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छोटे प्रश्नों के लिए - भारतीय भूगोल | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

छोटे प्रश्नों के लिए 

  • खोल (Khol) - गंगा-यमुना नदियों के दोआब क्षेत्र में पुरानी भांगर जलोढ़ मिट्टी से चैरस उच्चभूमियों का निर्माण हुआ है, जो नवीन जलोढ़ से निर्मित खादर भूमियों से भिन्न है। बांगर जलोढ़ से निर्मित इन उच्चभूमियों के मध्यवर्ती ढालों को, जो कि अपने उच्चावच में 15 से 30 मी. की सापेक्षिक भिन्नता के कारण दूर से ही स्पष्ट होते है, स्थानीय भाषा में खोल कहा जाता है। यमुना नदी के साथ वाले खोलों के ढालों के औसत उच्चावच में 5 से 6 मी. तथा गंगा के साथ वाले खोलों के औसत उच्चावच में 12 से 20 मी. तक का अन्तर मिलता है।
  • भूर (Bhur) - ऊपरी गंगा दोआब में असामान्य भू-आकृतिक लक्षण वाले वायुनिर्मित निक्षेपों को भूर के नाम से जाना जाता है। उत्तर प्रदेश के मुरादाबाद तथा बिजनौर जिलों में गंगा के पूर्वी तट पर ये भूर निक्षेप असमतल बलुई मिट्टी के उच्च प्रदेश का निर्माण करते है। इनकी उत्पत्ति अभिनूतन काल (प्लायोसीन) में मानी जाती है। इनसे ही मध्य दोआब क्षेत्र में विशेष भूर मिट्टी का निर्माण हुआ है।
  • बरखान (Barkhan) - अरावली पर्वतश्रेणी के पश्चिम में एवं बिन्ध्य उच्च भूमि के बाह्य परिरेखीय क्षेत्र में स्थित शुष्क भू-आकृतियों वाली थार मरुस्थल की बलुई बंजर भूमि पर निर्मित अर्द्धचन्द्राकार बलुई मिट्टी के टीलों को बरखान कहा जाता है। विश्व के अन्य मरुस्थली भागों में भी बरखानों का निर्माण वातिक क्रियाओं द्वारा हुआ है।
  • धाया (Dhaya) - पंजाब क्षेत्र में प्रवाहित होने वाली पांचों नदियों (व्यास, सतलज, रावी, चिनाब तथा झेलम) द्वारा अपने मार्गों से जमा की गयी जलोढ़ राशि को तोड़ कर पाश्र्ववर्ती क्षेत्रों में उच्चभूमियों का निर्माण किया है। इन्हीं उच्च भूमियों को स्थानीय भाषा में धाया कहा जाता है। इन धाया की ऊंचाई लगभग 3 मी. या इससे भी अधिक है तथा इनके बीच में काफी संख्या में खड्डा का निर्माण हो गया है।
  • बेट भूमि (Bet Land) - नदी घाटियों का खादर क्षेत्र कहीं-कहीं बेट भूमि के नाम से भी अभिहित किया जाता है। बाढ़ से प्रभावित रहने वाला यह क्षेत्र कृषि के लिए काफी महत्त्वपूर्ण है।
  • चोस (Chos) - भारतीय पंजाब में शिवालिक पहाड़ियों से जुड़े हुए मैदान के ऊपरी भाग में स्थित नदियों के जाल को चोस कहते है। इन चोस द्वारा काफी अपरदन किया गया है, जिसके कारण यहाँ काफी खड्डों का निर्माण हो गया है। प्रत्येक बाढ़ के बाद चोस द्वारा जमा की गयी बालुका राशि व्यवस्थित एवं पुनव्र्यवस्थित होती रहती है तथा नदियों के कगार के अधिक अस्थायी होने के कारण उनका मार्ग भी हमेशा परिवर्तित होता रहता है। चोस अपरदन के स्पष्ट उदाहरण होशियारपुर में पाये जाते है।
