प्रश्न.1. आलोक मानता है कि किसी देश को कारगर सरकार की जरूरत होती है जो जनता की भलाई करे। अतः यदि हम सीधे-सीधे अपना प्रधानमंत्री और मंत्रिगण चुन लें और शासन का काम उन पर छोड़ दें, तो हमें विधायिका की जरूरत नहीं पड़ेगी। क्या आप इससे सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण बताएँ।
आधुनिक व कल्याणकारी राज्यों में विधायिका के गठन के बिना जनता द्वारा प्रधानमंत्री व मंत्रिमण्डल का चुनाव असम्भव है। जहाँ अध्यक्षात्मक कार्यपालिका है वहाँ भी राज्यों के आकार बड़े होने के कारण यह सम्भव नहीं हो पा रहा है कि मंत्रियों और राष्ट्रपति का चुनाव सीधे जनता द्वारा किया जाए। प्राचीनकाल में राजतन्त्र में भी राजा को विभिन्न विषयों पर परामर्श प्रदान करने के लिए ‘सभा’ या ‘समिति’ होती थी। अतः यह आवश्यक है कि राज्य में एक सभा हो जिसमें विभिन्न विषयों पर चर्चा हो, बहस हो व मतदान हो और निर्णय लिए जा सकें। इस सभा को ही सरकार के गठन का अधिकार सौंपा जाए, जिससे सँरकार, इस सभा के माध्यम से जनता के प्रति उत्तरदायी हो। संसदीय प्रणाली में तो यह अत्यन्त आवश्यक है। संसद विभिन्न तरीकों से कार्यपालिका पर नियन्त्रण करती है।
लोककल्याण के उद्देश्य को प्राप्त करने में संसद बाधा नहीं है। लोककल्याणकारी लोकतन्त्रात्मक सरकार एक ऐसी सरकार है जिसमें चर्चा, वाद-विवाद, विचार-विमर्श अत्यन्त आवश्यक हैं जो केवल संसद में ही सम्भव है। संसद में ही कानून बनाने के लिए चर्चा होती है, उसके सभी पहलुओं का अध्ययन किया जाता है, बजट पास किया जाता है, मंत्रियों और सरकार के सदस्यों से प्रश्न पूछे जाते हैं और आलोचना की जाती है, संविधान में संशोधन किए जाते हैं। स्पष्ट है कि देश के लिए कारगर सरकार की जरूरत संसद ही पूरा कर सकती है।
प्रश्न.2. किसी कक्षा में द्वि-सदनीय प्रणाली के गुणों पर बहस चल रही थी। चर्चा में निम्नलिखित बातें उभरकर सामने आईं। इन तर्को को पढ़िए और इनसे अपनी सहमति-असहमति के कारण बताइए-
(क) नेहा ने कहा कि द्वि-सदनीय प्रणाली से कोई उद्देश्य नहीं सधता।
(ख) शमा का तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए।
(ग) त्रिदेव ने कहा कि यदि कोई देश संघीय नहीं है, तो फिर दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती।
नेहा द्वारा कहे गए कथन से सहमत नहीं हुआ जा सकता। जहाँ द्वि-सदनीय प्रणाली है वहाँ दूसरा सदन कमजोर नहीं होता। कहीं उसकी शक्तियाँ कम हो सकती हैं पर वह निरर्थक नहीं हो सकता। भारत की राज्यसभा कुछ क्षेत्रों में विशेष शक्तियाँ रखती है। ब्रिटेन को लॉर्ड सदने गरिमा व परम्परा का प्रतीक है। अमेरिका के सीनेट अनेक क्षेत्रों में निचले सदन अर्थात् प्रतिनिधि सदन में भी अधिक शक्तिशाली है।
सामान्य रूप से उच्च सदन के निम्नलिखित लाभ हैं:
- उच्च सदन निम्न सदन की मनमानी पर नियन्त्रण रखता है।
- निम्न सदन द्वारा पारित बिलों को उच्च सदन पुनः विचार-विमर्श का अवसर प्रदान करता है।
- जनमत-निर्माण में सहायक होता है।
- संघीय प्रणाली में द्वितीय सदन आवश्यक है।
- विशिष्ट वर्गों का प्रतिनिधित्व करता है।
शमा का यह तर्क था कि राज्यसभा में विशेषज्ञों का मनोनयन होना चाहिए, उचित है। अधिकांश देशों में उच्च सदन में योग्य एवं अनुभवी व्यक्तियों को प्रतिनिधित्व दिया जाता है। ब्रिटेन के लॉर्ड सदन में विशिष्ट वर्ग व पृष्ठभूमि के सदस्यों को प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाता है। इसी प्रकार भारत व अमेरिका में भी अनुभवी, योग्य और विशेष योग्यता वाले सदस्यों को इन सदनों में प्रतिनिधित्व दिया जाता है। त्रिदेव का यह तर्क भी सही है कि जिन राज्यों में संघीय प्रणाली नहीं है वहाँ दूसरे सदन की जरूरत नहीं रह जाती, परन्तु यदि दूसरा सदन होता तो उसकी कुछ उपयोगिता अवश्य होती।
प्रश्न.3. लोकसभा कार्यपालिका को राज्यसभा की तुलना में क्यों कारगर ढंग से नियन्त्रण में रख सकती है?
