वैक्सीन
टीका और टीकाकरण
1. टीका बीमारी की रोकथाम के लिए तैयार किया गया एक एन्टीजन है जो शरीर मेंकृत्रिम तौर से प्रवेश कराया जाता है। इसके प्रवेश कराने के साथ ही शरीर में उस टीके से सम्बन्धित रोग के रोगाणुओं- जीवाणुओं (Bacterias) और विषाणुओं (Viruses) से लड़ने के लिए विशिष्ट प्रकार के एन्टीबाॅडी (Antibody) बनने लगते हैं जो टीका लगाए गए व्यक्ति में रोग के लक्षण उत्पन्न नहीं होने देते।
2. टीकाकरण वह विधि है जिसके द्वारा व्यक्ति में रोग को फैलने से रोकने के लिए निष्क्रिय किए गए (Inactivated) अथवा कमजोर कर दिए गए (Attenuated) रोगाणुओं अथवा उनसे तैयार किए गए विषाक्त उत्पादों को व्यक्तियों के शरीर की त्वचा में इन्जेक्शन द्वारा या मुँह द्वारा प्रवेश कराया जाता है, ताकि ग्राही व्यक्ति में सम्बन्धित रोग के रोगाणुओं से लड़ने की क्षमता उत्पन्न हो सके।
परम्परागत टीके
1. टीका के विकास के प्रारम्भिक चरण मेंविषाणुओं एवं रिकेटसी (Rickettsiae) की संवृद्धि के लिए पशुओं के ऊतकों (Tissues) एवं मुर्गी के एम्ब्रियोनेटेड (Embryonated) अण्डोंका प्रयोग किया जाता था। बैक्टीरियल वैक्सीन बनाने के लिए सम्पूर्ण बैक्टीरिया और उसके विषाक्त पदार्थों (Toxins) का प्रयोग करके टीके तैयार किए जाते थे। चालीस के दशक के आखिर मेंकोशिका कल्चर प्रौद्योगिकी के पुनर्जन्म के साथ महत्वपूर्ण जीवित एवं मृत वायरल वैक्सीनों एवं सब-यूनिट वैक्सीनोंके आधुनिक विकास का युग प्रारम्भ हुआ। ये वैक्सीन सामान्य तौर पर चार प्रकार से तैयार किए जाते हैं।
स्मरणीय तथ्य
|
जीवित वैक्सीन (Live Vaccines)
1. जीवित वैक्सीन कमजोर किए गए रोगाणुओं (Live Attenuated Organisms) से तैयार किए जाते हैं। मृत वैक्सीनों की तुलना मेंजीवित वैक्सीनों को अधिक प्रभावी माना जाता है, क्योंकि
इनके रोगाणुओं की ग्राही (Host) के शरीर में संवृद्धि एवं संख्या में वृद्धि होती है जिसके परिणामस्वरूप एन्टीजेनिक खुराक उससे कहीं अधिक होती है जो व्यक्ति को दी जाती है।
जीवित वैक्सीनों में सभी प्रकार के छोटे एवं बड़े एंटीजेनिक घटक पाए जाते हैं।
इनके प्रवेश कराने के साथ ही शरीर के कुछ ऊतक सक्रिय हो जाते हैं, जैसे कि मुँह द्वारा पिलाई जाने वाली पोलियो की वैक्सीन से आँतों की म्यूकोसा (Mucosa) प्रभावित हो जाती हैं।वर्तमान में इस वर्ग की प्रमुख वैक्सीन निम्नलिखित है-
क्षय रोग के लिए बी.सी.जी. (Bacillus Calmette-Guerin)
चेचक के लिए स्मालपोक्स वैक्सीन
पोलियो के लिए ओरल पोलियो वैक्सीन,
पीत ज्वर के लिए वैक्सीन,
खसरा के लिए मीजिल्स वैक्सीन तथा
मम्प्स(Mumps) वैक्सीन
मृत वैक्सीन (Killed Vaccines)
ऊष्मा अथवा रसायनों द्वारा मृत रोगाणुओंको जब शरीर के भीतर प्रवेश कराया जाता है तो वे शरीर में रोगाणुओं से लड़ने की सक्रिय क्षमता (Active Immunity) उत्पन्न करते हैं।
