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सर्वोच्च न्यायालय - संशोधन नोटस, भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

सर्वोच्च न्यायालय

सर्वोच्च न्यायालय देश की सर्वोच्च न्यायिक संस्था है।

सर्वोच्च न्यायालय का गठन 

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 124 में सर्वोच्च न्यायालय के संबंध में उपबंध है। इसके अन सार भारत का एक उच्चतम न्यायालय होगा जो कि एक मुख्य न्यायाधीश और संसद की विधि द्वारा निर्धारित अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनेगा।
  • इन अन्य न्यायाधीशों की संख्या मूल संविधान में 7 निर्धारित की गई थी। लेकिन संसद द्वारा समय-समय पर यह संख्या बढ़ायी जाती रही है।
  • 1956 के उच्चतम न्यायालय अधिनियम द्वारा यह संख्या 10 कर दी गई थी।
  • 1960 में बढ़ाकर 13 की गयी थी तथा 1977 के संशोधन में बढ़ाकर 17 कर दी गयी।
  • 1986 के संशोधन अधिनियम द्वारा यह संख्या 25 कर दी गयी है।
  • इस प्रकार वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय मुख्य न्यायाधीश तथा 25 अन्य न्यायाधीशों से मिलकर बनता है।

न्यायाधीशों की नियुक्ति

  • संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के अन सार सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा प्रधानमंत्राी एवं मंत्री परिषद् के परामर्श से की जाती है।
  • उच्चतम न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति भी राष्ट्रपति द्वारा मुख्य न्यायाधीश के परामर्श पर की जाती है।

न्यायाधीशों की योग्यताएँ

  • संविधान के अनुच्छेद 124(3) में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों के लिए निम्न योग्यताएँ निर्धारित की गई है-
    (क) वह भारत का नागरिक हो,
    (ख) किसी उच्च न्यायालय या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों में लगातार कम से कम 5 वर्ष तक न्यायाधीश रहा हो, या
    (ग) किसी उच्च न्यायालय या ऐसे दो या अधिक न्यायालयों में लगातार कम से कम 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो, या
    (घ) राष्ट्रपति की राय में वह पारंगत विधिवेत्ता हो।
  • इस अन्तिम उपबन्ध को शामिल करने का उद्देश्य न्यायाधीशों की नियुक्ति का दायरा विस्तृत करना था। इस प्रावधान के अन्तर्गत राष्ट्रपति ऐसे किसी विधि शास्त्री को जो कि किसी विश्वविद्यालय में विधि शास्त्र का अध्यापन कर रहा हो न्यायाधीश पद पर निय क्त कर सकता है।

न्यायाधीशों का कार्यकाल

  • सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की पदावधि अथवा कार्यकाल का निर्धारण संविधान के अनुच्छेद 124 (2) में उल्लिखित है। इसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय का कोई भी न्यायाधीश 65 वर्ष की आय तक अपने पद पर बना रह सकता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 124 (2) के अन सार सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद में रिक्ति निम्न प्रकार से ही हो सकेगी-
    (क) 65 वर्ष की आय पूर्ण कर चुकने पर।
    (ख) न्यायाधीश स्वयं राष्ट्रपति को संबोधित कर अपने हस्ताक्षर सहित लिखित पत्रा द्वारा अपना पद त्याग सकता है।
    (ग) संसद द्वारा महाभियोग लगाकर उसे पद से हटाया जा सकता है।

महाभियोग प्रक्रिया

  • संविधान के अनुच्छेद 124 के खण्ड (4) में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को पद से हटाने की प्रक्रिया निर्धारित की गई है। 
  • संसद अपने प्रत्येक सदन की क ल सदस्य संख्या के बह मत तथा सदनोें में उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बह मत से पारित प्रस्ताव द्वारा न्यायाधीशों को पदच्य त कर सकती है। लेकिन ऐसा वह केवल राष्ट्रपति की अन मति से ही कर सकती है।
  • ऐसा प्रस्ताव संसद के उसी सत्र में पारित होना चाहिए जिस सत्र में वह प्रस्त त किया गया है।
  • ऐसा प्रस्ताव केवल दो ही स्थितियों में रखा जा सकता है-
    (1) प्रमाणित कदाचार (दुर्व्यहार) के आधार पर - इसका तात्पर्य है कि यदि संसद यह महसूस करे कि न्यायाधीश द्वारा अपने पद का द र पयोग किया गया है अथवा उसने संविधान के विरुद्ध आचरण किया है तब ऐसी स्थिति में वह प्रस्त त प्रकरणों के आधार पर राष्ट्रपति की अन मति से महाभियोग प्रस्ताव रख सकती है।
    (2) अक्षमता के आधार पर - संसद यदि यह महसूस करे कि न्यायाधीश अपने पद पर कार्य करते रहने में असमर्थ अथवा अक्षम है तब वह इस आशय का प्रस्ताव राष्ट्रपति  की अन मति से सदस्यों के समक्ष रख सकती है।
  • इस प्रकार के किसी भी प्रस्ताव के संसद में पेश होने पर संबंधित न्यायाधीश को अपना पक्ष प्रस्त त करने तथा अपनी पैरवी करने का पूरा अवसर प्रदान किया जाएगा।
  • इस प्रकार महाभियोग प्रस्ताव पारित होने पर ही राष्ट्रपति न्यायाधीश को पद से हटाने की घोषणा करेगा।

