UPSC Exam  >  UPSC Notes  >  Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly  >  Essays (निबंध): February 2023 UPSC Current Affairs

Essays (निबंध): February 2023 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

कृषि ऋण माफी

"ज़मीन जल चुकी है,आसमान बाकी है,

सूखे कुएँ तुम्हारा इम्तहान बाकी है,
बादलों बरस जाना समय पर इस बार, 
किसी की ज़मीन गिरवी, 
तो किसी का लगान बाकी है।" 

उपरोक्त पंक्तियाँ उस बेबस अन्नदाता की बेबसी को उजागर कर रही है जो संपूर्ण विश्व का पेट पालता है और मानव जीवन को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है किंतु स्वयं कभी मौसम की मार के चलते तो कभी वित्त के अभाव में ऋण के बोझ तले दबकर मर  जाता है। चिलचिलाती धूप और कड़कड़ाती ठंड की परवाह किये बिना किसान दिन-रात मिट्टी से सोना उगाने में लगा रहता है किंतु इस सोने को कभी किसी मंडी का बिचौलिया तो कभी कोई अनुबंधकर्त्ता लूटता है और अंततः राजनीतिक पार्टियाँ कृषि ऋण माफी जैसे हथियारों से इन्हें अपने वोट बैंक का हिस्सा बनती हैं।

कृषि ऋण माफी पहली नज़र में तो कृषकों की हितैषी प्रतीत होती है किंतु यह किसी भिखारी को दी गई उस भीख के समान है जो कुछ समय का सुकून तो दे सकती है किंतु थोड़े वक्त बाद उसे लाचार होकर लोगों के सामने हाथ फैलाना ही पड़ता है। आम चुनावों के आते ही कृषि ऋण माफी सुर्खियों में आ जाती है। राजनेता इसकी आड़ में अपनी रोटी सेकते हैं और ऋण माफी का झुनझुना कृषकों के हाथ में पकड़ाकर अपने पक्ष में वोट वसूलते हैं। 

माननीय वी. पी. सिंह के काल से शुरू हुई यह कर्ज माफी की व्यवस्था आज कृषकों और स्वयं भारत के लिये एक नासूर बन चुकी है। चूँकि कृषि मूलतः राज्य का विषय है और राज्यों के पास पहले से ही वित्त का अभाव है, परिणामस्वरूप ऋण माफी राज्यों की अर्थव्यवस्था को तहस-नहस कर देती है। ऋण माफी राज्यों के अतिरिक्त संपूर्ण देश की अर्थव्यवस्था को भी अंदर से खोखला करती है। कृषि ऋण माफी में लगने वाले इस पैसे से अनेक कल्याणकारी योजनाएं पूर्ण नहीं हो पाती; रचना संबंधी व्यय में कमी आती है; देश का राजकोषीय घाटा बढ़ता है; एनपीए में डूबे हुए बैंकों की हालत और खराब हो जाती है जिससे बैंक नए उद्यमियों को ऋण नहीं दे पाते और उत्पादन गतिविधियों में कमी के फलस्वरुप संपूर्ण देश की आर्थिक गति मंद पड़ जाती हैl

आर्थिक मंदी के दूरगामी परिणामों से विश्व स्तर में भी भारत की अर्थव्यवस्था के प्रति अविश्वास उत्पन्न होता है और विदेशी निवेश में कमी आती है जो कि हमारी अर्थव्यवस्था में गरीबी में आटा गीला होने जैसी परिस्थिति होती है। विभिन्न क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों द्वारा भी भारत को खराब क्रेडिट रेटिंग दी जाती है। इस प्रकार कृषि ऋण माफी अर्थव्यवस्था के लिये अत्यंत हानिकारक है।

बहरहाल कृषि ऋण माफी के कुछ सकारात्मक परिणाम भी प्राप्त होते हैं जैसे- कुछ कृषक कर्ज से मुक्ति पाकर उपज में वृद्धि द्वारा एक मज़बूत आर्थिक स्थिति प्राप्त करते हैं। कृषक इस ऋण माफी से बचे हुए पैसे का उपयोग कर कृषि हेतु नई तकनीक खरीद सकते हैं, उच्च गुणवत्ता वाले महँगे अनाज, उर्वरक, कीटनाशक आदि की सक्षमता द्वारा पैदावार में वृद्धि कर स्वयं की स्थिति मज़बूत कर देश में खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित कर सकते हैं। किंतु यह लाभ मुख्यतः बड़े कृषकों तक ही सीमित रह जाता है। 

