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पंचायती राज को संवैधानिक मान्यता देने वाला 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1992, 24 अप्रैल, 1993 को राजपत्र में प्रकाशित हुआ और इसे ‘नौवें भाग’ के रूप में देश में कानून की सर्वोच्च पुस्तक में स्थान मिला। इसमें पंचायती राज में महिलाओं के लिए एक तिहाई स्थान आरक्षित किये गये, जिससे हर पांचवें वर्ष करीब आठ लाख महिलाओं को पंचायतों के विभिन्न स्तरों पर चुने जाने का मौका मिला। 24 अपै्रल, 1993 को ही 74वां संशोधन भी लागू हुआ। इसमें भी एक तिहाई स्थानों को महिलाओं के लिए आरक्षित किया गया, जिससे करीब दो लाख महिलाओं के सार्वजनिक जीवन में प्रवेश की संभावना बनी। इससे पहले महिलाओं को प्रतिनिधि संस्थाओं में कभी भी इतनी बड़ी संख्या में चुने जाने का अवसर नहीं मिला था।

संविधान में ‘पंचायत’ को राज्य का विषय माना गया (सातवीं अनुसूची, अनुच्छेद 246,  राज्य सूची, क्रमांक-5 :  स्थानीय शासन अर्थात नगर निगमों, सुधार न्यासों, जिला बोर्डों, खनन बस्ती प्राधिकारियों और स्थानीय स्वशासन या ग्राम प्रशासन के प्रयोजनों के लिए अन्य स्थानीय प्राधिकारियों का गठन) संविधान में स्वशासन  को अनुच्छेद 40 में राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के तहत जगह दी गयी।
भारत के गणतंत्रा बनने के बाद कर्नाटक, महाराष्ट्र, गुजरात और बंगाल जैसे कुछ ही राज्यों ने पंचायती राज को गंभीरता से लिया और उसे जमीनी स्तर पर राजनीतिक शिक्षण और जागृति का समर्थ औजार बनाया।

कुछ राज्यों में पंचायतों में महिलाओं को सीमित संख्या में मनोनीत करने के प्रावधान भी लागू किये। कर्नाटक और बंगाल ने 1983 के पंचायत अधिनियम के तहत महिलाओं को 25 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया। संसद और विधानसभाओं में आरक्षण की मांग तो मुख्यतः नब्बे के दशक की ही देन है, लेकिन स्थानीय निकायों में आरक्षण की मांग महिला संगठन लम्बे अर्से से करते आ रहे हैं।
हालांकि संसद में 73वां संशोधन सर्वसम्मति से पारित हुआ, लेकिन जमीनी स्तर पर निहित स्वार्थों ने महिलाओं के लिए सरपंच का पद आरक्षित करने का खासतौर से विरोध किया। उन्हें लगता था कि महिलाएं व्यवहार (जोड़-तोड़) कुशल न होने के कारण इस पद के योग्य नहीं है, लेकिन केंद्र सरकार ने खासतौर से इस मुद्दे पर कोई ऐसी गुंजाइश नहीं छोड़ी कि राज्य इस संबंध में अपने कानून बनाते समय कोई फेर-बदल कर सकें।

संविधान ने पंचायती राज स्थापित करने की जिम्मेदारी राज्यों को सौंपी थी, लेकिन 45 साल तक कुछेक राज्यों को छोड़कर किसी ने इसकी सुध नहीं ली। अंत में हारकर केंद्र को ही इस सिलसिले में कदम उठाना पड़ा। 45 सालों का राज्यों का इतिहास बताता है कि उन्हें केंद्र द्वारा ‘थोपे’ गये पंचायती राज में ज्यादा दिलचस्पी नहीं है। इसलिए पंचायतों में महिलाओं की स्थिति सुधारने का मुद्दा भी उनकी वरीयता सूची में बहुत नीचे है।