  • करेवा (Karewa) - जम्मू-कश्मीर राज्य में पीरपंजाल श्रेणी के पाश्र्वों में 1,500 से 1,850 मी. की ऊँचाई पर मिलने वाले झीलीय निक्षेपों को करेवा के नाम से जाना जाता है। इनके नति तल निश्चित रूप से इस ओर संकेत करते है कि हिमालय पर्वत अभिनूतन (प्लायोसीन) युग में भी अपनी उत्थान की प्रक्रिया में था।
  • दून (Doon) - हिमालय पर्वतीय क्षेत्र में मिलने वाली संकीर्ण एवं अनुदैध्र्य घाटियों को ‘दून’ कहा जाता है। इसके प्रमुख उदाहरण है-देहरादून, कोठरीदून तथा पटलीदून।
  • वालेस रेखा (Wallace Line) - दक्षिण-पूर्वी एशिया एवं आस्ट्रेलिया के बीच स्थित रेखा, जो कि एशियाई एवं आस्ट्रेलियाई प्राणी जगत तथा पादप जगत के बीच पायी जाने वाली विभिन्नता का स्पष्ट विभाजन करती है। यह रेखा बोर्नियो द्वीपों को एक ओर सेलीबीज से तथा दूसरी ओर लोमवोक (इण्डोनेशिया) से अलग करती है। इसके दोनों ओर मिलने वाले प्राणी इतने भिन्न है कि वे दो स्पष्ट प्रदेशों का निर्माण करते हैं।
  • भाट (Bhat) - पूर्वी सरयू पार क्षेत्र तथा बिहार के मध्य पश्चिमी भाग में मिलने वाली चूना-प्रधान जलोढ़ मिट्टी को भाट के नाम से जाना जाता है। इस मिट्टी में चूना-पदार्थों के साथ ही साथ जैव पदार्थों एवं नाइट्रोजन की भी अधिकता पायी जाती है। इसमें गन्नों की कृषि अधिक सफलतापूर्वक सम्पन्न की जाती है।
  • कैसिम्बो (Cacimbo) - इस शब्द का प्रयोग अंगोला तट पर मिलने वाले धूमिल मौसम के लिए किया जाता है। उल्लेखनीय है कि यहाँ बैग्युला धारा के कारण साधारणतया सुबह एवं शाम को घना कुहासा एवं निम्न मेघ छाये रहते है।
  • कटिंगा (Caatinga or Katinga) - उत्तरी-पूर्वी ब्राजील में मिलने वाली उष्णकटिबन्धीय जंगली वनस्पति के समुदाय को कटिंगा नाम से जाना जाता है। इसमें विशेषकर कांटेदार झाड़ियाँ तथा छोटे-छोटे वृक्ष पाये जाते है।
  • ब्लिजार्ड का घर (Home of Blizzard) - अण्टार्कटिका महाद्वीप के एडिलीलैण्ड (Adelie land) क्षेत्र में ब्लिजार्ड नामक शीत प्रकृति की हवाओं के लम्बे समय तक स्थायी रूप से प्रवाहित होने के कारण इसे ‘ब्लिजार्ड का घर’ की संज्ञा दी जाती है।
  • वायुदाबमापी ज्वार (Barometric Tide) - एक दिन के 24 घण्टे के वायुभार अथवा वायुदाब के उतार-चढ़ाव को ‘वायुदाबमापी ज्वार’ के नाम से जाना जाता है। यह महासागरों में आने वाले ज्वार-भाटा से कथमपि सम्बन्धित नहीं है।
  • फैदम (Fathom) - यह सागरीय गहराइयों को मापने का एक पैमाना है। 1 फैदम 1.829 मीटर अथवा 6 फीट के बराबर होता है। 100 फैदम = 10 के बिल तथा 1000 फैदम = 100 के बिल = 1 समुद्री मील।
