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प्राणि विज्ञान (भाग - 2) - जीव विज्ञान, सामान्य विज्ञान, UPSC | सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

 

सामान्य काम करने वाली वयस्क महिलाओं के लिए संतुलित आहार 

खाद्य पदार्थ

शाकाहारी (ग्राम में)

माँसाहारी (ग्राम में)

अनाज

350

350

दालें

70

55

हरी पत्तियों वाली सब्जियाँ

125

55

अन्य सब्जियां

75

79

मूल ट्यूबर

75

75

फल

30

30

दूध

200

100

वसा व तेल

35

40

चीनी

30

30

माँस व मछली

.

30

अण्डे

.

30

 


शरीर की रक्षा शक्ति

 

  • श्वेत रक्त कण मृत कोशिका तथा ऊत्तक को खा जाता है, बैक्टीरिया के विरुद्ध संघर्ष करता है और इस प्रकार यह रक्त परिसंचरण तंत्र के रक्षक का काम करता है।
  • कुछ संघर्षशील WBC मर भी सकते है। उस हालत में घाव में ‘पस’ का निर्माण मरे हुए WBC, ऊत्तक के कुछ टुकड़े तथा मृत बैक्टीरिया द्वारा होता है।
  • शरीर की दूसरी रक्षा- पंक्ति, ”एन्टीबाॅडी“ के निर्माण द्वारा होती है।
  • एन्टीबाॅडी, प्लाज्मा का एक विशेष प्रोटीन है जो रक्त में आने वाले बाहरी प्रोटीन या जीवाणु को या तो मारता है या प्रभावहीन बनाता है।
  • ये बाहरी प्रोटीन या जीवाणु जो एन्टीबाॅडी बनने के लिए प्रेरित करते है, ”एन्टीजन“ कहलाते हैं।
  • एन्टीबाॅडी न सिर्फ हमारे शरीर की बाहरी जीवाणु से रक्षा करता है, बल्कि शरीर के रोगों का इलाज भी करता है।
  • एन्टीजन-एन्टीबाॅडी मिश्रण सभी कृत्रिम रूप से तैयार किये गये टीके का आधार है। एन्टीबाॅडी की क्रिया विशिष्ट होती है, अर्थात् एक प्रकार का एन्टीबाॅडी सिर्फ उसी एन्टीजन को मारेगा जिसके कारण वह बना है, दूसरे प्रकार के जीवाणु या एन्टीजन को नहीं।
  • पोलियो का टीका बन्दर के गुर्दे (Kidney) से पोलियो के वाइरस को लेकर और उन्हें निष्क्रिय कर बनाया जाता है।

एण्टीबाॅडी को उनकी क्रियाओं के आधार पर 5-समूहों में बाँटा गया है-
(i) प्रतिजीवविष (Antitoxin): यह रोगाणुओं के द्वारा उत्पादित जीव विष (Toxin) को नष्ट करता है।
(ii) समूहिका (Aglutinin): यह रोगाणुओं को समूह में बाँधता है।
(iii) लाइसिन (Lysin): यह रोगाणुओं का संलयन ;सलेपेद्ध करता है।
(iv) प्रेसिपिटिन (Precipitin): यह रोगाणुओं का समूहन कर रक्त से पृथक कर देता है।
(v) आॅप्सोनिन (Opsonin): यह श्वेत रक्त कोशिकाओं को रोगाणुओं से लड़ने में मदद करता है।
प्रतिरक्षा (Immunity): शरीर के रोग निरोधी क्षमता को साधारण शब्दों में रोग की प्रतिरोध शक्ति कहते है।
यह शक्ति कई बातों पर निर्भर करती है; जैसे-व्यक्ति का स्वास्थ्य, रोगाणुओं की मात्र, उनकी जननशक्ति, रोग निरोधी क्षमता की मात्र आदि।

 

अंतःस्त्रवी ग्रंथि एवं उनकी स्थिति

हाॅरमोन का नाम

हाॅरमोन का कार्य

थायराॅइड  (गले में) (Thyroid)