इस प्रकार की वैक्सीनोंको मृत वैक्सीन कहा जाता है। मियादी बुखार (Typhoid Fever)], हैजा, काली खाँसी, प्लेग, रैबीज, पोलिया (सुई के द्वारा त्वचा में प्रवेश कराने वाली), इन्फ्लुएन्जा, टायफस बुखार एवं सेरीव्रल स्पाइनल मेनिन-जाइटिस आदि रोगोंकी रोकथाम के लिए मृत वैक्सीनों का उपयोग किया जाता है।
टाॅक्साइड्स (Toxides)
कुछ रोगाणु एक्सोटाॅक्सिन्स (Exotoxins) उत्पन्न करते हैं, जैसे- डिप्थीरिया और टिटेनस के जीवाणु। इन जीवाणुओंके द्वारा पैदा किए गए विषाक्त पदार्थों (Toxins) को डीटोक्सीकेटेड (Detoxicated) करके वैक्सीन तैयार की जाती है और इसका प्रयोग इन रोगों की रोकथाम के लिए किया जाता है।
पोलीवैलेन्ट वैक्सीन (Polyvalent Vaccines)
पोलीवैलेन्ट वैक्सीन वे वैक्सीन हैं जिन्हेंएक ही जाति (Species) के दो या दो से अधिक स्ट्रेन्स (Strains) के कल्चर (Culture) से तैयार किया जाता है, जैसे- पोलियो और इन्फ्लुएन्जा के टीके।
मिश्रित वैक्सीन (Mixed Vaccines)
जब एक से अधिक रोग प्रतिरोधी एन्टीजनोंको एक साथ मिला दिया जाता है तो उस वैक्सीन को मिश्रित वैक्सीन कहते हैं। इसका उद्देश्य एक ही बार में एक से अधिक रोगों से बचाव हेतु टीकाकरण करना टीकाकरण की लागत को कम करना तथा टीकाकरण के प्रसार को बढ़ाना है।
इस प्रकार की वैक्सीन हैं-
(i) डी.पी.टी. (ट्रिपिल- एन्टीजन-डिप्थीरिया, परट्यूसिस एवं टिटेनस) ,
(ii) डी.टी. (डिप्थीरिया एवं टिटेनस),
(iii) डी.पी. (डिप्थीरिया एवं परट्यूसिस),
(iv) टी.ए.बी. (टाॅयफाइड-पैरा ए एवं बी),
(v) डी.पी.टी. एवं टाॅयफाइड,
(vi) डी.पी.टी.पी. (डिप्थीरिया, परट्यूसिस, टिटेनस एवं पोलियो-साक)।
परम्परागत वैक्सीनोंमेंचेचक, पोलियो, पीत ज्वर, रैबीज, इन्फ्लुएन्ज, खसरा, मम्प्स, एरवोवायरस आदि विषाणुनाशक वैक्सीन है; हैजा, टायफायड, प्लेग, काली खाँसी, टिटेनस, डिप्थीरिया, बी.सी.जी.सेरीब्रोस्पायनल मेनिनजाइटिस जीवाणुनाशक वैक्सीन है; टाइफस एन्टीरिकेट्सियल वैक्सीन है तथा डी.पी.टी.पी., डी.पी.टी., डी.पी., डी.टी., टी.ए.वी. आदि मिश्रित वैक्सीन है।
परम्परागत टीकों से हानियाँ
1.विगत वर्षों मेंसारे विश्व, विशेष रूप से तृतीय विश्व के देशों में अत्यधिक सफलता अर्जित कर लेने के बावजूद परम्परागत वैक्सीनोंके प्रयोग से जुड़े कुछ खतरे एवं हानियाँ है। कमजोर कर दिए गए जीवित वैक्सीनों के प्रयोग की हानियाँ है-
रिवर्जन टू वायरूलेन्स (Reversion of Virulence),
शेल्फ (Shelf) का सीमित जीवन,
कोशिकाओंमेंएडवेन्टीशियस (Adventitious) एजेन्ट्स के मौजूद रहने की संभावना है,
संवृद्धि के लिए प्रयुक्त किये जाने वाला माध्यम तथा
वैक्सीन की प्रभावशीलता बनाए रखने के लिए निश्चित तापक्रम पर वैक्सीन के भण्डारण एवं परिवहन की व्यवस्था। मृत वैक्सीनोंकी हानियाँ है
वैक्सीन के रूप में प्रयुक्त किए जाने वाले रोगाणुओं को बीमारी फैलाने योग्य न रहने देने के लिए उनकी क्रियाशीलता को पूरी तरह समाप्त न कर पाना,
कुछ मात्रा में सेल्यूलर पदार्थ की उपस्थिति से जुड़े शरीर पर पड़ने वाले प्रभाव तथा
पूर्णरूप से प्रतिरक्षण करने के लिए एक से अधिक बार टीका लगाए जाने की बाध्यता।
