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अभिवृत्ति को प्रभावित करने वाले कारक | नीतिशास्त्र, सत्यनिष्ठा एवं अभिवृत्ति for UPSC CSE in Hindi PDF Download

अभिवृत्ति एक अर्जित प्रवृत्ति (acquired tendency) है जो समय-समय पर उसके निर्माण एवं संपोषित करने वाले कारकों में परिवर्तन होने पर परिवर्तित होती रहती है। किसी वस्तु या व्यक्ति के प्रति यदि आज आपकी अभिवृत्ति प्रतिकूल है तो सम्भव है कि कुछ दिनों के बाद यह अभिवृत्ति बदलकर अनुकूल हो जाय। हाँ, ऐसा नहीं भी हो सकता है परन्तु इतना तो ज्ञातव्य है कि परिस्थिति में परिवर्तन होने से व्यक्ति की अभिवृत्ति में परिवर्तन होता है।
समाज मनोवैज्ञानिकों एवं समाजशास्त्रियों द्वारा किये गये अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि अभिवृत्ति परिवर्तन दो प्रकार के होते हैं, संगत परिवर्तन (Congruent Change) तथा असंगत परिवर्तन (Incongruent change) किसी एक व्यक्ति की अभिवृत्ति किसी व्यक्ति या घटना के प्रति अनुकूल से परिवर्तित होकर और अधिक अनुकूल हो सकती है। अभिवृत्ति में ये दोनों तरह के परिवर्तन संगत परिवर्तन से बदलकर और अधिक प्रतिकूल भी हो सकती है। अभिवृत्ति में ये दोनों तरह के परिवर्तन संगत परिवर्तन के उदाहरण है। अत: अभिवृत्ति में संगत परिवर्तन वैसे परिवर्तनों को कहा जाता है जिसमें (अभिवृत्ति में) परिवर्तन पहले की ही दिशा में होती है। असंगत परिवर्तन वैसे परिवर्तन को कहा जाता है, जिसमें अभिवृत्ति अनुकूल से बदलकर प्रतिकूल या प्रतिकूल से बदलकर अनुकूल हो जाती है। स्पष्ट है कि असंगत परिवर्तन में अभिवृत्ति की दिशा बदल जाती है। अभिवृत्ति परिवर्तन से तात्पर्य इन दोनों या दोनों में किसी भी एक तरह के परिवर्तन से होता है।
अभिवत्ति परिवर्तन के क्षेत्र में किये गये अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि संगत परिवर्तन तथा असंगत परिवर्तन में एक ही तरह का नियम सम्मिलित नहीं होता है। सच्चाई यह है कि ये दोनों तरह के परिवर्तनों से सम्बन्धित नियम अलग-अलग हैं जो इस प्रकार है-

  1. अन्य बातें समान रहने पर अभिवृत्ति में संगत परिवर्तन लाना असगत परिवर्तन की अपेक्षा हमेशा आसान है। 
  2. अगर व्यक्ति की वर्तमान अभिवृत्ति के तत्त्वों में अधिक शक्ति, आपस में घनिष्ठ सम्बन्ध, स्थिरता तथा संगति हो, तो वैसी परिस्थिति में अभिवृत्ति में संगत परिवर्तन लाना असंगत परिवर्तन की अपेक्षा तुलनात्मक रूप से अधिक आसान होता है।

निम्नलिखित कारक विभिन्न प्रक्रियाओं के द्वारा अभिवृत्तियों के सीण के लिए एक संदर्भ प्रदान करते हैं:

  1. आवश्यकता पूर्ति (Want satisfaction)- प्रायः देखा गया है कि जिस व्यक्ति, वस्तु तथा घटना से हमारे लक्ष्य की प्राप्ति होती है एवं आवश्यकता की पूर्ति होती है, उसके प्रति हमारी अभिवृत्ति अनुकूल होती है, तथा जिस व्यक्ति, वस्तु या घटना से हमारे लक्ष्य की प्राप्ति में बाधा उत्पन्न होती है एवं आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती है, उनके प्रति हमारी अभिवृत्ति प्रतिकूल हो जाती है। इस तथ्य का प्रयोगात्मक समर्थन हमें रोजेनवर्ग (Rosenberg,1956) के अध्ययन से मिलता है। इस अध्ययन में कॉलेज के 120 छात्रों ने भाग लिया। इस अध्ययन के निष्कर्ष में उन्होंने पाया कि जो वस्तुएँ छात्रों के लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक थीं, उनके प्रति उनकी अनुकूल अभिवृत्ति बन गयी तथा जिन वस्तुओं से उन्हें लक्ष्यप्राप्ति से सहायता नहीं होती थी (और फलस्वरूप वे कुण्ठा की स्रोत थीं) उनके प्रति उन छात्रों की अभिवृत्ति प्रतिकूल बन गयी है। इस अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि आवश्यकता पूर्ति एक महत्त्वपूर्ण कारक है जिससे व्यक्ति की अभिवृत्ति का निर्माण होता है।