  • अल्बिडो (Albedo) - किसी सतह पर पड़ने वाली सूर्यातप की सम्पूर्ण मात्रा तथा उस सतह से अन्तरिक्ष में परावर्तित होने वाली मात्रा के बीच का अनुपात अल्बिडो कहलाता है। अल्बिडो को दशमलव अथवा प्रतिशत में प्रकट करते है। यह सम्पूर्ण पृथ्वी के लिए स्थिर नहीं होता बल्कि बादलों की मात्रा में परिवर्तन, हिमावरण तथा वनस्पति-आवरण इसको प्रभावित करते है। कुछ विशिष्ट सतहें एवं उनका अल्बिडो निम्नलिखित है-
  •  हिमाच्छादित धरातल - 78-80%,घासयुक्त धरातल-
  • 10-33%, चट्टान-10-15%, मेघा की सतह-75%।
  • ऐप्राॅन (Apron) - हिमानी द्वारा निक्षेपित किसी अन्तस्थ हिमोढ़ के आगे कुछ दूरी तक फैली हुई बालू तथा बजरी की राशि को ऐप्राॅन कहा जाता है।
  • काॅकपिट दृश्यभूमि (Cockpit Landscape) - कार्स्ट प्रदेशों में मिलने वाली वह दृश्य भूमि, जिसके एक सीमित क्षेत्र में ही अनेक डोलाइन पाये जाते है।
  • अपोढ़ रेखा (Drift Line) - किसी जलधारा के किनारे पर उसके द्वारा बहाकर लाये गये पदार्थों के जमाव से बनी वह रेखा जो बाढ़ की उच्चतम अवस्था को व्यक्त करती है, अपोढ़ रेखा कहलाती है।
  • फटाव भ्रंश (Tear Fault) - भिंचाव की तीव्र प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले ऐसे भ्रंश जिनमें भ्रंश रेखा के सहारे क्षैतिज खिसकाव होता है, फटाव भ्रंश कहलाते है। इनमें लम्बवत बल साधारण होने के कारण क्षैतिज गति पायी जाती है। विश्व का सबसे लम्बा फटाव भ्रंश पश्चिमी कैलीफोर्निया में स्थित ‘सान एण्ड्रियाजा भ्रंश’ है जिसकी लम्बाई लगभग 360 कि. मी. है। ब्रिटेन का सबसे बड़ा फटाव भ्रंश है ‘ग्रेट ग्लेन आफ स्काॅटलैण्ड’ जो 65 कि. मी. लम्बा है।
  • वृष्टि छाप (Rain Print) - महीन कणों वाली चट्टानों पर वर्षा की बूंदे पड़ने से बनने वाले छोटे-छोटे चिन्हों को वृष्टि छाप की संज्ञा दी जाती है।
  • रक्त वृष्टि (Blood Rain) - सहारा रेगिस्तान से चलने वाली रेतीली आँधियाँ जब भूमध्यसागर को पार करके आगे बढ़ती है तो इटली में लाल रंग के रेत कण नीचे उतरने या बैठने लगते है। इन लाल रंग के रेत कणों के गिरने को ही रक्त वृष्टि कहा जाता है।
  • चान्द्र मास अथवा नाक्षत्रामास (Lunar Month or Synodic Month) - जितनी अवधि में चन्द्रमा द्वारा पृथ्वी का एक चक्कर लगाया जाता है उसे चान्द्रमास अथवा नाक्षत्रा मास कहा जाता है। यह अवधि 29 दिन, 12 घण्टे तथा 44 मिनट की होती है।
  • सिडरल मास (Sideral Month) - इस मास की गणना पृथ्वी द्वारा की जाने वाली सूर्य की परिक्रमा को ध्यान में रखकर की जाती है। यह मास 27 दिन, 7 घंटे, 43 मिनट तथा 11.55 सेकण्ड का होता है।
  • सौर-दिवस (Solar Day) - जब सूर्य को गतिहीन मानकर पृथ्वी द्वारा उसके परिक्रमण की गणना दिवसों के रूप में की जाती है तब सौर-दिवस ज्ञात होता है। इसकी अवधि पूर्णतः 24 घण्टे होती है।