कार्यकारी तथा तदर्थ न्यायाधीशों की नियुक्ति

  • संविधान के अनुच्छेद 126 के अधीन राष्ट्रपति को मुख्य न्यायाधीश की अन पस्थिति में अथवा अन्य किसी कारण से उसके अपने पद के कर्तव्यों के पालन करने में असमर्थ रहने पर न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों में से किसी एक को जिसे वह उचित समझे नये मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति होने तक कार्यकारी मुख्य न्यायाधीश निय क्त करने का अधिकार प्राप्त है।
  • इसी प्रकार अनुच्छेद 127 के अन सार-किसी समय यदि न्यायालय के सत्र (बैठक) को आयोजित करने अथवा चालू रखने के लिये आवश्यक गणपूर्ति नहीं हो तो ऐसी स्थिति में भारत का मुख्य न्यायाधीश राष्ट्रपति की सहमति से तथा उस उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करने के पश्चात् जिसके कि किसी न्यायाधीश को वह उच्चतम न्यायालय का तदर्थ न्यायाधीश उस समय की अवधि तक के लिए जब तक कि गणपूर्ति न हो निय क्त करने का अधिकार रखता है।
  • एक तदर्थ न्यायाधीश को उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश  की सभी अधिकारिता शक्तियाँ और विशेषाधिकार प्राप्त होते हैं।

न्यायाधीशों के वेतन एवं भत्ते

  • संविधान के अनुच्छेद 125 (2) के अधीन न्यायाधीशों के वेतन, भत्ते एवं पेंशन से संबंधित कानून (विधि) बनाने का अधिकार संसद को प्राप्त है।
  • वर्तमान में संविधान अधिनियम 1986 द्वारा मुख्य न्यायाधीश का वेतन 10,000 रूपये मासिक तथा अन्य न्यायाधीशों का वेतन 9,000 रूपये प्रतिमास निर्धारित किया गया था।
  • इसके अतिरिक्त मुख्य न्यायाधीश को 36,400 रु. वार्षिक पेंशन तथा अन्य न्यायाधीशों को 28,000 रु. वार्षिक पेंशन भी प्रदान की जाती है। (नवीनतम आॅकड़े बाॅक्स में देखें।)

उन्मुक्तियां एवं विशेषाधिकार

भारत में सर्वोच्च न्यायालय को संविधान का संरक्षक बनाया गया है। न्यायाधीश अपना कार्य निष्पक्षता एवं स्वतंत्राता के साथ सम्पन्न करे, इस हेत उन्हें कुछ विशेषाधिकार एवं उन्मुक्तियां प्रदान की गयी हैं। ये निम्न है-
(1) किसी भी न्यायाधीश को केवल साबित कदाचार या असमर्थता के आधार पर संविधान द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप ही पदच्युत  किया जा सकता है अन्यथा नहीं।
(2) किसी भी न्यायाधीश के वेतन, भत्तों, छुट्टियों  या अन्य स विधाओं में उसके कार्यकाल में कटौती नहीं की जा सकती। कटौती केवल अनुच्छेद 360 के अधीन राष्ट्रपति द्वारा घोषित वित्तीय आपातकाल के दौरान की जा सकती है।
(3) न्यायाधीशों का वेतन भारत की संचित निधि पर भारित व्यय के अन्तर्गत आता है।
इसी प्रकार उच्च न्यायालय के सभी प्रशासनिक व्यय तथा उसके अन्य कर्मचारियों के वेतन-भत्ते सभी भारत की संचित निधि में से देय होंगे। इन पर संसद में मतदान नहीं किया जा सकता।
(4) किसी भी न्यायाधीश के आचरण एवं कार्यों के संबंध में संसद में महाभियोग प्रस्ताव के अतिरिक्त किसी भी स्थिति में कोई चर्चा नहीं की जा सकती।
(5) न्यायाधीश अपनी सेवा निवृत्ति के पश्चात् भारत राज्यक्षेत्रा के किसी भी न्यायालय में अथवा किसी भी सरकारी अधिकारी के समक्ष वकालत नहीं कर सकते।
(6) सर्वोच्च न्यायालय को अपने कार्यों को सुचारू रूप से चलाने के लिये कर्मचारियों की नियुक्ति में पूर्ण स्वतंत्राता प्रदान की गई है। इनकी सेवा-शर्तें भी इसी न्यायालय द्वारा निर्धारित की जाती है।

सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा ली जाने वाली शपथ 

  • संविधान के अनुच्छेद 124 (6) के अन सार अपना पद ग्रहण करने से पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों को राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा इस हेत नियुक्त व्यक्ति के समक्ष तीसरी अनुसूची में इस पद के लिये निर्धारित शपथ ग्रहण करनी होगी।
  • संविधान की तीसरी अनुसूची में मुख्य न्यायाधीश एवं अन्य न्यायाधीशों के लिए शपथ का निम्न प्रारूप निर्धारित किया गया है।
    ”मैं अमूक जो भारत के उच्चतम न्यायालय का मुख्य न्यायमूर्ति (या न्यायाधीश) नियुक्त हुआ हूं, ईश्वर की शपथ लेता हूँ (या सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञा करता हूँ) कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और सत्यनिष्ठा रखूँगा, मैं भारत की प्रभुता और अखण्डता अक्षुण्ण रखूँगा तथा मैं सम्यक प्रकार से और श्रद्धापूर्वक तथा अपनी पूरी योग्यता, ज्ञान और विवेक से अपने पद के कत्र्तव्यों का भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना पालन करूँगा तथा मैं संविधान और विधियों की मर्यादा बनाये रखूँगा।“
  • उपर्युक्त प्रारूप में ”मैं भारत की प्रभुता और अखण्डता अक्षुण्ण रखूँगा“ वाक्यांश संविधान के सोलहवें संशोधन अधिनियम 1963 की धारा 5 द्वारा शामिल किया गया है।

सर्वोच्च न्यायालय की कार्यविधि

  • सर्वोच्च न्यायालय अपना कार्य किस प्रक्रिया के अनुरूप करेगा, इस हेत कुछ उपबन्ध तो संविधान में ही निर्धारित किये गये है तथा समय की आवश्यकतानुसार संसद एवं न्यायालय को स्वयं ही अपनी प्रक्रिया संबंधी नियम निर्धारण की शक्ति भी प्रदान की गई है। सामान्यतः सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अपनी कार्यवाही निम्न विधि द्वारा संचालित की जाती है-
  • संविधान के अनुच्छेद 145 के अनुसार-
  • (1) ऐसे विषय जिनका संबंध संविधान की व्यवस्था से हो या जिसमें संविधान की विधि के अभिप्राय (अर्थ) को समझने या उसकी व्याख्या करने संबंधी प्रावधान हो, एवं यदि इसमें कोई ऐसा विषय शामिल हो जिस पर विचार या निर्णय करने केे लिए राष्ट्रपति ने निर्देश दिये हों, तो संबंधित स नवाई सर्वोच्च न्यायालय के कम से कम 5 न्यायाधीशों की उपस्थिति में ही की जा सकेगी।
  • (2) ऐसे विषयों या निर्णयों से संबंधित अपीलें सर्वोच्च न्यायालय के 5 से कम न्यायाधीशों के समक्ष उपस्थित नहीं की जा सकती है जिनमें कि स नवाई के पश्चात् यह विचार किया जाए कि उसमें संविधान की व्याख्या करने संबंधी या कानून के तात्विक रूप को स्पष्ट करने संबंधी प्रावधान है।
  • (3) सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्णय ख ले न्यायालय में ही स नाये जाएंगे एवं प्रत्येक रिपोर्ट ख ले न्यायालय में स नाई गई राय के अन सार ही दी जाएगी।
  • (4) सर्वोच्च न्यायालय के प्रत्येक निर्णय बहुमत के आधार पर ही लिये जाएंगे। बहुमत के निर्णय से असहमत उसी खण्ड के न्यायाधीश अपना पृथक निर्णय या राय दे सकते है लेकिन इससे बहुमत के निर्णय पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।
  • बहुमत का निर्णय ही प्रभावी माना जाएगा।
  • लोकहित एवं राष्ट्रीय स रक्षा की दृष्टि से न्यायालय को अपने निर्णय सुरक्षित रखने का भी अधिकार प्राप्त है। वह ऐसा प्रायः राष्ट्रपति की सहमति एवं परामर्श से ही करता है।

सर्वोच्च न्यायालय की शक्तियाँ

  • भारत के संविधान तथा उसके संघात्मक स्वरूप का एवं नागरिकों के मौलिक अधिकार के संरक्षक के रूप में भारत के सर्वोच्च न्यायालय को व्यापक शक्तियाँ प्रदान की गई है।
  • इसके अधिकार क्षेत्रा को तीन शीर्षकों में विभाजित किया जा सकता है-
    I.  प्राथमिक अथवा प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार 
    II.  अपीलीय क्षेत्राधिकार
    III. परामर्शदात्राी क्षेत्राधिकार

