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Environment and Ecology (पर्यावरण और पारिस्थितिकी): March 2023 UPSC Current Affairs | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

मन्नार की खाड़ी में कोरल ब्रीच

चर्चा में क्यों?

हाल ही में मन्नार की खाड़ी समुद्री राष्ट्रीय उद्यान का निर्माण करने वाले 21 निर्जन द्वीपों में से एक कुरुसादाई (तमिलनाडु) के पास मृत प्रवाल भित्तियाँ देखी गई हैं।

  • इस क्षति के पीछे प्राथमिक कारण कप्पाफाइकस अल्वारेज़ी है, सीवीड प्रजाति (समुद्री शैवाल) को व्यावसायिक कृषि हेतु लगभग दो दशक पहले पेश किया गया था। 

सीवीड

  • परिचय: 
    • सीवीड समुद्री शैवाल और पौधों की कई प्रजातियों को दिया गया नाम है जो नदियों, समुद्रों एवं महासागरों जैसे जल निकायों में उगते हैं।
    • वे आकार में भिन्न होते हैं जो सूक्ष्म से लेकर बड़े जंगलों के रूप में जल के नीचे हो सकते हैं।
    • सीवीड दुनिया भर में तटों पर पाया जाता है, लेकिन एशियाई देशों में यह अधिक उगता है। 
  • महत्त्व:  
    • सीवीड के कई लाभ हैं, जिसमें औषधीय प्रयोजनों हेतु पोषण का स्रोत, एंटी-इंफ्लेमेटरी और एंटी-माइक्रोबियल एजेंट शामिल हैं।
    • यह विनिर्माण में उपयोग के माध्यम से आर्थिक विकास, अतिरिक्त पोषक तत्त्वों का अवशोषण और पारिस्थितिक तंत्र को संतुलित कर जैव संकेतक के रूप में कार्य करता है।
    • यह अतिरिक्त लौह एवं  भारी धातुओं को अवशोषित और अन्य समुद्री जीवों को ऑक्सीजन तथा पोषक तत्त्वों की आपूर्ति करता है। 
  • भारत में सीवीड उत्पादन: 
    • भारत ने वर्ष 2021 में लगभग 34,000 टन सीवीड की खेती की और केंद्र ने वर्ष 2025 तक सीवीड का उत्पादन बढ़ाकर 11.85 मिलियन टन करने हेतु 600 करोड़ रुपए आवंटित किये।
    • वर्तमान में तमिलनाडु के रामनाथपुरम के 18 गाँवों में लगभग 750 किसान सीवीड मुख्य रूप से कप्पाफाइकस की खेती में लगे हुए हैं, साथ ही तमिलनाडु के प्रस्तावित सीवीड पार्क में भी इसकी खेती किये जाने की संभावना है।
    • राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान और कंपनियाँ कप्पाफाइकस की खेती में वृद्धि हेतु कार्यरत हैं ताकि लाभ एवं आजीविका में सुधार हो सके, इसके अलावा भारत के कप्पा-कैरेजीनन के आयात को कम किया जा सके।
  • कप्पाफाइकस अल्वारेज़ी समुद्री शैवाल प्रजातियों का प्रभाव:  
    • कप्पाफाइकस अल्वारेज़ी समुद्री शैवाल प्रजातियाँ तमिलनाडु में मन्नार की खाड़ी समुद्री राष्ट्रीय उद्यान के 21 द्वीपों में से छह द्वीपों में विस्तारित हैं और इसने कुरुसादाई के पास पाए जाने वाले प्रवाल भित्तियों को काफी क्षति पहुँचाई है।
    • इसने हवाई में नारियल द्वीप, वेनेज़ुएला में क्यूबागुआ द्वीप, तंजानिया में ज़ांज़ीबार और पनामा तथा कोस्टा रिका में अल्मीरांटे एवं क्रिस्टोबल को भी काफी नुकसान पहुँचाया है।
    • अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ ने कप्पाफाइकस अल्वारेज़ी को विश्व की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों में से एक के रूप में सूचीबद्ध किया है।

IPCC AR6 सिंथेसिस रिपोर्ट

चर्चा में क्यों?

छठी आकलन रिपोर्ट (Sixth Assessment Report- AR6) के तहत जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल (Intergovernmental Panel on Climate Change- IPCC) की चौथी और अंतिम रिपोर्ट के अनुसार, कई क्षेत्रों और स्थानों में पर्यावरण को पर्याप्त रूप से समायोजित करने में विफलता के अधिक प्रमाण मिले हैं।

  • सिंथेसिस रिपोर्ट तीन कार्य समूहों और तीन विशेष रिपोर्टों के योगदान के आधार पर AR6 चक्र के प्रमुख निष्कर्षों का संश्लेषण करती है।