  • नाक्षत्रा दिवस (Sideral Day) - इस दिवस की गणना सूर्य को आकाशगंगा का चक्कर लगाते हुए मानकर की जाती है। यह दिवस 23 घण्टा 56 मिनट की अवधि का होता है। इससे स्पष्ट है कि सौर दिवस, नाक्षत्रा दिवस से लगभग 4 मिनट लम्बी अवधि का होता है। यही 4 मिनट संकलित होकर 4 वर्षों पश्चात् जुड़ जाता है तथा फरवरी को बढ़ाकर 29 दिन का करके चैथे वर्ष को अधिवर्ष (Leap year) घोषित किया जाता है।
  • ऊष्मा द्वीप (Heat Island) - नगरों के केन्द्रीय व्यवसाय क्षेत्रा या चैक क्षेत्रा में मिलने वाले उच्च तापमान के क्षेत्रा को ऊष्माद्वीप कहा जाता है। इनकी स्थिति वर्ष भर हमेशा बनी रहती है और इनके कारण नगर विशेष तथा उसके चतुर्दिक स्थित ग्रामीण क्षेत्रों में तापीय विसंगति उत्पन्न हो जाती है।
  • प्रदूषण गुम्बद (Pollution Dome) - पर्यावरण के प्रदूषक तत्त्वों द्वारा नगरों के ऊपर सामान्यतया 1,000 मी. की ऊंचाई पर एक मोटी परत का निर्माण कर दिया जाता है जिसे जलवायु गुम्बद या प्रदूषण गुम्बद कहा जाता है।
  • विसरित परावर्तन (Diffused Reflection) - जब वायुमण्डल में स्थित अदृश्य कणों का व्यास विकिरण तरंग से बड़ा होता है तब उनसे होने वाले परावर्तन को विसरित परावर्तन कहा जाता है। इसके माध्यम से सौर्यिक शक्ति का कुछ भाग परावर्तित होकर अन्तरिक्ष में वापस चला जाता है जबकि कुछ भाग वायुमण्डल में चारो ओर बिखर जाता है। विसरित परावर्तन के कारण चन्द्रमा का अंधेरा भाग भी आसानी से दृष्टिगोचर हो जाता है।
  • कृष्णिका सीमा (Black Body Limit) - किसी  सतह या चट्टान की वह सीमा जहां पर वह सूर्यातप का अवशोषण करके पूर्णतः संतृत्प हो जाती है तथा उसमें और अधिक गर्मी नहीं समा सकती। उल्लेखनीय है कि इस सीमा के पश्चात् चट्टान अथवा सतह द्वारा पार्थिव दीर्घ तरंगों के रूप में विकिरण प्रारम्भ हो जाता है।
  • आइसोजेरोमीन (Isoxeromene) - यह वह रेखा होती है जो समान वायुमण्डलीय शुष्कता वाले स्थानों को मिलाते हुए मानचित्रों पर खींची जाती है।
  • बात फुरान (Bat Furan) - यह एक अरबी भाषा का शब्द है जो जाड़े के मौसम अथवा उत्तरी-पूर्व मानसून काल में अरब सागर के खुले समुद्र (Open sea) की दशा की ओर संकेत करता है। जब दबाव का प्रमुख तन्त्रा एशिया के ऊपर स्थापित होता है तथा अरब सागर के ऊपर साइबेरियाई प्रतिचक्रवातों की शान्त पवन का विस्तार हो जाता है।
  • बात हिड्डान (Bat Hiddan) - यह भी अरबी भाषा का शब्द है जो बात फुरान की विपरीत दशा का परिचायक  है। इसमें अरब सागर पर ‘बन्द सागर’ (Closed sea) की दशा प्रभावी होती है क्योंकि ग्रीष्मकाल अथवा दक्षिणी-पश्चिमी मानसून काल में सोमालिया की ओर से चलने वाली अपतटीय हवाओं के कारण अरब सागर की दशाएं इतनी तूफानी हो जाती है कि नौपरिवहन बन्द कर देन पड़ता है।
  • पवन-रोध (Wind Break) - रेगिस्तानी अथवा अन्य क्षेत्रों से चलने वाली तीव्र पवनों की गति को कम करने के उद्देश्य से उनके सामने लगायी जाने वाली वृक्षों की कतार अथवा हरित पट्टी (Green belt) को पवन-रोध भी कहा जाता है।