बिहार और जम्मू-कश्मीर को छोड़कर लगभग सभी राज्यों में पंचायत चुनाव हो चुके हैं। उड़ीसा में तो बहुत हील-हुज्जत के बाद इसी वर्ष जनवरी में चुनाव हुए। लेकिन पंचायतों के प्रति राज्यों का उपेक्षापूर्ण रवैया लगभग पहले जैसा ही है। पहले तो उन्होंने पंचायत अधिनियम बनाने में ढिलाई बरती, फिर चुनाव करवाने में काफी समय नष्ट किया। अब वे पंचायतों को तयशुदा अधिकार और दायित्व नहीं दे रहे हैं।
पहले पहल पंचायत अधिनियम बनाने वाले राज्यों में से एक कर्नाटक ने पंचायतों पर निगरानी रखने का काम नौकरशाही को सौंप दिया। इसे दूसरे राज्यों ने भी अपनाया। बिहार में पंचायत के नेताओं के इस्तीफे स्वीकार करने का अधिकार नौकरशाही को दिया गया है। हरियाणा में पंचायत निदेशक का फैसला अंतिम होता है। उसे अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती। वहां पर सरकार को यह अधिकार है कि वह पंचायत के किसी प्रस्ताव को ‘जनहित’ के विरुद्ध बताकर रद्द कर सकती है। केरल में तो स्थिति और भी बदतर है। वहां पंचायतों की छंटनी का काम नौकरशाही को सौंप दिया गया है। आंध्र प्रदेश में अधिकारियों को पंचायत के किसी भी प्रस्ताव को निरस्त करने का हक है। राज्य को पंचायतों के विरुद्ध आपात अधिकार भी दिए गए हैंकृ स्पष्ट है कि राज्य पंचायतों के बारे में कानून बनाने के अधिकार का दुरुपयोग कर रहे हैं।

राज्य के नीति निर्देशक तत्वों के तहत अनुच्छेद 40 में संविधान कहता है ‘राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा, जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हों’। तो राज्यों के नीति निर्देशक तत्वों और 73वें संशोधन की मूल भावना यह है कि पंचायतों को ‘स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने के योग्य बनाया जाए।’ लेकिन अब तक राज्यों द्वारा उठाये गये कदम बताते हैं कि उन्हें इसकी कोई परवाह नहीं है। पंचायती राज व्यवस्था का मूल उद्देश्य ही यही है कि राजनीतिक सत्ता का उचित वितरण और विकेन्द्रीकरण हो तथा समस्याओं को उचित स्तर पर निपटाने तथा नीतियों और योजनाओं को उचित स्तर पर बनाने और लागू करने के लिए एक ढांचा तैयार हो और नौकरशाही इसके प्रति जवाबदेह हो।

समाधान की ओर पहला कदम तो यही है कि पंचायती राज को सही भावना से लागू करने के लिए राज्यों के पंचायत अधिनियमों की धैर्य और गंभीरता से समीक्षा की जाए और उनमें जरूरी बदलाव लाए जाएं। पिछले चार सालों के अनुभव हमें बताएंगे कि कमी कहां रह गयी। केंद्र को यह नहीं सोचना चाहिए कि 73वां संशोधन पारित करके उसने गंगा नहा ली। पिछले चार सालों के दौरान राज्यों ने पंचायतों के साथ जो सौतेला बर्ताव किया है, उसे देखते हुए केंद्र का हस्तक्षेप भी अनिवार्य हो गया है। केंद्र में पंचायतों की निगरानी की व्यवस्था बेहतर होनी चाहिए। पंचायतें संवैधानिक संस्थाएं हैं, उनकी उपेक्षा करने पर राज्यों पर धारा 356 लगायी जा सकती है। केेंद्र को राज्यों द्वारा पंचायतों की उपेक्षा को गंभीरता से लेना चाहिए। उसे नौकरशाही में सुधार के लिए राज्यों के साथ मिलकर उपाय खोजने चाहिए ताकि केंद्रीय सचिव से लेकर ग्राम सहायक तक सभी सरकारी कर्मचारियों को सुधारा जा सके।

पंचायत प्रतिनिधियों को अपने अधिकारों के बारे में जागरुक बनाने में गैर-सरकारी संगठनों से भी ज्यादा स्वार्थ राजनीतिक दलों का हो सकता है। अगर जमीनी स्तर पर उनके पैर मजबूत हुए तो आसमान छूने में भी परेशानी नहीं होगी। देश में रचनात्मक आंदोलनों का अभाव होता जा रहा है। राजनीतिक दल और गैर-सरकारी संगठन इस क्षेत्रा में आगे बढ़ना चाहें तो पंचायतों में अपार संभावनाएं हैं। यह कहकर पंचायतों की उपेक्षा करना उचित नहीं है कि वहां ज्यादातर लोग अशिक्षित हैं। क्या विधानसभाओं और सर्वोच्च संसद तक में निरक्षर लोग नहीं भरे हैं ?

