UPSC Exam  >  UPSC Notes  >  इतिहास (History) for UPSC CSE in Hindi  >  गुप्तकालीन शासन व समाज - गुप्त-पूर्व एवं गुप्त काल में व्यापार और वाणिज्य, इतिहास, यूपीएससी, आईएएस

गुप्तकालीन शासन व समाज - गुप्त-पूर्व एवं गुप्त काल में व्यापार और वाणिज्य, इतिहास, यूपीएससी, आईएएस | इतिहास (History) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

गुप्तकालीन शासन व समाज

  • गुप्तकाल में केन्द्रीय शासन का वह नियंत्रण देखने को नहीं मिलता जो मौर्य काल में था।
  • गुप्तकाल के शुरू में अधिकारियों को नकद वेतन मिलता था; परंतु बाद के समय में वेतन के स्थान पर अधिकारियों को उनके वेतन के अनुसार भू-राजस्व वसूल करने का अधिकार दिया जाने लगा।
  • सम्राट द्वारा प्रत्यक्ष शासित क्षेत्र में सबसे बड़ी प्रादेशिक इकाई संभवतः देश थी क्योंकि जूनागढ़ अभिलेख में सौराष्ट्र को एक ‘देश’ कहा गया है। इसके प्रशासक को गोप्ना कहा जाता था।
  • एक दूसरी प्रादेशिक इकाई मुक्ति थी जिसके प्रशासक को उपरिक कहा जाता था।
  • मुक्ति के नीचे विषय नामक प्रशासनिक इकाई होती थी जिसके प्रशासनिक अधिकारी को विषयपति कहा जाता था। इसकी सहायता के लिए एक विषय-परिषद् होती थी।
  • ग्राम-समूह की छोटी इकाइयों को पेठ कहा जाता था। प्रशासन की सबसे छोटी इकाई ग्राम होती थी।
  • गुप्तकालीन कुछ सामंतों के अभिलेखों में भाग और भोग का संयुक्त रूप से उल्लेख मिलता है। भाग और भोग के अतिरिक्त उद्रंग और उपरिकर का भी वर्णन मिलता है।
  • किसान भूमिकर हिरण्य (नकद) या मेय ( अन्न के तौल) दोनों रूपों में देते थे।
  • वणिकों, शिल्पियों व शक्कर और नील तैयार करने वालों पर राजकर लगता था।
  • राजस्व के अन्य स्रोत भूमिरत्न, गड़ा हुआ धन, खानें, नमक इत्यादि थे। परंतु कभी-कभी दान में दी जाने वाली भूमि पर से राजा अपने इस विशेषाधिकार का परित्याग करते पाया गया है।
  • शासकों को जो भूमिदान या कभी-कभी संपूर्ण ग्रामदान देते हुए पाया जाता है उससे इस धारणा की पुष्टि होती है कि गुप्तकाल में शासक भूमि देने का अधिकारी था।
  • वराहमिहिर के बृहत् संहिता के अनुसार ब्राह्मण के घर में पाँच, क्षत्रिय के घर में चार, वैश्य के घर में तीन और शूद्र के घर में दो कमरे होने चाहिए। दंड-व्यवस्था भी वर्ण पर आधारित थी।
  • इस काल के ग्रंथों के अनुसार ब्राह्मण को शूद्र का अन्न नहीं ग्रहण करना चाहिए, लेकिन बृहस्पति ने संकट के काल में उसे दासों और शूद्रों का अन्न खाने की अनुमति दी है।
  • फाह्यान के अनुसार उस समय के भारतीय समाज में एक अस्पृश्य वर्ग था। उसे बस्ती के बाहर रहना होता था।
  • इस काल में दास-प्रथा कमजोर हो गई थी।
  • फाह्यान के अनुसार उस काल के अधिकतर लोग शाकाहारी थे।
  • गुप्तकालीन साहित्य व कला में नारी का आदर्शमय चित्रण है; परंतु व्यवहार में उनकी स्थित पूर्व की अपेक्षा दयनीय हो गई थी। अल्पायु में विवाह, सती प्रथा का आरंभ इसी काल से माना जाता है।
  • विधवाओं की स्थित शोचनीय थी। उच्वर्ग की विधवाओं का जीवन कष्टपूर्ण था। उन्हें श्वेत वस्त्र धारण करते हुए जीवन भर ब्रह्मचर्य का पालन करना होता था।
  • यद्यपि नागरिक जीवन में श्रेणिपति प्रभावशील व्यक्ति होते थे, उनमें राजनीतिक प्रभुत्व प्राप्त करने की इच्छा का संकेत नहीं मिलता।
  • नासिक गुफालेख से लगता है कि राजा लोग व्यापार-वाणिज्य में अपना धन लगाते थे और इसीलिए श्रेणी के कल्याण का पूरा-पूरा ध्यान रखते थे।