भारत में कार्यपालिका अपने कार्यों तथा शासन के प्रयोग के लिए संसद के प्रति उत्तरदायी है, परन्तु यह उत्तरदायित्व वास्तव में लोकसभा के प्रति है जो उस पर राज्यसभा के मुकाबले अधिक प्रभावकारी नियन्त्रण रखती है।
इसके कारण निम्नलिखित हैं:
- प्रधानमंत्री और अधिकतर मंत्री लोकसभा में बहुमत प्राप्त दल से लिए जाते हैं, राज्यसभा में बहुमत प्राप्त दल से नहीं और वे लोकसभा के प्रति ही वास्तविक रूप से उत्तरदायी होते हैं।
- धन विधेयक तथा बजट को पारित करने की शक्ति लोकसभा को प्राप्त है। लोकसभा का धन पर नियन्त्रण होने से कार्यपालिका पर भी नियन्त्रण स्थापित हो जाता है।
- धन विधेयक और बजट; मंत्री ही प्रस्तुत करते हैं और यदि लोकसभा उसे रद्द कर दे या उसमें कमी कर दे तो मंत्रिमण्डल को त्यागपत्र देना पड़ता है।
- मंत्रिमण्डल उस समय तक ही अपने पद पर रहता है जब तक उसे लोकसभा में बहुमत का विश्वास प्राप्त है। केवल लोकसभा मंत्रिमण्डल को अविश्वास प्रस्ताव पास करके अपदस्थ कर सकती है, राज्यसभा नहीं।
प्रश्न.4. लोकसभा कार्यपालिका पर कारगर ढंग से नियन्त्रण रखने की नहीं बल्कि जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है। क्या आप इससे सहमत हैं? कारण बताएँ।
लोकसभा जनभावनाओं और जनता की अपेक्षाओं की अभिव्यक्ति का मंच है, यह कथन उचित है। लोकसभा 543 प्रतिनिधियों को सदन है, ये सदस्य 100 करोड़ से अधिक भारतीय जनता की इच्छाओं, हितों, भावनाओं व अपेक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं परन्तु इस कार्य को करने के लिए लोकसभा के सदस्यों का सरकार पर नियन्त्रण करना भी अत्यन्त आवश्यक है। सरकार की मनमानी पर नियन्त्रण रखना, जनता के हितों, इच्छाओं व आवश्यकताओं को सरकार तक पहुँचाना भी लोककल्याण की दृष्टि से आवश्यक है। अन्ततः संसद का कार्य जनता के हितों की रक्षा करना ही है।
प्रश्न.5. नीचे संसद को ज्यादा कारगर बनाने के कुछ प्रस्ताव लिखे जा रहे हैं। इनमें से प्रत्येक के साथ अपनी सहमति या असहमति का उल्लेख करें। यह भी बताएँ कि इन सुझावों को मानने के क्या प्रभाव होंगे?
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दण्डित कर सकें।
(क) संसद को अपेक्षाकृत ज्यादा समय तक काम करना चाहिए-हम इससे पूर्ण सहमत हैं। जब भी सदन की बैठक 4 घण्टे से कम चले तो सदस्यों को उस दिन का भत्ता न दिया जाए। सांसद को बिना काम-काज के भत्ता दिया जाना उचित नहीं है, यह आम-आदमी की जेब पर डाका है। यदि संसद अपेक्षाकृत अधिक समय तक काम करेगी तो देश के विकास कार्य नियत समय पर पूर्ण हो सकेंगे।
(ख) संसद के सदस्यों की सदन में मौजूदगी अनिवार्य कर दी जानी चाहिए-हम इससे पूर्ण सहमत हैं। अधिकांश सांसद सदन से अनुपस्थित रहते हैं जिससे सदन में महत्त्वपूर्ण विषयों पर आवश्यक विचार-विमर्श नहीं हो पाता। इसलिए ऐसा नियम बनाया जाए कि संसद के सदस्य सदन में अनिवार्य रूप से उपस्थित हों।
(ग) अध्यक्ष को यह अधिकार होना चाहिए कि सदन की कार्यवाही में बाधा पैदा करने पर सदस्य को दण्डित कर सके-हमें इससे पूर्ण सहमत हैं। ऐसा होने पर सदन में जो सदस्य उद्दण्डता का व्यवहार करते हैं उन पर अंकुश लगेगा और सदन की कार्यवाही निर्बाध रूप से चलती रहेगी।
प्रश्न.6. आरिफ यह जानना चाहता था कि अगर मंत्री ही अधिकांश महत्त्वपूर्ण विधेयक प्रस्तुत करते हैं और बहुसंख्यक दल अकसर सरकारी विधेयक को पारित कर देता है, तो फिर कानून बनाने की प्रक्रिया में संसद की भूमिका क्या है? आप आरिफ को क्या उत्तर देंगे?