थाइराॅक्सिन  (Thyroxine)

मेटाबोलिज्म की दर को नियंत्रित करता है।

पैराथायराॅइड (Parathyroid) (गले में)

पैराथाॅरमोन (Parathormone)

रक्त में Ca और p के आयनों की संख्या नियत करते है। हृदय धड़कन, पेशी संकुचन,  रक्त के थक्का बनने आदि में सहयोग देते है।

एड्रीनल (वृक्क के ऊपर)

एड्रीनेलीन (Adrenalin)

डर, क्रोध, अपमान, पीड़ा जैसे आकस्मिक समय में शरीर की प्रतिरक्षी क्षमता को बढ़ाता है। इसीलिए इस ग्रंथि को ”जीवन रक्षक हाॅरमोन“ भी कहते है।

थामस

थाइमोसिन (Thymosin)

लिम्फ का उत्पादन करता है।

पिट्यूटरी (मस्तिष्क में) इसे ”मास्टर ग्लैंड“ भी कहा जाता है क्योंकि यह  करीब- करीब सभी अंतःस्त्रवी ग्रंथियों के स्त्रवण को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रित करता है।

(i) वृद्धि हाॅरमोन (Growth Hormone)

शरीर के उचित वृद्धि को नियंत्रित करता है।

 

(ii)आॅक्सिटोसीन (Oxytocin)

गर्भाशय की दीवार को सिकोड़कर प्रसव पीड़ा का प्रेरक; शिशु जन्म के बाद गर्भाशय को सामान्य दशा में लाना।

 

(iii) प्रोलेक्टिन या LTH

गर्भकाल में स्तनों की वृद्धि और दूध के स्त्रवण का प्रेरक।

आइलेट आॅफ लैंगर  हैन्स (अग्न्याशय में)

(i) इन्सूलिन

रक्त में बढ़े हुए ग्लूकोज को ग्लायकोजन में   बदलना।

 

(ii)ग्लूकागाॅन

रक्त में घटी हुई ग्लूकोज आपूर्ति हेतु ग्लायकोजन का ग्लूकोज में बदलना।

गोनेड्स

 

 

(i) वृषण (एन्ड्रोजेन)

(i) नर में टेस्टेस्टेराॅन

नर जननांग तथा नर लक्षणों का सम्पूर्ण विकास।

(ii)अंडाशय

(ii)नारी में ईस्ट्रोजेन्स

मादा जननांग तथा लैंगिक लक्षणों का सम्पूर्ण विकास।

 

प्राणी का नाम

श्वसन अंग

मछली

गिल

उभयचर (जैसे मेढ़क)

त्वचा, फेफड़ा

अन्य

फेफड़ा

 

रक्त समूह (Blood Group)
- रक्त समूह का व्यावहारिक महत्व निम्नलिखित में है-
(i)  रक्ताधान (Blood Transfusion), तथा (ii)  बच्चे के माता-पिता नियत करने में।

  • मनुष्य में चार प्रकार के रक्त समूह है। 
  • समूह व् को सार्वभौम दाता एवं AB को सार्वभौम ग्राही कहते है।
  • एन्टीजन A एवं B के अतिरिक्त मनुष्य में तीन अन्य एन्टीजन पाए गए है-एन्टीजन M-प्रकार, N-प्रकार और MN-प्रकार।
  •  यद्यपि इन एन्टीजनों की उपस्थिति से आधान में कोई प्रतिक्रिया नहीं होती।


रीसस फैक्टर (Rh Factor)

  • Rh एक एन्टीजन है जो अधिकांश व्यक्ति के RBC पर पाया जाता है। इसे सर्वप्रथम रीसस बन्दर में पता लगाया गया था, अतः इसका नाम रीसस फैक्टर पड़ा।
  • वे मनुष्य जिसके लाल रक्त कण में Rh मिलता है, उनको Rh-धनात्मक तथा जिनके लाल रक्त कण पर नहीं मिलता उनको Rh-ऋणात्मक कहा जाता है।
  • Rh-धनात्मक वाला रक्त सिर्फ Rh-धनात्मक को ही दिया जा सकता है Rh-ऋणात्मक को नहीं, अन्यथा घातक होगा।
  • प्राणी के नाम

