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Environment and Ecology (पर्यावरण और पारिस्थितिकी): September 2021 UPSC Current Affairs | पर्यावरण (Environment) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

Table of contents
भूजल संरक्षण
भारत में मगरमच्छ की प्रजात
राजकीय पशु एवं पक्षी: लद्दाख
मौसम आपदाओं पर रिपोर्ट: डब्ल्यूएमओ
भूमि सिंक और उत्सर्जन
भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान के लिये खतरा: ओडिशा
बहलर कछुआ संरक्षण पुरस्कार
शिकारी पक्षियों की प्रजाति पर संकट
भारतीय शहरों की वायु गुणवत्ता में सुधार
दीपोर बील: इको-सेंसिटिव ज़ोन
 
नए कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों की अव्यवहार्यता
पर्माफ्रॉस्ट पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव

भूजल संरक्षण

भारत सिंचाई के लिये मुख्य रूप से भूजल पर निर्भर है और यह भूजल की कुल वैश्विक मात्रा के एक बड़े हिस्से का उपयोग कर रहा है। भारत में लगभग 70% खाद्य उत्पादन नलकूपों (सिंचाई के लिये प्रयुक्त कुएँ) की मदद से किया जाता है।

  • हालांँकि भूजल पर यह अत्यधिक निर्भरता भूजल संकट को जन्म दे रही है। भूजल संरक्षण हेतु एक समग्र कार्ययोजना की आवश्यकता है।

प्रमुख बिंदु

यूनेस्को की विश्व जल विकास रिपोर्ट, 2018 के अनुसार, भारत विश्व का सबसे बड़ा भूजल उपयोग करने वाला देश है।

(i) भारत में सिंचाई के लिये कुओं के निर्माण हेतु किसी मंज़ूरी की आवश्यकता नहीं होती है और बंद पड़े या सिंचाई में प्रयोग न होने वाले कुओं का कोई रिकॉर्डनहीं रखा जाता है।

  • भारत में प्रतिदिन कई सौ कुओं का निर्माण किया जाता है और जल सूखने पर छोड़े जाने वाले कुओं की संख्या और भी अधिक है।

(ii) राष्ट्रीय सकल घरेलू उत्पाद में भूजल के योगदान को कभी भी मापा नहीं जाता है।

(iii) केंद्रीय भूजल बोर्ड (सीजीडब्ल्यूबी, जल शक्ति मंत्रालय) के अनुसार, भारत में कृषि भूमि की सिंचाई हेतु हर वर्ष 230 बिलियन मीटर क्यूबिक भूजल का उपयोग होता है, देश के कई हिस्सों में भूजल का तेज़ी से क्षरण हो रहा है।

  • भारत में कुल अनुमानित भूजल की कमी 122-199 बिलियन मीटर क्यूबिक की सीमा में है।

भूजल की कमी का कारण:

(i) सीमित सतही जल संसाधनों के साथ घरेलू, औद्योगिक और कृषि ज़रूरतों की बढ़ती मांग।

(ii) कठोर चट्टानी भूभाग के कारण सीमित भंडारण सुविधाओं के साथ ही वर्षा की कमी के अतिरिक्त भूजल का नुकसान, विशेष रूप से मध्य भारतीय राज्यों में।

(iii) हरित क्रांति के कारण सूखा प्रवण/पानी की कमी वाले क्षेत्रों में जल गहन फसलों को उगाने की ज़रूरतों पर बल देना, जिससे भूजल का अत्यधिक दोहन हुआ।

  •  इससे जल की पुनः पूर्तिकिये बिना ज़मीन से पानी को बार-बार पंप करने से भूजल की मात्रा में त्वरित कमी आती है।

(iv) पानी की अधिक खपत वाली फसलों के लिये बिजली और उच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सब्सिडी।

(v) लैंडफिल, सेप्टिक टैंक, भूमिगत गैस टैंक से रिसाव और उर्वरकों एवं कीटनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से भूजल संसाधनों की क्षति तथा कमी के कारण होने वाला जल प्रदूषण।

(vi) बिना किसी हर्जाने के भूजल का अपर्याप्त विनियमन भूजल संसाधनों के अधिक उपयोग को प्रोत्साहित करता है।

(vii) वनों की कटाई, कृषि के अवैज्ञानिक तरीके, उद्योगों के रासायनिक अपशिष्ट, स्वच्छता की कमी से भी भूजल प्रदूषण होता है, जिससे यह अनुपयोगी हो जाता है।


भूजल की समस्या और महिलाओं पर इसका प्रभाव:

  • महिलाएँ सिंचित कृषि में कृषि श्रम शक्ति का बड़ा हिस्सा होती हैं लेकिन इस प्रकार के निवेश में उनकी कोई निर्णायक भूमिका नहीं होती है।
  • इसके अलावा भूमि के अपने अधिकार, प्राकृतिक संसाधनों और बैंकों तक पहुँच में कमी, उनके पास इस अन्याय से लड़ने के लिये आवश्यक कानूनी समर्थन नहीं है।
  • हालाँकि महिलाएँ भूजल संकट से पहले उत्तरदाताओं के रूप में उभरी हैं और पीने के पानी की कमी को दूर करने, वैकल्पिक आजीविका खोजने तथा कृषि एवं परिवार के जल निर्वहन के लिये ज़िम्मेदार हैं।

भूजल संरक्षण हेतु सरकारी पहल:

  • अटल भूजल योजना
  • राष्ट्रीय जलभृत मानचित्रण और प्रबंधन कार्यक्रम

आगे की राह:

भूजल संरक्षण में महिलाओं की बढ़ती भूमिका:

  • फसल योजनाओं, पानी की मांग और ‘क्रॉप फुटप्रिंट’ पर महिलाओं का निर्णय पुरुषों से अलग है।
  • चिपको आंदोलन के दौरान महिलाओं और पुरुषों द्वारा विपरीत मूल्यों पर आधारित प्रदर्शन किया गया। महिलाओं ने पर्यावरण की रक्षा में मदद करने के लिये पेड़ों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध से कम की मांग नहीं की, जबकि उनके पुरुष समकक्षों ने आजीविका के बदले नियंत्रित ‘लॉगिंग’ को स्वीकार किया।
  • चिपको आंदोलन ने महिला समूहों को सामाजिक न्याय, शिक्षा, स्वास्थ्य, महिलाओं के खिलाफ अपराध और अन्य स्थानीय मुद्दों से जुड़ी रोजमर्रा की चिंताओं पर बोलने तथा अधिकारियों का सामना करने के लिये प्रेरित किया।

विनियमित पंपिंग:

  • अनुमोदित फसल योजना के आधार पर प्रत्येक खेत के लिये भूजल पंपिंग को सीमित करना।
  • नदी बेसिन तक की विभिन्न इकाइयों में वार्षिक भूजल लेखा परीक्षा आयोजित करना।

स्थानीय शासन का प्रवर्तन:

  • ज़मीनी स्तर पर लोकतंत्र को फिर से स्थापित करने, स्थानीय संस्थानों को मज़बूत करने और स्थानीय शासन का प्रयोग करने से भूजल संरक्षण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।
  • पूरी मूल्य शृंखला के प्रबंधन हेतु ज़िम्मेदार महिलाओं की समान भागीदारी के साथ गाँवों में छोटे किसानों को पंजीकृत निकायों के रूप में संगठित करना।

एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ‘सैंड और डस्ट’ तूफान का जोखिम

संयुक्त राष्ट्र की एक नई रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में 500 मिलियन से अधिक लोग एवं तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान, उज़्बेकिस्तान, ताजिकिस्तान तथा ईरान की पूरी आबादी का लगभग 80% से अधिक हिस्सा ‘सैंड और डस्ट’ तूफानों के कारण मध्यम से उच्च स्तर की खराब वायु गुणवत्ता के संपर्क में हैं।

  • पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण-पूर्वी तुर्की, ईरान और अफगानिस्तान के कुछ हिस्सों में अत्यधिक सूखे की स्थिति के कारण 2030 के दशक में रेत और धूल भरी आँधी के तूफान का प्रभाव काफी अधिक बढ़ सकता है।

प्रमुख बिंदु

‘सैंड और डस्ट’ तूफान

(i) परिचय

  • शुष्क और अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में रेत और धूल भरी आँधी प्रायः मौसम संबंधी एक महत्त्वपूर्णखतरा है।
  • यह आमतौर पर ‘थंडरस्टॉर्म’ या चक्रवात से जुड़े मज़बूत दबाव ग्रेडिएंट के कारण होता है, जो एक विस्तृत क्षेत्र में हवा की गति को बढ़ाते हैं।
  • क्षोभमंडल (पृथ्वी के वायुमंडल की सबसे निचली परत) में लगभग 40% एरोसोल हवा के कटाव के कारण धूल के कण के रूप में मौजूद होते हैं।

(ii) मुख्य स्रोत:

  • इन खनिज धूलों के मुख्य स्रोत- उत्तरी अफ्रीका, अरब प्रायद्वीप, मध्य एशिया और चीन के शुष्क क्षेत्र हैं।
  • तुलनात्मक रूप से ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका और दक्षिण अफ्रीका काफी कम योगदान देते हैं, हालाँकि व्यापक दृष्टि से वे भी काफी महत्त्वपूर्ण हैं।

प्रभाव

(i) नकारात्मक

  • बिजली संयंत्रों पर प्रभाव:
  • वे ऊर्जा की बुनियादी अवसंरचना में हस्तक्षेप कर सकते हैं, बिजली ट्रांसमिशन लाइनों पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं और बिजली की कटौती हेतु उत्तरदायी हो सकते हैं।
  • इनके कारण भारत, चीन और पाकिस्तान में क्रमशः 1,584 GWh , 679 GWh और 555 GWh ऊर्जा का नुकसान हुआ है।
  • परिणामस्वरूप भारत को प्रतिवर्ष 782 करोड़ रुपए का घाटा हुआ है।
  • पीने योग्य जलस्रोतों पर प्रभाव ‘हिमालय-हिंदूकुश पर्वत शृंखला’ और तिब्बती पठार, जो एशिया में 1.3 बिलियन से अधिक लोगों के लिये ताज़े पानी के स्रोत हैं, में धूल का जमाव काफी अधिक होता है, जो इन्हें प्रदूषित करता है।
  • बर्फपिघलने की दर में वृद्धि:
  • हिमनदों पर धूल का जमाव खाद्य सुरक्षा, ऊर्जा उत्पादन, कृषि, जल तनाव और बाढ़ सहित कई मुद्दों के माध्यम से समाज पर प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष प्रभावों के साथ बर्फ के पिघलने की दर को बढ़ाकर वार्मिंग प्रभाव उत्पन्न करता है।
  • कृषि (Farm land) पर:
  • धूल के जमाव ने तुर्कमेनिस्तान, पाकिस्तान और उज़्बेकिस्तान में कृषि भूमि के बड़ेहिस्से को प्रभावित किया है।
  • इस धूल के अधिकांश भाग में नमक की मात्रा अधिक होती है जो इसे पौधों के लिये विषाक्त बनाती है।
  • यह उपज को कम करता हैजिससे सिंचित कपास और अन्य फसलों के उत्पादन के लिये खतरा पैदा होता है।
  • सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) पर:
  • ये 17 संयुक्त राष्ट्र-अनिवार्यसतत् विकास लक्ष्यों (SDG) में से 11 को सीधे प्रभावित करते हैं:
  • गरीबी को सभी रूपों में समाप्त करना, भुखमरी को समाप्त करना, अच्छा स्वास्थ्य एवं कल्याण, सस्ती और स्वच्छ ऊर्जा, सभ्य कार्य तथा आर्थिक विकास, जलवायु कार्रवाई आदि।