प्रमुख बिंदु 

  • अभूतपूर्व ग्लोबल वार्मिंग: 
    • मानव गतिविधियों के कारण ग्लोबल वार्मिंग में 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि ने जलवायु परिवर्तन को प्रेरित किया है जो हाल के मानव इतिहास में अभूतपूर्व है।
    • पहले से ही वैश्विक तापमान में 1.1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ जलवायु प्रणाली में परिवर्तन जो सदियों से सहस्राब्दियों तक अद्वितीय रहे हैं, के कारण अब दुनिया के प्रत्येक क्षेत्र में समुद्र के बढ़ते स्तर से लेकर अधिक चरम मौसम की घटनाओं एवं तेज़ी से समुद्री बर्फ पिघलने की घटनाएँ देखी जा रही हैं।
  • अधिक व्यापक जलवायु प्रभाव:
    • लोगों और पारिस्थितिक तंत्रों पर जलवायु के प्रभाव अनुमानित स्तर से अधिक व्यापक और गंभीर हैं, भविष्य के खतरे वार्मिंग की हर मामूली तीव्रता अथवा स्तर के साथ तेज़ी से बढ़ेंगे।
  • अनुकूलन के उपाय: 
    • अनुकूलन रणनीतियों के माध्यम से सुनम्यता को काफी हद तक बढ़ाया जा सकता है, परंतु इसके लिये अधिक धन की आवश्यकता होती है।
    • कम-से-कम 170 देशों में जलवायु नीतियाँ अब अनुकूलन को प्राथमिक उपाय मानती हैं, लेकिन कई देशों में योजना से लेकर क्रियान्वयन तक इन प्रयासों को किये जाने की आवश्यकता है। सुनम्यता बढ़ाने के अधिकांश उपाय अभी भी छोटे पैमाने के तथा प्रतिक्रियाशील और वृद्धिशील हैं, जो मुख्य रूप से अल्पकालिक प्रभावों अथवा खतरों पर केंद्रित होते हैं।
    • अनुकूलन के लिये वर्तमान वैश्विक धन प्रवाह, विशेष रूप से विकासशील देशों में अनुकूलन समाधानों के कार्यान्वयन के लिये अपर्याप्त हैं।
  • वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस पार कर सकता है: 
    • अध्ययन किये गए परिदृश्यों को देखते हुए इस बात की 50% से अधिक संभावना है कि वर्ष 2021 और 2040 के बीच वैश्विक तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाएगी या उससे अधिक भी हो सकती है। वर्तमान उच्च-उत्सर्जन स्तर को देखते हुए यह वर्ष 2037 तक ही इस सीमा तक पहुँच सकती है।
  • दर अनुकूलन: 
    • भारत में दर अनुकूलन के ऐसे कई उदाहरण हैं, जिसके परिणामस्वरूप कमज़ोर समुदाय जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति अनुकूलन करने में सक्षम होने के बजाय अधिक असहाय हो जाते हैं।
    • दर अनुकूलन को प्राकृतिक या मानव प्रणालियों में परिवर्तन के रूप में परिभाषित किया गया है जो अनजाने में जलवायु उत्तेजनाओं के प्रति भेद्यता को बढ़ाता है।
    • यह एक अनुकूलन उपाय है जो भेद्यता को कम करने में सफल नहीं होता है बल्कि इसके बजाय इसे बढ़ाता है।  
    • ओडिशा देश के सबसे सक्रिय तटों में से एक है, जहाँ समुद्र का जल स्तर देश के बाकी हिस्सों के औसत से अधिक दर से बढ़ रहा है। यह भारत में सबसे अधिक चक्रवात-प्रवण राज्य भी है।

सिफारिशें:

  • विश्व को जल्द-से-जल्द जीवाश्म ईंधन के प्रयोग को सीमित करना होगा क्योंकि जीवाश्म ईंधन जलवायु संकट का प्रमुख कारण है।
  • मौजूदा जीवाश्म ईंधन के बुनियादी ढाँचे को समाप्त करने, नई परियोजनाओं को रद्द करने, कार्बन कैप्चर और स्टोरेज (CCS) प्रौद्योगिकियों के साथ जीवाश्म ईंधन वाले विद्युत संयंत्रों को पुनः संयोजित करने तथा  सौर एवं पवन जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों को बढ़ाने जैसी रणनीतियों का एक संयोजन, कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने में मदद कर सकता है।
  • शुद्ध-शून्य, जलवायु-परिवर्तन संबंधी भविष्य को सुरक्षित करने के लिये तत्काल प्रणालीगत परिवर्तनों की आवश्यकता है।
  • जबकि जीवाश्म ईंधन ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन का प्रमुख स्रोत है। जलवायु संकट से निपटने के लिये उत्सर्जन में भारी कटौती आवश्यक है। 

अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस

चर्चा में क्यों?  

मानवता और पृथ्वी के अस्तित्त्व हेतु वनों और पेड़ों के महत्त्व के विषय में जागरूकता बढ़ाने के लिये प्रत्येक वर्ष 21 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस मनाया जाता है। इसे विश्व वन दिवस के रूप में भी जाना जाता है। 

  • वर्ष 2023 की थीम 'वन और स्वास्थ्य (Forests and Health)' है।

अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस का इतिहास: 

  • संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन ने वर्ष 1971 में विश्व वानिकी दिवस की स्थापना की थी, जब आधिकारिक तौर पर अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस की शुरुआत हुई थी।
  • मनुष्य और पृथ्वी हेतु वनों के महत्त्व के विषय में जागरूकता बढ़ाने के लिये इस दिवस की स्थापना की गई थी।
  • वर्ष 2011 में संयुक्त राष्ट्र ने वर्ष 2011-2020 को अंतर्राष्ट्रीय वन दशक घोषित किया
  • इसका उद्देश्य सभी प्रकार के वनों के सतत् प्रबंधन, संरक्षण और विकास को बढ़ावा देना था।
  • अंतर्राष्ट्रीय वन दिवस की स्थापना वर्ष 2012 में की गई थी।