हृदय के चेम्बर की संख्या

मछली

2

उभय-चर

3

सरीसृप या रेप्टाइल्स (इस वर्ग के विकसित प्राणी में हृदय के चार चैम्बर होने के संकेत शुरू हो जाते है।)

3

स्तनधारी एवं पक्षी

4

 



लिम्फ तंत्र (Lymphatic  System)
- RBC कभी भी रक्त नली से बाहर नहीं निकलते, किंतु प्लाज्मा और WBC रक्त केशिकाओं (Blood Capillaries) से बाहर आकर ऊत्तक में चले जाते है। बिना RBC के रक्त का यह रंगहीन भाग ”लिम्फ“ कहलाता है।
- पतली दीवार वाली लिम्फ केशिकाएँ शरीर के प्रत्येक अंग में (तंत्रिका तंत्र को छोड़कर) एक जाल-सी बनाती है।
- लिम्फ केशिकाएँ इकट्ठी होकर लिम्फ नली और लिम्फ नोड का निर्माण करती है।
- इसी लिम्फ नोड के द्वारा लिम्फ, नली में संचालित होता है।
- लिम्फ नली में पाई जानेवाली वाल्व की संख्या रक्त के शिरा से बहुत अधिक होती है। ये वाल्व लिम्फ को लिम्फ नोड से निकलने तो देते है किंतु पुनः लौटने नहीं देते।
- स्तनधारियों में लिम्फ का कोई हृदय नहीं होता।
कार्य

  1. लिम्फ भोजन और आक्सीजन दूर-दूर के ऊत्तकों को पहुँचाता है और पुनः वहाँ बने उत्सर्जित पदार्थ लेकर रक्त को वापस कर देता है।
  2. लिम्फ केशिकाओं के छिद्रदार होने के कारण बैक्टिरिया या अन्य मृत ऊत्तक उसमें प्रवेश कर प्रभावहीन हो जाते है।
  3. छोटी आँत की दीवार में उपस्थित लिम्फ वसीय अम्ल तथा ग्लिसराॅल का अवशोषण करता है।
  4. यह WBC का निर्माण करता है।

 

वयस्क पुरुष के लिए संतुलित आहार

खाद्य पदार्थ शाकाहारी

    सामान्य कार्य करने वाले

 माँसाहारी  (ग्राम में)

(ग्राम में)

अनाज

475

475

दालें

80

65

हरी पत्तियों वाली सब्जियाँ

125

125

अन्य सब्जियां

75

75

मूल व ट्यूबर

100

100

फल

30

30

दूध

200

100

वसा और तेल

40

40

माँस और मछली

-

30

अण्डे

-

30

चीनी

40

40


हृदय (Heart)

  • हृदय मांसपेशियों का बना एक अवयव है, जो छाती में दोनों फेफड़ों के बीच स्थित रहता है। यह छाती की बाईं ओर पाँचवीं तथा छठी पसलियों के बीच रहता है।
  • हृदय एक लंबी पेशीय पट्ट के द्वारा लंबाई से दो आधे भागों में बँटा होता है। प्रत्येक भाग पुनः कोष्ठो से बँटा होता है।
  • हृदय के ऊपर के भाग को अलिंद (auricle) और नीचे के भाग को निलय (ventricle) कहते है।
  • अलिंद और निलय दोनों ही दाएँ अलिंद और बाएँ अलिंद तथा दाएँ निलय और बाएँ निलय में बँटे रहते है। दायाँ अलिंद बायाँ अलिंद से कुछ बड़ा होता है। इस प्रकार मनुष्य के हृदय में चार कोष्ठ होते है।
  • अलिंद की दीवार पतली और निलय की दीवार मोटी होती है। इन दोनों (अलिंद और निलय) के बीच के छिद्रों पर कपाट (valve) रहता है जो रक्त को अलिंद से निलय में जाने देता है पर निलय से अलिंद में लौटने नहीं देता।
  • नलिकाएँ- हमारे शरीर में नलिकाएँ दो प्रकार की होती है- (i) धमनी या आरटेरी (artery) और (ii) शिराएँ या वेंस (veins)।