(ii) सकारात्मक:

  • वे निक्षेपण के क्षेत्रों में पोषक तत्त्व बढ़ा सकते हैं और वनस्पति को लाभ पहुँचा सकते हैं।
  • जल निकायों पर जमा धूल उनकी रासायनिक विशेषताओं को बदल सकती है, जिससे सकारात्मक और प्रतिकूल दोनों तरह के परिणाम सामने आ सकते हैं।
  • आयरन को ले जाने वाले धूल के कण महासागरों के कुछ हिस्सों को समृद्ध कर सकते हैं, फाइटोप्लैंकटन (Phytoplankton) संतुलन में सुधार कर सकते हैं और समुद्री खाद्य जाल (Food Webs) को प्रभावित कर सकते हैं।

सुझाव:

  • इनके प्रभाव काफी गंभीर हैं और इस प्रकार वे एशिया-प्रशांत क्षेत्र में नीति-निर्माताओं के लिये एक महत्त्वपूर्ण उभरते मुद्दे का प्रतिनिधित्व करते हैं।
  • सदस्य राज्यों को रेत और धूल भरे तूफान के सामाजिक-आर्थिक प्रभाव की गहरी समझ हासिल करने, प्रभाव-आधारित फोकस के साथ एक समन्वित निगरानी और प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली स्थापित करने तथा जोखिमों को कम करने के लिये सबसे अधिक जोखिम वाले भौगोलिक क्षेत्रों के कार्यों में समन्वय पर विचार करते हुए अपने संयुक्त कार्यों को रणनीतिक बनाने की आवश्यकता है।

भारत में मगरमच्छ की प्रजात

हाल ही में ओडिशा के केंद्रपाड़ा ज़िले ने भारत का एकमात्र ऐसा ज़िला होने का गौरव प्राप्त किया है जहाँ मगरमच्छ की तीनों प्रजातियाँ- घड़ियाल (Gharial), खारे पानी के (Salt-Water) मगरमच्छ और मगर (Mugge) पाई जाती हैं।


प्रमुख बिंदु

(i) मगर या मार्श मगरमच्छ:

(ii) विवरण:

  • यह अंडा देने वाली और होल-नेस्टिंग स्पेसीज़ (Hole-Nesting Species) हैजिसे खतरनाक भी माना जाता है।

(iii) आवास:

  • यह मुख्य रूप से भारतीय उपमहाद्वीप तक ही सीमित है जहाँ यह मीठे पानी के स्रोतों और तटीय खारे जल के लैगून एवं मुहानों में भी पाई जाता है।
  • भूटान और म्याँमार में यह पहले ही विलुप्त हो चुका है।

(iv) खतरा:

  • आवासों का विनाश और विखंडन एवं परिवर्तन, मछली पकड़ने की गतिविधियाँ तथा औषधीय प्रयोजनों हेतु मगरमच्छ के अंगों का उपयोग।

(v) संरक्षण स्थिति:

  • IUCN की संकटग्रस्त प्रजातियों की रेड लिस्ट: सुभेद्य
  • CITES: परिशिष्ट- I
  • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972: अनुसूची- I

(vi) एस्टुअरीन या खारे पानी का मगरमच्छ:

(vii) परिचय:

  • यह पृथ्वी पर सबसे बड़ी जीवित मगरमच्छ प्रजाति है, जिसे विश्व स्तर पर एक ज्ञात आदमखोर (Maneater) के रूप में जाना जाता है।

(viii) निवास:

  • यह मगरमच्छ ओडिशा के भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान, पश्चिम बंगाल में सुंदरवन तथा अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में पाया जाता है।
  • यह दक्षिण-पूर्व एशिया और उत्तरी ऑस्ट्रेलिया में भी पाया जाता है।

(ix) संकट:

  • अवैध शिकार, निवास स्थान की हानि और प्रजातियों के प्रति शत्रुता।

(x) संरक्षण की स्थिति:

  • IUCN संकटग्रस्त प्रजातियों की सूची: कम चिंतनीय
  • CITES: परिशिष्ट- I (ऑस्ट्रेलिया, इंडोनेशिया और पापुआ न्यूगिनी की आबादी को छोड़कर, जो परिशिष्ट- II में शामिल हैं)।
  • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972: अनुसूची- I

(xi) घड़ियाल:

(xii) विवरण:

  • इन्हें गेवियल भी कहते हैं, यह एक प्रकार का एशियाई मगरमच्छ है और अपने लंबे, पतले थूथन के कारण अन्य से अलग होते हैं जो कि एक बर्तन (घड़ा) जैसा दिखता है।
  • घड़ियाल की आबादी स्वच्छ नदी जल का एक अच्छा संकेतक है।
  • इसे अपेक्षाकृत हानिरहित, मछली खाने वाली प्रजाति के रूप में जाना जाता है।

(xiii) आवास:

  • यह प्रजाति ज़्यादातर हिमालयी नदियों के ताज़े पानी में पाई जाती है।
  • विंध्य पर्वत (मध्य प्रदेश) के उत्तरी ढलानों में चंबल नदी को घड़ियाल के प्राथमिक आवास के रूप में जाना जाता है।
  • अन्य हिमालयी नदियाँ जैसे- घाघरा, गंडक नदी, गिरवा नदी, रामगंगा नदी और सोन नदी इसके द्वितीयक आवास हैं।

(xiv) खतरा:

  • अवैध रेत खनन, अवैध शिकार, नदी प्रदूषण में वृद्धि, बाँध निर्माण, बड़े पैमाने पर मछली पकड़ने का कार्य और बाढ़।

(xv) संरक्षण स्थिति:

  • IUCN संकटग्रस्त प्रजातियों की सूची: गंभीर रूप से संकटग्रस्त
  • CITES: परिशिष्ट- I
  • वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972: अनुसूची- I

(xvi) संरक्षण के प्रयास:

  • ओडिशा ने महानदी नदी बेसिन में घड़ियालों के संरक्षण के लिये 1,000 रुपए के नकद पुरस्कार की घोषणा की है।
  • मगरमच्छ संरक्षण परियोजना 1975 में विभिन्न राज्यों में शुरू की गई थी।

राजकीय पशु एवं पक्षी: लद्दाख

लद्दाख के तत्कालीन राज्य जम्मू-कश्मीर (जम्मू और कश्मीर) से एक अलग केंद्रशासित प्रदेश (UT) के रूप में स्थापना के दो वर्षबाद हाल ही में लद्दाख ने ‘हिम तेंदुआ’ और ‘ब्लैक-नेक्ड क्रेन’ को राजकीय पशु एवं राजकीय पक्षी के रूप में अपनाया है।

प्रमुख बिंदु

(i) हिम तेंदुआ:

(ii) परिचय:

  • हिम तेंदुए (पैंथेरा यूनिया) खाद्य शृंखला में शीर्षशिकारी के रूप में अपनी स्थिति के कारण उस पर्वतीय पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य के संकेतक के तौर पर कार्य करते हैं जिसमें वे रहते हैं।

(iii) आवास;

मध्य और दक्षिणी एशिया के पर्वतीय क्षेत्र। भारत में उनकी भौगोलिक सीमा में शामिल हैं:

  • पश्चिमी हिमालय: जम्मू और कश्मीर, हिमाचल प्रदेश।
  • पूर्वी हिमालय: उत्तराखंड और सिक्किम तथा अरुणाचल प्रदेश।

विश्व की हिम तेंदुआ राजधानी: हेमिस, लद्दाख।

  • हेमिस नेशनल पार्क भारत का सबसे बड़ा राष्ट्रीय उद्यान है और इसमें हिम तेंदुओं की अच्छी उपस्थिति भी है।

(iv) खतरे:

  • शिकार की आबादी में कमी।
  • अवैध शिकार और प्रजातियों के आवास में मानव आबादी की घुसपैठ में वृद्धि।
  • वन्यजीवों के अंगों और उत्पादों का अवैध व्यापार।

(v) संरक्षण स्थिति:

  • IUCN: सुभेद्य
  • CITES: अनुसूची- I
  • वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम 1972: अनुसूची- I
  • यह ‘कन्वेंशन ऑन माइग्रेटरी स्पीशीज़’ (CMS) में भी सूचीबद्ध है, जो विश्व स्तर पर और भारत में प्रजातियों को उच्चतम संरक्षण का दर्जा प्रदान करता है।

(vi) ब्लैक-नेक्ड क्रेन:

(vii) परिचय:

  • ‘ब्लैक-नेक्ड क्रेन’ (ग्रस निग्रीकोलिस), जिसे तिब्बती क्रेन भी कहा जाता है, एक बड़ा पक्षी और मध्यम आकार का क्रेन है।
  • नर और मादा दोनों लगभग एक ही आकार के होते हैं लेकिन नर मादा से थोड़ा बड़ा होता है।
  • इसके सिर पर एक विशिष्ट रेड क्राउन मौजूद होता है।

(viii) आवास:

  • तिब्बती पठार, सिचुआन (चीन) और पूर्वी लद्दाख (भारत) की उच्च ऊंँचाई वाली आर्द्रभूमि भूमि इन प्रजातियों के मुख्य प्रजनन स्थल हैं। यह पक्षी सर्दी का मौसम कम ऊंँचाई वाले स्थानों पर बिताता है।
  • भूटान और अरुणाचल प्रदेश में यह केवल सर्दियों के दौरान आता है।

(ix) खतरा:

  • जंगली कुत्तों के कारण अंडे और चूजों को नुकसान।
  • आर्द्रभूमि पर बढ़ते मानव दबाव (विकास परियोजनाएंँ) के कारण आवास का नुकसान।
  • आर्द्रभूमि के पास सीमित चरागाहों पर बढ़ता चराई का दबाव।

(x) संरक्षण स्थिति:

  • IUCN रेड लिस्ट: संकट के निकट (Near Threatened)
  • CITES: परिशिष्ट- I
  • भारतीय वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972: अनुसूची- I