राज्य सरकारों और नौकरशाही की उपेक्षा के कारण पंचायत प्रतिनिधियों में आक्रोश है। वे तेजी वे लामबंद हो रहे हैं और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहते हैं। जब पंचायतों को अधिकार मिलेंगे तो महिला और पुरुष दोनों को मिलेंगे। इसलिए संघर्ष की इस घड़ी में महिला पंचायत प्रतिनिधियों को पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अधिकारों की मांग करनी चाहिए। आजादी की लड़ाई में महिलाओं के आने से शहरी मध्यवर्ग के स्त्राी-पुरुषों में नयी समझ पैदा हुई। संभव है अधिकारों के संघर्ष में से ही ग्रामीण क्षेत्रों में नये सामाजिक समीकरण उभरें। इससे ग्रामीण महिलाओं की झिझक दूर होगी, बाहरी दुनिया से सामना होगा, अधिकारों की समझ बढ़ेगी और सबसे ऊपर यह कि अपने अस्तित्व की सार्थकता समझ में आएगी और तभी हो सकेगा सच्चा सशक्तिकरण।

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FAQs on भारत में पंचायती राज - भारतीय राजव्यवस्था - UPSC

1. पंचायती राज क्या है?
उत्तर: पंचायती राज एक निर्वाचित निकाय है जो भारतीय ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक और न्यायिक अधिकारों का प्रबंध करता है। इसका मुख्य उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में जनता के विकास को प्रोत्साहित करना है।
2. पंचायती राज की स्थापना कब हुई?
उत्तर: पंचायती राज की स्थापना 24 अप्रैल 1993 को पंचायती राज अधिनियम के माध्यम से हुई। इससे पहले, पंचायती राज की स्थापना 1959 में बलवंतराय मेहता समिति द्वारा की गई थी, जिसे बाद में 1973 में कानून में संशोधन किया गया था।
3. पंचायती राज के क्षेत्रों को कैसे बांटा गया है?
उत्तर: पंचायती राज के क्षेत्रों को तीन स्तरों में बांटा गया है - ग्राम पंचायत, क्षेत्र पंचायत और जिला पंचायत। ग्राम पंचायत ग्राम स्तरीय संस्थान है जो ग्राम क्षेत्र के विकास और प्रशासनिक कार्यों का प्रबंध करती है। क्षेत्र पंचायत विभाजित जनपद के विकास और प्रबंध के लिए उत्तरदायी होती है। जिला पंचायत जनपद स्तरीय संस्थान है जो जिले के विकास और प्रबंध का कार्य करती है।
4. पंचायती राज के तहत कौन-कौन से अधिकार होते हैं?
उत्तर: पंचायती राज के तहत निम्नलिखित अधिकार होते हैं: 1. ग्राम पंचायतों को ग्राम क्षेत्र में विकास कार्यों का प्रबंधन करने का अधिकार होता है। 2. क्षेत्र पंचायतों को क्षेत्रीय विकास कार्यों का प्रबंधन करने का अधिकार होता है। 3. जिला पंचायतों को जनपद स्तर में विकास कार्यों का प्रबंधन करने का अधिकार होता है।
5. पंचायती राज का महत्व क्या है?
उत्तर: पंचायती राज का महत्व विभिन्न है। यह ग्रामीण क्षेत्रों में लोकतंत्र की मूलभूत इकाई के रूप में कार्य करता है और स्थानीय स्तर पर प्रशासनिक, न्यायिक और आर्थिक विकास की जिम्मेदारी उठाता है। इसके माध्यम से सामाजिक न्याय, सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, जल संपदा, ग्रामीण विकास और महिला सशक्तिकरण जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर काम किया जाता है।
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