भारत में वनों की स्थिति: 

  • इंडिया स्टेट ऑफ फॉरेस्ट रिपोर्ट-2021 के अनुसार, वर्ष 2019 के पिछले आकलन के बाद से देश में वन और वृक्षों के आवरण क्षेत्र में 2,261 वर्ग किलोमीटर की वृद्धि दर्ज की गई है।
  • भारत का कुल वन और वृक्षावरण क्षेत्र 80.9 मिलियन हेक्टेयर था, जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 24.62% था।
  • रिपोर्ट में कहा गया है कि 17 राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का 33% से अधिक क्षेत्र वनों से आच्छादित है।
  • सबसे बड़ा वन आवरण क्षेत्र मध्य प्रदेश में था, इसके बाद अरुणाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और महाराष्ट्र का स्थान था।
  • अपने कुल भौगोलिक क्षेत्र के प्रतिशत के रूप में वन आवरण के मामले में शीर्ष पाँच राज्य मिज़ोरम (84.53%), अरुणाचल प्रदेश (79.33%), मेघालय (76%), मणिपुर (74.34%) एवं नगालैंड (73.90%) हैं

भारत के लिये वनों का महत्त्व:

  • पारिस्थितिक तंत्र सेवाएँ: पृथ्वी पर एक-तिहाई भूमि वनों से आच्छादित है, जो जल विज्ञान चक्र को बनाए रखने, जलवायु को विनियमित करने और जैवविविधता के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • उदाहरण के लिये पश्चिमी घाट के वन दक्षिणी राज्यों के जल चक्र को विनियमित करने और मिट्टी के कटाव से रोकने में मदद करते हैं।
  • जैवविविधता का केंद्र: भारत में पौधों और पशुओं की प्रजातियों की एक विस्तृत विविधता वास करती है, जिनमें से कई केवल देश के वनों में पाए जाते हैं। 
  • उदाहरण के लिये बंगाल की खाड़ी में सुंदरबन में मैंग्रोव वन रॉयल बंगाल टाइगर का निवास स्थल है।
  • गरीबी उन्मूलनः वन गरीबी उन्मूलन के लिये भी महत्त्वपूर्ण हैं। वन 86 मिलियन से अधिक हरित रोज़गार सृजित करते हैं। ग्रह पर हर किसी का वनों से किसी-न-किसी रूप में संपर्क रहा है।
  • जनजातीय समुदाय का आवास: वन आदिवासी समुदाय के आवास भी हैं। वे पारिस्थितिक और आर्थिक रूप से वन पर्यावरण का हिस्सा हैं।
  • उदाहरण के लिये मध्य प्रदेश की गोंड जनजातियाँ।
  • उद्योगों के लिये कच्चा माल: वन कई उद्योगों के लिये कच्चा माल प्रदान करते हैं जैसे- रेशम कीट पालन, खिलौना निर्माण, पत्तियों से प्लेट बनाना, प्लाईवुड, कागज़ और लुगदी आदि।
  • वे दीर्घ एवं लघु वनोत्पाद भी प्रदान करते हैं:
  • दीर्घ उत्पाद जैसे- इमारती लकड़ी, गोल लकड़ी, लुगदी-लकड़ी, लकड़ी का कोयला और जलाऊ लकड़ी
  • लघु उत्पाद जैसे बाँस, मसाले, खाने योग्य फल और सब्जियाँ।

भारत में वनों से जुड़े मुद्दे:

  • जैवविविधता की हानि: वनों की कटाई और अन्य गतिविधियाँ जो वनों के साथ जैवविविधता को भी नुकसान पहुँचाती हैं, इस कारण पौधे और पशु प्रजातियाँ अपने प्राकृतिक आवास में जीवित रहने में असमर्थ होते हैं।
  • यह समग्र रूप से पारिस्थितिकी तंत्र पर और साथ ही इन प्रजातियों पर निर्भर समुदायों की सांस्कृतिक प्रथाओं पर भी प्रघातक्षिप्त प्रभाव डाल सकता है।
  • सिकुड़ता वन आवरण: भारत की राष्ट्रीय वन नीति के अनुसार, पारिस्थितिक स्थिरता बनाए रखने के लिये वन के तहत कुल भौगोलिक क्षेत्र का आदर्श प्रतिशत कम-से-कम 33% होना चाहिये। हालाँकि यह वर्तमान में देश की केवल 24.62% भूमि को शामिल करता है जो तेज़ी से सिकुड़ रहा है।
  • जलवायु परिवर्तन: जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली वन अशांति, जिसमें कीट प्रकोप, जलवायु के कारण होने वाले प्रवासन, वनाग्नि और तूफान आदि शामिल हैं,जो वन उत्पादकता में कमी एवं प्रजातियों के वितरण में बदलाव करती हैं।
  • 2030 तक भारत में 45-64% वन जलवायु परिवर्तन और बढ़ते तापमान के प्रभावों का अनुभव करेंगे। 
  • संसाधन तक पहुँच हेतु संघर्ष: अक्सर स्थानीय समुदायों के हित और व्यावसायिक हितों के बीच संघर्ष होता है, जैसे कि फार्मास्युटिकल उद्योग या लकड़ी उद्योग। 
  • इससे सामाजिक तनाव और यहाँ तक कि हिंसा भी हो सकती है, क्योंकि विभिन्न समूह वन संसाधनों तक पहुँचने और उनका उपयोग करने के लिये संघर्ष करते हैं। 