लद्दाख

(i) इसे जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम के अधिनियमन के बाद 31 अक्तूबर 2019 को भारत के केंद्रशासित प्रदेश (UT) का दर्जादिया गया था।

  • इससे पहले यह जम्मू और कश्मीर राज्य का हिस्सा था।

(ii) यह भारत का सबसे बड़ा और दूसरा सबसे कम आबादी वाला केंद्रशासित प्रदेश है।

(iii) यह काराकोरम रेंज में सियाचिन ग्लेशियर से उत्तर में मुख्य महान हिमालय के दक्षिण तक फैला हुआ है।

  • इसका पूर्वी छोर निर्जन अक्साई चिन के मैदानों (Aksai Chin Plains) से मिलकर बना हैजिस पर भारत सरकार द्वारा लद्दाख के हिस्से के रूप में दावा किया जाता है, वर्ष 1962 से यह चीन के नियंत्रण में है।

(iv) लद्दाख का सबसे बड़ा शहर लेह है, इसके बाद कारगिल है, जिसमें से प्रत्येक का मुख्यालय एक ज़िला है।

  • लेह ज़िले में सिंधु, श्योक और नुब्रा नदी घाटियाँ शामिल हैं।
  • कारगिल ज़िले में सुरू, द्रास और ज़ांस्कर नदी घाटियाँ शामिल हैं।

(v) इससे पहले वर्ष 2020 में भारतीय और चीनी सैनिकों के मध्य नकु ला (सिक्किम) में वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) और पैंगोंग त्सो झील (पूर्वी लद्दाख) के पास एक अस्थायी और छोटी झड़प सामने आई।

  • हालाँकि हाल ही में भारत और चीन ने सैद्धांतिक रूप से पूर्वी लद्दाख में एक प्रमुख गश्ती बिंदु पर अलगाव को लेकर सहमति व्यक्त की है।

मौसम आपदाओं पर रिपोर्ट: डब्ल्यूएमओ

हाल ही में विश्व मौसम विज्ञान संगठन (World Meteorological Organization- WMO) द्वारा एक रिपोर्ट जारी की गई हैजिसमें कहा गया हैकि पिछले 50 वर्षों में मौसम संबंधी आपदाओं के चलते 20 लाख लोगों की मौत हुई है।

  • WMO ने ‘एटलस ऑफ मॉर्टेलिटी एंड इकोनॉमिक लॉस फ्रॉम वेदर, क्लाइमेट एंड वॉटर एक्सट्रीम, फ्रॉम 1970 से 2019' (Atlas of Mortality and Economic Losses from Weather, Climate and Water Extremes, from 1970 to 2019) को प्रकाशित किया है।
  • WMO संयुक्त राष्ट्र की एक विशेष एजेंसी है।

प्रमुख बिंदु

रिपोर्ट का निष्कर्ष:

(i) आपदाओं की संख्या: 50 वर्षों की अवधि में आपदाओं की संख्या में पांँच गुना की वृद्धि हुई हैजिनका कारण जलवायु परिवर्तन, अधिक चरम मौसम और बेहतर रिपोर्टिंग को बताया गया है।

  • वर्ष 1970 से 2019 तक मौसम, जलवायु और पानी से संबंधित आपदाएँ सभी प्रकार की आपदाओं का 50%, आपदाओं से होने वाली कुल मौतें 45% तथा सभी प्रकार की आपदाओं की रिपोर्ट के अनुसार हुए आर्थिक नुकसान का 74% रही।
  • इनमें से 91% से अधिक मौतें विकासशील देशों में हुईं।
  • सूखा, तूफान, बाढ़ और अत्यधिक तापमान इसके प्रमुख कारण थे।

(ii) मौतों की घटती संख्या: बेहतर प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली और आपदा प्रबंधन के कारण 1970 और 2019 के बीच मौतों की संख्या लगभग तीन गुना कम हो गई।

(iii) सर्पिल लागत: 50 वर्ष की अवधि के दौरान औसतन हर दिन 202 मिलियन अमेरिकी डॉलर का नुकसान हुआ। 1970 के दशक से वर्ष 2010 तक आर्थिक नुकसान सात गुना बढ़ गया है।

  • तूफान जो कि इस क्षति का सबसे प्रचलित कारण है, से दुनिया भर में सर्वाधिक आर्थिक नुकसान हुआ

(iv) जलवायु परिवर्तन फुटप्रिंट: जलवायु परिवर्तन के परिणामस्वरूप दुनिया के कई हिस्सों में मौसम और चरम जलवायु की घटनाएँ बढ़ रही है और ये दुनिया के कई हिस्सों में लगातार से और गंभीर हो जाएगी।

  • वायुमंडल में अधिक जल वाष्प ने अत्यधिक वर्षा और बाढ़ की घटनाओं को बढ़ा दिया है तथा गर्म होते महासागरों ने तीव्र उष्णकटिबंधीय तूफानों की आवृत्ति एवं सीमा को प्रभावित किया है।
  • इसने दुनिया के कई हिस्सों में निचले इलाकों, डेल्टा, तटों और द्वीपों की भेद्यता को बढ़ा दिया है।

(v) सेंडाई फ्रेमवर्क की विफलता: रिपोर्ट में यह भी चेतावनी दी गई हैकि सेंडाई फ्रेमवर्क 2015 में निर्धारित आपदा नुकसान को कम करने में विफलता, विकासशील देशों की गरीबी उन्मूलन और अन्य महत्त्वपूर्ण सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs) को प्राप्त करने की क्षमता को खतरे में डाल रही है।

  • सेंडाई फ्रेमवर्क 2015 को सेंडाई, मियागी, जापान में आयोजित आपदा जोखिम न्यूनीकरण पर तीसरे संयुक्त राष्ट्र विश्व सम्मेलन में अपनाया गया था।
  • वर्तमान ढाँचा प्राकृतिक या मानव निर्मित खतरों के साथ-साथ संबंधित पर्यावरणीय, तकनीकी और जैविक खतरों तथा जोखिमों के कारण छोटे एवं बड़े पैमाने पर, बार-बार व कम, अचानक और धीमी गति से शुरू होने वाली आपदाओं के जोखिम पर लागू होता है।

अनुशंसाएँ:

(i) अनुकूलन क्षमता की आवश्यकता: WMO के 193 सदस्य देशों में से केवल आधे के पास बहु-खतरा पूर्व चेतावनी प्रणालियाँ हैं और अफ्रीका, लैटिन अमेरिका के कुछ हिस्सों तथा प्रशांत एवं कैरेबियाई द्वीप राज्यों में मौसम व हाइड्रोलॉजिकल अवलोकन नेटवर्क में गंभीर अंतराल मौजूद हैं।

  • इस प्रकार विकासशील और अल्प विकसित देशों में पूर्व चेतावनी प्रणाली स्थापित करने की आवश्यकता है।

(ii) व्यापक आपदा जोखिम प्रबंधन: व्यापक आपदा जोखिम प्रबंधन में अधिक निवेश की आवश्यकता है, यह सुनिश्चित करने के लिये जलवायु परिवर्तन अनुकूलन राष्ट्रीय और स्थानीय आपदा जोखिम न्यूनीकरण रणनीतियों का एकीकरण हो।

(iii) जोखिम की समीक्षा: रिपोर्ट में सुझाव दिया गया हैकि देशों को बदलते मौसम पर विचार करने के लिये जोखिम और भेद्यता की समीक्षा करनी चाहिये ताकि यह दर्शाया जा सके कि उष्णकटिबंधीय चक्रवातों में अतीत की तुलना में अलग-अलग ट्रैक, तीव्रता और गति हो सकती है।

(iv) सक्रिय नीतियाँ: यह सूखे जैसी धीमी गति से शुरू होने वाली आपदाओं पर एकीकृत और सक्रिय नीतियों के विकास का भी आह्वान करती है।


भारत द्वारा हाल ही में की गई पहलें:

  • आपदा-रोधी अवसंरचना के लिये गठबंधन (CDRI)
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (NDMA)
  • राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन योजना (NDMP)

भूमि सिंक और उत्सर्जन

वैज्ञानिकों की चेतावनी के बावजूद नीति-निर्माताओं और निगमों का अब भी यह मानना हैकि भूमि तथा महासागरों जैसे प्राकृतिक कार्बन सिंक उनके जीवाश्म ईंधन उत्सर्जन को कम कर देंगे।

भूमि सिंक :

(i) भूमि जलवायु प्रणाली का एक महत्त्वपूर्ण घटक है, जो सक्रिय रूप से कार्बन, नाइट्रोजन, जल और ऑक्सीजन के प्रवाह के तौर पर जीवन के लिये बुनियादी आवश्यकताओं से जुड़ी हुई है।

(ii) ग्रीनहाउस गैसें (GHG जैसे- कार्बन डाइऑक्साइड ) एक प्राकृतिक चक्र का अनुसरण करती हैं - वे लगातार वातावरण में प्रवाहित होती हैं तथा प्राकृतिक 'सिंक' जैसे- भूमि और महासागरों के माध्यम से इसको हटाया जाता है।

(iii) पौधों और स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र में प्रकाश संश्लेषण के माध्यम से कार्बन को अवशोषित करने तथा इसे जीवित बायोमास में संग्रहीत करने की अद्वितीय क्षमता होती है।

  • मनुष्यों द्वारा उत्सर्जित कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का लगभग 56% महासागरों और भूमि द्वारा अवशोषित किया जाता है।
  • लगभग 30% भूमि द्वारा और शेष महासागरों द्वारा।

भूमि की भूमिका का निर्धारण :

  • CO2 उत्सर्जन को कम करने के लिये एक शमन मार्ग के रूप में भूमि (वन और कृषि भूमि) की भूमिका को वर्ष 1992 में संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (UNFCCC) द्वारा मान्यता दी गई थी।
  • वर्ष 1997 में क्योटो प्रोटोकॉल ने इस विचार का समर्थन किया कि सरकारों को न केवल अपने क्षेत्रों की भूमि कार्बन सिंक क्षमता को बढ़ाने के लिये नीतियों को नियोजित करना चाहिये, बल्कि इस तरह के शमन को जीवाश्म ईंधन की खपत से उत्सर्जन में कमी करने हेतु आवश्यकताओं के खिलाफ स्थापित किया जा सकता है।

संबंधित आँकड़े :

(i) वर्ष 2019 में जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (IPCC) की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2007-2016 के दौरान मानवजनित CO2 उत्सर्जन का 13% भूमि उपयोग के लिये ज़िम्मेदार है।

  • लेकिन इसने प्रतिवर्षलगभग 11.2 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड का शुद्ध सिंक भी प्रदान किया, जो इसी अवधि में कुल CO2 उत्सर्जन के 29% के बराबर है।