  2. परिवार-विद्यालय-समाज-मित्रों का परिवेश (Environment of Family-school-society Friends): एक व्यक्ति के जीवन में अपनी बाल्यावस्था का विशेष प्रभाव होता है। विशेष रूप से जीय के प्रारंभिक वर्षों में अभिवृत्ति निर्माण करने में माता-पिता एवं परिवार के अन्य सदस्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है। बाद में विद्यालय का परिवेश अभिवृत्ति निर्माण के लिए एक महत्वपूर्ण पृष्ठभूमि बन जाता है। परिवार एवं विद्यालय में अभिवृत्तियों का अधिगम आमतौर पर साहचर्य, पुरस्कार, दंड तथा प्रतिरूपण के माध्यम से होता है। इसके बाद मित्रों का समूह कैसा है, वह किस समाज में रहता है जिससे अभिवृत्ति निर्माण में सहायता मिलती है। 
  3. संदर्भ समूह (Reference Group) : संदर्भ समूह एक व्यक्ति को सोचने एवं व्यवहार करने के स्वीकृत नियमों या मानकों को बताते हैं। अत: ये समूह या संस्कृति के मानकों के माध्यम से अभिवृत्तियों के अधिगम को दशति है। विभिन्न विषयों जैसे-राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक समूह व्यवसाय, राष्ट्रीय एवं अन्य मुद्दों के प्रति अभिवृत्ति प्रायः संदर्भ समूह के माध्यम से ही विकसित होती है। यह प्रभाव विशेष रूप से किशोरावस्था के प्रारंभ से अधिक स्पष्ट होता है जब व्यक्ति के लिए यह अनुभव करना महत्वपूर्ण होता है कि वह किसी समूह का सदस्य है इसलिए अभिवृत्ति निर्माण में संदर्भ समूह की भूमिका पुरस्कार एवं दंड के द्वारा अधिगम का भी एक उदाहरण हो सकता है।
    जिस तरह से व्यवहार के भिन्न-भिन्न रूपों को व्यक्ति सीखता है, ठीक उसी तरह अभिवृत्ति के विकास में भी सीखने की प्रक्रिया की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। बहुत से अध्ययनों से यह स्पष्ट होता है कि अभिवृत्ति के |विकास में सीखने के तीन तरह की प्रक्रियाओं का महत्त्वपूर्ण स्थान है। वे तीन प्रक्रियाएँ है, जो निम्नलिखित है
    (i) क्लासिकल अनुबंधन (Classical conditioning)- इस सिद्धान्त के अनुसार जब कोई तटस्थ उद्दीपन (neutral stimulus) को अनुक्रिया उत्पन्न करने वाले उद्दीपक के साथ बार-बार उपस्थित किया जाता है तो वैसी परिस्थिति में कुछ समय के बाद तटस्थ उद्दीपक में भी उसी तरह की अनुक्रिया करने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है। समाज मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि क्लासिकी अनुबंधन के इस नियम (principle) द्वारा हम दिन-प्रतिदिन की जिन्दगी में अनेक नई-नई अभिवृत्तियों को सीखत हैं। उदाहरणार्थ- बच्चा अपने पिता से प्राय: यह सुनता है कि 'अश्वेत लोग' गंदे एवं पिछडे होते हैं, तो वह धीरे-धीरे 'अश्वेत लोगों' के प्रति वैसी ही अभिवृत्ति विकसित कर लेता है। कुछ समाज मनोवैज्ञानिकों ने प्रयोग करके भी यह दिखलाया है कि क्लासिकी अनुबंधन के नियामानुसार किस तरह से अभिवृत्ति विकसित होती है। स्टाटस तथा स्टाटस (Staats & Staats, 1958) द्वारा किया गया प्रयोग काफी लोकप्रिय है। इन्होंने दो शब्द (जो दो राष्ट्रीयता बतलाते थे) को एक पर्दे पर प्रयोज्यों के सामने दिखलाया। वे दो शब्द थे, 'डच' (Dutch) तथा 'स्वेडिश' (Swedish)। इनमें से एक राष्ट्रीयता शब्द दिखलाने के बाद धनात्मक विशेषण जैसे, 'खुश', 'पवित्र', 'मेहनती' आदि शब्दों को