आगे की राह  

  • व्यापक वन प्रबंधन: वन संरक्षण में वनों की सुरक्षा और स्थायी प्रबंधन के सभी घटक जैसे- वनाग्नि नियंत्रण उपाय, समय पर सर्वेक्षण, आदिवासियों के लिये नीतियाँ, मानव-पशु संघर्ष को कम करना और स्थायी वन्यजीव स्वास्थ्य उपाय शामिल होने चाहिये।
  • समर्पित वन गलियाराः वन्यजीवों के सुरक्षित राज्यान्तरिक और अंतर-प्रादेशिक मार्ग के लिये समर्पित वन गलियारों को बनाए रखा जा सकता है और शांतिपूर्ण-सह-अस्तित्व का संदेश देते हुए किसी भी बाह्य प्रभाव से उनके पर्यावास की रक्षा की जा सकती है।
  • संसाधन मानचित्रण और वन अनुकूलन: गैर-अन्वेषित वन क्षेत्रों में संभावित संसाधन मानचित्रण किया जा सकता है और वन-सघनता एवं वन स्वास्थ्य को बनाए रखते हुए इसे वैज्ञानिक प्रबंधन तथा स्थायी संसाधन निष्कर्षण के तहत लाया जा सकता है।
  • वन उद्यमियों के रूप में जनजातीय समुदायों का समावेशन: वनों के व्यावसायीकरण की संरचना के लिये वन विकास निगमों (FDCS) को पुनर्जीवित करने और वन-आधारित उत्पादों की खोज, निष्कर्षण तथा वृद्धि में "वन उद्यमियों" के रूप में जनजातीय समुदायों को शामिल करने की आवश्यकता है।

स्वच्छ ऊर्जा संक्रमण में कर्नाटक शीर्ष पर

चर्चा में क्यों? 

इंस्टीट्यूट फॉर एनर्जी इकोनॉमिक्स एंड फाइनेंशियल एनालिसिस (IEEFA) और एम्बर की एक रिपोर्ट के अनुसार, स्वच्छ विद्युत संक्रमण के संदर्भ में भारत में कर्नाटक एवं गुजरात अग्रणी राज्य हैं।

  • IEEFA ऊर्जा बाज़ारों, प्रवृत्तियों और विनियमों से संबंधित विषयों का विश्लेषण करता है, जबकि एम्बर एक स्वतंत्र, गैर-लाभकारी समूह है जो जलवायु और ऊर्जा संबंधी चिंताओं पर केंद्रित है।

प्रमुख बिंदु 

  • मूल्यांकन की पद्धति: 
    • 'इंडियन स्टेट्स' एनर्जी ट्रांज़िशन' रिपोर्ट ने 16 राज्यों (भारत में विद्युत उत्पादन का 90% हिस्सा) के लिये एक स्कोरिंग प्रणाली तैयार की है, और उनके प्रदर्शन का मूल्यांकन चार व्यापक मापदंडों पर किया जाता है:
    • डीकार्बोनाइज़ेशन
    • विद्युत प्रणाली का प्रदर्शन
    • विद्युत पारिस्थितिकी तंत्र की तैयारियाँ
    • नीतियाँ और राजनीतिक प्रतिबद्धताएँ
  • मूल्यांकन: 
    • विश्लेषण किये गए 16 राज्यों में से कर्नाटक एकमात्र ऐसा राज्य है जिसने स्वच्छ विद्युत संक्रमण के सभी चार आयामों में अच्छा स्कोर किया है।
    • साथ ही इन राज्यों ने स्मार्ट मीटर स्थापित करने के अपने लक्ष्य का 100% पूरा कर लिया है और फीडर लाइनों को अलग करने के अपने लक्ष्य से 16% अधिक कार्य किया।
    • गुजरात अपने विद्युत क्षेत्र को डीकार्बोनाइज़ करने के मामले में कर्नाटक से थोड़ा पीछे है। हरियाणा और पंजाब ने विद्युत संक्रमण के लिये आशाजनक तैयारी एवं कार्यान्वयन को दर्शाया है।
    • पश्चिम बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्य इस क्षेत्र में काफी पीछे हैं।
    • पश्चिम बंगाल ने सभी मापदंडों में कम स्कोर प्राप्त किया तथा उत्पादकों को इसके बकाया भुगतान में मार्च 2018 से मार्च 2022 तक 500% की वृद्धि हुई है।  
    • राजस्थान और तमिलनाडु को अपनी विद्युत प्रणाली की तैयारी में सुधार करने की आवश्यकता है। 
  • सुझाव:
    • नवीकरणीय ऊर्जा क्षमता और भंडारण को बढ़ावा देने के अलावा यह सुझाव दिया गया है कि राज्य स्वच्छ विद्युत संक्रमण की दिशा में एक बहु-आयामी दृष्टिकोण अपनाएँ, जिसमें मांग पक्ष के प्रयास शामिल हों।
    • वर्चुअल पावर परचेज़ एग्रीमेंट (VPPAs) तथा कॉन्ट्रैक्ट्स फॉर डिफरेंस (CfD) जैसे अभिनव द्विपक्षीय वित्तीय बाज़ार तंत्रों में बाज़ार को खोलने एवं खरीदारों तथा नियामकों को आंतरायिक नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन से निपटने हेतु आवश्यक आश्वासन प्रदान करने की बड़ी क्षमता है।  
    • प्रगति की प्रभावी ढंग से निगरानी करने तथा आवश्यक होने पर कार्यप्रणाली में सुधार के लिये इसने डेटा उपलब्धता एवं पारदर्शिता सुधार का आह्वान किया। 