स्मरणीय तथ्य
|
टीकों के भण्डारण और परिवहन में कोल्ड चेन का महत्व
जीवित एवं मृत तथा टाॅक्साइड्स आदि सभी प्रकार की वैक्सीनों की क्षमता एवं प्रभावशीलता (Potency) को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि उत्पादन से लेकर लाभार्थी के शरीर में प्रवेश कराने तक इन सभी वैक्सीनों को एक निश्चित तापक्रम पर रखने की व्यवस्था की जाए।
इन वैक्सीनों को उत्पादक से प्रयोगकर्ता तक पहुँचाने के लिए विभिन्न स्तरों पर एक निश्चित तापक्रम पर वैक्सीनों के भण्डारण, वितरण एवं परिवहन के लिए जो प्रणाली विकसित की गई है उसे शीत शृंखला या कोल्ड चेन कहते ह®।
बी.सी.जी. एवं सभी प्रकार की कैप्सूलर पाॅलिसैकेराइड (Polysaccharide) वैक्सीन सदैव ही जमी (Frozen) हुई अवस्था मेंरहनी चाहिए, जबकि अन्य वैक्सीन 2 से 4° के निम्नतम तापमान पर रखी जानी चाहिए।
कोल्ड चेन प्रणाली के अन्तर्गत क्षेत्राीय स्तर पर वाक्- इन-कोल्ड-रूम्स (Walk-in-cold-rooms) तथा वाक-इन-फ्रीजर- रूम्स (Walk-in-freezer-rooms) जिला स्तर पर आइसलाइंड रेफ्रीजरेटर तथा डीप फ्रीजर एवं प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र स्तर पर आइसलाइंड रेफ्रीजरेटर तथा फ्रीजर; उपकेन्द्रों व गाँवों तक वैक्सीन ले जाने के लिए कोल्ड बाॅक्स की व्यवस्था की जाती है।
नई वैक्सीन बनाने हेतु दिशाए
किसी भी नई वैक्सीन को विकसित करने के लिए आवश्यक एवं वांछित घटकोंके रूप में ऐसे जीवित रोगाणु (Living Organism) अथवा रोगाणु में उपलब्ध प्रमुख एन्टीजन्स की जरूरत होती है जिनके विरूद्ध शरीर में रोग प्रतिरोधी क्षमता विकसित की जा सके।
आज से कुछ वर्ष पूर्व तक ऐसे एन्टीजन्स को अलग करना (Isolate) सम्भव नहीं हो पाया था। ऐसा विश्वास किया जाता था कि सम्भवतया इसी समस्या के कारण भविष्य में नई वैक्सीनों को विकसित कर पाना सरल नहीं होगा, लेकिन जैव-प्रौद्योगिकी के क्षेत्रा में प्राप्त क्रान्तिकारी सफलताओं ने इस कठिनाई को दूर करके नई वैक्सीनों के विकास का मार्ग प्रशस्त कर दिया है।
आजकल एन्टीजन की पहचान एवं उसको तैयार करने का कार्य प्रोटीन्स और पाॅलिपेप्टिडेस (Polypeptidase) के डी.एन.ए. के पुनर्संयुग्मी (Recombinant) को उत्पादित करके; हाइब्रिडोमा (Hybridoma) प्रौद्योगिकी के द्वारा कृत्रिम ओलिगोपेप्टाइड्स तथा एपीटोप्स के उत्पादन, निर्देशित म्यूटेशन, चयन एवं स्थिरीकरण से सम्भव हो गया है। अब ऐसे रोगाणुओंके विरुद्ध वैक्सीन बनाना सम्भव हो गया है जिन्हें प्रयोगशाला में किसी भी तरह से वृद्धि कर पाना सम्भव नहीं था
पुनर्संयुग्मी डी.एन.ए. जेनेटिक्स मेंविषाणुओंऔर जीवाणुओंके प्रतिरोधी दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण पाॅलिपेप्टिडेस एन्टीजन्स को इन्फेक्शियस न्यूक्लिक एसिड वेक्टर्स में प्रवेश कराया जाता है। इन प्रोटीन्स और पाॅलिपेप्टिडेस का उत्पादन नवीन एवं अप्राकृतिक ग्राहा (Hosts) जैसे-जीवाणु, यीस्ट अथवा पशुओं की कोशाओं से किया जाता है।
