आर्थिक कार्यकलाप और राजनीतिक संगठन
आर्थिक कार्यकलाप
(1) पशुपालन और कृषिः लोगों के भौतिक जीवन में पशुचारण का विशेष महत्व था। पशुओं का महत्व इसी से स्पष्ट हो जाता है कि गविष्टि अर्थात् ‘गायों की गवेषणा’ ही युद्ध का पर्याय माना जाता था। इसी प्रकार गवेषण, गोषु, गव्य, गम्य आदि सभी शब्द युद्ध के लिए प्रयुक्त होते थे। पशुओं के लिए युद्ध करना कबायली संगठनों के संदर्भ में काफी तर्कसंगत लगता है। पशु ही सम्पत्ति का मुख्य अंग और मूलतः दक्षिणा की वस्तु समझे जाते थे। बार-बार मंत्रों में देवताओं की स्तुति करते हुए पशु-संपदा पाने की इच्छा व्यक्त की गई है। गायों के अतिरिक्त बकरियां, भेड़ एवं घोड़े भी पाले जाते थे। पशुचारण सामूहिक रूप से किया जाता था और ऋग्वेद के मूल भाग में भी ऐसे उल्लेख हैं।
पशुपालन की तुलना में कृषि का धंधा नगण्य-सा था। वास्तव में ऋग्वेद के 10,462 श्लोकों में से केवल 24 में ही कृषि का उल्लेख है। इनमें से भी अधिकांश उल्लेख क्षेपक माने जाते हैं। संहिता के मूल भाग में कृषि के महत्व के केवल तीन ही शब्द प्राप्य हैं - उर्वर, धान्य एवं वपन्ति। कृष अर्थात् खेती करना शब्द भी इन मूल खंडों में अत्यंत दुर्लभ है। इसी प्रकार सिंचाई से संबंधित सभी उल्लेख भी परवर्ती काल के मंडलों में ही मिलते हैं। ऋग्वेद में एक ही अनाज अर्थात् यव का उल्लेख है। अतः ऋग्वेद काल की अर्थव्यवस्था के कम-से-कम प्रारम्भिक चरणों में कृषि का गौण स्थान ही था।
(2) व्यापार और उद्योगः इस युग में व्यापार मुख्यतः पणि लोगों के हाथ में था। आंतरिक और वैदेशिक दोनों प्रकार के व्यापार का उल्लेख मिलता है। आंतरिक व्यापार के लिए बहुधा जानवरों और गाड़ियों का उपयोग होता था। संभवतः समुद्री यात्रा भी की जाती थी। व्यापार वस्तु-विनिमय द्वारा होता था और मूल्य की प्रामाणिक इकाई गाय थी। गाय का आर्यों के जीवन में बड़ा महत्व था। मनुष्य के जीवन को सौ गायों के तुल्य समझा जाता था। यदि कोई मनुष्य दूसरे की हत्या कर डालता तो उसे दंड के रूप में मृतक के परिवार को सौ गायें देनी पड़तीं। परन्तु स्वर्ण मुद्रा (निष्क) के प्रचलित होने का भी प्रमाण मिलता है। एक स्थान पर ‘हिरण्यपिण्ड’ का भी उल्लेख है। यह सम्भवतः सोने का ठोस पिंड था।
तांबे अथवा कांसे के लिए अयस शब्द का प्रयोग होता था, जिससे पता चलता है कि उन्हें धातुकर्म की जानकारी थी। कुछ शिल्पकर्मियों का उल्लेख भी मिलता है, जैसे बढ़ई, रथकार, लोहार आदि। दस्तकारी, चमड़ा रंगने व ऊनी कपड़ा बुनने के शिल्प की भी जानकारी मिलती है। रथकार का समाज में बहुत सम्मान था। हल्का, दो पहियों का रथ ऊँची हस्ती का सूचक बन गया था और बाद के युगों में राजाओं को रथ दौड़ाते या हाथी की सवारी करते दिखाया गया है।
धर्म
¯ इस तरह ऋग्वैदिक धर्म के मुख्यतः निम्नलिखित तीन बिन्दु थे-
(a) प्राकृतिक शक्तियों की देवताओं के रूप में उपासना,
(b) ऋग्वेद के सूक्तों का स्तुति पाठ करना और
(c) यज्ञ-बलि अर्पित करना।
वैदिक साहित् | |||
वेद | संबंधित ब्राह्मण | संबंधित आरण्यक | संबंधित उपनिषद् |
ऋग्वेद | (i) ऐतरेय | (i) ऐतरेय | (i) ऐतरेय (ii) कौषीतकि |
सामवेद | (i) तांड्यमहाब्राह्मण (ii) जैमिनीय ब्राह्मण | (i) छान्दोग्य (ii) जैमिनीय | (i) छान्दोग्योपनिषद् |
कृष्ण यजुर्वेद (तैतिरीयसंहिता) | (i) तैतिरीय ब्राह्मण | (i) तैतिरीय आरण्यक | (i) तैतिरीयोपनिषद् (ii) कठोपनिषद (iii) श्वेताश्वतरोपनिषद् |
शुक्ल यजुर्वेद (वाजसनेयीसंहिता) | (i) शतपथ ब्राह्मण | (i) शतपथ आरण्यक | (i) बृहदारण्यकोपनिषद् (ii) ईशोपनिषद |
अथर्ववेद (पैपलाद व शौनक) | (i) गोपथ | (i) मुण्डकोपनिषद् (ii) प्रश्नोपनिषद् (iii) माण्डूक्योपनिषद् |