(i) धमनी- धमनी एक ऐसी नलिका है, जिससे रक्त हृदय से निकलकर शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचता है। धमनियाँ शरीर की मांसपेशियों के भीतर स्थित होती है। इसकी दीवारें मोटी और लचीली होती है। धमनियों में सामान्यः शुद्ध रक्त प्रवाहित होता है।
(ii) शिराएँ- शिराएँ रक्त को शरीर के विभिन्न भागों से हृदय में पहुँचाती हैं। शिराएँ त्वचा के नीचे ही स्थित रहती है। इनकी दीवारें पतली तथा कम लचीली होती है। इनमें रक्त का बहाव तेजी से नहीं होता। इनमें थोड़ी-थोड़ी दूर पर अर्द्धचंद्राकार वाल्व होते है, जो रक्त को उलटी दिशा में जाने से रोकते है। शिराओं में सामान्यतः अशुद्ध रक्त प्रवाहित होता है।

मोरे ईल(Moray eel), ब्लू क्रेवली (Crevally), रेड स्नैपर (Red Snapper) तथा स्टोन फिश (Stone Fish) आदि मछलियों के माँस विषाक्त होते हैं।

 

      क्वाशिओरकर

मरास्मस

(i) क्वाशिओरकर रोग बच्चों के आहार में केवल प्रोटीन की कमी के कारण होता है।

मरास्मस रोग बच्चों के आहार में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट तथा वसा की कमी के कारण होता है।

(ii) क्वाशिओरकर रोग में बच्चे का पेट व पैर सूज जाते है (या फूल जाते है) अर्थात् बच्चे को ईडिमा (oedema) हो जाता है।

मरास्मस रोग में बच्चे को ईडिमा नहीं होता।

(iii) क्वाशिओरकर रोग में बच्चे का पेशीय क्षय नहीं होता।

मरास्मस रोग में बच्चे का पेशीय क्षय होता है, जिससे वह कंकाल-मात्र रह जाता है।

(iv) क्वाशिओरकर रोग एक वर्ष से पाँच वर्ष तक की आयु वाले  बच्चों में पाया जाता है।

       मरास्मस रोग एक वर्ष तक की आयु वाले शिशुओं              (छोटे बच्चों) में पाया जाता है।


रक्त-परिसंचरण क्रिया

  • शरीर के विभिन्न भागों से आया हुआ दूषित रक्त हृदय के दाएँ अलिंद में जमा होता है। दाएँ अलिंद में कुछ देर बाद संकुचन होता है। इसके फलस्वरूप रक्त दाएँ अलिंद से दाएँ निलय में प्रवेश कर जाता है। रक्त जब दाएँ निलय में भर जाता है, तब आप-से-आप उसका संकुचन होता है। इससे रक्त एक विशेष नलिका ”पल्मोनरी अयोर्टा“ (pulmonary aorta)  के द्वारा फेफड़ों में चला जाता है।
  • फेफड़ों में अशुद्ध रक्त आॅक्सीजन द्वारा शुद्ध होता है। शुद्ध रक्त पल्मोनरी शिरा (pulmonary vein) द्वारा बाएँ अलिंद कोष्ठ में आ जाता है। थोड़ी देर बाद बाएँ अलिंद में संकुचन होने पर रक्त कपाटों को हटाकर बाएँ निलय में आ जाता है। इसके बाद बाएँ निलय के सिकुड़ने पर शुद्ध रक्त महाधमनी में चला जाता है, जहाँ से वह शरीर के विभिन्न भागों में पहुँचता है।

 

महत्वपूर्ण जानकारी

पोलीफायोडाॅन्ट (Polyphyodont) - कुछ जानवरों में जीवनभर दांतों का उगना जारी रहता है, पुराने और कटे-फटे दांत गिर जाते हैं और उनके स्थान पर नए दांत आ जाते हैं। दांतों की इस व्यवस्था को पोलीफायोडाॅन्ट कहते हैं।