(ii) इसका आशय यह हैकि विगत तीन दशकों के दौरान दुनिया के भूमि सिंक द्वारा 29 से 30% मानवजनित CO2 उत्सर्जन को अवशोषित किया गया है।


चिंताएँ :

(i) ऊष्मा का बढ़ता स्तर :

  • ऊष्मा का बढ़ता स्तर वनों में आर्द्रता की कमी को बढ़ा रहा है तथा जंगलों को भीषण आग/उष्मन का सामना करना पड़ रहा है।
  • इसलिए एक ओर विभिन्न आर्थिक गतिविधियों हेतु वनों को काटा जा रहा है, जिससे जीवाश्म ईंधन के जलने से निकलने वाले CO2 को कम करने के लिये सिंक के रूप में उनकी भूमिका कम हो रही है।
  • दूसरी ओर जैसे-जैसे तापमान में वृद्धि होगी वैसे-वैसे वनों के क्षेत्रफल में कमी आएगी।

(ii) मानवजनित और प्राकृतिक कारक:

  • मानव-प्रेरित कारक जैसे वनों की कटाई तथा प्राकृतिक कारक जैसे- धूप, तापमान और वर्षा में परिवर्तनशीलता, भूमि कार्बन सिंक की क्षमता में भिन्नता पैदा कर सकती है।

(iii) CO2 की मात्रा में वृद्धि:

  • जलवायु परिवर्तन 2021 रिपोर्ट: IPCC के अनुसार CO2 उत्सर्जन कम-से-कम दो मिलियन वर्षों में सबसे अधिक है। 1800 के दशक के अंत से मनुष्य ने 2,400 बिलियन टन CO2 का उत्सर्जन किया है।

सुझाव:

(i) वृक्ष लगाना:

  • पूर्व-औद्योगिक स्तरों पर 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि को रोकने हेतु वैश्विक स्तर पर आवश्यक पैमाने पर जीएचजी उत्सर्जन को कम करने के लिये किसी उचित रणनीति को अपनाया नहीं जा रहा है।
  • इसी स्थित के समाधान हेतु ऐसे तरीके खोजे जाएंँ जिनसे वातावरण में उत्सर्जन को हटाया जा सके और पेड़ उगाने की रणनीति को इसका प्रयास का हिस्सा बनाया जाए।

(ii) जीवाश्म ईंधन से मुक्त होना :

  • विशेष रूप से जीवाश्म ईंधन से अक्षय ऊर्जा की ओर बढ़ने के इस क्रम में भूमि का उपयोग करने की आवश्यकता है; लेकिन अंत में जीवाश्म ईंधन से छुटकारा पाना होगा।

(iii) कृत्रिम कार्बन पृथक्करण:

  • कृत्रिम कार्बन पृथक्करण प्रौद्योगिकियांँ बड़ी मात्रा में कार्बन को कुशलता से कैप्चर कर इसे परिवर्तित करती हैं और इसे हज़ारों वर्षों तक संग्रहीत भी करती हैं।
  • यह तकनीक चार्ज इलेक्ट्रोकेमिकल प्लेटों से हवा के गुज़रने की पद्धति पर आधारित है।
  • प्रौद्योगिकी का उद्देश्य भविष्य के लिये कोयले को एक व्यवहार्य, तकनीकी, पर्यावरणीय अनुकूल और आर्थिक मुद्दा बनाना है।

संबंधित पहलें:

(i) बॉन चुनौती:

  • बॉन चुनौती (Bonn Challenge) एक वैश्विक प्रयास है। इसके तहत दुनिया के 150 मिलियन हेक्टेयर गैर-वनीकृत एवं बंजर भूमि पर 2020 तक और 350 मिलियन हेक्टेयर भूमि पर 2030 तक वनस्पतियाँ उगाई जाएंगी।
  • बॉन चैलेंज एक वैश्विक प्रयास हैजिसके तहत 2020 तक दुनिया की वनों की कटाई और खराब हुई भूमि के 150 मिलियन हेक्टेयर और 2030 तक 350 मिलियन हेक्टेयर भूमि को बहाल किया जा सकता है।

(ii) पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली पर संयुक्त राष्ट्र दशक :

  • मार्च 2019 में संयुक्त राष्ट्र महासभा ने वर्ष 2021-2030 को दुनिया भर में पारिस्थितिक तंत्र के क्षरण को रोकने के लिये पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली पर संयुक्त राष्ट्र दशक के रूप में घोषित किया है।

(iii) LEAF गठबंधन:

  • यह अमेरिका, ब्रिटेन और नॉर्वे के नेतृत्व में अपने उष्णकटिबंधीय वनों (Tropical Forests) की रक्षा के लिये प्रतिबद्ध देशों को वित्तपोषण प्रदान हेतु कम-से-कम 1 बिलियन अमेरिकी डाॅलर जुटाने का एक प्रयास है।

भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान के लिये खतरा: ओडिशा

हाल ही में कुछ पर्यावरण कार्यकर्त्ताओं के अनुसार, ब्राह्मणी नदी बेसिन से ताज़े पानी के नियोजित पथांतरण के कारण ओडिशा के भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान हेतु गंभीर खतरे की स्थिति उत्पन्न हो गई है।

प्रमुख बिंदु

मुद्दे:

(i) उद्योगों के लिये अतिरिक्त जल आवंटन, जिससे समुद्र में ताज़े पानी के बहाव में कमी आने की संभावना है।

(ii) ताज़े पानी के सामान्य प्रवाह में कमी के कारण ऊपरी क्षेत्र में खारे जल का अंतर्ग्रहण बढ़ जाएगा, यह स्थानीय वनस्पतियों और जीवों के साथ-साथ ब्राह्मणी और खरसरोटा (ब्राह्मणी की सहायक नदी) नदियों पर निर्भर किसानों एवं मछुआरों की आजीविका को प्रभावित करेगा।

(iii) मानव-मगरमच्छ संघर्ष की घटनाओं में वृद्धि हो सकती है क्योंकि मुहाने पर रहने वाले मगरमच्छ मुख्य अभयारण्य क्षेत्र को छोड़ देंगे और लवणता बढ़ने पर ऊपर की ओर पलायन करेंगे।

(iv) जल के बहाव में कमी से मैंग्रोव में कमी आएगी और मैंग्रोव के बिना गहिरमाथा समुद्री अभयारण्य समुद्री रेगिस्तान बन जाएगा।

  • भितरकनिका से पोषक तत्त्व, गहिरमाथा समुद्री अभयारण्य में प्रवाहित हो जाते हैं, जो विश्व की सबसे बड़ी आबादी वाले ओलिव रिडले समुद्री कछुओं को नेस्टिंग/नीडन के लिये आकर्षित करता है।

भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान:

(i) परिचय:

  • इसमें भारत का दूसरा सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है और यह रामसर स्थल है। इसे वर्ष 1988 में भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान के रूप में घोषित किया गया था।
  • भितरकनिका ब्राह्मणी, बैतरणी, धामरा और महानदी नदी प्रणालियों के मुहाने में स्थित है। यह ओडिशा के केंद्रपाड़ा ज़िले में है।
  • यह ओडिशा के बेहतरीन जैव विविधता वाले हॉटस्पॉट में से एक है और अपने मैंग्रोव, प्रवासी पक्षियों, कछुओं, मुहाना के मगरमच्छों तथा अनगिनत खाड़ियों के लिये प्रसिद्ध है।
  • ऐसा कहा जाता हैकि यहाँ देश के मुहाना या खारे जल के मगरमच्छों का 70% हिस्सा रहता है, जिसका संरक्षण वर्ष 1975 में शुरू किया गया था।

(ii) संरक्षित क्षेत्र: भितरकनिका का प्रतिनिधित्व 3 संरक्षित क्षेत्रों द्वारा किया जाता है जो इस प्रकार हैं:

  • भितरकनिका राष्ट्रीय उद्यान।
  • भितरकनिका वन्यजीव अभयारण्य।
  • गहिरमाथा समुद्री अभयारण्य।

ब्राह्मणी नदी:

  • यह पूर्वोत्तर ओडिशा राज्य, पूर्वी भारत में एक नदी है। दक्षिणी बिहार राज्य में शंख और दक्षिण कोयल नदियों के संगम से बनी ब्राह्मणी 300 मील तक बहती है।
  • यह प्रायः दक्षिण-दक्षिण पूर्व में बोनाईगढ़ और तालचेर से होकर बहती है तथा फिर महानदी की उत्तरी शाखाओं में शामिल होने के लिये पूर्व की ओर मुड़ जाती है, जो तब पलमायरास पॉइंट पर बंगाल की खाड़ी में मिल जाती है।
  • यह उन कुछ नदियों में से एक है जो पूर्वी घाट को काटती है और इसने रेंगाली में एक छोटी घाटी बनाई है, जहाँ एक बाँध का निर्माण किया गया है।

बहलर कछुआ संरक्षण पुरस्कार

हाल ही में भारतीय जीवविज्ञानी शैलेंद्र सिंह को तीन गंभीर रूप से लुप्तप्राय (Critically Endangered) कछुए की प्रजातियों को उनके विलुप्त होने की स्थिति से बाहर लाने हेतु बहलर कछुआ संरक्षण पुरस्कार (Behler Turtle Conservation Award) से सम्मानित किया गया है।

  • देश में मीठे पानी के कछुओं और अन्य प्रकार के कछुओं की 29 प्रजातियांँ पाई जाती हैं।

प्रमुख बिंदु

बहलर कछुआ संरक्षण पुरस्कार के बारे में:

(i) वर्ष 2006 में स्थापित यह पुरस्कार कछुओं के संरक्षण एवं जैविकी तथा चेलोनियन कंज़र्वेशन एंड बायोलॉजी कम्युनिटी में नेतृत्व क्षमता को सम्मानित करने हेतु दिया जाने वाला एक प्रमुख वार्षिक अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार है।

(ii) इसे कछुआ संरक्षण के "नोबेल पुरस्कार" के रूप में भी जाना जाता है।

(iii) ‘बहलर कछुआ संरक्षण पुरस्कार’ कछुआ संरक्षण में शामिल कई वैश्विक निकायों जैसे ‘टर्टल सर्वाइवल एलायंस (TSA), IUCN/ SSC कच्छप और मीठे पानी के कछुआ विशेषज्ञ समूह, कछुआ संरक्षण तथा ‘कछुआ संरक्षण कोष’ द्वारा प्रदान किया जाता है।

(iv) वर्तमान संदर्भ में तीन गंभीर रूप से लुप्तप्राय कछुओं को देश के विभिन्न हिस्सों में टीएसए इंडिया के अनुसंधान, संरक्षण प्रजनन और शिक्षा कार्यक्रम के एक भाग के रूप में संरक्षित किया जा रहा है।