स्मरणीय तथ्य
|
बायो सेंसरः एक चिकित्सकीय उपकरण
भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, दिल्ली के बायोमेडिकल इंस्ट्रूमेंट विभाग की डाॅ0 सुश्री स्नेह आनंद ने ‘बायो सेंसर’ नामक एक ऐसा चिकित्सा उपकरण विकसित किया है, जिसके माध्यम से कुछ संक्रामक रोगों यथा-टायफायड, मलेरिया, डेंगू, क्षयरोग आदि का तत्काल पता लगाया जा सकता है। रक्त जांच द्वारा रोगों का पता लगाने वाला यह उपकरण काफी संवेदनशील है। यह विकास कार्य भारत सरकार के जैव तकनीक विभाग द्वारा प्रायोजित था। ‘बायो सेंसर’ का चिकित्सकीय परीक्षण राष्ट्रीय संक्रामक रोग संस्थान (NICD) कर रहा है। अब तक किये गये परीक्षणों मे यह शत-प्रतिशत खरा उतरा है।
ओजोन परत
पृथ्वी को सूर्य की नुकसानदेह किरणों से बचाने वाली वातावरण की ओजोन परत में चीन के क्षेत्राफल के दोगुने के बराबर छिद्र हो गया है। संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट के अनुसार अंटार्कटिका के ऊपर स्थित यह छिद्र करीब दो करोड़ 20 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जो चीन के क्षेत्राफल के दोगुने से भी ज्यादा है। ओजोन परत को रेफ्रिजरेशन में इस्तेमाल होने वाले क्लोरो फ्लोरो कार्बन (सी.एफ.सी) जैसे रसायनों के कारण नुकसान पहुंच रहा है।
संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के कार्यकारी निदेशक क्लाउस टायफर ने कहा कि पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले रसायनों और गैसों के इस्तेमाल पर अंकुश लगाकर ओजोन परत की क्षति कम की गयी है। इस बारे में हुए माँट्रियल समझौते दिसंबर तक पोइचिंग में हुए सम्मेलन में समझौते को लागू करने की दिशा में हुई प्रगति की समीक्षा की।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि 2040 तक ओजोन परत 1980 के पहले वाली स्थिति में पहुंच जायेगी। ओजोन परत में छेद हो जाने से सूर्य की अल्ट्रा वायलेट किरणें सीधी पृथ्वी पर पहुंचने लगेंगी जो मनुष्यों, पशु पक्षियों, वनस्पतियों और समुद्री जीवन को भी नुकसान पहुंचाएंगी। वर्ष 1999 का संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण पुरस्कार, नोबेल पुरस्कार विजेता मारियों जे मोलिना को दिया गया है जो ओजोन परत की भी विशेषज्ञ है। मैसाच्यूसेट्स इंस्टीट्यूट आॅफ टेक्नोलाॅजी में कार्यरत अमेरिकी वैज्ञानिक मोलिना को न्यूयार्क में सासाकावा पर्यावरण पुरस्कार दिया गया है।
ब्रिटेन, थाईलैंड, केन्या और संयुक्त राष्ट्र के प्रमुख पर्यावरणविदो के निर्णायक मंडल के अध्यक्ष लार्ड स्टेनली क्लिंटन डेविस ने कहा कि प्रो. मोलिना के शोध के ही नतीजतन आज हम ओजोन परत की क्षति के विभिन्न पहलुओं को आत्मविश्वास के साथ समझ सकते हैं।
ह्यूमन क्रोनिक गोनाडोट्राॅपिन