डायफायोडाॅन्ट (Diphyodont)कृ आदमी में दो प्रकार के दांत होते हैं - दूध के और स्थायी या वयस्क के दांत। यह व्यवस्था diphyodont कहलाती है।

हेटरोडोन्ट (Heterodont) - जब दांतों का आकार भिन्न हो, जैसे - आदमी में। मनुष्य या मांसाहारी जानवरों में चार प्रकार के दांत होते हैं।


हृदय की कार्य विधि

  • ”पेस मेकर“ या साइनू-आॅरिकुलर नोड (Sinu auricular node) दायां अलिंद के दीवार में स्थित रहता है।
  • इस नोड में ”पैरा-सिम्पैथेटिक तंत्रिका तंतु“ (जो एसीटाइलकाॅलिन (acetylcholine) का स्त्रव करता है) तथा ”सिम्पैथेटिक तंत्रिका तंतु“ (सिम्पेथिन, Sympathine स्त्रवति करते हैं) रहते हैं।
  • सिम्पेथिन हृदय गति को बढ़ाता है, जबकि एसिटाइलकाॅलिन इस गति को घटाता है।
  • नोड से संकुचन तरंग निकलता है जो अलिंद को संकुचित करता है, फलतः रक्त अलिंद से निलय में आ जाता है।
  • अब एक संकुचन तरंग दोनों आॅरिकल को विभाजित करने वाले दीवार पर स्थित एट्रीओ-वेंट्रिकुलर नोड (Atrio-ventricular node) से आता है जिससे वेंट्रिकल सिकुड़ता है, फलतः रक्त हृदय से बाहर निकलता है।
  • पेसमेकर के संकुचन तंत्र में कोई भी व्यवधान- चाहे वह यांत्रिकी हो या रोग-जन्य, हृदय की धड़कन को प्रभावित करता है। इसे ”हृदय अवरोध“ (Heart block) कहते हैं।
  • इसे अस्थायी तौर पर ‘ट्रांजिस्टर विधि’ से सुगम बनाया जा सकता है।
  • इस विधि में यंत्र को छाती के पेशी में स्थिर किया जाता है; यंत्र का इलेक्ट्रोड जिसे पेसमेकर कहते हैं, को नोड में स्थिर कर दिया जाता है। एक विद्युतीय तरंग तब नोड को संचालित करती है।


रक्त चाप (Blood Pressure)

  • निलय के संकुचन (Systole) तथा फूलने (Diastole) की क्रिया को हृदय की धड़कन कहते हैं।
  • स्वास्थ्य विज्ञान में, डायस्टोलिक दबाव का सिस्टोलिक दबाव से कहीं अधिक महत्त्व है क्योंकि यह रक्त नलियों पर पड़े दबाव को सूचित करती है।
  • एक सामान्य मनुष्य की धमनी में प्रवाहित रक्त का दाब (निलय के सिस्टाॅल के समय) पारे के 120 मि. मी. के बराबर होता है, और यही दाब डायस्टोल के समय 80 मि. मी. के बराबर होता है। इन्हें ”रक्त चाप“ कहा जाता है और 120/80 के संकेत से सूचित किया जाता है।

स्मरणीय तथ्य

- पीलिया (Jaundice) रोग में पित्तवर्णक (Bile Pigment) रक्त में  चला आता है। इस रोग में  यकृत प्रभावित होता है।

- शरीर में  रोगाणु जो विष उत्पन्न करता है, उसे जीवविष (Toxin) कहा जाता है।

- शरीर जीव-विष (Toxin) से बचने के लिए जो पदार्थ उत्पन्न करता है, उसे प्रति जीवविष (Anti-toxin) कहा जाता है।

- मानव शरीर में  प्रतिदिन लगभग 800 मिली. अग्न्याशयिक रस (Pancreatic juice) का स्त्रव होता है। यह स्त्रव पाचन क्रिया के दौरान होता है।