आरिफ का मानना सही है कि संसदीय प्रणाली में अधिकांश बिल सरकारी बिल होते हैं, जिन्हें मंत्री ही तैयार करते हैं व मंत्री ही उसे प्रस्तुत करते हैं। इस स्थिति में व्यावहारिक रूप से यह स्थिति दिखाई देती है कि संसद तो केवल उस बिल पर स्टैम्प लगाने वाली संस्था बन गई है जिन्हें मंत्री प्रस्तुत करते हैं। आरिफ के इस विचार में कुछ सच्चाई अवश्य है परन्तु इसका एक पक्ष यह भी है कि सरकार बनने के बाद सदन कार्यपालिका व विधायिका में बँट जाता है।
विधायिका के सदस्यों का यह दायित्व होता है कि वे सदन में जनहित का दृष्टिगत रखकर सरकार के निर्णयों का समर्थन करें अथवा विरोध करें, भले ही वे किसी भी दल के हों। कार्यपालिका पूरे सदन के लिए जिम्मेदार होती है। सत्ता दल के सदस्य या विरोधी दल के सदस्य सभी विधानपालिका के सदस्य होते हैं। कार्यपालिका में मंत्री व प्रधानमंत्री सम्मिलित होते हैं; अत: संसद केवल एक रबड़ स्टैम्प ही नहीं है। शासक दल के सदस्य सरकार की प्रत्येक सही व गलत बात का समर्थन करेंगे ऐसा नहीं है, क्योंकि उनकी भी संसद सदस्यों के रूप में अपनी विशिष्ट भूमिका है।
प्रश्न.7. आप निम्नलिखित में से किस कथन से सबसे ज्यादा सहमत हैं? अपने उत्तर का कारण
(क) सांसद/विधायकों को अपनी पसन्द की पार्टी में शामिल होने की छुट होनी चाहिए।
(ख) दल-बदल विरोधी कानून के कारण पार्टी के नेता का दबदबा पार्टी क सांसद/विधायकों पर बढ़ा है।
(ग) दल-बदल हमेशा स्वार्थ के लिए होता है और इस कारण जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री-पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।
हम कथन (ग) से पूर्ण सहमत हैं। दल-बदल अधिकांशतः सभी राजनीतिक दलों द्वारा किया गया स्वार्थाधारित कार्य है। ऐसे बहुत कम उदाहरण हैं जहाँ सिद्धान्तों के मतभेद के कारण दल-बदल हुआ हो। भारत में दल-बदल को नियन्त्रित करने के लिए कई प्रयास किए गए। दल-बदल निरोधक कानून’ इस दिशा में एक प्रभावकारी कदम था परन्तु इससे भी दल-बदल घाटा नहीं बल्कि इससे और अधिक बढ़ा। अतः यह सुझाव उचित है कि दल-बदल को रोकने के लिए कोई कठोर दण्ड अवश्य निर्धारित किया जाना चाहिए। दण्ड का यह सुझाव भी उचित है कि जो विधायक/सांसद दूसरे दल में शामिल होना चाहता है उसे आगामी दो वर्षों के लिए मंत्री पद के अयोग्य करार कर दिया जाना चाहिए।
प्रश्न.8. डॉली और सुधा में इस बात पर चर्चा चल रही है कि मौजूदा वक्त में संसद कितनी कारगर और प्रभावकारी है। डॉली का मानना था कि भारतीय संसद के कामकाज में गिरावट आयी है। यह गिरावट एकदम साफ दिखती है क्योंकि अब बहस-मुबाहिसे पर समय कम खर्च होता है और सदन की कार्यवाही में बाधा उत्पन्न करने अथवा वॉकआउट (बहिर्गमन) करने में ज्यादा। सुधा का तर्क था कि लोकसभा में अलग-अलग सरकारों ने मुँह की खायी हैं, धराशायी हुई है। आप सुधा या डॉली के तर्क के पक्ष या विपक्ष में और कौन-सा तर्क देंगे?