भारत का स्वच्छ ऊर्जा लक्ष्य:

  • अपने अंतर्राष्ट्रीय दायित्त्वों के हिस्से के रूप में भारत गैर-जीवाश्म ईंधन स्रोतों से विद्युत उत्पादन का लगभग आधा हिस्सा प्राप्त करने तथा वर्ष 2030 तक अपने सकल घरेलू उत्पाद (GDP) की उत्सर्जन तीव्रता को 45% तक कम करने के लिये प्रतिबद्ध है।
  • इसे हासिल करना इस बात पर निर्भर करता है कि राज्य अपने बुनियादी ढाँचे में इस प्रकार परिवर्तन करें कि इसका उपयोग विद्युत आपूर्ति हेतु किया जा सके, ताकि सौर, पवन, जलविद्युत जैसे कई स्रोतों के साथ-साथ मौजूदा जीवाश्म ईंधन स्रोतों से प्राप्त उर्जा को कुशलतापूर्वक समायोजित किया जा सके। 
  • भारत के संशोधित राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (NDC) ने देश में विद्युत क्षेत्र में लक्षित परिवर्तन हेतु सही निर्णय लिये हैं। 

म्याँमार टीक ट्रेड: डाॅजी एंड काॅन्फ्लिक्ट वुड

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय खोजी पत्रकार संघ (International Consortium of Investigative Journalists- ICIJ) द्वारा की गई जाँच से पता चला है कि म्याँमार के "काॅन्फ्लिक्ट वुड/विवादित लकड़ी" का चीन के बाद भारत दूसरा सबसे बड़ा आयातक बन गया है। भारत ने म्याँमार से सागौन के आयात पर प्रतिबंध नहीं लगाया है और वह इसका निर्यात अमेरिका एवं यूरोपीय संघ को करता है।

  • सागौन की यह आपूर्ति न केवल म्याँमार के वन आवरण  कम कर रही है बल्कि म्याँमार के सैन्य शासन को भी जीविका प्रदान करती है। 

म्याँमार से आयातित सागौन/टीक को "विवादित लकड़ी" के रूप में वर्णित करने का कारण 

  • फरवरी 2021 में म्याँमार में सैन्य तख्तापलट के बाद सैन्य जुंटा ने म्याँमार टिम्बर एंटरप्राइज़ेज़ (MTE) पर कब्ज़ा कर लिया, जिसका देश की मूल्यवान लकड़ी और सागौन व्यापार पर विशेष नियंत्रण था। इस "विवादित" लकड़ी की बिक्री सैन्य शासन हेतु आय का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
  • लकड़ी के व्यापार पर पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद अवैध लकड़ी व्यापार के पारगमन (Transit) देश के रूप में इसकी लोकप्रियता बढ़ी है।
  • फाँरेस्ट वॉच के अनुसार, फरवरी 2021 और अप्रैल 2022 के बीच भारतीय कंपनियों ने 10 मिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक के सागौन का आयात किया।
  • भारत विश्व में सागौन का सबसे बड़ा आयातक और संसाधित सागौन की लकड़ी के उत्पादों का सबसे बड़ा निर्यातक है।

म्याँमार के सागौन की विशेषता

  • परिचय: 
    • म्याँमार के पर्णपाती और सदाबहार वनों से प्राप्त सागौन की लकड़ी को इसकी टिकाऊ, जल और दीमक से अप्रभावित रहने की विशेषता के कारण अत्यधिक मूल्यवान माना जाता है। इसे विशेष रूप से लक्जरी नौकाओं के निर्माण, अच्छी गुणवत्ता के फर्नीचर, लकड़ी की सजावटी परतों और जहाज़ के डेक के निर्माण के लिये उपयोग किया जाता है। म्याँमार में सागौन वन आवरण और भंडार में कमी आ रही है, परिणामतः इस लकड़ी के मूल्य में वृद्धि होना स्वाभाविक है।
    • ग्लोबल फाॅरेस्ट वॉच के अनुसार, म्याँमार के वन क्षेत्र में पिछले 20 वर्षों में स्विट्ज़रलैंड के आकार के बराबर क्षेत्र की कमी आई है।