लड़के के भ्रूण को सम्भालना जहां मुश्किल हो सकता है, वहीं नारी भ्रूण मां के लिए खतरा भी साबित हो सकता है। स्टाॅकहोम स्थित ‘कारोलिंस्का इंस्टीट्यूट’ के वैज्ञानिक द्वारा किये गये हाल के अनुसंधान से यह बात सामने आई है कि गर्भावस्था के प्रारम्भिक तीन माह के दौरान जो महिलाएं सुबह के समय जबरदस्त ढंग से बीमार पड़ जाती है। उनमें बेटे की जगह बेटी होने की संभावनाएं बढ़ जाती है। इस संस्थान के जाॅन आस्कलिंग और उनके सहक£मयों का मानना है कि ऐसा गर्भावस्था हार्मोन के कारण होता है, जिन्हें ‘ह्ययूमन क्रोनिक गोनाडोट्राॅपिन’ (एच.सी.जी.) के नाम से जाना जाता है। एक अनुसंधान रिपोर्ट में वैज्ञानिकों का कहना है कि सामान्य गर्भावस्था की स्थितियों में जन्म के समय नारी भू्रण का संबंध एच.सी.जी. के जबरदस्त सिकुड़ने से होता है, बजाये नर भ्रूण के गर्भावस्था के प्रारम्भिक महीनों में हार्मोन के स्तर का सम्बंध सुबह को होने वाली गम्भीर बीमारी से माना गया है, आस्कलिंग और उनके दल के स्वीडन में एक लाख शिशुओं की तुलना उन महिलाओं के रिकार्ड से की है। सवेरे जबरदस्त बीमार होने वाली अधिकांश महिलाओं ने नारी शिशुओं को हीं जन्म दिया। इन अनुसंधानकर्ताओं का यह भी कहना है कि उनके अनुभवों के पीछे मुक्त ऐतिहासिक तथ्य भी है। इन अनुसंधानकर्ताओं का यह भी कहना है कि दो हजार वर्ष पहले से यह मान्यता चली आ रही है। कि गर्भावस्था प्रारम्भिक तीन माहों में मां का पीला चेहरा इस बात का संकेत है कि वह नारी शिशु को जन्म देगी, जबकि इसी दौरान मां की स्वस्थ त्वचा इस बात का संकेत है, कि जन्म लेने वाला शिशु नर होगा।
सौरमंडल
जब से हमारे सौर मंडल के दो बाहरी ग्रह यूरेनस तथा नेप्च्यून का अंतरिक्षविज्ञानियों को पता चला है, तब से वह इसी खोज में लगे हुए थे, कि इनका जन्म कैसे हुआ। नवीनतम सिद्धांतों के अनुसार उनका मानना है कि जिस समय सौर मंडल इन दोनों बाहरी ग्रहों को जन्म दे रहा होगा, बृहस्पति (जुपिटर) तथा शनि (सैटर्न) ने उसमें मदद की होगी, यानी दाई का काम किया होगा। खगोल विज्ञानी लम्बे अर्से से यूरेनस और नेप्च्यून की पहेलियों को सुलझाने में लगे हुए थे। उनके विशाल आकार और स्थिति से इस परम्परागत मान्यता में बाधा पड़ रही थी, कि सौरमण्डल के सभी ग्रह व नक्षत्रा उस पदार्थ के सम्मिलन से बने हैं जो सूर्य के विस्फोटक जन्म के साथ अंतरिक्ष में बिखर गये थे। उल्लेखनीय है कि यूरेनस और नेप्च्यून सूर्य से बहुत दूर स्थित हैं, उस गैस और धूल की पट्टी से कहीं दूर, जिसने लाखों-करोड़ों वर्षों में गुच्छे के रूप में एकत्रा होकर अंततः सौरमंडल के विशालकाय ग्रहों का निर्माण किया था। एइ शोध के अनुसार बृहस्पति-शनि क्षेत्रा में बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेप्च्यून का चार पत्थरीले क्रोड (कोर्स) के रूप में बनना शुरू हुआ था। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार बृहस्पति और शनि, अपने गुरुत्वाकर्षणीय खिंचाव के कारण आस-पास के अंतरिक्षीय पदार्थों को अपनी ओर ज्यादा से ज्यादा खींचते चले गये और आकार में विशाल होते चले गये। इस तरह उनका आकार इतना विशाल हो गया कि उनके गुरुत्वाकर्षणीय बल ने उग्र होकर यूरेनस और नेप्च्यून को अपने क्षेत्रा से निकाल कर बाहर (बाह्य अंतरिक्ष में) फेंक दिया। और, लाखो-करोड़ो वर्षों में जाकर यह सूर्य की लगभग वर्तुल कक्षा के पास बस गये।