  • नॉर्दन रिवर टेरापिन (Batagur kachuga) को सुंदरबन में संरक्षित किया जा रहा है।
  • चंबल में रेड - क्राउन रूफ टर्टल (बाटागुर बास्का)।
  • असम के विभिन्न मंदिरों में ब्लैक सॉफ्टशेल टर्टल (निल्सोनिया नाइग्रिकन्स (Nilssonia Nigricans)।

नॉर्दन रिवर टेरापिन :

(i) पर्यावास :

  • सुंदरबन पारिस्थितिकी क्षेत्र उनका प्राकृतिक आवास है।

(ii) संरक्षण की स्थिति :

  • IUCN की रेड लिस्ट : गंभीर रूप से संकटग्रस्त
  • CITES : परिशिष्ट- I
  • वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 : अनुसूची- I

(iii) संकट :

  • 19वीं और 20वीं सदी में कलकत्ता के बाज़ारों में आपूर्तिसहित स्थानीय जीवन निर्वाह और कर्मकांडी उपभोग के साथ-साथ कुछ क्षेत्रीय व्यापार के लिये इनका दुरूपयोग किया गया।

रेड - क्राउन रूफ टर्टल:

(i) पर्यावास :

  • ऐतिहासिक रूप से यह प्रजाति भारत और बांग्लादेश दोनों में गंगा नदी में पाई जाती थी। यह ब्रह्मपुत्र बेसिन में भी पाया जाता है।
  • वर्तमान में भारत में राष्ट्रीय चंबल नदी घड़ियाल अभयारण्य इस प्रजाति की पर्याप्त आबादी वाला एकमात्र क्षेत्र है।

(ii) संरक्षण की स्थिति :

IUCN की रेड लिस्ट : गंभीर रूप से संकटग्रस्त

CITES: परिशिष्ट- II

वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 : अनुसूची- I


(iii) संकट :

प्रदूषण और बड़े पैमाने पर विकास गतिविधियों जैसे- मानव उपभोग और सिंचाई के लिये जल की निकासी तथा अपस्ट्रीम बाँधों एवं जलाशयों से अनियमित प्रवाह के कारण आवास की हानि या गिरावट होती है।


ब्लैक सॉफ्टशेल कछुआ :

(i) पर्यावास :

  • वे पूर्वोत्तर भारत और बांग्लादेश में मंदिरों के तालाबों में पाए जाते हैं।
  • इसकी वितरण सीमा में ब्रह्मपुत्र नदी और उसकी सहायक नदियाँ भी शामिल हैं।

(ii) संरक्षण की स्थिति :

  • IUCN रेड लिस्ट : गंभीर रूप से संकटग्रस्त
  • CITES : परिशिष्ट- I
  • वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 : कोई कानूनी संरक्षण नहीं

(iii) संकट :

  • कछुए के मांस और अंडे का सेवन, रेत खनन (Silt Mining), आर्द्रभूमि का अतिक्रमण एवं बाढ़ के पैटर्न में बदलाव।

भारतीय जल क्षेत्र के समुद्री कछुए :

(i) समुद्री कछुए , टेरेपिन (ताज़े जल के कछुए) और अन्य कछुओं की तुलना में आकार में बड़े होते हैं।

(i) भारतीय जल में कछुए की पाँच प्रजातियाँ पाई जाती हैं अर्थात् ओलिव रिडले, ग्रीन टर्टल्स, लॉगरहेड, हॉक्सबिल, लेदरबैक।

(i) ओलिव रिडले, लेदरबैक और लॉगरहेड को IUCN रेड लिस्ट ऑफ थ्रेटेंड स्पीशीज़ (IUCN Red List of Threatened Species) में 'सुभेद्य' (Vulnerable) के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

(i) हॉक्सबिल कछुए को 'गंभीर रूप से लुप्तप्राय (Critically Endangered)' के रूप में सूचीबद्ध किया गया है और ग्रीन टर्टल को IUCN की खतरनाक प्रजातियों की रेड लिस्ट में 'लुप्तप्राय' के रूप में सूचीबद्ध किया गया है।

  • वे भारतीय वन्यजीव संरक्षण अधिनियम 1972, अनुसूची- I के तहत संरक्षित हैं।

शिकारी पक्षियों की प्रजाति पर संकट

हाल के शोध के अनुसार, वैश्विक स्तर पर 557 शिकारी प्रजातियों में से लगभग 30% के विलुप्त होने का खतरा है।

  • यह विश्लेषण अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) और बर्डलाइफ इंटरनेशनल (संरक्षण संगठनों की एक वैश्विक साझेदारी) द्वारा किया गया है।

प्रमुख बिंदु

रैप्टर प्रजातियाँ:

(i) रैप्टर प्रजातियों के बारे में: रैप्टर शिकार करने वाले पक्षी हैं। ये मांसाहारी होते हैं तथा स्तनधारियों, सरीसृपों, उभयचरों, कीटों के साथ-साथ अन्य पक्षियों को भी मारकर खाते हैं।

  • सभी रैप्टर/शिकारी पक्षी मुड़ी हुई चोंच, नुकीले पंजे वाले मज़बूत पैर, तीव्र दृष्टि के साथ ही मांसाहारी होते हैं।

(ii) महत्त्व:

  • रैप्टर या शिकारी प्रजाति के पक्षी कशेरुकियों (Vertebrates) की एक विस्तृत शृंखला का शिकार करते हैं और साथ ही ये लंबी दूरी तक बीजों को फैलाने का कार्य करते हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से बीज उत्पादन और कीट नियंत्रण को बढ़ावा देता है।
  • रैप्टर पक्षी खाद्य शृंखला के शीर्ष पर स्थित शिकारी पक्षी होते हैं। कीटनाशकों, निवास स्थान की क्षति और जलवायु परिवर्तन जैसे खतरों का इन पर सबसे अधिक नाटकीय प्रभाव पड़ता है, इसलिये इन्हें संकेतक प्रजाति भी कहा जाता है।
  • जनसंख्या: इंडोनेशिया में सबसे अधिक रैप्टर प्रजातियांँ पाई जाती हैं, इसके बाद कोलंबिया, इक्वाडोर और पेरू का स्थान है।
  • उदाहरण: उल्लू, गिद्ध, बाज, फाॅल्कन, चील, काइट्स, ब्यूटियो, एक्सीपिटर्स, हैरियर और ओस्प्रे।

संकट का कारण::

(i) डाइक्लोफेनाक का उपयोग: डाइक्लोफेनाक (Diclofenac) के व्यापक उपयोग के कारण भारत जैसे एशियाई देशों में कुछ गिद्धों

की आबादी में 95% से अधिक की गिरावट आई है।

  • डाइक्लोफेनाक एक गैर-स्टेरॉइडल विरोधी उत्तेजक दवा है।

(ii) वनों की कटाई: व्यापक स्तर पर वनों की कटाई के कारण पिछले दशकों में विश्व में ईगल की सबसे बड़ी किस्म फिलीपीन ईगल की आबादी में तेज़ी से कमी आई है।

  • फिलीपीन ईगल IUCN रेड लिस्ट के तहत गंभीर रूप से संकटग्रस्त है।

(iii) शिकार करना और विष देना: अफ्रीका में पिछले 30 वर्षों में ग्रामीण क्षेत्रों में गिद्धों की आबादी में औसतन 95% की कमी आई है, जिसका कारण डाइक्लोफेनाक से उपचारित पशुओं के शवों को खाना, गोली मारना और ज़हर देना है।

(iv) पर्यावास हानि और क्षरण: एनोबोन स्कॉप्स-उल्लू (Annobon Scops-0wl) पश्चिम अफ्रीका के एनोबोन द्वीप तक सीमित है, जिसे हाल ही में तेज़ी से निवास स्थान के नुकसान और गिरावट के कारण IUCN रेड लिस्ट के तहत 'गंभीर रूप से लुप्तप्राय' की

श्रेणी में वर्गीकृत किया गया था।


संरक्षण के प्रयास:

(i) रैप्टर्स MoU (वैश्विक): इस समझौते को ‘रैप्टर समझौता-ज्ञापन (Raptor MOU)’ के नाम से भी जाना जाता है। यह समझौता अफ्रीका और यूरेशिया क्षेत्र में प्रवासी पक्षियों के शिकार पर प्रतिबंध और उनके संरक्षण को बढ़ावा देता है।

  • CMS संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के तहत एक अंतर्राष्ट्रीय संधि है। इसे बाॅन कन्वेंशन के नाम से भी जाना जाता है। CMS का उद्देश्य स्थलीय, समुद्री तथा उड़ने वाले अप्रवासी जीव जंतुओं का संरक्षण करना है। यह कन्वेंशन अप्रवासी वन्यजीवों तथा उनके प्राकृतिक आवास पर विचार-विमर्श के लिये एक वैश्विक मंच प्रदान करता है।
  •  यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है।

(ii) भारत के संरक्षण प्रयास:

  • भारत रैप्टर्स MoU का हस्ताक्षरकर्त्ता है।
  • गिद्धों के संरक्षण के लिये भारत ने गिद्ध कार्ययोजना 2020-25 शुरू की है।
  • भारत SAVE (Saving Asia’s Vultures from Extinction) संघ का भी हिस्सा है।
  • पिंजौर (हरियाणा) में जटायु संरक्षण प्रजनन केंद्र (Jatayu Conservation Breeding Centre) भारतीय गिद्ध प्रजातियों के प्रजनन और संरक्षण के लिये राज्य के बीर शिकारगाह वन्यजीव अभयारण्य के भीतर विश्व की सबसे बड़ी अनुकूल जगह है।

IUCN वर्ल्ड कंज़र्वेशन काॅन्ग्रेस

 दुनिया का सबसे बड़ा और सबसे समावेशी पर्यावरण निर्णयन फोरम 'IUCN वर्ल्ड कंज़र्वेशन काॅन्ग्रेस 2020' फ्रांँस के मार्सिले में आयोजित किया जा रहा है। ज्ञात हो कि इस फोरम को जून 2020 में सितंबर 2021 तक के लिये स्थगित कर दिया गया था।

  • इसके तहत मौजूदा जैव विविधता संकट सहित संरक्षण प्राथमिकताओं को संबोधित करने हेतु कई महत्त्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लिये गए हैं।
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) ‘विश्व संरक्षण काॅन्ग्रेस’ का आयोजन करता है, जो प्रत्येक चार वर्ष में एक बार दुनिया भर के अलग-अलग हिस्सों में आयोजित की जाती है। इस प्रकार की पहली काॅन्ग्रेस’ संयुक्त राज्य अमेरिका में वर्ष 1948 में आयोजित की गई थी।
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN)
  • अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) सरकारों तथा नागरिकों दोनों से मिलकर बना एक विशिष्ट सदस्यता संघ है।
  • यह दुनिया की प्राकृतिक स्थिति को संरक्षित रखने के लिये एक वैश्विक प्राधिकरण हैजिसकी स्थापना वर्ष 1948 में की गई थी।
  • इसका मुख्यालय स्विटज़रलैंड में स्थित है।
  • IUCN द्वारा जारी की जाने वाली ‘रेड लिस्ट’ दुनिया की सबसे व्यापक सूची है, जिसमें पौधों और जानवरों की प्रजातियों की वैश्विक संरक्षण की स्थिति को दर्शाया जाता है।

