आलस्य को मनुष्य के शरीर में स्थित सबसे बड़ा शत्रु माना गया है, जबकि परिश्रम को सफलता और खुशियों की कुंजी बताया गया है। इस तथ्य को प्रस्तुत पाठ में एक प्रेरक कथा के माध्यम से समझाया गया है।
किसी नगर में एक भिखारी रहता था, जो यद्यपि शारीरिक रूप से स्वस्थ और सक्षम था, फिर भी भीख माँगता था। कुछ लोग उसे धन देते, तो कुछ उसे डाँटते थे। एक दिन उसने एक युवक से धन माँगा। युवक ने कहा, “मैं तुम्हें हजारों रुपये दूँगा, यदि तुम मुझे अपने हाथ, पैर और शरीर के अन्य अंग दे दो।” भिखारी ने यह सुनकर इनकार कर दिया। तब युवक ने कहा, “जब तुम्हारे पास इतने मूल्यवान अंग हैं, तो क्यों स्वयं को कमजोर मानते हुए भीख माँगते हो?”
इस बात ने भिखारी को झकझोर दिया। उस दिन से उसने भिक्षाटन छोड़कर परिश्रम के माध्यम से धन कमाकर अपना जीवनयापन शुरू किया। यह सिद्ध है कि परिश्रम करने वाला व्यक्ति कभी दुखी नहीं रहता। वास्तव में, परिश्रम से बढ़कर कोई मित्र नहीं हो सकता।
(क)
शब्दार्था:
सरलार्थ: माता! आज तो छुट्टी का दिन है। आज मैं सारे दिन आराम करूँगा।
छुट्टी विद्यालय की है ना कि अपने अध्ययन की। बहुत आलस करते हो। उठो, मेहनत करो।
(ख)
शब्दार्था:
सरलार्थ: मैं पास होऊँगा। अधिक मेहनत से क्या ?
जो परिश्रम करता है, वह ही जीवन में सफलता प्राप्त करता है। परिश्रम ही मनुष्य का मित्र है। आलस्य तो दुश्मन के समान है।
वह कैसे माता ?
यदि जानना चाहते हो तो इस कथा को सुनो।
(ग)एकस्मिन् विशाले ग्रामे कश्चन भिक्षुकः आसीत् । यद्यपि सः उन्नतः दृढकाय: च युवकः आसीत् तथापि सः भिक्षाटनं करोति स्म । मार्गे यः कोऽपि मिलति तं सः कथयति – “कृपया भिक्षां यच्छतु । दरिद्राय दानं करोतु । पुण्यं प्राप्नोतु । ” इति । केचन जनाः तस्मै धनं यच्छन्ति । केचन च तर्जयन्ति ।
शब्दार्था:
सरलार्थ:
एक विशाल गाँव में कोई भिखारी था । जबकि वह ऊँचा और दृढ़ शरीर वाला युवक था तो भी वह भीख के लिए घूमता था । (भिक्षाटन करता था ।) रास्ते में जो कोई भी मिलता, वह उससे कहता- “कृपया भीख दे दो। गरीब को दान करो। पुण्य प्राप्त करो। ” कुछ लोग उसको धन देते हैं और कुछ डाँट देते हैं।
(घ)
एकदा तेन मार्गेण कश्चित् धनिकः आगच्छति । सः भिक्षुकः मनसि एव चिन्तयति – ” अहो मम भाग्यम् । अद्य अहं प्रभूतं धनं प्राप्नोमि ” इति ।
भिक्षुकः धनिकं वदति “आर्य! अहम् अतीव दरिद्रः अस्मि । कृपया दानं करोतु ” इति ।
धनिकः तं पृष्टवान् -” त्वं किम् इच्छसि ?”
‘आर्य! अहं प्रभूतं धनम् इच्छामि ”
इति सः सविनयम् उक्तवान्।
शब्दार्था:
सरलार्थ: एक बार उस मार्ग से कोई धनी व्यक्ति आता है। वह भिखारी मन में ही सोचता है, “ आह, मेरा भाग्य | आज मैं बहुत अधिक धन प्राप्त करता हूँ। ” भिखारी धनी को बोलता है – ” आर्य! मैं बहुत अधिक गरीब हूँ। कृपया दान करो। ”
धनी ने उससे पूछा – ” तुम क्या चाहते हो?” “आर्य! मैं बहुत धन चाहता हूँ।” उसने विनम्रता से कहा।
(ङ)
तदा धनिकः वदति – ” अहं तुभ्यं सहस्रं रूप्यकाणि’ यच्छामि । त्वं मह्यं तव पादौ यच्छ । ”
भिक्षुकः वदति – “अहं मम पादौ तुभ्यं कथं ददामि ? विना पादौ कथं वा चलामि?”