‘नैवीरेपीन’
वैज्ञानिकों ने एड्स ग्रस्त महिला के गर्भस्थ शिशु को इस जानलेवा बीमारी से छुटकारा दिलाने के लिए एक कारगर एवं सस्ती दवा का विकास किया है। इस दवा की मात्रा दो खुराकों से ही प्रति वर्ष तीन से चार लाख शिशुओं को एड्स महामारी के कारण काल के मुंह में जाने से रोका जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र एड्स निरोधक कार्यक्रम के अनुसार नैवीरेपीन नाम की यह दवा विशेष रूप से गरीब और विकासशील देशों के लोगों के लिए एक वरदान साबित होगी। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डबल्यू.एच.ओ.) के अनुसार अमेरिका और युगांडा के वैज्ञानिकों के एक संयुक्त दल ने अमेरिका के राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान के तहत यह दवा विकसित की है। नैवीरेपीन नाम की इस दवा की कीमत लगभग चार डाॅलर से भी कम है।
संगठन के अनुसार यह दवा अपने आप में एक बहुत बड़ी उपलब्धि है क्योंकि आज एड्स दुनिया की ऐसी चैथी बीमारी है जिससे सबसे अधिक लोग मौत के शिकार हो रहे हैं और अफ्रीकी देशों में तो सबसे अधिक लोग एड्स के कारण ही काल के ग्रास बनते हैं। संगठन से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार पिछले वर्ष दुनिया भर में लगभग 25 लाख लोग एड्स का शिकार हुए और लगभग 58 लाख एड्स की चपेट में आये। इनमें से 75 प्रतिशत अकेले अफ्रीका में हैं।
संयुक्त राष्ट्र के एड्स निरोधक कार्यक्रम के आंकड़ों के अनुसार दुनिया भर में प्रतिदिन लगभग 1800 ऐसे शिशुओं का जन्म होता है जो एड्स से ग्रसित होते हैं। वर्ष 1998 के अंत में किये गये अध्ययन के अनुसार 15 वर्ष से कम आयु के लगभग 12 लाख बच्चे एड्स के शिकंजे में हैं और मौत का इंतजार कर रहे हैं। इनमें से अधिकतर को यह रोग अपनी माताओं से मिला है, चाहे वह गर्भावस्था के दौरान मिला हो या बाद में स्तनपात द्वारा। अफ्रीकी देशों में एड्स बहुत तेज गति से अपना शिकंजा कसता जा रहा है। वहां की 20 प्रतिशत से भी अधिक वयस्क आबादी एड्स की चपेट में है। एक अध्ययन के अनुसार महिलाओं में एड्स होने का सबसे अधिक खतरा उस समय रहता है जब वे गर्भ धारण करने की आयु में पहुंच जाती हैं। अफ्रीका में 30 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं एड्स की रोगी हैं।
74 videos|226 docs|11 tests
|
1. कोरोनावायरस से संबंधित घातक बीमारियाँ कौन-कौन सी हैं? |
2. कोरोनावायरस से बचाव के लिए कौन-कौन सी वैक्सीनेशन उपलब्ध हैं? |
3. कोरोनावायरस संक्रमण से बचाव के लिए वैक्सीन कैसे कारगर होती है? |
4. कोविड-19 के लिए वैक्सीनेशन के लिए उम्र सीमा क्या है? |
5. कोविड-19 वैक्सीनेशन के लिए दूसरी डोज कब लेनी चाहिए? |
74 videos|226 docs|11 tests
|
|
Explore Courses for UPSC exam
|