एकेश्वरवादः ऋग्वेद के कुछ स्थानों पर, विशेषकर उसके परवर्ती काल के मंडलों में, एकेश्वरवाद के चिह्न भी दृष्टिगोचर होते हैं। इसी प्रक्रिया का एक चरण वह भी था, जब विभिन्न देवताओं को बारी-बारी से सर्वोच्च स्थान दिया गया। फिर इन्द्र-मित्र, वरूण-अग्नि जैसे युगल देवता बने और फिर अभिव्यक्तियां आईं, ‘महद्देवानामसुरत्वेकम’ तथा ‘एकं सत् विप्राः बहुधा बदन्ति’। एकेश्वरवाद की इस पिपासा के पीछे शायद कबायली जीवन में आए तनाव एवं दरार हो सकती है, क्योंकि छोटे-छोटे कबीलों का बड़ी इकाइयों में परिवर्तित होने की प्रक्रिया का आविर्भाव हो रहा था। संभव है, यही प्रक्रिया धार्मिक क्षेत्र में भी प्रतिबिंबित हो रही हो।
राजनीतिक संगठन
इस काल में राजतंत्रीय राजव्यवस्था थी। जिमर के अनुसार ऋग्वैदिक आर्यजन निर्वाचित राजतंत्र से भी परिचित थे लेकिन यह प्रचलित व्यवस्था नहीं थी। उस काल का समाज कबीलों या जनजातियों में बंटा हुआ था। ये कबीले अक्सर आपस में लड़ा करते थे। पशुओं के झुंडों के लिए चारागाहों की आवश्यकता थी और इन चारागाहों पर अधिकार करने के लिए कबीलों में लड़ाई होती थी।
(i) राजनः प्रत्येक कबीले का एक राजा या सरदार होता था, जिसे प्रायः उसके बल तथा शौर्य के आधार पर चुना जाता था। बाद में राजपद वंशानुगत हो गया, अर्थात् राजा की मृत्यु के बाद उसका पुत्र राजा होता था। राजा का कत्र्तव्य था कि वह कबीले की रक्षा करे और उसके संबंधी इसमें उसकी सहायता करते थे। राजा कबीले की इच्छा के अनुसार शासन करता था और इसमें कई व्यक्ति उसकी सहायता करते थे। योद्धाओं का एक नायक होता था जिसे सेनानी कहते थे। सेनानी हमेशा राजा के साथ रहता था। एक पुरोहित होता था जो राजा के लिए धार्मिक अनुष्ठान करता था और उसे सलाह देता था। दूतों के जरिए वह नजदीक के गांवों में बसे हुए अपने कबीले के लोगों से सम्पर्क स्थापित करता था। राजा अपनी जनजातियों के गांवों के मुखियों से भी सलाह-मशविरा करता था।
(ii) सभा और समितिः ऋग्वैदिक काल में राजनीतिक संगठन के कबायली स्वरूप की पुष्टि सभा, समिति एवं विदथ जैसी संस्थाओं के स्वरूप एवं कार्यप्रणाली के विवेचन के आधार पर भी की जा सकती है। यद्यपि समिति का उल्लेख केवल परवर्ती मंडलों में ही हुआ, सभा का वर्णन तो मूल भाग में भी मिलता है। किंतु सभा, समिति एवं विदथ के संबंध में जो थोड़े-से विवरण प्राप्त हैं, उनसे लगता है कि इन विभिन्न संस्थानों में संपूर्ण कबीले के सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक मामलों पर चर्चा होती थी। यदि किसी अत्यधिक महत्व के मामले पर विचार करना होता तो राजा समूचे कबीले की सलाह लेता था। जान पड़ता है कि समिति में कोई भी व्यक्ति अपनी राय दे सकता था जबकि सभा चुने हुए लोगोें की एक छोटी संस्था थी।
(iii) स्थानीय शासनः कबीला छोटी-छोटी इकाईयों में बंटा हुआ था, जिन्हें ग्राम कहते थे। प्रत्येक ग्राम में कई परिवार बसते थे। जब धीरे-धीरे लोगों ने खानाबदोशी का जीवन छोड़ दिया और खेती करना शुरू कर दिया, तो गांव बड़े होने लगे और एक कबीले के काफी लोग एक गांव में रहने लगे। परिवारों का समूह कुल या विश कहलाता था। कबीले के लोगों को जन कहते थे। गांव परिवारों में बंटा हुआ था और एक परिवार के सभी सदस्य साथ-साथ रहते थे।
उत्तर वैदिक काल
(ई. पू. लगभग 1000.600)
प्रमुख भारतीय दर्शन पद्धतियां
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राजनीतिक संगठन
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1. आर्थिक कार्यकलाप और राजनीतिक संगठन के मध्य क्या संबंध होते हैं? |
2. वैदिक काल में आर्थिक कार्यकलाप कैसे संचालित होते थे? |
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