महत्वपूर्ण तथ्य

आधे घंटे की चर्चा-जिन प्रश्नों का उत्तर सदन में दे दिया गया हो, उन प्रश्नों से उत्पन्न होने वाले मामलों पर चर्चा लोकसभा में सप्ताह में तीन दिन, यथा-सोमवार, ब धवार तथा श क्रवार को, बैठक के अन्तिम आधे घंटे में की जा सकती है। राज्यसभा में ऐसी चर्चा किसी दिन, जिसे सभापति नियत करे, सामान्यतः 5 बजे से 5.30 बजे के बीच की जा सकती है। ऐसी चर्चा का विषय पर्याप्त लोक महत्व का होना चाहिए तथा विषय हाल के किसी तारांकित, अतारांकित या अल्प सूचना का प्रश्न रहा हो और जिसके उत्तर के किसी तथ्यात्मक मामले का स्पष्टीकरण आवश्यक हो। ऐसी चर्चा को उठाने की सूचना कम से कम तीन दिन पूर्व दी जानी चाहिए।

शून्य काल-संसद के दोनों सदनों में प्रश्न काल के ठीक बाद के समय को शून्य काल कहा जाता है। यह 12 बजे प्रारम्भ होता है और एक बजे तक चलता है। शून्य काल का लोकसभा या राज्यसभा की प्रक्रिया तथा संचालन नियम में कोई उल्लेख नहीं है। इस काल, अर्थात 12 बजे से 1 तक के समय, को शून्यकाल का नाम समाचार पत्रों द्वारा दिया गया। इस काल के दौरान सदस्य अविलम्बनीय महत्व के मामलों को उठाते है तथा उस पर तुरंत कार्यवाही चाहते है।

प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार

संविधान के अनुच्छेद 131 में सर्वोच्च न्यायालय के प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार का उल्लेख मिलता है। अध्ययन की स विधा की दृष्टि से इसे दो वर्गों में रखा जा सकता है-
(क) प्रारम्भिक एकमेव क्षेत्राधिकार, 
(ख) समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार।

(एकमेव प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार 

  • इस क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत आने वाले विवादों के निराकरण की एकमात्रा शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है। इसके अन्तर्गत निम्न विषय आते है-
    (i)  भारत सरकार और एक या एक से अधिक राज्यों के बीच के विवाद। (अनुच्छेद 131 (5))
    (ii) एक ओर भारत सरकार और एक राज्य या अधिक राज्यों एवं दूसरी ओर एक राज्य या अधिक राज्यों के मध्य विवाद (अन .131(ख)) एवं
    (iii) दो या दो से अधिक राज्यों के मध्य ऐसे विवाद जिसमें कोई कानूनी (विधिक) अथवा तथ्य संबंधी कोई प्रश्न अन्तर्निहित हो तथा जिसके ऊपर किसी भी वैध अधिकार का अस्तित्व एवं विस्तार निर्भर हो और उसके संबंध में न्यायालय से निर्णय की याचना की गई है।
  • उपर्युक्त विवाद केवल सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष ही उपस्थित किये जा सकते है, किसी भी अन्य न्यायालय के समक्ष नहीं।

(समवर्ती प्रारम्भिक क्षेत्राधिकार

  • इस वर्ग में सर्वोच्च न्यायालय की वे शक्तियाँ शामिल है जो उसे संविधान द्वारा प्रदत्त नागरिकों के मौलिक अधिकारों को लागू करने के संबंध में प्राप्त हैं। इन शक्तियों का प्रयोग सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ राज्यों के उच्च न्यायालयों द्वारा भी किया जा सकता है।
  • संविधान के अनुच्छेद 32 (1) में सर्वोच्च न्यायालय को नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा का उत्तरदायित्व सौंपा गया है कि ”वह नागरिका के मौलिक अधिकारों को लागू करने के लिये सम चित कार्यवाही करे।“
  • इस हेत वह बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा आदि याचिकाएँ (रिटें) जारी कर सकता है।
  • मूल अधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में कोई भी नागरिक अपनी याचिका के साथ सर्वोच्च न्यायालय अथवा उच्च न्यायालय में जा सकता है।

अपीलीय क्षेत्राधिकार

संविधान के अनुच्छेद 132 के अधीन सर्वोच्च न्यायालय को अपीलीय अधिकारिता भी प्रदान की गई है। इसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय को समस्त राज्यों के उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें सुनने का अधिकार भी प्राप्त है। इस अधिकार क्षेत्रा को 4 वर्गों में बाँटा गया है-
(i) संवैधानिक
(ii) दीवानी
(iii) फौजदारी
(iv) विशिष्ट