धनिकः वदति – ” अस्तु त्वं पञ्चसहस्त्रं रूप्यकाणि स्वीकुरु मह्यं तव हस्तौ यच्छ । ”
भिक्षुकः वदति – ” हस्ताभ्यां विना अहं कथं भिक्षां स्वीकरोमि?” एवमेव धनिकः सहस्राधिकैः रूप्यकैः तस्य अनेकानि शरीराङ्गानि क्रेतुम् इष्टवान् । किन्तु भिक्षुकः निराकृतवान् ।
शब्दार्था:
सरलार्थ: तब धनी कहता है- “मैं तुम्हें हजार रुपये देता हूँ। तुम मुझे अपने दोनों पैर दे दो। ”
भिखारी बोलता है – ” मैं मेरे दोनों पैर तुम्हें क्यूँ दूँ? बिना पैरों के कैसे चलता हूँ?” धनी कहता है ” ठीक है, तुम पाँच हजार रुपये स्वीकार करो। मुझे तुम अपने दोनों हाथ दे दो। ”
भिखारी बोलता है, “ हाथों के बिना मैं कैसे भिक्षा स्वीकार करता हूँ?”
इसी प्रकार धनी हजार से अधिक रुपयों से उसके अनेक शरीर के अङ्ग खरीदना चाहता है। किंतु भिखारी = स्वीकार नहीं करता ।
(च)
तदा धनिकः उक्तवान् । ” पश्य मित्र ! तव समीपे एव सहस्राधिकमूल्यकानि वस्तूनि सन्ति । तथापि किमर्थं त्वम् आत्मानं दुर्बलं मन्यसे ? सौभाग्येन एव वयं मानवजन्म प्राप्तवन्तः। अस्य सफलतार्थं प्रयत्नं कुरु । इतः गच्छ, शुभं भवतु ” इति।
शब्दार्था:
सरलार्थ: तब धनी बोला । “देखो मित्र! तुम्हारे पास में ही हजार से अधिक मूल्य वाली वस्तुएँ हैं।” तो भी किसलिए तुम अपने आपको कमजोर मानते हो? सौभाग्य से ही हमें मानव ज्ञन्म प्राप्त हुआ है। इसकी सफलता के लिए कोशिश करो। यहाँ से जाओ, कल्याण हो। ”
(छ)
तस्माद् दिनात् भिक्षुकः भिक्षाटनं त्यक्त्वा परिश्रमेण धनार्जनं कृत्वा सगौरवं जीवनयापनम् आरब्धवान् अतः एव सज्जनाः वदन्ति ।
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ॥
अन्वयः हि मनुष्याणां शरीरस्थो आलस्यं महान् रिपुः । उद्यमः समः बन्धुः न अस्ति यं कृत्वा न अवसीदति।
शब्दार्था:
सरलार्थ: उस दिन से भिखारी ने भीख माँगना छोड़कर कमाई करके परिश्रम से, गौरव से जीवनयापन शुरू किया। इसलिए ही सज्जन कहते हैं। निश्चय ही मनुष्यों के शरीर में स्थित आलस्य महान् शत्रु है। परिश्रम समान बन्धु नहीं, जिसको करके दुःखी नहीं होता ।
(ज)
आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बन्धुः कृत्वा यं नावसीदति ।।
पदच्छेदः आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थः महान् रिपुः, न अस्ति उद्यमसमः बन्धुः कृत्वा यं न अवसीदति ।
अन्वयः आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थः महान् रिपुः (अस्ति ) । उद्यमसमः बन्धुः नास्ति यं कृत्वा न अवसीदति ।
भावार्थ: आलस्यं मनुष्याणां शरीरे स्थितः महान् शत्रुः अस्ति । यतो हि आलस्यस्य कारणात् कार्यं न सिध्यति । एवमेव परिश्रमेण समानः बन्धुः अपि नास्ति यतो हि परिश्रमं कृत्वा कोऽपि दुःखं न आप्नोति।