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कानून बनाने में राज्यपाल की भूमिका पर सुप्रीम कोर्ट का निर्णय

संदर्भ:

हाल में आए एक अभूतपूर्व निर्णय में, भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) D.Y. चंद्रचूड़ ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 200 की परिवर्तनकारी व्याख्या की है। पंजाब राज्य बनाम पंजाब राज्यपाल के प्रधान सचिव और अन्य के मामले में दिया गया यह ऐतिहासिक निर्णय, राज्य विधानमंडल द्वारा पारित होने के बाद राज्यपाल की सहमति के लिए प्रस्तुत विधेयक पर राज्यपाल की शक्तियों को पुनःपरिभाषित करता है।

  • यह निर्णय, मुख्य रूप से अनुच्छेद 200 के पहले परंतुक की बारीक व्याख्या करता है, जो एक विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधानसभा में वापस भेजने के राज्यपाल के अधिकार से संबंधित है।

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हालिया निर्णय की अंतर्दृष्टिः

अनुच्छेद 200 का पुनर्मूल्यांकनः राज्यपाल की विधेयक को रोकने की शक्ति

  • अनुच्छेद 200 के पहले प्रावधान पर डीडी बसु जैसे विद्वानों का मत स्पष्ट नहीं रहा है। डी.डी.बसु इस बात पर जोर देते हैं कि राज्यपाल द्वारा विधेयक पर स्वीकृति न देने की शक्ति पूर्ण और निर्णायक है। हालांकि, सीजेआई चंद्रचूड़ की व्याख्या ने राज्यपाल द्वारा विधेयक को स्वीकृति प्रदान न करने पर विधेयक को राज्यविधान मंडल को पुनर्विचार के लिए वापस भेजने के दायित्व से जोड़कर इस धारणा को बदल दिया।
  • सीजेआई चंद्रचूड़ द्वारा हालिया दिए गए निर्णय के अनुसार यदि राज्यपाल प्रस्तावित विधेयक पर सहमति नहीं देता है तो विधानसभा विधेयक पर तत्काल पुनर्विचार कर सकती है। इससे राज्यपाल के पास अंततः सहमति देने के अलावा कोई विकल्प नहीं रह जाता है।
  • यह रचनात्मक व्याख्या राज्यपालों द्वारा राजनैतिक कारणों से विधेयक को सहमति न देने संबंधी संभावित दुरुपयोग के खिलाफ संवैधानिक ढांचे को मजबूत करते हुए विधायी विशेषाधिकारों की रक्षा करती है।

विलंब को कम करनाः

  • एक तरफ यह निर्णय राज्यपाल द्वारा ‘स्वीकृति प्रदान न करने’ के संबंध में चिंताओं का समाधान करता है, वहीं दूसरी तरफ यह राज्यपालों द्वारा विधेयकों पर निर्णय लेने में देरी करने के प्रचलित मुद्दे को भी संबोधित करता है।
  • यह सामान्य प्रथा बन गई है कि कुछ राज्यपाल, लंबि अवधि के लिए सहमति रोक रहे हैं, जिससे विधायी प्रक्रिया में काफी बाधा आ रही है। पंजाब के मामले में सर्वोच्च न्यायालय का दृढ़ रुख स्पष्ट रूप से इस बात पर जोर देता है कि राज्यपालों के पास विधेयकों पर निर्णय लेने में देरी करने का विशेषाधिकार नहीं है।
  • यह निर्णय राज्यपालों को विधेयकों पर तेजी से निर्णय लेने और राज्य विधायी तंत्र के प्रभावी कामकाज में योगदान देने का आदेश देता है।

राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयक को आरक्षित करना

  • इस निर्णय का राज्यपाल द्वारा की जाने वाली अनुचित देरी को कम करने के संबंध में सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। लेकिन राज्यपाल, राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयकों को आरक्षित करके राज्य के कानून पर अभी भी प्रभाव डाल सकते है।
  • अनुच्छेद 200 का दूसरा परंतुक कुछ विधेयकों को निर्दिष्ट करता है जिन्हें अनिवार्य रूप से राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया जाना चाहिए। इनमें ऐसे विधेयक शामिल हैं जो उच्च न्यायालय की शक्तियों का अतिक्रमण करते हों और इसकी संवैधानिक रूप से परिभाषित स्थिति को खतरे में डालते हों।
  • हालांकि, राष्ट्रपति को विधेयक भेजने के लिए राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति अस्पष्ट है, जिससे इसके संभावित रूप से दुरुपयोग की संभावना बनी हुई है।

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राज्यपाल, राष्ट्रपति को कौन से विधेयक भेज सकते हैं?

एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या राज्यपाल मनमाने ढंग से राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयकों को सुरक्षित रख सकता है। संविधान के अनुच्छेद 213 और 254 में इस मुद्दे का अप्रत्यक्ष संदर्भ दिया गया है।

  • अनुच्छेद 213 राज्यपाल की अध्यादेश जारी करने की शक्ति से संबंधित है। इसमें निर्दिष्ट किया गया है कि राज्यपाल, उन मामलों में केवल राष्ट्रपति के निर्देशों के बाद अध्यादेश जारी कर सकते हैं, जहां इस तरह के समान प्रावधानों वाले विधेयक को राष्ट्रपति को आरक्षित करना राज्यपाल आवश्यक समझे। यह प्रावधान राज्यपाल के विवेकाधीन निर्णय का संकेत देता है।
  • दूसरी ओर, अनुच्छेद 254, राज्य और केंद्रीय विधानसभाओं के समवर्ती अधिकार क्षेत्र से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि समवर्ती सूची मद पर एक राज्य द्वारा निर्मित कानून राज्य में प्रचलित होगा, भले ही इसमें मौजूदा केंद्रीय कानूनों के साथ विरोधाभासी प्रावधान हों, बशर्ते कि इसे राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया गया हो और उनकी सहमति प्राप्त हो गई हो । हालांकि यह प्रावधान केवल विशिष्ट परिदृश्यों में राष्ट्रपति के विचार की आवश्यकता को रेखांकित करता है, लेकिन यह समवर्ती विषयों पर बनने वाले प्रत्येक विधेयक को राष्ट्रपति को प्रस्तुत करने को अनिवार्य नहीं करता है।
  • संविधान में स्पष्ट प्रावधान न होने के कारण राज्यपाल के राज्य विधान सभा द्वारा निर्मित विधेयक को राष्ट्रपति को भेजने संबंधी विवेकाधिकार के मनमाने प्रयोग की आशंका बनी रहती है। यदि किसी विधेयक में केंद्रीय कानूनों के प्रतिकूल कोई प्रावधान नहीं हैं और इसे राज्यपाल राष्ट्रपति की सहमति के लिए आरक्षित करता है तो यह विधायी विभाजन की संघीय योजना और राज्यपाल के संवैधानिक कर्तव्य का उल्लंघन माना जाएगा ।
  • केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में राज्यपालों की हालिया कार्रवाइयां- राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयकों को आरक्षित करने में राज्यपाल के विवेकाधिकार के दायरे को स्पष्ट करने की तात्कालिकता को रेखांकित करती हैं। केरल में राज्यपाल ने विस्तारित अवधि के लिए विधेयकों को रोके रखा और तमिलनाडु में संवैधानिक भावना के खिलाफ राष्ट्रपति को विधेयक भेजा। यह मामले न्यायपालिका द्वारा सावधानीपूर्वक जांच की आवश्यकता को रेखांकित करते है।
  • यद्यपि संविधान व्यापक मार्गदर्शन प्रदान करता है, लेकिन यह कई पहलुओं को अनछुआ छोड़ देता है। चूंकि कानून की संवैधानिक वैधता संबंधी निर्णय का अधिकार न्यायपालिका के पास होता है और न तो राज्यपाल और न ही राष्ट्रपति के पास ऐसे मामलों पर अधिकार क्षेत्र होता है। संवैधानिक मूल्यों के संरक्षक के रूप में राज्यपालों को अपने विवेकाधिकार का सम्मत ढंग से प्रयोग करना चाहिए और ऐसे कार्यों से बचना चाहिए जो संघीय ढांचे के सारतत्व को नकरात्मक रूप से प्रभावित करते हों ।

वैश्विक व्यवहारः

  • यूनाइटेड किंगडम में, एक विधेयक के कानून बनने के लिए राज्य की सहमति आवश्यक है, लेकिन परंपरा के अनुसार राज्य वीटो की शक्ति का उपयोग नहीं करता है। यहाँ राज्य का सहमति से इनकार करना असंवैधानिक माना जाता है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका में, राष्ट्रपति के पास किसी विधेयक को मंजूरी देने से इनकार करने का अधिकार है। हालाँकि, यदि दोनों सदन, प्रत्येक सदन में दो-तिहाई बहुमत के साथ विधेयक को फिर से पारित करते हैं, तो विधेयक कानून बन जाता है।

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उपसंहारः

अनुच्छेद 200 विधायी स्वायत्तता पर राज्यपाल के अनुचित प्रभाव के खिलाफ एक मजबूत बचाव उपाय के रूप में कार्य करता है। स्वीकृति न देने को अनिवार्य पुनर्विचार के साथ जोड़ने से संवैधानिक ढांचे मजबूत होगा और विधायिका के अधिकारों की रक्षा होगी । हालांकि, राष्ट्रपति के विचार के लिए विधेयकों को आरक्षित करने के लिए विवेकाधीन शक्ति का संबंधी कुछ चिंताएं बनी हुई हैं। ऐसे मामलों पर संवैधानिक प्रावधानों के अभाव के कारण तत्काल न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। जैसे-जैसे न्यायपालिका इन क्षेत्रों पर स्पष्ट निर्णय देगी , वैसे-वैसे कार्यपालिका और विधायी अंगों के मध्य नाजुक संतुलन स्थापित होगा । सीजेआई चंद्रचूड़ का सूक्ष्म दृष्टिकोण लोकतांत्रिक आदर्शों को मजबूत करने के महत्व को रेखांकित करता है, यह सुनिश्चित करता है कि विधि निर्माण की प्रक्रिया को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक सिद्धांत अनुचित बाहरी प्रभावों से अप्रभावित रहें ।

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