(i) संवैधानिक

  • संविधान के अनुच्छेद 132 के अनुसार यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि विवाद में कोई संवैधानिक प्रश्न निहित है तो भारत क्षेत्रा के किसी भी उच्च न्यायालय के निर्णयों की अपील सर्वोच्च न्यायालय में की जा सकती है, चाहे वह विवाद दीवानी, फौज़दारी या अन्य कार्यवाहियों के बारे में ही क्यों न हो।
  • ऐसी स्थिति में जबकि उच्च न्यायालय ऐसा प्रमाणपत्रा न दे कि विवाद किसी संवैधानिक प्रश्न से संबंधित है तब भी सर्वोच्च न्यायालय यदि यह महसूस करे कि उच्च न्यायालय में विचाराधीन कोई विवाद में संविधान संबंधी कोई प्रश्न सन्निहित है तो इस स्थिति में सर्वोच्च न्यायालय स्वयं ही ऐसा प्रमाण पत्रा देकर अपील की विशेष आज्ञा प्रदान कर सकता है। इस अधिकार से यह न्यायालय संविधान का अन्तिम संरक्षक और व्याख्याकर्ता बन गया है।

(ii) दीवानी

  • मूल संविधान में यह व्यवस्था की गई थी सर्वोच्च न्यायालय ऐसे विवादों की अपीलें स न सकता है जिनकी धनराशि 20,000 रु. से अधिक हो।
  • संविधान के 30वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम द्वारा अनुच्छेद 133 को संशोधित करते हुए अब धनराशि की सीमा हटा दी गई है।
  • अब सर्वोच्च न्यायालय ऐसे विवादों की अपीलें स न सकता है जिसमें उच्च न्यायालय अपने निर्णयों में यह प्रमाण दे कि संबंधित विवाद में कानून की व्याख्या से संबंधित प्रश्न अन्तर्निहित है।

(iii) फौज़दारी

  • संविधान के अनुच्छेद 134 में फौज़दारी मुकदमों में उच्च न्यायालयों के निर्णयों के विरोध में निम्न स्थितियों में सर्वोच्च न्यायालय में अपील की जा सकती है-
    (क) उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालय द्वारा म क्त किये गये किसी अभिय क्त को जब मृत्य -दण्ड दिया हो;
    (ख) यदि उच्च न्यायालय ने अपने अधीनस्थ न्यायालय से किसी मुकदमे को अपने यहाँ मँगाकर किसी अभियुक्त को मृत्य -दण्ड दिया हो;
    (ग) यदि उच्च न्यायालय यह प्रमाणित कर दे कि विवाद सर्वोच्च न्यायालय के विचार करने योग्य है।

(iv) विशिष्ट अपील

  • संविधान के अनुच्छेद 136 द्वारा साधारण कानूनों से भिन्न अपील संबंधी विशिष्ट अधिकार भी सर्वोच्च न्यायालय को प्रदान किये गये है ।
  • इस अनुच्छेद के अन सार सर्वोच्च न्यायालय स्वविवेक से अध्याय 4 के किसी भी उपबन्ध के अधीन भारत राज्य क्षेत्रा के किसी भी न्यायालय अथवा न्यायाधिकरण (tribunal) द्वारा किसी मामले में दिये हुए किसी भी निर्णय अथवा आदेश के विरुद्ध अपील सुनने की अनुमति दे सकता है।
  • इस संबंध में संविधान के अनुच्छेद 136 (2) के अन सार इसमें भारत के सशस्त्र सेना से संबंधित किसी भी न्यायाधिकरण द्वारा पारित या उसके द्वारा दिये गये निर्णय या आदेश पर यह लागू नहीं होगी।
  • इसी प्रकार सर्वोच्च न्यायालय को अनुच्छेद 138 के अधीन संघ सूची के विषयों में से किसी के संबंध में भी अपील स नने का अधिकार होगा यदि यह शक्ति उसे संसद विधि द्वारा प्रदान करे।
  • मूल संविधान एवं 44वें संशोधन के पश्चात् सर्वोच्च न्यायालय को कतिपय अधिकारियों जैसे-राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष, प्रधानमंत्राी के चुनाव संबंधी विवादों की सुनवाई का भी अधिकार प्राप्त है।

