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बाल्याकाल के दौरान होने वाले शारीरिक परिवर्तन - बाल विकास एवं अध्ययन विद्या - Class 3 PDF Download

बालकों में बाल्यकाल के दौरान होने वाले महत्वपूर्ण शारीरिक परिवर्तन या विकास: क्रो एवं क्रो ;ब्तवू - ब्तवूद्ध के अनुसार, बच्चों में बाल्यकाल के दौरान शरीरिक विकास निम्नलिखित प्रकार से होता है -

(1) भार: बाल्यावस्था में बालक के भार में पर्याप्त वृद्धि  होती है। 12 वर्ष के अंत में उसका भार 80 और 95 पौण्ड के बीच होता है। 9 या 10 वर्ष की आयु तक बालकों का भार बालिकाओं से अधिक होता है। इसके बाद बालिकाओं का भार अधिक होना आरंभ हो जाता है।

(2) लम्बाई: बाल्यावस्था में 6 से 12 वर्ष तक शरीर की लम्बाई कम बढ़ती है। इन सब वर्षों में लम्बाई लगभग 2 या 3 ईंच ही बढ़ती है।

(3) सिर एवं मस्तिष्क: बाल्यावस्था में सिर के आकार में क्रमशः परिवर्तन होता रहता है। 5 वर्ष की आयु में सिर प्रौढ़ आकार का 90%और 10 वर्ष की आयु में 95% होता है। बालक के मस्तिष्क के भार में भी परिवर्तन होता रहता है। 9 वर्ष की आयु में बालक के मस्तिष्क का भार उसके कुल शरीर के भार का 90% होता है।

(4) हड्डियाँ: बाल्यावस्था में हड्डियों  की संख्या और अस्थीकरण अर्थात् दृढ़ता में वृद्धि  होती रहती है। इस अवस्था में हड्डियों की संख्या 270 से बढ़कर 350 हो जाती है।

(5) दांत: लगभग 6 वर्ष की आयु में बालक के दूध के दांत निकलने आरंभ हो जाते हैं। 12 या 13 वर्ष तक उसके सब स्थायी दांत निकल आते हैं। जिनकी संख्या लगभग 32 होती है। बालिकाओं के स्थायी दांत बालकों से जल्दी निकलते हैं।

(6) अन्य अंग: इस अवस्था में मांसपेशियों का विकास धीरे-धीरे होता है। 9 वर्ष की आयु में मांसपेशियां का विकास उसके शरीर के कुल भार का 27% होता है। हृदय की धड़कन की गति निरंतर कम होती जाती है। 12 वर्ष की आयु में धड़कन 1 मिनट में 85 बार होती है। बालक के कन्धे चैड़े, कुल्हे पतले और पैर सीधे और लम्बे होते हैं। बालिकाओं के कन्धे पतले और कुल्हे चैड़े और पैर अंदर की ओर झुके होते हैं। 11 या 12 वर्ष की आयु में बालकों और बालिकाओं के यौनांगों का विकास तीव्र गति से होता है।

(7) विकास का महत्व: बाल्यावस्था में बालक के लगभग सभी अंगों का विकास हो जाता है। फलस्वरूप वह अपनी शरीरिक गति पर नियंत्रण करना जान जाता है, अपने सभी कार्य स्वयं करने लगता है और दूसरों पर निर्भर नहीं रह जाता है।

बाल विकास में बाधक बाल समस्याएँ 

भारतीय प्रसंग के विशेष संदर्भ में बाल विकास में बाधक बाल-समस्याओं को इस प्रकार समझा या व्यक्त किया जा सकता है -

(1) शारीरिक विकास की असामान्यता: बालकों का शरीरिक विकास असमान्य रूप से होता है। उसक हाथों की लम्बाई अधिक होती है तो कभी टांगे लम्बी दिखाई देती है। लड़कों में ढ़ाढ़ी, मूँछ निकलना, लड़कियों के स्तनों में उभार तथा चेहरे पर प्रौढ़ता की रेखाएं आना, किशोरों के मन में भय तथा आतंक पैदा करता है।

(2) मानसिक विकास में जिज्ञासा: बालकों का मानसिक विकास बहुत तेजी से होता है। वे हर वस्तु तथा तथ्य को समझना चाहता है और उसको समझने के लिए गहराई तक जाते हैं। उसमें रुचि विकास हो जाती है। कल्पना, दिवास्वप्न, विरोधी मानसिक दशाएं उत्पन्न होती है। बालकों में असामान्य व्यवहार विकास होने लगता है।