प्रायः यह देखा गया है कि किसानों की कर्ज माफी कृषकों को कर्ज के दुष्चक्र में ही फँसाने का कार्य करती है। सरकार द्वारा एक बार कर्ज माफी से किसान चंद पलों के लिये राहत की साँस तो ले लेगा किंतु जब उसकी फसल पर मौसम की मार पड़ेगी (बाढ़, सूखा, तुषार अथवा ओलावृष्टि) और उसकी फसल बर्बाद होगी तो वह पाई-पाई के लिये मोहताज हो जाएगा और कर्ज के लिये दोबारा अपनी झोली फैलाएगा।

भारत की 42% भूमि पर कृषि कार्य किया जाता है जो कि विश्व में अमेरिका के पश्चात् द्वितीय स्थान पर है किंतु फिर भी हमारे देश के अन्नदाता की स्थिति अत्यंत दयनीय बनी हुई है। आए दिन समाचार पत्रों में कृषकों की आत्महत्या की खबरें इस भयावह स्थिति का बखान करती है। इस समस्या के मूल में जाकर देखें तो इसके कई कारण नज़र आते हैं। 

सर्वप्रथम हमारे देश के कृषकों में तकनीकी जागरूकता का अभाव है तथा वे आज भी परंपरागत तरीके से खेती करते हैं जिससे उन्हें पर्याप्त लाभ की प्राप्ति नहीं होती है। इसके अतिरिक्त वे कीटनाशकों और उर्वरकों का अतिशय प्रयोग भी करते हैं जिससे आर्थिक लागत बढ़ने के साथ-साथ पर्यावरण को भी अत्यंत नुकसान होता है। अज्ञानता के चलते कृषक मृदा की गुणवत्ता के अनुसार फसलों की पैदावार नहीं करते जिससे उत्पादकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता है, उदाहरण के लिये पंजाब, हरियाणा आदि राज्यों में पानी की कमी के बावजूद भी चावल की खेती की गई और इसके लिये सिंचाई हेतु नहरों और भूमिगत जल  का अथाह प्रयोग किया गया, जिससे वहाँ की मृदा में लवणता बढ़ गई है तथा अनुपजाऊ कल्लर या रेह भूमि का विकास हो गया है। 

कृषकों के अतिरिक्त सरकार भी इस स्थिति के लिए समान रूप से ज़िम्मेदार है। देश में कृषि से संबंधित अवसंरचना का अभाव है। हंगर इंडेक्स में दोयम स्थिति रखने वाले इस भारत में ना जाने कितना अनाज, भंडार गृहों के अभाव में बाहर पड़े-पड़े सड़ जाता है। परिवहन के साधनों में कमी के चलते किसान अपने खेतों से मंडी तक समय पर उत्पाद नहीं पहुँचा पाते जिससे उन्हें उचित कीमत नहीं प्राप्त होती है।

इसके अतिरिक्त जब फसल की बंपर पैदावार होती है तो उस स्थिति में मूल्य इतना गिर जाता है कि किसान की फसल की लागत तक नहीं मिल पाती। किसानों द्वारा सड़कों पर दूध की नदियाँ बहाने की घटनाएँ, मंडियों में प्याज, टमाटर आदि फेंकने की घटनाएँ हमारे देश में बड़ी आम हो गई हैं। बेचारा कृषक अधिक पैदावार पर रोए या हंसे उसे समझ नहीं आता; कैसी विडंबना है ये? 

क्या सर्दी क्या गर्मी,
क्या दिन क्या रात, 
मेहनत से जिसने दिया संपूर्ण सभ्यता को आधार,
वही अन्नदाता विवश है मरने को लेकर उधार।

कृषि आज लगातार घाटे का सौदा बन रही है इसलिये युवा वर्ग भी कृषि कार्यों के प्रति उदासीन हो गए हैं। देश की लगभग आधी आबादी अपनी आजीविका के लिये कृषि पर निर्भर है किंतु कृषि क्षेत्र का योगदान GDP में महज 14 प्रतिशत है। देश की आधी आबादी के लिये यह रोजी-रोटी का जरिया है, अतः इसमें सुधार अपेक्षित है और ऋण माफी के धन का प्रयोग कर यह सुधार किया जा सकता है।   
कृषि क्षेत्र में असीम संभावनाएँ  छुपी हुई हैं  इसके लिये सरकार के सहयोग की आवश्यकता है। सरकार के द्वारा किसान क्रेडिट कार्ड, सॉइल हेल्थ कार्ड, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना, संपदा योजना चलाई जा रही हैं किंतु इनका क्रियान्वयन ठीक से ना हो पाने के कारण इनसे प्राप्त लाभ नगण्य हैं। विभिन्न अध्ययन यह बताते हैं कि न्यूनतम समर्थन मूल्य का लाभ केवल 6% किसान ही उठा पाते हैं।

