव करती है। समिति को अगर उचित लगे तो वह या तो सिफारिशों को छोड़ देती है अथवा उसमें सुधार करती है अथवा इसके क्रियान्वयन हेतु आग्रह करती है तथा तदनुसार दूसरी रिपोर्ट बनाकर सदन के समक्ष प्रस्तुत करती हैं। परम्परानुसार, समिति की रिपोर्टों पर सभा में बहस नहीं की जाती है। तथापि, सदस्यगण संबद्ध नियम के अंतर्गत रिपोर्ट में शामिल किसी मामले पर बहस की माँग कर सकते हैं। 

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FAQs on अधीनस्थ विधान - भारतीय राजव्यवस्था - UPSC

1. अधीनस्थ विधान क्या होता है?
उत्तर: अधीनस्थ विधान एक ऐसा कानून है जो किसी देश या क्षेत्र के शासन और प्रशासन को नियंत्रित करने के लिए बनाया जाता है। इसका उद्देश्य व्यवस्था और सुशासन को सुनिश्चित करना होता है और नागरिकों के अधिकारों की संरक्षण करना होता है।
2. भारतीय राजव्यवस्था में अधीनस्थ विधान की भूमिका क्या है?
उत्तर: भारतीय राजव्यवस्था में अधीनस्थ विधान एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह भारतीय संविधान का एक हिस्सा होता है और निर्धारित करता है कि किस प्रकार देश के केंद्र और राज्य सरकारों के बीच शक्ति का विभाजन होगा। इसका उद्देश्य न्यायपालिका को स्थापित करना, न्यायपालिका की स्वायत्तता को सुनिश्चित करना और राज्य सरकारों के निर्णयों को परीक्षण करना होता है।
3. UPSC क्या है और इसकी भूमिका क्या है?
उत्तर: UPSC (संघ लोक सेवा आयोग) भारतीय सरकार द्वारा संचालित एक संघीय संगठन है जो भारतीय संविधान के अनुसार न्यायपालिका के लिए परीक्षा आयोजित करता है। इसकी भूमिका उम्मीदवारों की नियुक्ति और उन्हें भारतीय संविधान के अनुसार केंद्र और राज्य सरकारों की न्यायिक खगोलीय सेवाओं में संचालनिक भूमिकाओं के लिए तैयार करना होती है।
4. अधीनस्थ विधान के अंतर्गत कौन-कौन सी सेवाएं आती हैं?
उत्तर: अधीनस्थ विधान के अंतर्गत कई सेवाएं आती हैं। कुछ मुख्य सेवाएं न्यायिक सेवाएं, पुलिस सेवाएं, खगोलीय सेवाएं, भूगोल संबंधी सेवाएं, वन सेवाएं, आपत्ति प्रबंधन सेवाएं, आदि हैं। इन सेवाओं में न्यायिक अधिकारी, पुलिस अधिकारी, अंग्रेजी भाषा में अनुवादक, वन अधिकारी, आपत्ति प्रबंधन अधिकारी, आदि शामिल होते हैं।
5. भारतीय राजव्यवस्था में UPSC की भूमिका क्या है?
उत्तर: भारतीय राजव्यवस्था में UPSC (संघ लोक सेवा आयोग) की भूमिका महत्वपूर्ण है। यह भारतीय संविधान के अनुसार न्यायपालिका के लिए परीक्षा आयोजित करता है और उम्मीदवारों को केंद्र और राज्य सरकारों की न्यायिक खगोलीय सेवाओं में संचालनिक भूमिकाओं के लिए तैयार करता है। यह आयोग उम्मीदवारों की नियुक्ति के लिए एक निष्पक्ष और विशेषज्ञ विचाराधीन प्रक्रिया सुनिश्चित करता है।
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