  • चुम्बकीय विचलन रेखा (Agoic Line) - पृथ्वी के चुम्बकीय ध्रुवों को मिलाने वाली रेखा चुम्बकीय विचलन रेखा कहलाती है। इस रेखा का चुम्बकीय झुकाव शून्य होता है। इसे शून्य दिक्पाती रेखा, अकोण या कोणरहित रेखा, आकलन रेखा आदि नामों से भी जाना जाता है।
  • जलोढ़ सभ्यता (Alluvial Civilization) - इस शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से एशिया में फैले जनसंख्या समूहन (Asiatic agglomeration of population) के लिए किया जाता है।
  • आरोही पवन (Anabatic Wind) - गर्मी के मौसम  में अपरों के समय संवहन की क्रिया द्वारा पर्वतीय ढालों की वायु के अत्यधिक गर्म हो जाने के कारण घाटियों में ऊपर उठने वाली हवा को आरोही पवन कहते है। ये स्थानीय हवाओं की श्रेणी में आती है तथा कुछ स्थानों पर रात के समय भी चलती रहती है।
  • ध्रुवीय ज्योति (Aurora) - आयन मण्डल में विद्युत चुम्बकीय घटनाओं के परिणामस्वरूप दिखायी पड़ने वाला प्रकाशमय प्रभाव ध्रुवीय ज्योति कहलाता है। यह रात्रि के समय धरातल से लगभग 100 कि. मी. की ऊँचाई पर उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में ही दिखता है। यह प्रकाश श्वेत, लाल एवं हरे चापों के रूप में दिखायी पड़ता है।
  • दक्षिण ध्रुवीय ज्योति (Aurora Australis)- दक्षिणी गोलार्द्ध में 60अक्षांशों से दक्षिण की ओर ध्रुवीय क्षेत्रों में दिखायी पड़ने वाली ध्रुवीय ज्योति को ‘दक्षिण ध्रुवीय ज्योति’ या ‘अरोरा आस्ट्रालिस’ के नाम से जाना जाता है।
  • उत्तर ध्रुवीय ज्योति (Aurora Borealis) - केवल उत्तरी गोलार्द्ध में दृष्टिगोचर होने वाली ध्रुवीय ज्योति को ‘उत्तर ध्रुवीय ज्योति’ अथवा ‘अरोरा बोरियालिस’ कहा जाता है। सामान्यतया यह ज्योति उत्तरी अमेरिका एवं यूरोप के उत्तरी भागों में उच्च अक्षांशीय क्षेत्रों में दिखाई पड़ती है।
  • अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा (International Date Line) - o देशान्तर अथवा ग्रीनविच माध्य समय से 180 देशान्तर तक जाने में 12 समय पेटियों को पार करना पड़ता है और पूर्व की ओर घड़ी को 12 घंटे आगे तथा पश्चिम की ओर 12 घंटे पीछे करना पड़ता है। इस कारण से 180 पूर्व या पश्चिमी देशान्तर पर दो अलग-अलग पंचांग दिवस मिलने से होने वाली परेशानी को समाप्त करने के लिए वाशिंगटन में हुई 1884 की सभा में 180देशान्तर को अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा निर्धारित किया गया है। घड़ियों का समय ठीक रखने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय तिथि रेखा के पूर्व से पश्चिम की ओर जाने पर एक दिन घटाते है तथा पश्चिम से पूर्व की ओर जाने पर एक दिन बढ़ाते है।