- मानव शरीर में  प्रतिदिन 700-1200 मिली. पित (Bile) का स्त्रव होता है।

- स्वस्थ रक्त में  प्रति 200 मिली. रक्त में  लगभग 25 ग्राम हेमोग्लोबिन की मात्र रहती है। सामान्यतः हेमोग्लोबिन     की इसी मात्र को 100 प्रतिशत हेमोग्लोबिन कहा जाता है। इसकी 90 प्रतिशत से अधिक मात्र स्वाभाविक मात्र मानी जाती है।

- सामान्यतः प्रति 100 सी. सी. रक्त में  रक्त-ग्लूकोज की मात्र (12 घंटे के उपवास के बाद) 80 से 120 मिग्रा. तक रहती है।

 

महत्वपूर्ण जानकारी
मम्प्स Mumps एक वाइरस संक्रामक रोग है जो पैरोटिड ग्रंथि पर आक्रमण करता है जिससे इस ग्रंथि में सूजन आ जाती है। इस अवस्था में मुंह का खुलना या भोजन निगलना कठिन हो जाता है, साथ ही सैलाइवा का स्रवण भी कम हो जाता है। 



नाड़ी-दर  (Pulse rate)

  • हृदय से रक्त रुक-रुक कर ”सिस्टमिक आॅर्टा“ में आता है, जिससे इस नली में रक्त का दाब बढ़ता या घटता रहता है, इसी को हम नाड़ी-दर कहते है।
  • स्तनधारियों में शिरा-रक्त और धमनी-रक्त पूर्णतः विभाजित है- शिरा रक्त जहाँ हृदय के दायें भाग में है वहीं धमनी रक्त बायें भाग में।
  • एक पूरे चक्र में रक्त को हृदय से दो बार गुजरना पड़ता है- एक बार दायें भाग से और दूसरी बार बायें भाग से। इस प्रकार के परिसंचरण को ”डबल सर्कुलेशन“ कहते है।
  • सामान्य स्थिति में हृदय से आनेवाले रक्त 28% यकृत (liver) को, 24% वृक्क (Kidney) को, 15% मांशपेशियों (Muscles) को, 14% मस्तिष्क को और शेष 19 शरीर के अन्य भागों को जाता है।


श्वसन (Respiration)
श्वसन नली (Trachea)

  • श्वसन नली (Trachea) एक लम्बी नली है जो गर्दन से होते हुए वक्ष-गुहा तक जाती है।
  • वक्ष में आते ही ट्रेकिया दो श्वसनी (Bronchi) में विभाजित होकर फेफड़े में प्रवेश करती है।
  • फेफड़े में श्वसनी आने के बाद कई बार विभाजित होती है और अंतत छोटी-छोटी, पतली दीवार वाली खोखली ”वायु कोशिका“ (air cells) का निर्माण करती है।
  • प्रत्येक वायु कोशिका के चारों ओर फुफ्फुस धमनी और शिरा(Pulmonary artery and veins) की केशिकाओं (Capillaries) का जाल-सा फैला होता है।
  • यहीं पर आॅक्सीजनयुक्त वायु तथा अशुद्ध रक्त का सम्मिलन होता है, रक्त शुद्ध होता है और कार्बन-डायआॅक्साइड गैस सांस द्वारा बाहर आ जाता है।
  • श्वसननली और श्वसनी को सीधी खड़ी रखने के लिए इनकी दीवार में लचीली कार्टिलेज के कई वलय (ring) होते है।
  • इसके अतिरिक्त आंतरिक दीवार पर म्यूकस ग्रंथि फैली रहती है जो न सिर्फ श्वसन नली की दीवार को नम (Moist) और श्लेष्मी (Slimy) बनाये रखती है बल्कि हानिकारक धूलकण एवं जीवाणु को स्वयं में फँसाकर फेफड़े में जाने से रोकती है।


फेफड़ा  (Lungs)