प्रमुख बिंदु

वैश्विक स्वदेशी एजेंडा:

(i) यह भूमि, क्षेत्रों, जल, तटीय समुद्र और प्राकृतिक संसाधनों के शासन हेतु स्वदेशी अधिकारों को मान्यता एवं सम्मान प्रदान करने का आह्वान करता है।

(ii) इसे IUCN के स्वदेशी लोगों के संगठन के सदस्यों द्वारा विकसित किया गया था।

(iii) यह पाँच विषयों से संबंधित 10 उच्च-स्तरीय प्रस्तावों और परिणामों को प्रस्तुत करता है: स्वदेशी शासन; जैव विविधता संरक्षण; जलवायु कार्रवाई; कोविड-19 के बाद रिकवरी के प्रयास तथा खाद्य सुरक्षा और वैश्विक नीति निर्धारण।

अद्यतित रेड लिस्ट:

(i) नौ श्रेणियों में प्रजातियों की संख्या: अद्यतन या अपडेट की गई रेड लिस्ट के अनुसार, प्रजातियों के स्तर पर वैश्विक सुधार के बावजूद उच्च जोखिम वाली प्रजातियों की संख्या लगातार बढ़ रही है।

  • कुल 902 प्रजातियांँ आधिकारिक तौर पर विलुप्त (Extinct) हो चुकी हैं। जिन प्रजातियों का मूल्यांकन किया गया उनमें से 30% (138,374) विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रही हैं।
  • 80 वन्य प्रजातियांँ विलुप्त हो चुकी हैं, 8,404 गंभीर रूप से संकटग्रस्त, 14,647 संकटग्रस्त, 15,492 सुभेद्य प्रजातियों में शामिल हैं तथा 8,127 प्रजातियों के भविष्य पर खतरा बना हुआ है।
  • लगभग 71,148 प्रजातियों की स्थिति कम चिंताजनक है, जबकि 19,404 प्रजातियों के डेटा का अभाव है।
  • नौवीं श्रेणी 'नॉट इवैल्यूएटेड' (Not Evaluated) प्रजाति है अर्थात् इन प्रजातियों का मूल्यांकन आईयूसीएन द्वारा नहीं किया गया है।

(ii) कोमोडो ड्रैगन्स: इंडोनेशिया की कोमोडो ड्रैगन (Varanus komodoensis) विश्व की सबसे बड़ी जीवित छिपकली है और इसे सुभेद्य से संकटग्रस्त की श्रेणी में स्थानांतरित कर दिया गया है।

  • इस प्रजाति पर जलवायु परिवर्तन के खतरनाक प्रभाव देखे गए हैं, समुद्र के बढ़ते स्तर के साथ अगले 45 वर्षों में प्रजाति के आवास में कम-से-कम 30% की कमी आने की आशंका है।

(iii) टूना प्रजाति: सात सबसे अधिक व्यावसायिक रूप से पकड़ी जाने वाली मछली की टूना प्रजातियों में से चार की स्थिति में सुधार/ रिकवरी के संकेत दिखाई दिये हैं।

  • अटलांटिक ब्लूफिन टूना (Thunnus thynnus) को संकटग्रस्त (Endangered) से कम चिंताग्रस्त (Least concern) श्रेणी में रखा गया है।
  • दक्षिणी ब्लूफिन टूना (Thunnus maccoyii) संकटग्रस्त से कम संकटग्रस्त में स्थानांतरित।
  • एल्बाकोर (Thunnus alalunga) और येलोफिन टूना (Thunnus albacares) दोनों निकट संकटग्रस्त (Near Threatened) से बहुत कम संकट (Least Concern) की सूची में स्थानांतरित।
  • टूना की अन्य प्रजातियाँ जिसमें बिगआई टूना (Thunnus obesus) सुभेद्य में, जबकि स्किपजैक टूना (Katsuwonus pelamis) बहुत कम संकट ( least concerned) में ही बनी हुई है।
  • पैसिफिक ब्लूफिन टूना (Thunnus orientalis) को न्यूअर स्टॉक मूल्यांकन डेटा (Newer Stock Assessment Data) और मॉडल (Models) की उपलब्धता के कारण सुभेद्य से निकट संकटग्रस्त (Near Threatened) की श्रेणी में स्थानांतरित किया गया है।

सतत् पर्यटन पहल:

(i) यह कार्यक्रम जर्मनी द्वारा वित्तपोषित किया गया है तथा इसमें संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (यूनेस्को) एवं वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर (WWF) जैसे कार्यकारी भागीदार शामिल हैं।

  • यह विकासशील और उभरते देशों के सतत् विकास में योगदान करने के लिये पर्यटन को एक उपकरण के रूप में उपयोग करेगा।

(ii) पहल को संचालित करने के लिये IUCN दो विश्व धरोहर स्थलों तथा पेरू और वियतनाम में पाँच अन्य संरक्षित क्षेत्रों के साथ काम करेगा ताकि समुदाय-आधारित पर्यटन क्षेत्र के भविष्य के व्यवधानों के प्रति लचीलापन बढ़ाया जा सके।

अन्य हालिया अद्यतन:

(i) रैप्टर प्रजाति से संबंधित खतरा: IUCN और बर्डलाइफ इंटरनेशनल के एक विश्लेषण के अनुसार, वैश्विक स्तर पर 557 रैप्टर प्रजातियों में से लगभग 30% को कुछ स्तर तक विलुप्त होने का खतरा है।

(ii) बहलर कछुआ संरक्षण पुरस्कार: हाल ही में भारतीय जीवविज्ञानी शैलेंद्र सिंह को तीन गंभीर रूप से लुप्तप्राय (Critically Endangered) कछुए की प्रजातियों को उनके विलुप्त होने की स्थिति से बाहर लाने हेतु बहलर कछुआ संरक्षण पुरस्कार (Behler Turtle Conservation Award) से सम्मानित किया गया है।

  • ‘बहलर कछुआ संरक्षण पुरस्कार’ कछुआ संरक्षण में शामिल कई वैश्विक निकायों जैसे- ‘टर्टल सर्वाइवल एलायंस (TSA), IUCN/SSC कच्छप और मीठे पानी के कछुआ विशेषज्ञ समूह, कछुआ संरक्षण तथा ‘कछुआ संरक्षण कोष’ द्वारा प्रदान किया जाता है।

भारतीय शहरों की वायु गुणवत्ता में सुधार

हाल ही में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री ने इंटरनेशनल डे ऑफ क्लीन एयर फॉर ब्लू स्काई के अवसर पर कहा कि बेहतर वायु गुणवत्ता वाले शहरों की संख्या में वृद्धि हुई है।

  • इस अवसर पर उन्होंने दिल्ली के आनंद विहार में पहले कार्यात्मक स्मॉग टॉवर (Smog Tower) का भी उद्घाटन किया तथा वायु प्रदूषण या 'प्राण' (Prana) के नियमन के लिये पोर्टल का शुभारंभ किया।
  • इससे पूर्व दिल्ली के कनॉट प्लेस में एक स्मॉग टॉवर स्थापित किया गया था तथा चंडीगढ़ में भारत के सबसे ऊँचे वायु शोधक (Air Purifier) का भी उद्घाटन किया गया था।

प्रमुख बिंदु

वायु गुणवत्ता की स्थिति:

(i) वर्ष 2020 में:

  • वर्ष 2020 में बेहतर वायु गुणवत्ता वाले शहरों की संख्या बढ़कर 104 हो गई है, जो वर्ष 2018 में 86 थी।

(ii) वर्ष 2015 से वर्ष 2019:

  • पार्टिकुलेट मैटर (PM) 10 स्तर: यह मापदंड 23 शहरों में "घटती प्रवृत्ति", 239 शहरों में "उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति" और 38 शहरों में "बढ़ती प्रवृत्ति" को प्रदर्शित करता है।
  • पीएम 2.5 का स्तर: यह मापदंड11 शहरों में "घटती प्रवृत्ति", 79 शहरों में "उतार-चढ़ाव की प्रवृत्ति" और 9 शहरों में "बढ़ती प्रवृत्ति" को प्रदर्शित करता है।

सुधार का कारण:

  • कोविड-19 के कारण हुए लॉकडाउन के परिणामस्वरूप कई शहरों में उद्योगों के बंद होने, वाहनों के कम चलने, निर्माण गतिविधियों में कमी आने और मानवीय गतिविधियों के अभाव के चलते वायु गुणवत्ता में “अस्थायी सुधार” हुआ था।
  • हाल के वर्षों में वायु प्रदूषण से निपटने के लिये सरकार की पहलों ने वायु गुणवत्ता में सुधार करने में भी मदद की है।

प्राण पोर्टल:

  • इसे 'नॉन एटेनमेंट सिटीज़' (Non-Attainment Cities- NAC) में राष्ट्रीय स्वच्छ वायु कार्यक्रम (NCAP) के तहत लॉन्च किया गया था, जो NCAP के तहत परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों को पूरा नहीं करते थे।
  • इससे वर्ष 2024 तक देश भर में पार्टिकुलेट मैटर (PM10 और PM2.5) की सांद्रता में 20-30% की कमी करने का लक्ष्य है।
  • यह शहर की वायु कार्ययोजना के कार्यान्वयन की भौतिक और वित्तीय स्थिति पर नज़र रखने में सहायता करेगा और लोगों में वायु गुणवत्ता के बारे में जानकारी प्रसारित करेगा।

संबंधित पहल:

(i) वायु गुणवत्ता और मौसम पूर्वानुमान तथा अनुसंधान प्रणाली:

  • इसे भारत के बड़े महानगरीय शहरों हेतु निकट वास्तविक समय में वायु गुणवत्ता पर स्थान विशिष्ट जानकारी प्रदान करने के लिये "सफर" के रूप में जाना जाता है।

(ii) वायु गुणवत्ता सूचकांक:

  • AQI लोगों को वायु गुणवत्ता की स्थिति के प्रभावी संचार के लिये एक उपकरण है, जिसे समझना आसान है।
  • विभिन्न AQI श्रेणियों के तहत कार्यान्वयन हेतु दिल्ली एनसीआर के लिये ग्रेडेड रिस्पांस एक्शन प्लान तैयार किया गया है।
  • AQI को आठ प्रदूषकों के लिये विकसित किया गया है- PM2.5, PM10, अमोनिया, लेड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर डाइऑक्साइड, ओज़ोन और कार्बन मोनोऑक्साइड।