महत्वपूर्ण तथ्य

  • बजट सत्र-यह सत्र फरवरी के दूसरे या तीसरे सप्ताह के सोमवार को आरंभ होता है। इसे बजट सत्र इसलिए कहते है कि इस सत्र में आगामी वित्तीय वर्ष का अन मानित बजट प्रस्त त, विचारित और पारित किया जाता है।
  • मानसून और शीतकालीन सत्र-इन सत्रों में सरकार पिछले सत्र के बाद जारी किए गए अध्यादेशों तथा नए विधेयकों को सदन की अन मति के लिए प्रस्त त करती है। इनके अतिरिक्त इन दो अधिवेशनों को ब लाने के दो अन्य अभिप्राय है -संसद से पूरक बजट पारित कराना तथा गंभीर राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर सांसदों को अपने विचार तथा मत प्रकट करने के लिए अवसर प्रदान करना।
  • याचिका-संसद सदस्य सार्वजनिक हित के किसी विषय या समस्या के संबंध में अपने आप या जनता की ओर से सदन को याचिका प्रस्त त कर सकते है । सदन की अन मति से इसे याचिका समिति को भेज दी जाती है। याचिका पर सदन में किसी प्रकार की बहस या चर्चा की अन मति नहीं है। याचिका समिति संबद्ध विषय या समस्या के सभी पक्षों का अध्ययन कर सदन को अपनी रपट देती है। यह समिति याचिकाओं के अतिरिक्त जनसाधारण से आए आवेदनों, टेलिग्रामों तथा पत्रों पर भी विचार करती है। याचिकायें सदन में प्रश्नकाल के त रंत बाद ली जाती है ।
  • स्थगन प्रस्ताव-स्थगन प्रस्ताव पेश करने का मुख्य उद्देश्य किसी अविलम्बनीय लोक महत्व के मामले की ओर सदन का ध्यान आकर्षित करना है। जब इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया जाता है, तब सदन अविलम्बनीय लोक महत्व के निश्चित मामले पर चर्चा करने के लिए सदन का नियमित कार्य रोक देता है। इस प्रस्ताव को पेश करने के लिए निम्नलिखित तत्व आवश्यक है-
    (i) मामले का स्वरूप निश्चित हो,
    (ii) मामले का आधार तथ्यात्मक हो,
    (iii) मामले में विलम्ब किया जाना उचित न हो, तथा
    (iv) मामला लोक महत्व का हो।
  • स्थगन प्रस्ताव के लिए उचित विषय है-देश की राजनीतिक स्थिति, अराजकता, बेरोजगारी, रेल दुर्घटनाएं, मिलों का बन्द हो जाना, असामान्य अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति। जो सदस्य स्थगन प्रस्ताव पेश करना चाहता है, उसे प्रस्ताव पेश करने के दिन 10 बजे स बह प्रस्ताव की सूचना अध्यक्ष/सभापति, सम्बन्धित मंत्री तथा सदन के महासचिव को देना चाहिए। यदि अध्यक्ष को समाधान हो जाये कि वह मामला नियमान कूल है, तो वह प्रस्ताव पेश करने की अन मति देता है। प्रश्न काल की समाप्ति के बाद सदन की अन मति से प्रस्ताव पेश किया जाता है और ऐसे प्रस्ताव पर विचार विमर्श 4 बजे से लेकर 6.30 बजे तक होता है। इसे सरकार के विरुद्ध निन्दा प्रस्ताव भी कहते है।


परामर्शदात्राी क्षेत्राधिकार

  • संविधान के अनुच्छेद 143 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को परामर्शीय क्षेत्राधिकार भी प्रदान किया गया है। इसके अन्तर्गत राष्ट्रपति को यदि ऐसा प्रतीत हो कि किसी कानून अथवा तथ्य के प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायालय की राय जानना उचित है तो ऐसे प्रश्न पर वह सर्वोच्च न्यायालय से उसका परामर्श माँग सकता है।    
  • न्यायालय उस पर उचित सुनवाई के पश्चात् अपनी रिपोर्ट या परामर्श राष्ट्रपति को देता है लेकिन इसका परामर्श मानना या न मानना राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर करता है।

अन्य अधिकार

अभिलेख न्यायालय

  • संविधान के अनुच्छेद 129 में कहा गया है कि ”उच्चतम न्यायालय अभिलेख न्यायालय होगा और उसको अपने अवमानना के लिए दण्ड देने की शक्ति होगी।“
  • अभिलेख न्यायालय उस न्यायालय को कहा जाता है जिसके कि अभिलेखों का साक्ष्य की दृष्टि से मूल्य हो और जब किसी अन्य न्यायालय में उन्हें पेश किया जाए तो उन पर कोई सन्देह नहीं किया जा सकता न ही उसके निर्णयों पर एतराज ही किया जा सकता है।
    भारत में सर्वोच्च न्यायालय के अभिलेख न्यायालय होने के दो आशय है -
    (i)  इस न्यायालय के सभी अभिलेख साक्ष्य रूप में सब जगह स्वीकार्य होंगे तथा उनकी प्रमाणिकता के संदर्भ में कहीं भी किसी प्रकार का संदेह व्यक्त नहीं किया जाएगा।
    (ii)  इस न्यायालय द्वारा ”न्यायालय अवमानना“ (Contempt of Court)  के लिए दण्ड दिया जा सकता है।