ऋण माफी के दुष्चक्र से कृषकों को बाहर निकालने हेतु अनुबंध कृषि को बढ़ावा दिया जा सकता है, जिसमें कृषकों की आय निश्चित हो जाएगी। इसके अतिरिक्त खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों और मेगा फूड पार्कों द्वारा हम बंपर पैदावार वाली फसलों का समुचित दोहन कर पाएँगे। वहीं ई-नाम जैसे ऑनलाइन प्लेटफॉर्म के द्वारा कृषकों को बिचौलियों से बचाकर उन्हें फसलों का उचित मूल्य प्रदान कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त शून्य बजट कृषि, जैविक कृषि, मिश्रित कृषि आदि के द्वारा उत्पादकता में वृद्धि की जा सकती है। किसानों को नई तकनीकों हेतु प्रशिक्षित करने के लिए इस ऋण माफी के रुपए का प्रयोग किया जा सकता है। 

वर्ष 2022 तक कृषकों की आमदानी को दोगुनी करने के लक्ष्य की प्राप्ति हेतु छोटे व सीमांत किसानों को अन्य वैकल्पिक रोज़गार भी उपलब्ध कराने की आवश्यकता है; जैसे- पशुपालन, मुर्गी पालन, मधुमक्खी पालन आदि। इसके अतिरिक्त उन्हें कुसुम जैसी योजनाओं से जोड़कर बिजली के खर्च को कम करने हेतु प्रोत्साहित किया जा सकता है।

वस्तुतः लाल बहादुर शास्त्री जी ने नारा दिया था “जय जवान जय किसान” जिसका अर्थ था कि जिस प्रकार जवान सीमा पर गोलियाँ खाकर देश की रक्षा करता है उसी प्रकार एक किसान सर्दी व गर्मी की मार सहकर देश के अंदर देशवासियों की रक्षा करता है। अतः इस अन्नदाता को न तो वोट बैंक बनाने की ज़रूरत है और ना ही ऋण माफी का झुनझुना पकड़ाने की। यदि उसके लिये कुछ करना है तो उसमें इतनी क्षमता का विकास करने की आवश्यकता है कि वह न तो किसी ऋण के बोझ के तले दबे और न ही ऋण माफी के लालच में देश के प्रतिनिधियों का  चयन करे। 

कितनी भी विकट हो परिस्थिति,
उम्मीद वो बांधे रहता है।
भटके न वो राह कभी,
लक्ष्य को साधे रखता है। 
फिर भी ऐसी हुई है हालत,
आज हो रहा है कर्जदार।
कैसा मचा ये हाहाकार,
अन्नदाता की सुनो पुकार।”

लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता


सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने एक कार्यशाला में कहा था कि कार्यपालिका, न्यायपलिका और नौकरशाही की आलोचना को देशद्रोह नहीं कहा जा सकता है।
प्रत्येक भारतीय को नागरिक के रूप में सरकार की आलोचना करने का अधिकार है और इस प्रकार की आलोचना को राजद्रोह के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। आलोचना को राजद्रोह के रूप में परिभाषित करने की स्थिति में भारत का लोकतंत्र एक पुलिस राज्य के रूप में परिणत हो जाएगा। लगभग 21 महीने के राष्ट्रीय आपात के बाद जेल से स्वतंत्र हुए स्व. पं. अटल विहारी बाजपेयी के निम्नलिखित कथन से परिलक्षित होता है कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की महत्ता कितनी अधिक है-
‘‘बाद मुद्दत के मिले हैं दीवाने,
कहने-सुनने को बहुत हैं अफसाने,
खुली हवा में ज़रा साँस तो ले लें,
कब तक रहेगी आज़ादी कौन जाने?’’
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो, यह हमेशा से विवाद का विषय रहा है। हाल ही में पैगंबर मोहम्मद के एक कार्टून को लेकर फ्राँस में विवाद छिड़ा हुआ था एवं पाकिस्तान समेत कई मुस्लिम देशों ने इस पर विरोध जताया। कार्टून बनाने को लेकर फ्राँस में कुछ हमले भी हुए हैं। नोस के चर्च में हुए हमले में तीन लोगों की जान चली गई और इस पर फ्राँस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा कि कार्टून से तकलीफ हो सकती है परंतु हिंसा स्वीकार्य नहीं है। इस हमले को लेकर मशहूर शायर मुनव्वर राणा ने अपना समर्थन जाहिर किया था जिसे लेकर सोशल मीडिया पर उनकी आलोचना हो रही थी। जावेद अख्तर की कुछ पंक्तियों द्वारा उन्हें सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया भी मिली थी-
‘‘नर्म अल्फाज़ भली बातें मोहज़्ज़ब लहजे,
पहली बारिश ही में ये रंग उतर जाते हैं...’’
देखा जाए तो कई बार आतंकवादियों के लिये भी स्वतंत्रता की अभिव्यक्ति और मानवाधिकार की बात की जाती है लेकिन स्वतंत्रता एवं स्वच्छंदता में फर्क होता है। मानवाधिकार एवं अभिव्यक्ति की आज़ादी भारत के संविधान द्वारा संरक्षित है, पर संविधान की रक्षा कौन करता है? जो संविधान की रक्षा करता है उसके मानवाधिकारों की रक्षा की बात क्यों नहीं की जाती? उसकी अभिव्यक्ति की आज़ादी का क्या? आतंकवादियों के मरने पर अगर उनके घर जाकर अफसोस जताया जाता है, तो क्या शहीदों के घर जाने की ज़रूरत नहीं है? क्या उस सिपाही का मानवाधिकार नहीं होता, जिसके ऊपर पाकिस्तान से पैसा लेकर कश्मीरी युवक पत्थर फेंकते हैं।
इसलिये मानवाधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की राष्ट्रहित में मर्यादा निश्चित की जानी आवश्यक है। विश्व के अधिकांश देशों द्वारा अपने नागरिकों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की गई है, परंतु ऐसे भी बहुत से देश हैं, जिन्होंने इससे दूरी बना कर रखी है। इस संबंध में अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात की जाए तो यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न सिर्फ अधिकार है बल्कि भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता भी रही है, जिसे भारत के धार्मिक ग्रंथों, साहित्य, उपन्यासों आदि में स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
अभिव्यक्ति के स्वरूपों की बात की जाए तो इसमें किताब, चित्रकला, नृत्य, नाटक, फिल्म निर्माण तथा वर्तमान में सोशल मीडिया को सम्मिलित किया जाता है। इसी प्रकार स्वतंत्र अभिव्यक्ति की भारतीय परंपरा को किसी भी प्रकार से हानि पहुँचने से बचाने हेतु भारतीय संविधान निर्माताओं द्वारा इसे कानूनी वैधता प्रदान करते हुए मूल अधिकारों का हिस्सा बनाया गया तथा अनुच्छेद 19(1)(क) के तहत वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सभी प्रकार की स्वतंत्रताओं में प्रथम स्थान प्रदान किया गया।
किंतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार निरपेक्ष नहीं है, इस पर युक्तियुक्त निर्बंधन हैं। भारत की एकता, अखंडता एवं संप्रभुता पर खतरे की स्थिति में, वैदेशिक संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव की स्थिति, न्यायालय की अवमानना की स्थिति में इस अधिकार को बाधित किया जा सकता है। भारत के सभी नागरिकों को विचार करने, भाषण देने और अपने व अन्य व्यक्तियों के विचारों के प्रचार की स्वतंत्रता प्राप्त है। प्रेस एवं पत्रकारिता भी विचारों के प्रचार का एक साधन ही है इसलिये अनुच्छेद 19 में प्रेस की स्वतंत्रता भी सम्मिलित है।