म्याँमार के सागौन की स्थिति

  • सागौन (टेक्टोना ग्रैंडिस) को सागोन, भारतीय ओक और टेका के रूप में भी जाना जाता है। यह वैश्विक वार्षिक लकड़ी की मांग के 1% की पूर्ति करता है।
  • सागौन भारत, म्याँमार, लाओस और थाईलैंड में पाया जाने वाला एक बड़ा पर्णपाती वृक्ष है। सागौन विभिन्न जलवायु परिस्थितियों में विकसित हो सकता है और यह अति शुष्क से लेकर बहुत नम क्षेत्रों में भी पाया जा सकता है। इसके सड़ने-गलने की संभावना काफी कम होती है और इस पर कीटों का प्रभाव भी नहीं देखा जाता है, हवा के संपर्क में आने से इस पेड़ का आतंरिक भाग हरे रंग से सुनहरे भूरे रंग में परिवर्तित हो जाता है।
  • लकड़ी की यह प्रजाति IUCN रेड लिस्ट में लुप्तप्राय के रूप में सूचीबद्ध है, परंतु इसे CITES में सूचीबद्ध नहीं किया गया है।
  • अफ्रीकी सागौन (पेरिकोप्सिस इलाटा), जिसे अफ्रोमोसिया, कोक्रोडुआ और असमेला के नाम से भी जाना जाता है, की छाल भूरे, हरे अथवा पीले-भूरे रंग की होती है। अफ्रीकी सागौन को वर्ष 2004 की IUCN रेड लिस्ट में लुप्तप्राय के रूप में वर्गीकृत किया गया है, और यह CITES के परिशिष्ट II में सूचीबद्ध है।

म्याँमार में सागौन की अवैध कटाई को रोकने हेतु लिये गए निर्णय

  • लकड़ी के व्यापार पर प्रतिबंध:
    • वर्ष 2013 में यूरोपीय संघ ने इस अवैध लकड़ी को अपने बाज़ारों में प्रवेश से रोकने के लिये नियम बनाए (वर्ष 2000-2013 के मध्य म्याँमार से निर्यात की गई लकड़ी का 70% से अधिक का अवैध रूप से कटान)।
    • फरवरी 2021 में सैन्य तख्तापलट के बाद यूरोपीय संघ और अमेरिका ने म्याँमार के साथ सभी प्रकार की लकड़ियों के व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया।
  • प्रतिबंधों का प्रभाव:
    • सागौन का निर्यात म्याँमार से अमेरिका और यूरोपीय संघ के कुछ देशों में जारी है, जबकि इटली, क्रोएशिया और ग्रीस जैसे देशों में आयात बढ़ गया है।  
    • चीन और भारत, ऐतिहासिक रूप से सागौन के सबसे बड़े आयातक हैं। 
    • म्याँमार और भारत में व्यापारियों को दो चुनौतियों का सामना करना पड़ता है: ज़मीनी संघर्ष और म्याँमार के अधिकारियों द्वारा नियमों में लगातार बदलाव।
    • लकड़ी के निर्यात पर प्रतिबंध के बाद एक नए विनियमन ने केवल निर्धारित "आकार" के  सागौन के निर्यात की अनुमति दी।
  • कमियों को दूर किये जाने की आवश्यकता है: 
    • लकड़ी व्यापारियों का कहना है कि प्रतिबंधों के बावजूद खरीदार म्याँमार में सागौन की उत्पत्ति का पता लगाने के लिये इसका  DNA परीक्षण कर सकते हैं। हालाँकि DNA परीक्षण अपेक्षाकृत एक नई अवधारणा है और आमतौर पर भारत में उपयोग नहीं की जाती है।
    • यूरोपीय संघ के देशों के सागौन निर्यात के नियमों में खामियाँ पाई गई हैं, कुछ भारतीय कंपनियों ने लकड़ी की उत्पत्ति को निर्दिष्ट नहीं किया है या पारगमन या परिवहन पास (Transit passes) में अस्पष्ट भाषा का उपयोग किया है। विनियमन में सुधार कर इन खामियों को दूर किया जा सकता है।

सागौन के अवैध व्यापार से निपटने के लिये क्या कदम उठाए जा सकते हैं? 

लकड़ी के अवैध व्यापार से निपटने के लिये विज्ञान का अनुप्रयोग, जैसे:

  • डिजिटल माइक्रोस्कोप: ब्राज़ील में कानून को लागू करने वाले कर्मचारियों को उनके द्वारा रोके गए लकड़ी के परिवहन की मैक्रोस्कोपिक एनाटोमिकल तस्वीरें लेने के लिये प्रशिक्षित किया गया है। 
  • रिपोर्टिंग लॉगिंग: लॉगिंग डिटेक्शन सिस्टम वास्तविक समय में गतिविधि को ट्रैक कर सकता है और डेटा को स्थानीय अधिकारियों या विश्व भर में किसी को भी प्रेषित कर सकता है। 
  • DNA प्रोफाइलिंग: सभी पेड़ों का एक अद्वितीय आनुवशिक फिंगरप्रिंट होता है, जिससे संबंधित लकड़ी के मूल वृक्ष का पता लगाने के लिये DNA प्रोफाइलिंग का उपयोग करने में सहायता मिलती है।  
  • आइसोटोप विश्लेषण: लकड़ी (जलवायु, भूविज्ञान और जीव विज्ञान) की भौगोलिक उत्पत्ति का निर्धारण करना जो कि इस क्षेत्र के लिये असाधारण बनाता है।
  • निकट अवरक्त स्पेक्ट्रोस्कोपी: लकड़ी की पहचान और विशेषताओं की जानकारी पाने के लिये वैज्ञानिक निकट अवरक्त स्पेक्ट्रोस्कोपी के तहत निकट अवरक्त विद्युत चुंबकीय विकिरण का अनुप्रयोग करते हैं। 
  • कुशल और निष्पक्ष सहयोग के माध्यम से राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विनियमन सुनिश्चित करना, जैसे कि इस प्रजाति को CITES की सूची में जोड़ना
  • अन्य कृत्रिम सामग्रियों द्वारा लकड़ी के प्रतिस्थापन के लिये वैज्ञानिक समाधान ढूँढना।
  • बाज़ार में मांग एवं आपूर्ति के अंतर को कम करने और कम लागत के लिये आनुवंशिक रूप से संशोधित सागौन विकसित करना।