न्यायिक पुनर्विलोकन

  • न्यायिक पुनर्विलोकन का सिद्धान्त भारत में अमेरिकी संविधान से ग्रहण किया गया है।
  • न्यायिक पुनर्विलोकन से अभिप्राय है-
  • न्यायालय द्वारा व्यवस्थापिका (संसद) और कार्यपालिका (मंत्राीपरिषद्) के कार्यों की वैधता की जाँच करना अर्थात् यदि इनके द्वारा कोई ऐसा कानून बनाया गया अथवा लागू किया गया है जो कि संवैधानिक विधियों के विरुद्ध है तो उसे न्यायालय अवैध अथवा असंवैधानिक घोषित कर सकता है। 
  • यद्यपि संविधान में कहीं भी इस आशय का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया गया है लेकिन फिर भी अनेक ऐसे उपबन्ध है जिससे अप्रत्यक्ष रूप से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संविधान द्वारा न्यायिक पुनर्विलोकन का अधिकार सर्वाेच्च न्यायालय को दिया गया है। संक्षेप में ये उपबन्ध निम्न है-
    (i) संविधान के अध्याय 3 के मौलिक अधिकारों के अन्तर्गत अनुच्छेद 13 में यह प्रावधान किया गया है कि यदि राज्य का कोई कानून मूल अधिकारों को उल्लंघन या अतिक्रमण करता है तो यह उसे अवैध घोषित कर सकता है।
  • इसी अध्याय के अनुच्छेद 32 द्वारा सर्वोच्च न्यायालय को किसी भी नागरिक द्वारा अपने मूल अधिकारों के हनन हो जाने की स्थिति में न्यायालय की शरण लेने पर याचिकाएं निकालने एवं आदेश देने का भी अधिकार दिया गया है। इसी के तहत सर्वोच्च न्यायालय मौलिक अधिकारों के संरक्षण के लिये कार्यपालिका और संसद द्वारा निर्मित कानूनों का भी पुनर्विलोकन कर सकता है।
    (ii) संविधान के अनुच्छेद 246 के अन्तर्गत संघ एवं राज्यों की विधायी सीमाओं अर्थात् कानून निर्माण की सीमाओं का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इस संबंध में न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार के अन्तर्गत संघ या राज्यों द्वारा निर्मित ऐसे कानूनों को जिसमें कि उनके द्वारा अपने अधिकारों की सीमाओं को तोड़ा गया है, अवैध घोषित कर सकता है।
    (iii) संविधान में यदि कोई संशोधन अनुच्छेद 368 में निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप न किया जाए तो भी न्यायालय उसे अवैध करार दे सकता है।
    (iv) ऐसे मामले जिनमें संविधान के किसी उपबन्ध या उसकी व्याख्या का प्रश्न निहित हो तब ऐसी स्थिति में उसे संवैधानिक मामलों पर निर्णय देने की अन्तिम शक्ति प्राप्त है।
  • कहा जा सकता है कि न्यायिक पुनर्विलोकन की व्यवस्था द्वारा भारत में ब्रिटेन की भांति संसदीय सर्वोच्चता स्थापित न करके संविधान को सर्वोच्चता स्थापित की गई है।
  • गोपालन बनाम मद्रास राज्य विवाद, गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य विवाद, केशवानन्द भारती की याचिका, मिनर्वा मिल्स विवाद आदि में न्यायालय के निर्णय इसी सिद्धान्त पर आधारित थे।