  • पशुवर्द्धन (Besticulture) - यह मानव एवं पशुओं के बीच समायोजन की क्रिया का एक पक्ष है जिसमें मानव द्वारा किया जाने वाला पशुओं का शिकार, पशुपालन तथा पशुओं के प्रति उसके दृष्टिकोण में परिवर्तन के कारण पशुबध-निषेध की क्रिया को शामिल किया जाता है।
  • चापाकार डेल्टा (Arcuate Delta) - त्रिभुजाकार आकृति वाले डेल्टाओं को यह नाम दिया जाता है। नील, गंगा, सिन्धु, राइन, नाइजर, ह्नांगहो, इरावदी, वोल्गा, डेन्यूब मीकांग, पो, रोन, लीना, मर्रे आदि नदियों के डेल्टा इसी प्रकार के डेल्टा है।
  • पंचाकार डेल्टा (Bird-foot Delta) - इस प्रकार के डेल्टा का निर्माण नदियों द्वारा बहाकर लाये गये बारीक कणों के जलोढ़ पदार्थों (जैसे सिल्ट आदि) के जमाव से होता है। इसमें नदी की मुख्य धारा बहुत कम शाखाओं में विभाजित हो पाती है। मिसीसिपी नदी का डेल्टा पंजाकार डेल्टा का सर्वोत्तम उदाहरण प्रस्तुत करता है।
  • ज्वारनदमुखी डेल्टा (Esturine Delta) - जब कोई नदी लम्बी एवं संकरी एश्चुअरी के माध्यम से सागर में प्रवेश करती है एवं उसके मुहाने पर जमा किया गया अवसादी पदार्थ ज्वार के समय बहाकर दूर ले जाया जाता है तब उसका डेल्टा ज्वारनदमुखी डेल्टा कहलाता है। नर्मदा, ताप्ती, मैकेन्जी, ओडर, विश्चुला, एल्ब, सीन, ओब, हडसन, साइन, लोअर आदि नदियों द्वारा इसी प्रकार के डेल्टा का निर्माण किया गया है।
  • रुण्डित डेल्टा (Truncated Delta) - जब किसी नदी की मुख्यधारा एवं उसकी वितरिकाओं द्वारा निक्षेपित अवसाद समुद्री लहरों एवं ज्वार-भाटा द्वारा बहा लिया जाता है तब उसके मुहाने पर बनने वाले कटी-फटी आकृति के डेल्टा को रुण्डित डेल्टा की संज्ञा दी जाती है। इसके प्रमुख उदाहरण है वियतनाम की होंग तथा सं. रा. अमेरिका की रायो ग्रैण्डे नदियों के डेल्टा।
  • पालियुक्त या क्षीणाकार डेल्टा (Lobate Delta) - जब नदी की मुख्य धारा की अपेक्षा उसके मुहाने पर किसी वितरिका द्वारा अलग डेल्टा का निर्माण किया जाता है तब मुख्य डेल्टा को पालियुक्त डेल्टा कहते है। इसमें मुख्य डेल्टा का विकास अवरुद्ध हो जाता है।
  • प्रगतिशील डेल्टा (Growing Delta) - जब किसी नदी द्वारा सागर की ओर निरन्तर अपने डेल्टा का विकास किया जाता है तब उसे प्रगतिशील डेल्टा की संज्ञा दी जाती है। गंगा तथा मिसीसिपी नदियों के डेल्टा इसी प्रकार के है।
  • अवरोधित डेल्टा (Blocked Delta) - जब किसी नदी का डेल्टा सागरीय लहरों अथवा धाराओं द्वारा अवरुद्ध कर दिया जाता है तब उसे अवरोधित डेल्टा कहते है।
  • परित्यक्त डेल्टा (Abandoned Delta) - जब किसी नदी द्वारा पहले से निर्मित डेल्टा को छोड़कर अन्यत्रा डेल्टा का निर्माण कर लिया जाता है तब पहले वाला डेल्टा परित्यक्त डेल्टा कहलाता है। इसके अनेक उदाहरण ह्नांगहो नदी (चीन) द्वारा प्रस्तुत किये गये है।