(iii) वाहनों से होने वाले प्रदूषण को कम करने हेतु:

  • बीएस-VI वाहनों की शुरुआत, इलेक्ट्रिक वाहनों को प्रोत्साहन, एक आपातकालीन उपाय के रूप में सम-विषम और वाहनों के प्रदूषण को कम करने के लिये पूर्वी व पश्चिमी पेरिफेरल एक्सप्रेसवे का निर्माण।

(iv) वायु गुणवत्ता प्रबंधन के लिये नया आयोग:

  • यह राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) और आसपास के क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता से संबंधित समस्याओं के बेहतर समन्वय, अनुसंधान, पहचान तथा समाधान के लिये बनाया गया है।

(v) टर्बो हैप्पी सीडर (THS) खरीदने के लिये किसानों को सब्सिडी देना, यह ट्रैक्टर पर लगी एक मशीन होती है तथा पराली जलाने की घटनाओं में कमी लाने हेतु पराली को काटती और उखाड़ती है।


पार्टिकुलेट मैटर/कणिका पदार्थ

परिचय:

(i) ‘पार्टिकुलेट मैटर’, जिसे ‘कण प्रदूषण’ भी कहा जाता है, का आशय हवा में पाए जाने वाले ठोस कणों और तरल बूँदों के मिश्रण से है। यह श्वसन संबंधी समस्याओं का कारण बनता है और दृश्यता को भी कम करता है।

(ii) इसमें शामिल हैं:

  • PM10: श्वसन योग्य वे कण जिनका व्यास प्रायः 10 माइक्रोमीटर या उससे कम होता है;
  • PM2.5: अतिसूक्ष्म श्वसन योग्य वे कण जिनका व्यास प्रायः 2.5 माइक्रोमीटर या उससे कम होता है।

पार्टिकुलेट मैटर का स्रोत

(i) ये प्रायः प्रत्यक्ष तौर पर निर्माण स्थल, कच्ची सड़कों, खेतों, धुएँ के ढेर या आग आदि से उत्सर्जित होते हैं।


दीपोर बील: इको-सेंसिटिव ज़ोन

 

हाल ही में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने दीपोर बील वन्यजीव अभयारण्य (असम) को पर्यावरण-संवेदी क्षेत्र/ इको-सेंसिटिव ज़ोन के रूप में अधिसूचित किया है।

  • इससे पहले काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान उपग्रह फोन का उपयोग करने वाला देश का पहला उद्यान बन गया था तथा देहिंग पटकाई और रायमोना को राष्ट्रीय उद्यानों के रूप में नामित किया गया था।

प्रमुख बिंदु

दीपोर बील:

(i) दीपोर बील के बारे में:

  • यह असम की सबसे बड़ी मीठे पानी की झीलों में से एक है और बर्डलाइफ इंटरनेशनल द्वारा एक महत्त्वपूर्ण पक्षी क्षेत्र घोषित होने के अलावा राज्य का एकमात्र रामसर स्थल है।
  • यह असम के गुवाहाटी शहर के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है और ब्रह्मपुत्र नदी का पूर्ववर्ती जल चैनल है।
  • यह झील गर्मियों में 30 वर्गकिमी. तक फैलती है और सर्दियों में लगभग 10 वर्गकिमी. तक कम हो जाती है। वन्यजीव अभयारण्य इस आर्द्रभूमि (बील) के भीतर 4.1 वर्गकिमी. में स्थित है।

(ii) महत्त्व:

यह जलीय वनस्पतियों और एवियन जीवों (Avian Fauna) के लिये एक अद्वितीय/अनूठा आवास है।

गुवाहाटी शहर के लिये एकमात्र प्रमुख स्टॉर्मवाटर स्टोरेज (Storm-Water Storage Basin) होने के अलावा इसका जैविक और पर्यावरणीय दोनों महत्त्व है।

यह कई स्थानीय परिवारों के लिये आजीविका का साधन प्रदान करती है।

हाल ही में असम के मछुआरे समुदाय की छह युवा लड़कियों ने एक बायोडिग्रेडेबल और कम्पोस्टेबल योगा मैट (Biodegradable and Compostable Yoga Mat) विकसित किया हैजिसे 'मूरहेन योगा मैट' (Moorhen Yoga Mat) कहा जाता है।

(iii) चिंताएँ:

  • इसका ( दीपोर बील) जल विषाक्त हो गया हैजिस कारण कई जलीय पौधे जिन्हें हाथियों द्वारा खाद्य के रूप में प्रयोग किया जाता था, समाप्त हो गए हैं।
  • यहाँ दशकों पुराना रेलवे ट्रैक है जिसे बढ़ाकर दोगुना करने के साथ ही विद्युतीकृत भी किया जाना है। इसके दक्षिणी किनारे पर मानव निवास और वाणिज्यिक इकाइयों द्वारा अतिक्रमण के चलते अपशिष्ट पदार्थों की डंपिंग (Garbage Dump) होती है।

इको-सेंसिटिव ज़ोन:

(i) परिचय:

  • इको-सेंसिटिव जोन (ESZ) या पर्यावरण संवेदी क्षेत्र, संरक्षित क्षेत्रों, राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के आसपास 10 किलोमीटर के भीतर के क्षेत्र हैं।
  • संवेदनशील गलियारे, संपर्क और पारिस्थितिक रूप से महत्त्वपूर्णखंडों और प्राकृतिक संयोजन के लिये महत्त्वपूर्ण क्षेत्र होने की स्थिति में 10 किमी. से अधिक क्षेत्र को भी इको-सेंसिटिव ज़ोन में शामिल किया जा सकता है।
  • ESZ को पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 के तहत पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) द्वारा अधिसूचित किया जाता है।
  • इसका मूल उद्देश्य राष्ट्रीय उद्यानों और वन्यजीव अभयारण्यों के आस-पास कुछ गतिविधियों को विनियमित करना है ताकि संरक्षित क्षेत्रों के निकटवर्ती संवेदनशील पारिस्थितिक तंत्र पर ऐसी गतिविधियों के नकारात्मक प्रभाव को कम किया जा सके।

(ii) ESZ में गतिविधियों का विनियमन:

  • प्रतिबंधित गतिविधियाँ: वाणिज्यिक खनन, मिलों, उद्योगों के कारण होने वाला प्रदूषण (वायु, जल, मिट्टी, शोर आदि), प्रमुख जलविद्युत परियोजनाओं की स्थापना (HEP), लकड़ी का व्यावसायिक उपयोग, राष्ट्रीय उद्यान के ऊपर गर्म हवा के गुब्बारे जैसी पर्यटन गतिविधियाँ, निर्वहन अपशिष्ट या किसी भी ठोस अपशिष्ट या खतरनाक पदार्थों का उत्पादन जैसी गतिविधियाँ।
  • विनियमित गतिविधियाँ: वृक्षों की कटाई, होटल और रिसॉर्ट्स की स्थापना, प्राकृतिक जल संसाधनों का वाणिज्यिक उपयोग, बिजली के तारों का विस्तार, कृषि प्रणाली में व्यापक परिवर्तन आदि।

(iii) अनुमत गतिविधियाँ: इसके तहत कृषि या बागवानी प्रथाओं, वर्षा जल संचयन, जैविक खेती, नवीकरणीय ऊर्जास्रोतों का उपयोग, सभी गतिविधियों के लिये हरित प्रौद्योगिकी को अपनाने आदि की अनुमति होती है।


नए कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों की अव्यवहार्यता

दो स्वतंत्र थिंक टैंक, ईएमबीईआर (EMBER) और क्लाइमेट रिस्क होराइज़न्स (Climate Risk Horizons) द्वारा तैयार की गई एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत को वित्तीय वर्ष 2030 तक बिजली की अपेक्षित वृद्धि को पूरा करने हेतु अतिरिक्त नई कोयला क्षमता (Additional New Coal Capacity) की आवश्यकता नहीं है।

प्रमुख बिंदु

(i) रिपोर्ट की मुख्य बातें:

  • वर्ष 2030 तक भारत की बिजली की चरम मांग 301 गीगावाट तक पहुंँच जाएगी, अगर यह 5% की वार्षिक वृद्धि दर (जो केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण द्वारा किये गए अनुमानों के अनुरूप भी है) से बढ़ती है, तो भारत की नियोजित सौर क्षमता इसमें से अधिकांश को कवर कर सकती है।
  • इसलिये नए कोयला संयंत्रों को शामिल करने के उद्देश्य से ‘ज़ोंबीयूनिट्स’ (zombie units) स्थापित की जाएँगी- जो मौजूद तो होंगी, लेकिन क्रियान्वयन में नहीं होंगी।
  • इसके अलावा भारत इन अधिशेष संयंत्रों में निवेश न करके लगभग 2.5 लाख करोड़ रुपए बचा सकता है
  • एक बार व्यय करने के बाद यह निवेश डिस्कॉम (बिजली वितरण कंपनियों) और उपभोक्ताओं को महंँगे अनुबंधों से बाँध देगा तथा सिस्टम को आवश्यकता से अधिक दक्षता से जोड़कर भारत के अक्षय ऊर्जालक्ष्यों को भी खतरे में डाल सकता है।
  • इसके अलावा इससे 43,219 करोड़ रुपए का वार्षिक नुकसान होगा जिसे भारत नवीकरणीय और भंडारण में निवेश कर सकता है।
  • इस प्रकार रिपोर्ट का निष्कर्ष हैकि वित्त वर्ष 2030 तक कुल मांग वृद्धि को पूरा करने के लिये पहले से निर्माणाधीन क्षमता से अधिक कोयला क्षमता की आवश्यकता नहीं है।

कोयला आधारित बिजली संयंत्रों की तुलना में सौर ऊर्जा के अधिक उपयोग हेतु उत्तरदायी कारक:

(i) सौर ऊर्जा आधारित उत्पादन, थर्मल आधारित ऊर्जा उत्पादन को प्रतिस्थापित कर रहा है, जिसके साथ ही सौर पैनलों की लागत में भी गिरावट आ रही है, इसके परिणामस्वरूप ऊर्जाक्षेत्र में महत्त्वपूर्णबदलाव आ सकता है।

  • इसके अलावा बैटरी ऊर्जा भंडारण प्रणालियों जैसे नए प्रौद्योगिकी विकल्प सौर ऊर्जा को और अधिक बढ़ावा दे रहे हैं।

(ii) दुनिया भर में पर्यावरण के मुद्दों, विशेष रूप से जलवायु परिवर्तन पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है और इसी के साथ सतत् विकास की अवधारणा ने विश्व स्तर पर केंद्रीय स्थान प्राप्त कर लिया है।