सुप्रीम कोर्ट ने विचार और अभिव्यक्ति के मूल अधिकार को ‘लोकतंत्र के राज़ीनामे का मेहराब’ कहा, क्योंकि लोकतंत्र की नींव ही असहमति के साहस और सहमति के विवेक पर निर्भर है। लोकतंत्र एक आधुनिक उदारवादी विचारधारा है, जिसके मूल आदर्शों के रूप में व्यक्ति की गरिमा का सम्मान, स्वतंत्रता, समानता, न्याय तथा शासन व्यवस्था आम जनता की सहमति पर आधारित हो, को शामिल किया जाता है। अत: आम जनता की सहमति का अर्थ है संवाद, चर्चा एवं परिचर्चा को महत्व प्रदान करना, सहमतियों के साथ असहमतियों को सम्मानपूर्वक स्वीकार करना एवं संवाद के माध्यम से असहमतियों में सहमति को स्थापित करना।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कारण भारत की लोकतांत्रिक शासन प्रणाली के अंतर्गत शासन की शक्तियों का आज तक शांतिपूर्ण हस्तांतरण होता आया है। जिसने भारत को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश बनाया एवं इसे स्थायित्व प्रदान किया।
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, यहाँ एक स्वतंत्र प्रदेश की स्थापना से ही संभव हो पाई है। इसके माध्यम से भारत के दूरदराज़ के क्षेत्रों में लोगों को लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्राप्त अपने अधिकारों के प्रति जागरूक भी किया गया है। यह जनमत की इच्छाओं तथा अपेक्षाओं के साथ शिकायतों को सरकार तक पहुँचाने का माध्यम भी बनी है। इसकी वज़ह से भारत सरकार अधिक जन-उन्मुखी होकर कार्य करने में सफल रही है तथा कल्याणकारी राज्य की स्थापना संभव हो पाई है। इसने लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था के प्रति लोगों का विश्वास बढ़ाया है। यही कारण है कि वर्तमान में भारतीय राजव्यवस्था पंचायती राज संस्थाओं के रूप में सहभागी एवं सक्रिय लोकतंत्र की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रही है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी अधिकारों की जननी मानी जाती है। यह सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक मुद्दों पर जनमत तैयार करती है। मेनका गांधी बनाम भारत संघ मामले में न्यायमूर्ति ने वाक स्वतंत्रता पर बल प्रदान करते हुए कहा कि लोकतंत्र मुख्य रूप से बातचीत एवं बहस पर आधारित है तथा लोकतांत्रिक व्यवस्था वाले देश में सरकार की कार्यवाही के उपचार हेतु यही एक उचित व्यवस्था है।
अगर लोकतंत्र का मतलब लोगों का, लोगों द्वारा शासन है तो स्पष्ट है कि हर नागरिक को लोकतांत्रिक प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार है और अपनी इच्छा से चुनने के बौद्धिक अधिकार के लिये सार्वजनिक मुद्दों पर स्वतंत्र विचार, चर्चा और बहस ज़रूरी है। इससे न सिर्फ लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान की गई है बल्कि तार्किक चयन की स्वतंत्रता प्रदान कर बाज़ार-आधारित अर्थव्यवस्था के विकास, समाज में संवाद अंतराल और सामाजिक तनाव को कम किया है। संवाद के माध्यम से अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों एवं रूढ़ियों पर भी प्रहार किया गया है तथा मानव की तार्किक क्षमता, साहस तथा नवाचारी प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया गया है, जिसके कारण भारत का आधुनिकीकरण संभव हो पाया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ने शासन-प्रशासन के विरुद्ध पनप रहे जनता के गुस्से से सरकार को अवगत करवाया है, जिससे अराजकता रुकती है एवं लोकतंत्र मज़बूत होता है।
हालाँकि किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता बिना निर्बंधन के अपने व्यापक रूप में नकारात्मक प्रभाव प्रदर्शित करती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जब अपनी सीमा का उल्लंघन करती है तो सामाजिक अराजकता का कारण बनती है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता लोकतांत्रिक व्यवस्था के संचालन का मूल आधार है, परंतु समाज को अराजकता से बचाने के उद्देश्य से इस पर सीमित मात्रा में तार्किक प्रतिबंध आरोपित किये गए हैं, जहाँ प्रक्रिया एवं विषय-वस्तु दोनों का तार्किक होना अनिवार्य है। 