(3) भिन्न व्यवहार: बालकों का व्यवहार भिन्न हो जाता है। वे कभी बहुत सुस्त दिखाई देते है। तो कभी अत्यधिक क्रियाशील दिखाई देते हैं। उसके व्यवहार में तनिक सी बाधा आने से उद्विग्न हो जाता है।

(4) विद्रोह: बालक बन्धन में नहीं रहना चाहता है। परम्पराओं को तर्क के अभाव में स्वीकार नहीं करता, अन्धविश्वास को नहीं मानता। प्रतिबंध की दशा में विद्रोह करता है।

(5) समायोजन का अभाव: बालक स्वयं को नए परिवर्तन के संदर्भ में स्वयं को समाज में समायोजित नहीं कर पाता, उसका मन तनिक सी बाधा आने पर उद्विग्न हो जाता है।

(6) यौन शक्ति: बालकों में यौनांग का विकास के कारण विषमलिंगी आकर्षण बढ़ते हैं। कई बार उनके दुष्परिणाम  होते हैं। प्रेम नामक रोग पराकाष्ठा पर पहुंचता है तो आत्महत्या तक की नौबत आ जाती है।

(7) अपराध प्रवृत्ति: नए जीवन दर्शन के तलाश में बालक प्रायः आपराधिक प्रवृत्तियों में फंस जाते हैं। एडवेंचर भी उनको कई बार अपराध करने को विवश कर देते हैं। बेलेनटीन ने इस अवस्था को अपराध तथा अपराधी प्रवृत्ति से बचने पर विशेष बल दिया है।

(8) महत्वाकांक्षा: बालकों में महत्वाकांक्षा अत्यधिक प्रबल होने लगती है। उसका परिणाम यह होता है कि दूसरों को हानि पहुंचाना, कष्ट देना, बदला लेने की प्रवृत्ति जैसी असामान्य भावनाएं विकसित होने लगती हैं।

कुछ विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के प्रकारों की चर्चा करें तथा बतावें कि शिक्षकों को किस प्रकार इस पर ध्यान देना चाहिए।

भारतीय समाजों में कुछ विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चे होते हैं, जिनकी अनुकूल प्रकार्यात्मकता के लिए आवश्यकताएं औसत बच्चों से भिन्न होती है। सामान्य बच्चों की तुलना में विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों को कुछ अतिरिक्त सहायता की आवश्यकता पड़ती है। आवश्यकताओं के अनुसार विशिष्ट बालकों को विशेषप्रकार की विद्यालयी शिक्षा और शिक्षकों के विशेष ध्यान की आवश्यकता होती है। कुछ विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के प्रकार निम्नांकित हैं -

(i) शारीरिक अक्षमता से युक्त बालक

(ii) पिछड़े बालक

(iii) मन्द बुद्धि बालक

(iv) प्रतिभाशाली बालक

(v) समस्यात्मक बालक

(vi) संवेगात्मक कुसमायोजित बालक

(vii) भाषा-दोष वाले बालक 

(i) शारीरिक अक्षमता से युक्त बालक: शारीरिक अक्षमता वाले बालक को दोषपूर्ण अंग वाला बालक भी कहा जाता है। बालकों के शारीरिक दोष उन्हें साधारण क्रियाओं में भाग लेने से रोकते हैं या सीमित रखते हैं, ऐसे बालक शारीरिक अक्षमता से युक्त बालक कहे जाते हैं।

दोषपूर्ण अंगों वाले बालकों अथवा शारीरिक अक्षमता से युक्त बालक के कुछ प्रकार निम्नलिखित हैं -

(1) कमजोर नजर वाले और अंधे बालक

(2) कम सुनने वाले बालक

(3) अपंग बालक

(4) नाजुक बालक

(ii) पिछड़े बालक: जो बालक कक्षा का औसत कार्य नहीं कर पाता है और कक्षा के औसत छात्रों से पीछे रहता है, उसे पिछड़ा बालक कहते हैं। अर्थात् पिछड़े बालक से तात्पर्य सामान्यः वैसे बालक से होता है जो बुद्धि, शिक्षा आदि में अपने समकक्षियों से काफी पीछे रह जाते हैं। पिछड़े बालक की पहचान उसकी कुछ स्पष्ट विशेषताओं के आधार पर की जाती है। बालकों के पिछड़ेपन के कारण निम्न हैं -