  • नौकाकार डेल्टा (Boat Shaped Delta) - जब नदी द्वारा निक्षेपित अवसादी पदार्थ धाराओं तथा लहरों द्वारा समीपवर्ती क्षेत्रों में फैला दिया जाता है तब उसके आगे वाले भाग में वक्राकार डेल्टा बन जाता है। टाइबर नदी का डेल्टा नौकाकार डेल्टा है।
  • एश्चुअरी (Estuary) - जब किसी नदी का मुहाना जलमग्न होता है एवं वहाँ सागरीय लहरों एवं धाराओं द्वारा नदी के निक्षेपित पदार्थ को बहा लिया जाता है तब डेल्टा का विकास नहीं हो पाता एवं नदी सीधे समुद्र में मिल जाती है। इस प्रकार की स्थलाकृति एश्चुअरी कहलाती है। भारत की नर्मदा तथा ताप्ती नदियाँ डेल्टा के स्थान पर एश्चुअरी का ही निर्माण करती है।

मुख्य कीटनाशक एवं रोगनाशक दवाइयाँ

  • एल्ड्रिन - इससे आलू, गेहूँ, मूँगफली, कपास और मक्का के आर्मी वर्म, कटवर्म, वायर वर्म, टिड्डी, वीटिल और दीमक की रोकथाम’ होती है।
  • बीएचसी. - इससे ग्रास हापर, क्रिकट, आर्मी वर्म, दीमक, वायर वर्म, ज्वार तथा धान का हेयर हैड बग, एफिड, चाफर, थिप्स, तना छेदक आदि का नियन्त्राण किया जाता है।
  • थायोडान या इन्डोसल्फानइससे एफिड, बीटिल, लीफ हायर, आर्मी वर्म, थ्रिप्स, कैटरपिलर आदि की रोकथाम होती है।
  • न्यूवान - 100ः इ. सी. यह सभी फसलों के खतरनाक कीटों का सफाया करती है।
  • मैलाथियान इसका प्रयोग सब्जियों पर एफिड, माइट तथा स्केल कीटों की रोकथाम के लिए करते है।
  • मोनोक्रोटोफास - इसके छिड़काव से बाल वर्म, छेदक, थ्रिप्स, लीप माइनर आदि से रक्षा करते है।
  • रोगार - इसके उचित प्रयोग से एफिड, माइट, थ्रिप्स स्टिक बग, लीफ हायर आदि का नियन्त्राण होता है।
  • सेविन - इसके प्रयोग से कपास के बाल वर्म, बीटिल, लीफ हायर, पत्ती काटने वाले कैटरपिलर, ग्रास हापर आदि का नियन्त्राण किया जाता है।
  • एग्रोसन जीएनया सेरेसान गेहूँ, ज्वार, बाजरा, कपास व मूँगफली के बीजोपचार के लिए उपयुक्त है।
  • एगैलाल या एरेटान यह गन्नों एवं आलू के उपचार हेतु उपयुक्त है।
  • बाविस्टिन फफूँदी ग्रसित रोगों से बचाव के लिए बीजोपचार एवं खड़ी फसल पर छिड़काव करते है।
  • कैप्टान - यह मक्का के सीडलिंग ब्लाइट, आलू के ब्लाइट, डैम्पिंग आफ, अर्ली ब्लाइट व लीफ स्पाट रोगों की रोकथाम के लिए उपयुक्त होता है।
  • बेनलेट इसके घोल के छिड़काव से पाउडरी मिल्ड्यू, ब्लास्ट व लीफ स्पाट की रोकथाम होती है।
  • डाइथेन एम. 45 - आलू की अगेती झुलसा, पिछेती झुलसा, एन्थ्राकनोज व फल सड़न, डाउनी मिल्ड्यू आदि का उपचार किया जाता है।
  • जीरम - इसके द्वारा धान के झोंके को तथा आलू की फसल ब्लाईट को नियंत्रित किया जाता है।
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FAQs on छोटे प्रश्नों के लिए - भारतीय भूगोल - भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi

1. भारतीय भूगोल UPSC में प्रश्न पत्र में कौन सी प्रकार की प्रश्न पूछी जाती है?