महत्वपूर्ण तथ्य

  • लेखानुदान और अपवादानुदान-जैसा कि विदित है, विनियोग विधेयक के पारित होने के बाद ही भारत की संचित निधि से कोई रकम निकाली जा सकती है। किन्तु सरकार को इस विधेयक के पारित होने के पहले भी रुपयों की आवश्यकता हो सकती है। अनुच्छेद 116(क) के अन्तर्गत लोकसभा लेखा-नुदान (vote-on-account) पारित कर सरकार के लिए एक अग्रिम राशि मन्जूर कर सकती है, जिसके बारे में बजट-विवरण देना सरकार के लिये सम्भव नहीं है।        
  • अनुच्छेद 116 के खण्ड (3) के अन्तर्गत लोकसभा को किसी विशेष प्रयोजन के लिए अपवादानुदान मन्जूर करने की शक्ति प्राप्त है जो किसी वित्तीय वर्ष की चालू सेवा का कोई भाग नहीं होता है।
  • साधारण प्रक्रिया के नियम-अनुच्छेद 118 यह उपबन्धित करता है कि संविधान के उपबन्ध के अधीन रहते हुए संसद का प्रत्येक सदन प्रक्रिया के तथा अपने कार्य-संचालन के लिए, संसद विधि द्वारा प्रत्येक सदन की प्रक्रिया और कार्य-संचालन का विनियमन कर सकती है।
  • संसद में कार्य हिन्दी या अंग्रेजी में किया जायेगा, परन्तु राज्य सभा का सभापति या लोक सभा का अध्यक्ष किसी भी सदस्य को, जो उक्त भाषाओं में अपनी पर्याप्त अभिव्यक्ति नहीं कर सकता है, अपनी मातृभाषा में संसद को सम्बोधित करने की अनुज्ञा दे सकता है।
  • व्यक्तिगत स्पष्टीकरण: यदि सदन में किसी सदस्य या मंत्री पर कोई अन्य सदस्य या मंत्री बिना किसी समुचित प्रमाण के कोई आरोप लगाता है तो संबद्ध सदस्य नियम 357 के अंतर्गत व्यक्तिगत स्पष्टीकरण देकर आरोप का निराकरण कर सकता है।
  • व्यवस्था का प्रश्न: यह प्रश्न उस समय उठाया जाता है जब किसी सदस्य को लगे कि सदन की कार्रवाई नियमावली या अध्यक्ष के निर्देशों के अनुसार नहीं चल रही है या किसी प्रकार से किसी नियम विशेष का उल्लंघन हो रहा है। इस पर अध्यक्ष तुरंत सदन में चल रही चर्चा या विचार-विमर्श को वहीं रोककर संबद्ध सदस्य को बोलने का अवसर देता है। व्यवस्था के प्रश्न उठाने का नियत ढंग है। बोलने का आदेश मिलते ही सदस्य को सबसे पहले उस नियम या निर्देश की संख्या बतानी होती है, जिसका उसकी दृष्टि में उल्लंघन हो रहा है। यदि वह ऐसा नहीं करता तो अध्यक्ष उसे वहीं टोक कर बैठ जाने को कह सकता है। व्यवस्था का प्रश्न सुनने के बाद अध्यक्ष अपना निर्णय तथा निर्देश देता है। अध्यक्ष के निर्णय या निर्देश के संबंध में न  तो कोई आपत्ति उठायी जा सकती है और न उस पर कोई चर्चा की जा सकती है।
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FAQs on सर्वोच्च न्यायालय - संशोधन नोटस, भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. संशोधन नोटस क्या है?
Ans. संशोधन नोटस एक न्यायालयी दस्तावेज होता है जो उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी किया जाता है। यह नोटस भारतीय संविधान के विभिन्न धाराओं के संशोधन और व्याख्यान की जानकारी प्रदान करता है।
2. संशोधन नोटस क्यों महत्वपूर्ण है?
Ans. संशोधन नोटस महत्वपूर्ण है क्योंकि इसे उच्चतम न्यायालय द्वारा जारी किया जाता है और यह भारतीय संविधान के संशोधन की जानकारी प्रदान करता है। इसे न्यायालय की राय के रूप में मान्यता प्राप्त होती है और यह भारतीय राजव्यवस्था के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
3. भारतीय राजव्यवस्था में यूपीएससी का क्या महत्व है?
Ans. यूपीएससी (UPSC) भारतीय राजव्यवस्था में महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) और अन्य केंद्रीय संघीय सेवाओं के लिए प्रतियोगी परीक्षा आयोजित करता है। यूपीएससी के माध्यम से भारतीय राज्यों के लिए सिविल सेवा पदों की भर्ती होती है और इसका महत्वपूर्ण योगदान भारत की नई पीढ़ी के लिए भी है जो देश की प्रशासनिक और राजनीतिक प्रणाली के निर्माण में संलग्न होना चाहती है।
4. संशोधन नोटस केस कौन-कौन से मुद्दों पर दायर किए जा सकते हैं?
Ans. संशोधन नोटस केस किसी भी मुद्दे पर दायर किया जा सकता है जिसमें भारतीय संविधान के किसी भी धारा के संशोधन या व्याख्यान की जरूरत होती है। इसके लिए उच्चतम न्यायालय को आवश्यकता और उचितता के मामले में अपना विचार देना होता है।
5. संशोधन नोटस कौन-कौन से अधिकारों का पालन करने के लिए जारी किया जा सकता है?
Ans. संशोधन नोटस उच्चतम न्यायालय द्वारा भारतीय संविधान के उच्चतम न्यायिक अधिकार का पालन करने के लिए जारी किया जा सकता है। यह नोटस न्यायालय का कामकाज सुनिश्चित करता है और देश में न्यायिक प्रणाली के सत्तारूढ़ीकरण का मार्गदर्शन करता है।
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