  • स्पंज की तरह का यह एक बड़ा सा थैला है जिसका रंग गुलाबी होता है।
  • इसका आंतरिक क्षेत्रफल असंख्य वायु कोशिका के कारण विशाल होता है।
  • यह दो खंडों में विभाजित होता है- बायां एवं दायां भाग।
  • फेफड़े के दोनों ओर पसली तथा ऊपर में डायफ्राम रहती है।
  • डायफ्राम तथा पसली के सिकुड़ने तथा फैलने की क्रिया के साथ फेफड़े भी सिकुड़ते और फैलते है।

 
 

विटामिन

विटामिन एवं रासायनिक नाम

प्रमुख स्रोत

दैनिक आवश्यक  मात्र

शारीरिक क्रिया

हीनता-जन्य रोग

ए रेटिनाॅल (Retinol)

मछली का यकृत तेल, दूध, मक्खन, घी, गाजर, पत्तीदार और हरी सब्जियाँ आदि

5000 यूनिट

चाक्षुष वर्णक (Visual Pigment) का संश्लेषण, नेत्र और इसकी श्लेष्मा-झिल्ली को स्वस्थ रखना

रतोंधी,शुष्काक्षिपाक (xerophthalmia)पाचक नाल और नेत्र का संक्रामक रोग

बी-1 थाएमीन (Thiamine)

खमीर, अंकुरित गेहूँ, शिंवी फल (सेम, मटर आदि), मांस, अंडा और शाक-सब्जी

1  .2 मिग्रा.

कार्बोहाइड्रेट-उपापचय

बेरी-बेरी

बी-2 रिबोफ्लेवीन (Riboflavin)

दुग्ध, मांस,पत्तीदार सब्जियाँ आदि

1  .7 मिग्रा.

ऊत्तक में आॅक्सीकरण

जिह्ना में सूजन (Glossitis), त्वचा  में सूजन (Dermatitis), दृष्टि की स्वच्छता में कमी,  भ्रूण की अस्थियों का टेढ़ा-मेढ़ा होना

बी-7 निकोटिनिक अम्ल, नियासीन (Niacine)

मछली, अंडे आदि

19 मिग्रा.

ऊत्तक-आॅक्सीकरण

पेलाग्रा (Pellagra)

 बी-12 सायनोकोबाल्मिन (Cynocobalmin) 

यकृत

0  .001 मिग्रा.

लाल रक्तकणों का निर्माण

अरक्तता (Anaemia)

सी एस्काॅर्बिक अम्ल (Ascorbic acid)

नींबू कुल के फल,हरी सब्जियाँ आदि

70 मिग्रा.

एन्जाइम सम्बन्धी कार्य

स्कर्वी (Scurvy)

डी कैल्सिफेराॅल (Calciferol)

मछली का यकृत तेल,अंडे, यकृत, पराबैंगनी किरण आदि

0-400 यूनिट

कैल्सियम और फाॅस्फोरस का उपापचय

रिकेट (Rickets)

ई टोकोफेराॅल (Tocoferol)

सलाद की पत्तियाँ,शिंवी फल (सेम, मटर) आदि

 

कोशिकाओं का निर्माण,विटामिन-ए के समुचित उपयोग में सहायता

बंध्यता, पेशी तथा तंत्रिका-तंत्र संबंधी गड़बड़ी

के-1 फिलोक्विनोन (Phylloquinone)

हरी सब्जियाँ

 

रक्त का जमना

रक्त का दोषपूर्ण जमना

 


श्वसन की कार्यिकी

  • वायु कोशिका में आये ताजे हवा के आॅक्सीजन रक्त केशिकाओं (Capillaries) में प्रसारित हो जाते है, जहाँ कार्बोक्सी हीमोग्लोबिन आॅक्सीजन से संयुक्त होकर आॅक्सीहीमोग्लोबिन बनाता है। इस क्रिया में कार्बन डाई आॅक्साइड निकलता है जो वायु कोशिका में चला जाता है।
  • यह आॅक्सीहीमोग्लोबिन रक्त के माध्यम से उत्तक तथा कोशिकाओं में पहुँच कर कोशिकाओं के भोज्य पदार्थ के आॅक्सीकरण के लिए आॅक्सीजन देता है।
  • आॅक्सीकरण के उपरांत बनी कार्बन डाई आॅक्साइड पुनः हीमोग्लोबिन से संयुक्त होकर कार्बोक्सीहीमोग्लोबिन  की रचना करती है जो पुनः रक्त के माध्यम से फेफड़े में लौट आती है।