प्रयोगकर्ता बोलकर प्रयोज्यों को सुनाते थे तथा दूसरा राष्ट्रीयता शब्द को दिखलाने के बाद ऋणात्मक विश्लेषण जैसे, गंदा, कुरूप, तीखा आदि प्रयोगकर्ता द्वारा बोलकर प्रयोज्यों को सुनाया जाता था। परिणाम में देखा गया कि वैसे राष्ट्रीयता शब्द के प्रति अनुकूल अभिवृत्ति प्रयोज्यों में विकसित हो गयी जो धनात्मक विशेषण द्वारा युग्मित किये गये थे तथा जिस राष्ट्रीयता शब्द को ऋणात्मक विशेषण द्वारा युग्मित किया गया उसके प्रति ऋणात्मक अभिवृत्ति प्रयोज्यों में विकसित हो गयी।
    (ii) साधनात्मक अनुबंधन (Instrumental conditioning)- यह नियम सीखने का एक दूसरा महत्त्वपूर्ण नियम है जिससे अभिवृत्ति का विकास प्रभावित होता है। यह नियम इस बात पर बल डालता है कि जिस अनुक्रिया के करने से व्यक्ति को पुरस्कार मिलता है, उसे वह सीख लेता है तथा जिस अनुक्रिया को करने से उसे दण्ड मिलता है, उसे वह दोहराना नहीं चाहता है। बच्चों में ठीक वैसी ही अभिवृत्ति बहुत जल्द विकसित होती है, जैसा कि उनके माता-पिता की होती है। इसका प्रधान कारण यह है कि माता-पिता के समान अभिवृत्ति दिखलाने पर उन्हें पुरस्कार दिया जाता है अर्थात् उसके व्यवहारों की प्रशंसा करते हैं, उन्हें चॉकलेट, बिस्कुट आदि खाने के लिए देते हैं और यहाँ तक कि कुछ पैसे देते है और इसके अलावा शारीरिक दण्ड भी दिया जाता है। फलस्वरूप, वे इस तरह की विपरीत अभिवृत्ति नहीं विकसित कर पाते हैं। इन्सको एवं मैल्सन शब्दिक पुरस्कार (Insko & Melson, 1969) ने अपने प्रयोग में यह दिखलाया है कि जब प्रयोगकर्ता द्वारा प्रयोज्य को थोड़ा-सा भी शाब्दिक पुरस्कार दिया जाता है, तो वैसी परिस्थिति में प्रयोज्य बहुत ही जल्द एक अभिवृत्ति विकसित कर लेता है।
    (iii) प्रेक्षणात्मक सीख (Observational learning)- प्रेक्षणात्मक सीखने का सार नियम यह है कि मानव दूसरे की क्रियाओं को एवं उसके परिणामों को देखकर नयी अनुक्रिया करना सीख लेता है। इस नियम के प्रमुख प्रवर्तक बैण्डुरा (Bandura) हैं। समाज मनोवैज्ञानिकों का विचार है कि प्रेक्षणात्मक सीख द्वारा बच्चे प्रायः वैसे अभिवृत्ति को भी अपने में विकसित कर लेते हैं जिन्हें उनके माता-पिता स्वयं सीखने के लिए अधिक प्रोत्साहित नहीं करते हैं। उदाहरणार्थ, यदि एक पिता अपने पुत्र को ईमानदारी का सबक सिखलाता है, परन्तु स्वयं बेईमानी का कार्य करता है, तो पुत्र पिता की बातों को कम महत्त्व देते हुए स्वयं भी बेईमानी करने की अभिवृत्ति विकसित कर लेता है, क्योंकि वह अपने पिता के गलत एवं कपटी क्रियाओं का प्रेक्षण करता है।
  4. व्यक्तिगत अनुभव (Personal experience) : अनेक अभिवृत्तियों का निर्माण पारिवारिक परिवेश में या संदर्भ समूह के माध्यम से नहीं होता बल्कि इनका निर्माण प्रत्यक्ष व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा होता है जो लोगों के तथा स्वयं के जीवन के प्रति हमारी अभिवृत्ति में प्रवल परिवर्तन उत्पन्न करता है। उदाहरणस्वरूप सेना का एक चालक एक अभियान के दौरान, जिसमें उसके सभी साथी मारे जा चुके थे, वह मृत्यु के बहुत नजदीक से गुजरा। अपने जीवन के उद्देश्य के बारे में विचार करते हुए उसने सेना में अपनी नौकरी छोड़ दी तथा महाराष्ट्र के एक गाँव में स्थित अपनी जन्मभूमि में वापस लौट आया और वहाँ एक सामुदायिक नेता के रूप में सक्रिय रूप से कार्य करने लगा। एक विशुद्ध व्यक्तिगत अनुभव के द्वारा इस व्यक्ति ने सामुदायिक उत्थान या विकास के लिए एक प्रबल सकारात्मक अभिवृत्ति विकसित कर ली। उसके प्रयास ने उसके गांव के स्वरूप को पूर्णरूपेण बदल दिया। 
