‘मिकास विधि’
हृदय की गतिविधियों को सुचारु रुप से चलाने के लिए शुद्ध रक्त की जरूरत होती है। हृदय तक शुद्ध रक्त पहुंचाने का काम ‘आर्टरी’ करती है। इस आर्टरी को ‘कोरोनरी आर्टरी’ कहते हैं। कोरोनरी आर्टरी का जाल हृदय की सभी पेशियों तक फैला होता है जिसके द्वारा हृदय की पेशियों तक लगातार पोशक तत्व व आॅक्सीजन पहुंचते रहते हैं। लेकिन कई बार इन आर्टरी में कैल्शियम व कोलेस्ट्राॅल जैसे पदार्थों की मात्रा धीरे-धीरे एकत्रित होने लगती है। इससे रक्त प्रवाह में अवरोध उत्पन्न होने लगता है, जिसे ‘प्लेक’ कहते हैं। इस अवरोध को दूर करने के लिए बाईपास सर्जरी से इलाज किया जाता है। इस बाईपास सर्जरी के अलावा अब एक नयी विधि विकसित कर ली गयी है, जिसे ‘मिकास विधि’ कहते हैं। इस नयी विधि के अंतर्गत अवरुद्ध आर्टरी को इन दोनों में से एक के साथ जोड़ दिया जाता है, जो कि हृदय के पास पसलियों के पीछे से थोरेसिक आर्टरी के रूप में दो अलग-अलग कोशिकाओं के रूप में निकलती है। इसके जरिये शुद्ध रक्त अवरुद्ध कोरोनरी आर्टरी को मिलने लगता है। इस पद्धति में कम से कम चीर फाड़ की जरूरत होती है।
आॅपरेशन के नाम पर एक छोटा सा चीरा लगाना पड़ता है, जिसको की हार्टलंग मशीन की भी आवश्यकता नहीं होती। मजे की बात यह है कि इसमें रक्त ट्रांसफ्यूजन की भी आवश्यकता नहीं होती है। परिणामतः अन्य संक्रमित रोगों के प्रभाव का भी खतरा नहीं रह जाता।
विषाणुओं की वापसी
हमारे देश में पूरानी भयावह रोगों की अब वापसी होने लगी है। दो साल पहले गुजरात के सूरत से लेकर देश की राजधानी दिल्ली तक प्लेग का आतंक छा गया था। इधर दिल्ली व इसके समीपवर्ती राज्यों में डेंगू वायरस अपना पांव पसारता जा रहा है। पश्चिम बंगाल से लेकर राजस्थान तक में लोग सेरेब्रल मलेरिया के शिकार हो रहे हैं। हरियाणा के करनाल सहित कई जिलों में जापानी बुखार का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। कुल मिलाकर आजकल का समय विषाणुओं के हमले का समय साबित हो सकता है। कुछ वर्ष पहले यह माना जाता था कि क्षयरोग (T.B.), हैजा, मलेरिया, कालाजार और टायफायड जैसी बीमारियों पर नियंत्रण स्थापित किया जा चुका है। लेकिन अब ये तमाम बीमारियां हमारे देश में नये सिरे से उभर रही हैं। इतना ही नहीं नये-नये किस्म के विषाणु, जीवाणु और परजीवी देश भर में पसरने लगे हैं, फलतः नयी बीमारियां भी जड़ें जमाने लगी हैं। कुछ प्रमुख नयी-पुरानी बीमारियों का उल्लेख यहां किया जा रहा हैः
डेंगू बुखारः यह रोग डेंगू वायरस के कारण होता है जिसका वहन एडीस एजीप्टी नामक मच्छर करता है। इसमें शरीर का तापमान 105 डिग्री तक पहुँच जाता है। इसके वायरस रक्त का थक्का जमाने वाले प्लेटलेट्स को समाप्त करने लगते हैं। फलतः रक्त का गाढ़ापन कम होने से उसके मुंह और नाक के अलावा त्वचा के नीचे रक्तस्राव होने लगता है, रक्तचाप गिर जाता है, रोगी बेहोश हो जाता है और अन्ततः उसकी मौत हो जाती है। इस बीमारी का प्रकोप हर दो-तीन साल पर देखा जा रहा है। डेंगू वायरस चार तरह के होते हैं, जो कश्मीर और हिमालय क्षेत्र को छोड़कर भारत के सभी क्षेत्रों में पाये जाते हैं।