कृत्रिम श्वसन  (Artificial Respiration)

  • किसी कारणवश जब मनुष्य की हृदय गति जारी रहती है किंतु श्वसन क्रिया बंद हो जाती है, तभी यह विधि अपनायी जाती है।
  • इस विधि में छाती के बीच में (धँसे हुए भाग में) दबाव बारी-बारी से बढ़ाया या घटाया जाता है।
  • दबाव घटने या बढ़ने से फेफड़े पर दबाव घटता या बढ़ता है और जमा हवा फेफड़े से बाहर निकल आती है, साथ ही श्वसन क्रिया शुरू हो जाती है।
  • छाती पर दबाव के बावजूद भी अगर श्वसन क्रिया ठीक न हो तो मुँह के द्वारा हवा का प्रवेश रोगी में कराया जाता है। 
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FAQs on प्राणि विज्ञान (भाग - 2) - जीव विज्ञान, सामान्य विज्ञान, UPSC - सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi

1. प्राणि विज्ञान क्या है?
उत्तर: प्राणि विज्ञान एक शाखा है जो जीवित प्राणियों के बारे में अध्ययन करती है। यह विज्ञान जीव जगत की विभिन्न पहलुओं और जीवन की प्रकृति को समझने की कोशिश करती है।
2. प्राणि विज्ञान क्यों महत्वपूर्ण है?
उत्तर: प्राणि विज्ञान महत्वपूर्ण है क्योंकि इसके माध्यम से हम जीवों के संरचना, कार्य, विकास और उनके जीवन-चक्र को समझ सकते हैं। यह हमें जीवित प्राणियों के बारे में विस्तृत ज्ञान प्रदान करती है और उनके साथी प्राणियों को संरक्षित रखने के लिए आवश्यक सूचना प्रदान करती है।
3. प्राणि विज्ञान अध्ययन के लिए आवश्यक उपकरण कौन-कौन से हैं?
उत्तर: प्राणि विज्ञान के अध्ययन के लिए विज्ञानियों को कई उपकरणों की आवश्यकता होती है। कुछ मुख्य उपकरणों में माइक्रोस्कोप, पेट्री डिश, संशोधन के लिए उपयुक्त रसायनिक पदार्थ, जन्तु नेट, विभिन्न प्राणियों के लिए संग्रहालय, और विज्ञान प्रदर्शनी के लिए अवश्यक सामग्री शामिल होती है।
4. प्राणि विज्ञान किस तरह से पर्यावरणीय विज्ञान के साथ जुड़ा हुआ है?
उत्तर: प्राणि विज्ञान और पर्यावरणीय विज्ञान दोनों एक दूसरे से गहरी तरीके से जुड़े हुए हैं। प्राणि विज्ञान में जीवित प्राणियों की अध्ययन किया जाता है, जबकि पर्यावरणीय विज्ञान में पर्यावरण के प्रभाव, प्रदूषण, बाढ़, पानी और वायु प्रदूषण, वनों का संरक्षण आदि के अध्ययन किए जाते हैं। इन दोनों के मेल से हम प्राणियों के जीवन के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी जागरूकता बढ़ा सकते हैं।
5. प्राणि विज्ञान के अनुसार जीव विज्ञान का महत्व क्या है?
उत्तर: जीव विज्ञान या प्राणि विज्ञान का महत्व इसलिए है क्योंकि इससे हमें जीवित प्राणियों के बारे में समझ आती है और हम उनके जीवन की प्रकृति, संरचना, विकास, जीनेटिक्स, जीवन चक्र, प्रभाव, उपयोगिता और इससे जुड़े विज्ञानिक तथ्यों को समझ सकते हैं। इसके अलावा, यह हमें जीवित प्राणियों के संरक्षण और पर्यावरण संरक्षण में मदद करता है।
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