डॉली का तर्क उचित है कि सदन का बहुमूल्य समय व्यर्थ की बहस व गतिविधियों में नष्ट हो जाता है तथा उपयोगी कार्य कम हो पाते हैं। संसद के वातावरण व कार्यविधि में गिरावट आई है जिससे संसद की गरिमा को भी धक्का लगा है। आए दिन संसद में गैर-संसदीय भाषा का प्रयोग होता रहता है। और शोर-शराबे में किसी की नहीं सुनी जाती। सदन के अध्यक्ष प्रायः असहाय से दिखाई देते हैं। बहुत छोटी-छोटी बातों पर सदन का बहिष्कार किया जाता है। सदन का माहौल गर्म हो जाता है। कई बार आपस में गुत्थम-गुत्था भी हो जाती है। इस सब के होते संसद के प्रभाव व गरिमा में गिरावट आई है। यह एक गम्भीर विषय है।
सुधा का कथन भी सही है कि बार-बार सरकारें गिरती रहती हैं अर्थात् जिस सरकार का संसद में बहुमत समाप्त हो जाता है वह सरकार गिर जाती है परन्तु यह संसदीय लोकतन्त्र के लिए अच्छा लक्षण नहीं है। यह भी संसद की गिरती गरिमा का परिचायक है।
प्रश्न.9. किसी विधेयक को कानून बनने के क्रम में जिन अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है उन्हें क्रमवार सजाएँ।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है- बताएँ कि वह अगर इस पर हस्ताक्षर नहीं करता/करती है, तो क्या होता है?
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिसे सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है- समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है। और चर्चा के लिए सदन में भेज देती है।
(छ) सम्बद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि मन्त्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।
(छ) सम्बद्ध मंत्री विधेयक की जरूरत के बारे में प्रस्ताव करता है।
(ज) विधि मंत्रालय का कानून-विभाग विधेयक तैयार करता है।
(क) किसी विधेयक पर चर्चा के लिए प्रस्ताव पारित किया जाता है।
(च) विधेयक उप-समिति के पास भेजा जाता है- समिति उसमें कुछ फेर-बदल करती है और चर्चा ” के लिए सदन में भेज देती है।
(ङ) विधेयक की हर धारा को पढ़ा जाता है और प्रत्येक धारा पर मतदान होता है।
(घ) विधेयक का प्रस्ताव जिस सदन में हुआ है उसमें यह विधेयक पारित होता है।
(ग) विधेयक दूसरे सदन में भेजा जाता है और वहाँ इसे पारित कर दिया जाता है।
(ख) विधेयक भारत के राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है, अगर राष्ट्रपति इस पर हस्ताक्षर कर देता है। तो यह कानून बन जाता है। राष्ट्रपति इस प्रकार के बिल को पुनः विचार-विमर्श के लिए भेज सकता है, परन्तु पुनः विचार-विमर्श के बाद राष्ट्रपति को बिल पर स्वीकृति देनी पड़ती है।
प्रश्न.10. संसदीय समिति की व्यवस्था से संसद के विधायी कामों के मूल्यांकन और देखरेख पर क्या प्रभाव पड़ता है?
कानून-निर्माण संसद का काम है और प्रत्येक सदन अपनी समितियों की सहायता से उसे निभाता है। प्रायः बिलों को विस्तृत विचार के लिए किसी समिति को सौंपा जाता है और सदन उस समिति की सिफारिशों के आधार पर उस पर विचार करके उसे पास या अस्वीकृत करता है। अधिकतर मामलों में सदन समिति की सिफारिशों के आधार पर ही उसका निर्णय करता है और इसी आधार पर लोगों का मत है कि इससे संसद की कानून बनाने की शक्ति कुप्रभावित हुई है।
परन्तु वास्तविकता यह नहीं है। संसद के पास इतना समय नहीं होता कि वह प्रत्येक बिल पर, उसकी प्रत्येक धारा पर विचार कर सके और उस पर प्रत्येक दृष्टिकोण से विश्लेषण कर सके। अत: बिल की विस्तृत समीक्षा समिति अवस्था में ही हो जाती है जो सदन को उस पर विस्तार से विचार करने और निर्णय करने में सहायक होती है। यह आवश्यक नहीं है कि संसद प्रत्येक बिल पर समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करे। सदन में समिति की रिपोर्ट पर विचार करते समय यदि सदन अनुभव करे कि बिल पर भली-भाँति विचार नहीं हुआ है या उस पर पक्षपातपूर्ण रिपोर्ट दी गई है तो वह उसे उसी समिति या किसी नई समिति को भेज सकता है, समिति की रिपोर्ट को स्वीकार न करके अपना स्वतन्त्र निर्णय भी ले सकता है।
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