संविधान द्वारा इस पर लोक व्यवस्था, राष्ट्र की सुरक्षा, विदेशी राज्यों के साथ मित्रतापूर्ण संबंध, अपराध को बढ़ावा देना, सदाचार, नैतिकता, न्यायालय की अवमानना तथा मानहानि के आधार पर प्रतिबंधों को आरोपित किया गया है।

हाल ही में ‘रिपब्लिक टीवी’ के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी को 2018 में एक इंटीरियर डिज़ाइनर को कथित रूप से आत्महत्या के लिये उकसाने के मामले में मुंबई के रायगढ़ ज़िला पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया जिसे ‘लोकतंत्र को कुचलने’ और ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को रौंदने वाला कदम’ बताया गया है। भारतीय इतिहास में आपातकाल के दौरान सरकार द्वारा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सीमित करने का प्रयास किया गया था, परंतु वर्तमान समय में कुछ लोगों द्वारा स्वयं के हित के लिये अपनी संस्कृति की रक्षा के नाम पर फिल्मों, उपन्यासों का विरोध करने से भी अभिव्यक्ति का अधिकार सीमित होता है। वहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दुरुपयोग लोगों द्वारा स्वयं को लाइम-लाइट में लाने एवं अपने राजनीतिक प्रभाव को बढ़ाने हेतु करना भी आम हो गया है।

इसके अलावा आतंकी समूहों द्वारा सोशल मीडिया का प्रयोग भर्तियों एवं आतंकी गतिविधियों के संचालन हेतु करना ऐसी समस्याएँ हैं जिन्होंने न सिर्फ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को चुनौती दी है बल्कि सरकार द्वारा इससे निपटना अत्यंत कठिन बना दिया है। वर्तमान युग में फेसबुक, व्हाट्सएप, सोशल मीडिया ने अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को व्यापक रूप प्रदान किया है, जहाँ हर मुद्दे पर लोगों द्वारा खुलकर अपनी राय रखी जाती है, फिर चाहे मामला सरकार विरोधी हो या समलैंगिक संबंधों के मामले में समाज तथा रूढ़िवाद विरोधी, जिसके कारण आज आए-दिन किसी-न-किसी लेखक, पत्रकार, ब्लॉगर की हत्या का मामला सामने आ रहां है, जिसने न सिर्फ अभिव्यक्ति के अधिकार को सीमित करने का प्रयास किया है बल्कि ऐसे प्रयासों को रोकने में सरकार की चुनौतियाँ भी बढ़ाई हैं। गौरी लंकेश जो कि भारतीय पत्रकार एवं बंगलूरू समर्थित एक एक्टिविस्ट थी, की 2017 में हिंदू अतिवाद की आलोचना के कारण हत्या कर दी गई थी।

लोकतंत्र एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इनमें से किसी पर भी आँच आने पर दूसरा स्वत: ही विलुप्ति की कगार पर पहुँच जाता है, जो जनमत पर तानाशाही की स्थापना को बढ़ावा देता है। पत्रकारिता के संबंध में अधिकार एवं उत्तरदायित्व में संतुलन करना आवश्यक है। इसी प्रकार घृणा-संवाद एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मध्य अंतर को समझना भी बहुत ज़रूरी है। मज़बूत लोकतंत्र हेतु अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ उसकी सीमा का तय होना भी आवश्यक है। इन दोनों में पूरकता के संबंध को स्वीकार करते हुए बढ़ावा देने की आवश्यकता है, ताकि राष्ट्र लगातार प्रगति के रास्ते पर अग्रसर हो सके, समाज समावेशी बने एवं विश्व में भारतीय संविधान जो कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रा हेतु प्रसिद्ध है, की गरिमा बरकरार रहे।

The document Essays (निबंध): February 2023 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly is a part of the UPSC Course Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly.
All you need of UPSC at this link: UPSC
2222 docs|810 tests

Top Courses for UPSC

2222 docs|810 tests
Download as PDF
Explore Courses for UPSC exam

Top Courses for UPSC

Signup for Free!
Signup to see your scores go up within 7 days! Learn & Practice with 1000+ FREE Notes, Videos & Tests.
10M+ students study on EduRev
Related Searches

MCQs

,

Previous Year Questions with Solutions

,

Essays (निबंध): February 2023 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily

,

Extra Questions

,

Exam

,

Weekly & Monthly

,

shortcuts and tricks

,

past year papers

,

Free

,

Viva Questions

,

Essays (निबंध): February 2023 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily

,

study material

,

mock tests for examination

,

Summary

,

Weekly & Monthly

,

practice quizzes

,

pdf

,

video lectures

,

Weekly & Monthly

,

Objective type Questions

,

Sample Paper

,

ppt

,

Essays (निबंध): February 2023 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily

,

Important questions

,

Semester Notes

;