पीक प्लास्टिक्स: बेंडिंग द कंज़म्पशन कर्व

चर्चा में क्यों?  

एक नई रिपोर्ट के अनुसार, G20 देशों में प्लास्टिक की खपत वर्ष 2019 के 261 मिलियन टन से बढ़कर वर्ष 2050 तक 451 मिलियन टन यानी लगभग दोगुनी हो जाएगी।

  • "पीक प्लास्टिक्स: बेंडिंग द कंज़म्पशन कर्व" रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र की प्लास्टिक संधि वार्ताकारों द्वारा विचाराधीन नीतियों के संभावित प्रभावों की पड़ताल करती है।

प्रमुख बिंदु

  • इस रिपोर्ट में उत्पादन से लेकर निपटान तक प्लास्टिक के संपूर्ण जीवनचक्र को शामिल करते हुए तीन प्रमुख नीतियों के संभावित प्रभावों की पड़ताल की गई।
  • इन नीतियों में एकल-उपयोग वाले प्लास्टिक पर प्रतिबंध, एक प्रदूषक की पूर्ण समाप्ति की लागत के लिये विस्तारित निर्माता ज़िम्मेदारी योजना और नए प्लास्टिक उत्पादन पर कर का भुगतान करना है
  • इस रिपोर्ट के अनुसार, अधिक महत्त्वाकांक्षी उपायों के साथ-साथ इन नीतियों के कार्यान्वयन, जैसे कि वर्जिन प्लास्टिक के निर्माण को सीमित करने से भविष्य में प्लास्टिक के उपयोग में कमी आएगी।
  • शोधकर्त्ताओं ने पीक प्लास्टिक खपत को उस समय बिंदु और मात्रा के रूप में वर्णित किया जब वैश्विक प्लास्टिक की खपत में वृद्धि होना बंद हो जाता है।
  • यह विश्लेषण G20 के 19 देशों- अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, फ्राँस, जर्मनी, भारत, इंडोनेशिया, इटली, जापान, कोरिया गणराज्य, मेक्सिको, रूस, सऊदी अरब, दक्षिण अफ्रीका, तुर्किये, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका पर आधारित है।
  • रिपोर्ट के अनुसार, विस्तारित उत्पादक ज़िम्मेदारी योजनाओं का सिंगल यूज़ वाले प्लास्टिक उत्पादों की खपत पर बहुत कम प्रभाव पड़ेगा।
  • सबसे प्रभावी नीति अनावश्यक सिंगल यूज़ वाली प्लास्टिक वस्तुओं पर वैश्विक प्रतिबंध होगी। दक्षिण कोरिया वर्ष 2019 में कुछ उत्पादों पर राष्ट्रीय प्रतिबंध लागू करने वाला पहला देश था, बाद में अन्य वस्तुओं को शामिल करने के लिये प्रतिबंध का विस्तार किया गया। भारत, फ्राँस, जर्मनी, इटली, कनाडा और चीन में भी राष्ट्रव्यापी प्रतिबंध लगाए गए हैं।

प्लास्टिक का महत्त्व: 

  • प्लास्टिक प्रतिरोधी, निष्क्रिय और हल्का होने के कारण व्यवसायों, उपभोक्ताओं और समाज को कई प्रकार से लाभ प्रदान करता है। यह सब इसकी कम लागत और बहुमुखी प्रकृति के कारण है।
  • प्लास्टिक का उपयोग चिकित्सा उद्योग में सामग्री को कीटाणुरहित रखने के लिये किया जाता है। सीरिंज और सर्जिकल उपकरण सभी सिंगल यूज़ प्लास्टिक होते हैं।
  • ऑटोमोबाइल उद्योग में प्लास्टिक के उपयोग से वाहन के वज़न में उल्लेखनीय कमी हुई है, जिससे ईंधन की खपत कम होती है और परिणामस्वरूप ऑटोमोबाइल उद्योग से पर्यावरण को कम क्षति हो रही है। 

प्लास्टिक से जुड़े मुद्दे

सिंगल यूज़ प्लास्टिक:

  • प्लास्टिक मुख्य रूप से कच्चे तेल, गैस या कोयले से उत्पादित होता है और कुल प्लास्टिक का 40% को एक बार उपयोग के बाद फेंक दिया जाता है।
  • प्लास्टिक का इस्तेमाल काफी कम समय के लिये होता है। इनमें से कई उत्पाद, जैसे कि प्लास्टिक बैग और खाद्य रैपर का उपयोग तो केवल मिनटों से लेकर घंटों तक ही होता है, फिर भी वे सैकड़ों वर्षों तक पर्यावरण में बने रह सकते हैं। 
  • माइक्रोप्लास्टिक्स: 
  • प्लास्टिक कचरा समुद्र, धूप, हवा और लहरों की क्रिया से छोटे कणों में टूट जाता है, जो अक्सर एक इंच के पाँचवें हिस्से से भी कम होता है, जिसे माइक्रोप्लास्टिक के रूप में जाना जाता है। ये विश्व के हर कोने में पाए जाते हैं और पूरे जल तंत्र में विद्यमान हैं।
  • माइक्रोप्लास्टिक्स और भी छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित हो रहे हैं जिन्हें ‘माइक्रोफाइबर प्लास्टिक’ के नाम से जाना जाता है। ये नगरपालिका द्वारा उपलब्ध कराए गए पेयजल प्रणालियों के साथ-साथ हवाओं में भी पाए गए हैं

अन्य मामले

  • खाद्य शृंखला को असंतुलित करता है: 
    • प्रदूषणकारी प्लास्टिक विश्व के सूक्ष्म जीवों जैसे- प्लैंकटन पर दुष्प्रभाव डालता है। जब प्लास्टिक के अंतर्ग्रहण के कारण ये जीव विषाक्त हो जाते हैं, तो उन स्थूल जीवों के लिये समस्याएँ उत्पन्न होती हैं जो भोजन के लिये इन पर निर्भर होते हैं। 
    • प्लास्टिक की थैलियों और स्ट्रॉ जैसी बड़ी वस्तुओं के कारण समुद्री जीवन अवरुद्ध होने के साथ ही जलीय जीव भूखे मर सकते हैं।
  • मानव स्वास्थ्य पर प्रभाव: 
    • वर्ष 2018 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के चौंकाने वाले शोध के अध्ययन से पता चला कि 90% बोतलबंद पानी में माइक्रोप्लास्टिक मौजूद थे। 
    • हम अपने कपड़ों के माध्यम से प्लास्टिक को अवशोषित करते हैं, जिनमें से 70% सिंथेटिक सामग्री से बने होते हैं और त्वचा के लिये सबसे नुकसानदायक होते हैं
      प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन से संबंधित पहल:
  • भारतीय पहल : 
    • एकल उपयोग प्लास्टिक उन्मूलन एवं प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन हेतु राष्ट्रीय डैशबोर्ड
    • प्लास्टिक अपशिष्ट प्रबंधन संशोधन नियम, 2022
    • प्रोजेक्ट REPLAN
  • वैश्विक: 
    • मई 2019 में बेसल कन्वेंशन की पार्टीज़ के सम्मेलन द्वारा प्लास्टिक वेस्ट पार्टनरशिप की स्थापना व्यापार, सरकार, शैक्षणिक और नागरिक समाज के संसाधनों, हितों एवं विशेषज्ञता को वैश्विक, क्षेत्रीय तथा राष्ट्रीय स्तर पर प्लास्टिक के उत्पादन को रोकने व इसे कम करने हेतु प्लास्टिक कचरे के पर्यावरणीय रूप से बेहतर प्रबंधन (ESM) में सुधार को बढ़ावा देने के लिये की गई थी।

आगे की राह 

 

  • हॉटस्पॉट्स की पहचान: 
    • प्लास्टिक के उत्पादन, खपत और निपटारे से जुड़े प्लास्टिक के प्रमुख हॉटस्पॉट की पहचान करने से सरकारों को प्रभावी नीतियाँ विकसित करने में मदद मिल सकती है जो सीधे प्लास्टिक समस्या के समाधान में भी मदद कर सकती है।
  • प्लास्टिक अपशिष्ट का अपघटन: 
    • प्लास्टिक का हमारे पारिस्थितिकी तंत्र में इस प्रकार समावेश हो गया है कि इसके अपघटन के लिये बैक्टीरिया विकसित हो चुके हैं। 
    • जापान में प्लास्टिक खाने वाले बैक्टीरिया का उत्पादन किया गया और पॉलिएस्टर प्लास्टिक (खाद्य पैकेजिंग तथा प्लास्टिक की बोतलें) का जैव अपघटन कर इसे संशोधित किया गया
  • प्लास्टिक प्रबंधन के संदर्भ में चक्रीय अर्थव्यवस्था: 
    • चक्रीय अर्थव्यवस्था (Circular Economy) में प्लास्टिक सामग्री के उपयोग को कम करने, सामग्री को कम संसाधन गहन बनाने हेतु नया स्वरूप देने तथा नई सामग्रियों एवं उत्पादों के उत्पादन के लिये संसाधन के रूप में "अपशिष्ट" को पुनः प्राप्त करने की क्षमता है। 
    • चक्रीय अर्थव्यवस्था न केवल प्लास्टिक और कपड़ों की वैश्विक उपयोग पर लागू होती है, बल्कि सतत् विकास लक्ष्यों की प्राप्ति में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकती है।
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