(1) बौद्धिक क्षमता की कमी

(2) वातावरण का प्रभाव

(3) शारीरिक दोष

(4) स्वभाव-संबंधी दोष

(5) कर्तव्यत्यागिता।

(iii) मन्द बुद्धि बालक: प्रत्येक समाज में कुछ न कुछ ऐसे बालक अवश्य होते हैं जो बौद्धिक दृष्टि से कमजोर होते हैं। उनमें से कुछ ऐसे होते हैं जो स्वयं अपना जीवन निर्वाह करने में असमर्थ होते हैं। अतः मंद बुद्धि बालक या दुर्बल बुद्धि व्यक्ति  वह है, जिसमें स्थायी मन्दता अथवा सीमित मानसिक विकास पाया जाता है। मानसिक रूप से दुर्बल व्यक्ति स्वयं अपना काम करने और अपनी सहायता के अयोग्य होते हैं।

मानसिक दुर्बलता की विशेषताएं निम्नलिखित हैं -

(1) बौद्धिक प्रकार्य सामान्य से कम स्तर के होते हैं।

(2) मानसिक विकास सीमित होता है।

(3) मानसिक दुर्बलता स्थायी होता है।

(4) इसकी उत्पत्ति शारीरिक कारणों से होती है।

(iv) प्रतिभाशाली बालक: प्रतिभाशाली बालक, सामान्य बालकों से सभी बातों में श्रेष्ठत्तर होता है। प्रतिभाशाली बालक साधारण बालकों की अपेक्षा किसी बात को बहुत जल्दी समझ जाता है। वह कक्षा के सामान्य बालकों की अपेक्षा अधिक उच्च स्तर की बातें सोचा करता है। प्रतिभाशाली बालकों की बुद्धि-लब्धि 120 से अधिक होती है। कई मनोवैज्ञानिक ऐसे बालकों को प्रतिभाशाली या कुशाग्र बुद्धि समझते हैं, जिनकी बुद्धि-लब्धि 130-140 से अधिक हो। प्रतिभाशाली बालकों की परिभाषा इस तरह दी जा सकती है -

(1) "प्रतिभाशालीय" शब्द का प्रयोग, उन एक प्रतिशत बालकों के लिए किया जाता है, जो अधिक बुद्धिमान होते हैं।

(2) प्रतिभाशाली बालक -शारीरिक गठन, सामाजिक समायोजन, व्यक्तित्व के लक्षणों, विद्यालय-उपलब्धि, खेल की सूचनाओं और रुचियों की बहुरूपता में सामान्य बालकों में बहुत श्रेष्ठ होते हैं।

(v) समस्यात्मक बालक: कुसमायोगिता बालकों को ही समस्या-बालक कहा जाता है। अर्थात् वह बालक, जिसके व्यवहार में कोई ऐसी असामान्य बात होती है, जिसके कारण वह समस्या बन जाता है। समस्यात्मक-बालक कहलाता है। अतः समस्यात्मक बालक को इस तरह परिभाषित किया जा सकता है -

(1) समस्या बालक वे हैं, जिनका व्यवहार अथवा व्यक्तित्व गंभीर रूप से असाधारण होता है।

(2) वह बालक जिसकी शिक्षा लब्धि 85 से कम होती है, समस्यात्मक-बालक कहलाता है ।

समस्या-बालक के उदाहरण 

(1) चोरा करना

(2) झूठ बोलना

(3) कक्षा से भाग जाना

(4) क्रोधित करना

(5) अत्यधिक कायरपन

(6) धमकाना ........ इत्यादि।

विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के लिए शिक्षकों की भूमिका: उपर्युक्त विशिष्ट आवश्यकता वाले सभी बालकों पर शिक्षकों का ध्यान रहना चाहिए। अर्थात् कुछ विशिष्ट आवश्यकता वाले बच्चों के संदर्भ में शिक्षकों की भूमिका निम्नांकित हैं -