मलेरियाः मलेरिया के मामलों, पीड़ित रोगियों और इससे होने वाली मौतों की संख्या में निरंतर बढ़ोत्तरी हो रही है। राजस्थान इसकी व्यापक चपेट रहा में है। प्रत्येक एक हजार में से 21 लोग इस बीमारी से पीड़ित होते हैं । इसका संक्रमण मादा एनोफिलीज मच्छरों द्वारा होता है। प्लाज्मोडियम नामक परजीवी की चार अलग-अलग प्रजातियों से फैलने वाली यह बीमारी कभी-कभी काफी घातक सिद्ध होती है। सेरेब्रल मलेरिया को प्लाज्मोडियम फेल्सीमेरम के जीवाणु फैलाते हैं। सेरेब्रल मलेरिया होने से दिमाग में खून की कमी हो जाती है, जिससे रोगी की मौत भी हो जाती है।
जापानी एनसेफेलाइटिसः इसको मस्तिष्क ज्वर भी कहा जाता है। यह बुखार वायरस की वजह से होता है, जो कि अवारा सुअरों और क्यूलेक्स नामक मच्छर के कारण फैलता है। यदि क्यूलेक्स मच्छर सुअर को काटने के बाद किसी व्यक्ति को काट ले तो वह बुखार से पीड़ित हो जाता है। इसके वायरस भारत में पहली बार 40 साल पहले तमिलनाडु में पाये गये थे। इसका फैलाव दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में अधिक देखने को मिलता है। इस रोग से पीड़ित 25 से 45 प्रतिशत लोगों की मृत्यु हो जाती है।
हेपाटाइटिसः यह एक वायरस जन्य बीमारी है। गर्भवती महिलाओं के लिए यह काफी खतरनाक होती है, क्योंकि सभी संभव उपचार के बावजूद इससे 20 प्रतिशत महिलाओं की मृत्यु हो जाती है। हेपाटाइटिस के रोगियों को पीलिया हो जाता है और उल्टी की शिकायतें होने लगती हैं। हेपाटाइटिस के जिम्मेदार अब तक छह वायरसों (ए,बी,सी,डी,ई और एफ) की खोज की जा चुकी है। इनमें से ए, ई और एफ वायरस दूषित खाद्य पदार्थ एवं पानी से फैलते हैं। भारत में अधिकांशतः इन्हीं वायरसों से यह बीमारी होती है। 1983 से 1995 के बीच यह रोग हमारे देश में कम-से-कम 50 बार फैल चुका है।
अतिसार ( Diarrhoea) : भारत में यह बीमारी काफी आम है। यहां हर वर्ष 7.3 लाख लोग इससे पीड़ित होते हैं। हैजा (Cholera) के दौरान यह काफी खतरनाक हो जाता है। इससे विश्वभर में प्रतिवर्ष 1.2 लाख लोगों की मृत्यु हो जाती है।
क्यासानूरः यह दक्षिण कर्नाटक के जंगलों की काफी संक्रामक बीमारी है, जो केवल जानवरों को ही होती थी। किन्तु अब जंगलों की व्यापक पैमाने पर कटाई होने की वजह से संबंधित वायरस रिहायसी इलाकों में फैल गये हैं। फलतःलोग इसके शिकार होने लगे हैं। इससे पीड़ित रोगियों को तेज बुखार, पेचिश और रक्त-स्राव होता है।
अन्यः उपर्यृक्त रोगों के अतिरिक्त एड्स, क्षयरोग और कालाजार भी भारत में बड़े मैमाने पर फैल रहे हैं। उत्तर-पूर्वी राज्यों विशेषकर मणिपुर और महानगरों (विशेष रूप से मुम्बई) में एड्स वायरस एच.आई.वी. के संक्रमण की दर काफी तेजी से बढ़ रही है। उधर, क्षयरोग से भारत में प्रतिवर्ष 5 लाख लोग मर रहे हैं। बिहार और पश्चिम बंगाल को कालाजार ने बुरी तरह से जकड़ रखा है। इन राज्यों में कालाजार से रह-रहकर सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। वर्षों बाद यर्सिनिया पेस्टिस नामक जीवाणुओं (प्लेग) ने 1994 में पुनर्वापसी करके लगभग 50 लोगों को मौत के घाट उतार दिया।