उत्तर: UPSC की परीक्षाओं में भारतीय भूगोल से संबंधित विभिन्न प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख प्रकार शामिल हैं: भारतीय भूगोल का इतिहास, भू-राजनीति, भूगर्भिक संसाधन, खनिज संसाधन, जलवायु और मौसम, प्रमुख पर्यटन स्थल, नदी-सागर तट, पशु-पक्षी और वनस्पति जीवन, भूगोलीय विभाजन, भूगोलीय प्रदेश, आदि।
2. किस प्रकार के प्रकाशनों को देखकर भारतीय भूगोल की जानकारी मिल सकती है?
उत्तर: भारतीय भूगोल से संबंधित जानकारी के लिए आप विभिन्न प्रकाशनों का उपयोग कर सकते हैं। कुछ महत्वपूर्ण प्रकाशनों में भारतीय भूगोल के विषय में विस्तृत जानकारी दी गई होती है, जैसे कि 'भारतीय भूगोल' नामक पुस्तक। इसके अलावा आप इंटरनेट पर भी विभिन्न वेबसाइटों और ब्लॉगों पर भारतीय भूगोल से संबंधित जानकारी प्राप्त कर सकते हैं।
3. भारतीय भूगोल UPSC में किस प्रकार के तथ्यों का महत्व होता है?
उत्तर: UPSC की परीक्षाओं में भारतीय भूगोल से संबंधित तथ्यों का बहुत महत्व होता है। यह तथ्य भूगोलीय विभाजन, प्रमुख नदी-सागर तट, पर्यटन स्थल, खनिज संसाधन, भूगर्भिक संसाधन, जलवायु, पशु-पक्षी और वनस्पति जीवन, आदि के संबंध में हो सकते हैं। अच्छी तरह से तैयारी करने के लिए, आपको इन तथ्यों को अच्छी तरह से समझने और याद करने की आवश्यकता होगी।
4. भारतीय भूगोल क्यों महत्वपूर्ण है UPSC परीक्षा के लिए?
उत्तर: भारतीय भूगोल UPSC परीक्षा के लिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह आपकी व्यापक ज्ञान को मापता है और आपकी सामान्य जागरूकता को तैयार करता है। भूगोल एक विषय है जिसमें आपको भारत के संदर्भ में भू-राजनीति, वातावरण, खनिज संसाधन, आदि के साथ-साथ भूगोलीय विभाजन के बारे में ज्ञान होना चाहिए। इसके अलावा, यह आपको भारतीय भूगोल के विषय में रचनात्मक सोचने और समस्याओं के समाधान करने की क्षमता विकसित करता है।
5. भारतीय भूगोल से संबंधित UPSC परीक्षा में कैसे तैयारी की जाए?
उत्तर: भारतीय भूगोल से संबंधित UPSC परीक्षा की तैयारी के लिए आपको निम्नलिखित चरणों का पालन करना चाहिए: 1. प्राथमिक धारणा बनाएं: भारतीय भूगोल के मूल धारणाओं को समझें और उन्हें अच्छी तरह से स्मरण करें। 2. विषय की व्यापक अध्ययन करें: भारतीय भूगोल से संबंधित विषय के लिए व्यापक अध्ययन करें और विषय के सभी पह
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