  • कार्बन मुक्त ऊर्जा के उद्देश्य को साकार करने के लिये भारत ने मार्च 2022 तक नवीकरणीय ऊर्जास्रोतों (RE) से 175 गीगावाट की स्थापित क्षमता का लक्ष्य रखा है।
  • इस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु भारत ने ‘अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन’ की स्थापना की है और ‘वन सन वन वर्ल्डवन ग्रिड’ का प्रस्ताव रखा है।

(iii) सरकार द्वारा ‘पीएम कुसुम’ और ‘रूफटॉप सोलर स्कीम’ जैसी योजनाओं के माध्यम से सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने हेतु महत्त्वपूर्ण प्रयास किये जा रहे हैं।


कोयला आधारित विद्युत संयंत्रों को जारी रखने का महत्त्व:
(i) बीपी एनर्जी आउटलुक 2019 के अनुसार, भारत की प्राथमिक ऊर्जाखपत में कोयले की हिस्सेदारी वर्ष 2017 के 56% से घटकर वर्ष 2040 में 48% हो जाएगी।

  • हालाँकि यह अभी भी कुल ऊर्जा मिश्रण का लगभग आधा है और ऊर्जा के किसी भी अन्य स्रोत से काफी आगे है। इस प्रकार कोयले का प्रतिस्थापन करना आसान नहीं है।

(ii) भूमि अधिग्रहण, वित्तपोषण और नीति से जुड़े मुद्दे अक्षय ऊर्जा योजनाओं के आड़े आ रहे हैं।

(iii) बिजली क्षेत्र के अलावा स्टील और एल्यूमीनियम जैसे अन्य महत्त्वपूर्णक्षेत्र भी कोयला आधारित बिजली पर निर्भर हैं।

(iv) इसके अलावा कोयला आधारित बिजली संयंत्रों की क्षमता तात्कालिक पीक लोड को पूरा करने के लिये और नवीकरणीय ऊर्जा अनुपलब्धता की स्थिति में लोड को पूरा करने हेतु महत्त्वपूर्ण है।

(v) इसके अलावा भारत ने शुरू में सल्फर डाइऑक्साइड के उत्सर्जन में कटौती करने वाली फ्लू गैस डिसल्फराइज़ेशन (FGD) इकाइयों को स्थापित करने के लिये थर्मल पावर प्लांट हेतु वर्ष 2017 तक की समय-सीमा निर्धारित की थी लेकिन इसे विभिन्न क्षेत्रों हेतु वर्ष 2022 में समाप्त होने वाली अलग-अलग समय-सीमा के लिये स्थगित कर दिया गया था।


आगे की राह

(i) विद्युत उत्पादन में इष्टतम ऊर्जा मिश्रण: ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों जैसे- कोयला, हाइड्रो, प्राकृतिक गैस और नवीकरणीय (सौर, पवन) के माध्यम से विद्युत उत्पन्न होती है। एक इष्टतम ऊर्जामिश्रण वह है जो इन उत्पादन स्रोतों के मिश्रण का सबसे कुशल तरीके से उपयोग करता है। यह इसलिये भी अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है क्योंकि भविष्य में उत्पादन क्षमता मिश्रण लागत प्रभावी होने के साथ-साथ पर्यावरण के अनुकूल भी होना चाहिये।

(ii) कोयला आधारित इकाइयों के लिये नई प्रौद्योगिकियाँ: सरकार ने अधिक कुशल सुपरक्रिटिकल कोयला आधारित इकाइयों को चालू किया है और पुरानी व अक्षम कोयला आधारित इकाइयों को समाप्त किया जा रहा है। कोयले से चलने वाले बिजली संयंत्रों को पर्यावरण के अनुकूल बनाने हेतु कई नई तकनीकों (जैसे कोयला गैसीकरण, कोयला लाभकारी आदि) का इस्तेमाल किया जा सकता है।


पर्माफ्रॉस्ट पर ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव

IPCC की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार, ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ने से आर्कटिक पर्माफ्रॉस्ट में कमी आएगी और उसके पिघलने से मीथेन एवं कार्बन डाइऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन होने की संभावना है।

प्रमुख बिंदु

पर्माफ्रॉस्ट:

(i) पर्माफ्रॉस्ट अथवा स्थायी तुषार भूमि वह क्षेत्र है जो कम-से-कम लगातार दो वर्षों से शून्य डिग्री सेल्सियस (32 डिग्री F) से कम तापमान पर जमी हुई अवस्था में है।

(i) ये स्थायी रूप से जमे हुए भूमि-क्षेत्र मुख्यतः उच्च पर्वतीय क्षेत्रों और पृथ्वी के उच्च अक्षांशों (उत्तरी एवं दक्षिणी ध्रुवों के निकट) में पाए जाते हैं।

(i) पर्माफ्रॉस्ट विश्व का लगभग 15% भूमि क्षेत्र को कवर करता है।

(i) यद्यपि ये भूमि-क्षेत्र जमे हुए होते हैं लेकिन आवश्यक रूप से हमेशा ये बर्फसे ढके नहीं होते।

(i) पर्माफ्रॉस्ट के बड़ेहिस्सों वाले भू-दृश्यों (Landscapes) को अक्सर टुंड्रा कहा जाता है। टुंड्रा शब्द एक फिनिश (Finnish) शब्द है जो एक वृक्ष रहित मैदानी (Treeless Plain) क्षेत्र को संबोधित करता है। उच्च अक्षांशों और ऊंँचाई पर स्थित क्षेत्र को टुंड्रा कहा जाता है, जहांँ पर्माफ्रॉस्ट की एक बहुत पतली सक्रिय परत होती है।

पर्माफ्रॉस्ट के पिघलने के संबंध में चिंताएंँ:

(i) बुनियादी ढाँचे पर प्रभाव:

  • यह उन देशों के बुनियादी ढाँचे को प्रभावित करेगा जहांँ सड़कों या इमारतों का निर्माण पर्माफ्रॉस्ट पर किया गया है।

(ii) ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन:

  • पर्माफ्रॉस्ट के कारण कार्बनिक पदार्थ जमकर ज़मीन में दब जाते हैं।
  • यदि पर्माफ्रॉस्ट पिघलना शुरू हो जाती है, तो यह सामग्री विखंडित होकर सूक्ष्मजीवों के लिये उपलब्ध हो जाएगी।
  • कुछ सूक्ष्मजीव वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड का उत्सर्जन करते हैं और अन्य जीव मीथेन का, जो कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में ग्रीनहाउस गैस के रूप में लगभग 25 से 30 गुना अधिक शक्तिशाली है।

(iv) कार्बन स्टोरहाउस/भंडारण से कार्बन उत्सर्जक में परिवर्तन:

  • कुछ पर्माफ्रॉस्ट क्षेत्र कार्बन स्टोरहाउस से ऐसे स्थानों में परिवर्तित हो गए हैं जो कार्बन के शुद्ध उत्सर्जक हैं।

(v) वनाग्नि की घटनाओं में वृद्धि:

  • इस वर्ष रूस में वनाग्नि की घटना देखी गई जिसका कुल क्षेत्रफल पुर्तगाल के आकार के बराबर था। आमतौर पर आग लगने के बाद अगले 50 से 60 वर्षों में वनों के पुनर्स्थापन की उम्मीद की जाती है। यह पारिस्थितिकी तंत्र में कार्बन स्टॉक को पुनर्स्थापित करता है।
  • लेकिन टुंड्रा में पीट वह जगह है जहाँ कार्बनिक पदार्थ होते हैं और इसे जमा होने में बहुत लंबा समय लगता है। इसलिये यदि पीट को जलाया जाता है और वातावरण में छोड़ा जाता है, तो उस कार्बन स्टॉक को ज़मीनी स्तर पर बहाल करने में सदियों लगेंगे।

(vi) नए बैक्टीरिया या वायरस उत्पन्न होना:

  • न केवल मानव जीवन के लिये बल्कि वायरस और बैक्टीरिया के विकास या वृद्धि हेतुः भी पर्यावरण अब हिमयुग की तुलना में बहुत अधिक उपयुक्त है।
  • इसलिये नए बैक्टीरिया या वायरस के उभरने की संभावनाओं को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता है।

उठाए जाने वाले कदम:

(i) तीव्र जलवायु परिवर्तन को रोकना: जलवायु परिवर्तन को कम करने और पर्माफ्रॉस्ट को बचाने के लिये अनिवार्य हैकि अगले दशक में वैश्विक CO2 उत्सर्जन को 45% तक कम किया जाए और 2050 तक पूर्णतः समाप्त किया जाए।

(ii) धीमी गति से क्षरण: वैज्ञानिक पत्रिका ‘नेचर’ ने इसके कटाव को रोकने के लिये आर्कटिक पिघलने से सबसे बुरी तरह प्रभावित ‘जैकबशवन ग्लेशियर’ (ग्रीनलैंड) के सामने 100 मीटर लंबा बाँध बनाने का सुझाव दिया।

(iii) कृत्रिम हिमखंडों का आपसी संयोजन: एक इंडोनेशियाई वास्तुकार ने अपनी परियोजना के लिये पुरस्कार जीता है, उसके अनुसार इसमें आर्कटिक को रिफ्रीज़ करना, उसमें पिघले हुए ग्लेशियरों से पानी इकट्ठा करना, ‘डिसेलिनेट’ करना और बड़े

  • ‘हेक्सागोनल’ बर्फ ब्लॉक बनाने के लिये इसे फिर से जमा करना शामिल है।

(iv) उनकी मोटाई बढ़ाना: कुछ शोधकर्त्ता अधिक बर्फ के निर्माण के लिये एक समाधान प्रस्तावित करते हैं। उनके प्रस्ताव में ग्लेशियर के नीचे से पवन ऊर्जा द्वारा संचालित पंपों के माध्यम से बर्फ को ऊपरी शिखरों पर फैलाने हेतु इसे इकट्ठा करना शामिल है, ताकि यह जम जाए, इस प्रकार यह इसकी स्थिरता को मज़बूती प्रदान करता है।

(v) लोगों को जागरूक करना: टुंड्रा और उसके नीचे का पर्माफ्रॉस्ट हमसे बहुत दूर हो सकते हैं, लेकिन हम कहीं भी रहते हों, हमारे द्वारा किये जाने वाले रोज़मर्रा के कार्य जलवायु परिवर्तन में योगदान करते हैं।

  • अपने कार्बन फुटप्रिंट को कम करके, ऊर्जा-कुशल उत्पादों में निवेश करके और जलवायु-अनुकूल व्यवसायों, कानून एवं नीतियों का समर्थन कर हम दुनिया के पर्माफ्रॉस्ट को संरक्षित करने और हमेशा गर्म होने वाले ग्रह के दुष्चक्र को टालने में मदद कर सकते हैं।
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