भारत में कई विषाणुओं, जीवाणुओं एवं परीजीवियों के आगमन एवं पुनर्वापसी की कई वजहे हैं, जिनमें प्रमुख हैं - विभिन्न स्वास्थ्य कार्यक्रमों में आयी सुस्ती, नये रोगों की निगरानी के लिए जरूरी सुविधाओं का अभाव, एंटीबायोटिक्स का दुरुपयोग, पर्यावरण प्रदूषण एवं पारिस्थितिकी में परिवर्तन, जनसंख्या विस्फोट और शहरीकरण, आर्थिक समृद्धि में वृद्धि से उपभोक्तावाद में बढ़ोतरी, स्वच्छता पर अपेक्षित ध्यान न देना आदि। इन कारणों में से पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी में हो रहे बदलाव को कई विशेषज्ञ ज्यादा जिम्मेदार मान रहे हैं। राजस्थान में इंदिरा गांधी नहर से रिसने वाले पानी और उससे होने वाले जल-जमाव से मलेरिया फैलाने वाले मच्छर ज्यादा पैदा हुए हैं। उधर, तमिलनाडु में जापानी एनसेफेलाइटिस फैलने के लिए वहां धान की खेती में वृद्धि को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। ध्यातव्य है कि धान के खेतों में लम्बी अवधि तक पानी जमा रहता है। जंगलों की अंधाधुध कटाई करने से वहां रहने वाले विषाणु एवं जीवाणु शहरों एवं गांवों की ओर फैलने लगे हैं, जिससे कई नयी बीमारियां अस्तित्व में आयी हैं। इधर विषाणुओं एवं जीवाणुओं का उभार केवल भारत तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह विश्वव्यापी है। विश्व स्वास्य संगठन का यहां तक कहना है कि ”हम संक्रामक बीमारियों के मामले में विश्वव्यापी संकट की ओर बढ़ रहे हैं।“
एलिसा किट: अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के सूक्ष्म जैव विज्ञान विभाग ने एड्स (AIDS) रोग फैलाने बाले विषाणु का पता लगाने के लिए एक अत्यन्त संवेदी और विशिष्ट ‘एलिसा किट’ बनाने में सफलता प्राप्त की है। संस्थान के वैज्ञानिकों ने ढाई वर्षों की कड़ी मेहनत के उपरान्त यह किट तैयार करने में सफलता प्राप्त की है। इस किट को एक हजार से अधिक सफल प्रयोगों के बाद विकसित किया जा सका है। इस किट की संवेदनशीलता और विशिष्टता 100% है। इस किट द्वारा भारत में प्रचलित सभी प्रकार के एच. आई. वी (HIV) का पता लग जाता है। एच. आई. वी. दो प्रकार के होते हैं - पहले एच. आई. वी. टाइप.1 तथा दूसरे एच. आई. वी. टाईप.2। इनमें से प्रथम दूसरे की अपेक्षा अधिक खतरनाक है और इसका प्रसार भी अधिक पाया जाता है। व्यक्ति विशेष के रक्त में उपस्थित एच. आई. वी. के संक्रमण से एड्स का पता चलता है। अभी तक इसके परीक्षण के लिए अधिकांश किट आयात किए जाते हैं, किन्तु अब इस ‘एलिसा किट’ को पेटेन्ट कराने के बाद आयात रूक सकेगा।
स्मरणीय तथ्य |
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1. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (भाग - 4) क्या है? |
2. इस UPSC परीक्षा में कितने प्रश्न पूछे जाते हैं? |
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