(1) बालक को अपने क्रोध पर नियंत्रण करने की शिक्षा देनी चाहिए।

(2) बालक को यह बताना चाहिए कि झूठ बोलने से कोई लाभ नहीं होता है।

(3) बालक में सोच-विचार कर बोलने की आदत का निर्माण करना चाहिए।

(4) बालक पर चोरी का दोष कभी नहीं लगाना चाहिए।

(5) बालक में आत्म-नियंत्रण का भावना का विकास करना चाहिए।

(6) शिक्षक को बालकों का सम्मान करना चाहिए।

(7) शिक्षक को बालकों की सहायता, परामर्श और निर्देशन देने के लिए तैयार रहना चाहिए।

(8) बालकों के शारीरिक दोष और रोगों के उपचार पर ध्यान दिया जाना चहिए।

(9) निर्धन-परिवार के बालकों के लिए निःशुल्क शिक्षा और छात्रवृत्तियों की योजना पर ध्यान दिया जाना चाहिए।

(10) बालकों के परिवारों के वातावरण से सुधार के बारे में बताया जाना चाहिए।

(11) बालकों के लिए शैक्षिक निर्देशन का प्रबंध किया जाना चाहिए।

(12) शिक्षक में बालकों के प्रति प्रेम, सहानुभूति और सहनशीलता का व्यवहार करने का गुण होना चाहिए।

(13) शिक्षक को बालकों को एक या दो हस्तशिल्पों की शिक्षा देने में कुशल होना चाहिए।

(14) शिक्षक को बालकों के स्वास्थ्य, समस्याओं और सामाजिक दशाओं के प्रति व्यक्तिगत रूप से ध्यान देना चाहिए।

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FAQs on बाल्याकाल के दौरान होने वाले शारीरिक परिवर्तन - बाल विकास एवं अध्ययन विद्या - Class 3

1. बाल्याकाल के दौरान कितने तरह के शारीरिक परिवर्तन होते हैं?
उत्तर: बाल्याकाल के दौरान कई तरह के शारीरिक परिवर्तन होते हैं, जैसे कि बालों का विकास, ऊँचाई और वजन में वृद्धि, आंखों की वृद्धि, दांतों की उगना, बौद्धिक विकास आदि।
2. बाल्याकाल के दौरान बालों का विकास कैसे होता है?
उत्तर: बाल्याकाल के दौरान बालों का विकास विभिन्न तरीकों से होता है। बच्चों के बाल लंबे और घने होते हैं क्योंकि बालों के नए बालग्रोथ कोशिकाएं उत्पन्न होती हैं और उनमें मेलेनिन नामक रंग का पिगमेंट मौजूद होता है। बच्चे के बालों की गाठ जितनी मजबूत होती है, उनके बाल उतने ही मजबूत होते हैं।
3. बाल्याकाल के दौरान अध्ययन कैसे करें?
उत्तर: बाल्याकाल में अध्ययन करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि बच्चे को ध्यान से सुनना चाहिए और उसके प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए। अध्यापक या अभिभावक के द्वारा छोटी कहानियां सुनाने या पढ़ने के बाद बच्चा समझाने के लिए प्रश्न पूछ सकते हैं जैसे कि कहानी की कथानक समझाएं, मुख्य पात्र के बारे में पूछें, या कहानी की संदर्भ स्थिति के बारे में प्रश्न पूछें।
4. बाल्याकाल में बच्चे का वजन और ऊँचाई कैसे बढ़ाएं?
उत्तर: बाल्याकाल में बच्चे का वजन और ऊँचाई बढ़ाने के लिए सही पोषण बहुत महत्वपूर्ण होता है। बच्चे को पूरे दिन में कम से कम तीन महत्वपूर्ण भोजनों के साथ स्वस्थ खाने की आदत देनी चाहिए। इसके साथ ही उन्हें अधिक मात्रा में पानी पिलाना चाहिए और उन्हें नियमित रूप से खेलने और शारीरिक गतिविधियों में शामिल होना चाहिए।
5. बाल्याकाल के दौरान दांतों की उगना कैसे होती है?
उत्तर: बाल्याकाल के दौरान दांतों की उगना में तीन अवधियाँ होती हैं - मिलाना, खोना और उगना। सबसे पहले, बच्चे के दांतों के नीचे जोड़ दांतें होती हैं, जो समय के साथ आउट होती हैं। ये दांतें आमतौर पर 6 से 7 साल की आयु तक आउती हैं। इसके बाद, बच्चे के दांतों के नीचे स्थायी दांतें आने शुरू होती हैं और यह प्रक्रिया आमतौर पर 12 से 14 साल की आयु तक चलती है।
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