  5. सांस्कृतिक कारक (Cultural factors): अभिवृत्ति के निर्माण एवं विकास में सांस्कृतिक कारकों का भी अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान बतलाया गया है। प्रत्येक संस्कृति के अपने मानदण्ड (norms), मूल्य, परम्पराएँ, धर्म आदि होते हैं। प्रत्येक व्यक्ति का पालन-पोषण किसी-न-किसी संस्कृति में ही होता है। फलस्वरूप उसका सामाजीकरण इन्हीं सांस्कृतिक कारकों द्वारा अधिक प्रभावित होता है। व्यक्ति अपनी अभिवृत्ति इन्हीं सांस्कृतिक प्रारूप के अनुसार विकसित करता है। एक समाज की संस्कृति दूसरे समाज की संस्कृति से भिन्न होती है। उदाहरणस्वरूप मुस्लिम संस्कृति तथा हिन्दू संस्कृति की तुलना करने पर हमें मिलता है कि मुस्लिम संस्कृति में पले व्यक्तियों की अभिवृत्ति मौसेरे एवं चचेरे भाई-बहनों में शादी के प्रति अनुकूल होती है, परन्तु हिन्दू संस्कृति में पले व्यक्तियों की अभिवृत्ति अलग-अलग होती है। मुसलमानों की अभिवृत्ति शव को दफना देने के प्रति अनुकूल एवं जला देने के प्रतिकूल होती है। सांस्कृतिक कारकों का प्रभाव अभिवृत्ति के विकास में काफी पड़ता है जिसे मीड (Mead, 1935) ने अपने अध्ययन के आधार पर यह दिखलाया है कि सांस्कृतिक विभिन्नता के कारण ऐरापेश जनजाति के लोगों की अभिवृत्ति में उदारता, सहयोग की भावना तथा दयालुता आदि अधिक होती है। जबकि मुण्डगुमोर जनजाति के लोगों की अभिवृत्ति में ठीक इसके विपरीत अर्थात् आक्रामकता तथा कटुता अधिक पायी जाती है।
  6. संचार माध्यम संबद्ध प्रभाव (Communication-medium related affect) : वर्तमान समय में प्रौद्योगिकीय विकास ने दृश्य-श्रव्य माध्यम एवं इंटरनेट को एक शक्तिशाली सूचना का स्रोत बना दिया है जो अभिवृत्तियों का निर्माण एवं परिवर्तन करते हैं। इसके अतिरिक्त विद्यालय स्तरीय पाठ्यपुस्तकें भी अभिवृत्ति निर्माण को प्रभावित करती हैं। ये स्रोत सबसे पहले संज्ञानात्मक एवं भावात्मक घटक को प्रबल बनाते हैं और बाद में व्यवहारपरक घटक को भी प्रभावित कर सकते हैं। संचार माध्यम अभिवृत्ति पर अच्छा एवं खराब दोनों ही प्रकार के प्रभाव डाल सकते हैं। एक तरफ संचार माध्यम एवं इंटरनेट, संचार के अन्य माध्यमों की तुलना में लोगों को जल्दी सूचित करते हैं, तो दूसरी तरफ इन संचार माध्यमों में सूचना संकलन की प्रकृति पर कोई रोक या जाँच नहीं होती इसलिए निर्मित होने वाली अभिवृत्तियों में परिवर्तन की दिशा पर कोई नियंत्रण भी नहीं होता है। संचार माध्यमों का उपयोग उपभोक्तावादी अभिवृत्तियों के निर्माण के लिए किया जा सकता है और इनका उपयोग सामाजिक समरसता को बढ़ावा देने के लिए एवं सकारात्मक अभिवृत्तियों को उत्पन्न करने के लिए भी किया जा सकता है। 
  7. रूविकृतियाँ/दकियानूसी (Stereotypes ): रूढिकृतियों से तात्पर्य किसी वर्ग या समुदाय के लोगों के बारे में स्थापित सामान्य प्रत्याशाओं (expectation) तथा सामान्यीकरण से होता है। जैसे हमारे समाज में महिलाओं के प्रति रूविकृति है कि वे पुरुषों की अपेक्षा अधिक धार्मिक एवं परामर्शग्राही (Suggestible) होती है। फलस्वरूप, महिलाओं के प्रति एक विशेष प्रकार की अभिवृत्ति सामान्य लोगों में पायी जाती है। उसी तरह से हिन्दू समाज में एक महत्त्वपूर्ण रूढ़िकृति है कि गाय उनकी माता है परन्तु मुस्लिम समुदाय में उस प्रकार की रूहिकृति नहीं पायी जाती। परिणामस्वरूप गाय के प्रति हिन्दू समुदाय की अभिवृत्ति मुस्लिम समुदाय की तुलना में अधिक अनुकूल होती है।
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