  • नासिक अभिलेख से यह भी पता चलता है कि श्रेणियां महाजन, वित्त-प्रबंधक तथा न्यासधारी के रूप में कार्य कर सकती थीं। किन्तु साधारणतया ये कार्य एक भिन्न श्रेणी के वणिकों द्वारा किए जाते थे जो श्रेष्टि कहलाते थे। उनके वंशज आज उत्तर भारत में सेठ और दक्षिण भारत में शेट्ठि अथवा चेट्टियार कहलाते हैं।
  • रुपयों का लेन-देन पूर्णकालिक व्यवसाय नहीं था और श्रेष्ठि लोग प्रायः दूसरे काम भी करते थे।
  • मौर्य-काल के बाद की शताब्दियों में सिक्कों के प्रचलन में भारी वृद्धि हुई।
  • माना जाता है कि दक्षिण भारत में पाई गई रोमन स्वर्ण-मुद्राओं का उपयोग सोने की ठोस ईंट के रूप में होता था।
  • मौद्रिक अर्थतंत्र की स्थापना के साथ व्यवसाय के रूप में साहुकारी का पहले से अधिक विस्तार हुआ। सूद की साधारण दर पंद्रह प्रतिशत थी। समुद्री व्यापार के लिए दिए गए ऋण पर सूद की दर अधिक होती थी।
  • इस समय के एक आधिकारिक लेखक ने सुझाव दिया है कि ऋण लेने वाले व्यक्ति की जाति के अनुसार सूद की दर अलग-अलग होनी चाहिए, अर्थात् नीची जाति के लोगों की अपेक्षा ऊंची जाति के लोगों पर सूद की दर कम होनी चाहिए।
  • चोल राज्यों में रोमन स्वर्ण-मुद्राओं तथा तांबे की अन्य अपेक्षाकृत छोटी मुद्राओं के प्रचलन के बावजूद अनेक शताब्दियों तक धान विनिमय की इकाई बना रहा।
  • तत्कालीन सिक्के सोने (निष्क, स्वर्ण तथा पल), चांदी (शतमान), तांबे (काकिनी) तथा रांगे के होते थे। सर्वाधिक प्रचलित सिक्कों कार्षापन चारों धातुओं में होता था।
  • मुख्य रूप से उद्योग का संगठन उन क्षेत्रों में हुआ, जहां कच्चा माल सरलता से उपलब्ध था, अथवा जहां किसी विशिष्ट शिल्प की परंपरा चली आ रही थी और शिल्पी निकटवर्ती क्षेत्रों से आकर वहां एकत्र हो जाते थे। ऐसा विशेष रूप से सूत और रेशम की कताई तथा बुनाई के मामले में होता था।
  • सूती कपड़ाü के निर्माण में बहुधा स्त्रियों को नियोजित किया जाता था, और उद्देश्य यह रहता था कि कपड़ा सर्प की केंचुल जैसा बारीक बने, जिसमें धागा दिखाई न दे।
  • मगध में लोहा बहुत अधिक मात्रा में उपलब्ध था और बाहर भेजा जाता था।
  • तांबे की खानें राजस्थान, दक्कन और हिमालय की तलहटियों में थीं।
  • हिमालय के ढलानों पर बहुत अधिक प्रयुक्त होने वाली कस्तूरी तथा केसर भी मिलती थी।
  • पंजाब की नमक की पहाड़ियां नमक का प्रमुख स्रोत थीं।
  • दक्षिण भारत में मसाले, सोना, रत्न तथा चंदन की लकड़ी मिलती थी।
  • दक्षिण राज्य व्यापक स्तर पर समुद्री व्यापार से परिचित थे, और उनके साहित्य में पत्तन, गोदी, प्रकाश-स्तंभ, चुंगी कार्यालय तथा बंदरगाह से संबंधित समस्त भवनाü का उल्लेख मिलता है।
  • जहां कुल मिलाकर भारतीय लोग अपने माल का परिवहन अन्य राष्ट्रों के नाविकों से कराना पसन्द करते थे, चोलों का हिंद महासागर से होने वाले परिवहन-व्यापार में बहुत बड़ा भाग था।
  • प्लिनी के कथनानुसार, सबसे बड़ा भारतीय जलयान पचहत्तर टन का था, परंतु अन्य स्रोत इससे भी बड़े अनुमान प्रस्तुत करते हैं।
  • साहित्यिक ग्रंथों में तीन, पांया सात सौ तक यात्रियों को ले जाने वाले जलयानों की चर्चा प्रायः मिलती है।
  • सर्वाधिक लाभप्रद समुद्री व्यापार दक्षिण भारत से होने वाला रोमन व्यापार था।
  • यवन व्यापारियों ने सातवाहनों के राज्यों में तथा सुदूर दक्षिण के राज्यों में अपने व्यापारिक संस्थान खोल रखे थे।
  • समृद्ध व्यापारियों के दूसरे समूह में इंडो-यूनानियों तथा उत्तर एवं पश्चिम के शकों के वंशज थे, जिनके अस्तित्व की जानकारी पश्चिमी तट के अनेक स्थानों पर खुदवाए गए दान-लेखों से मिलती है।
  • प्रारंभिक तमिल साहित्य में माल से भरे हुए यवन जलयानों के कावेरीपत्तनम पहुंचचने का चित्रण है; इस नगर का वह भाग, जिसमें यवनों का निवास था, समृद्धि से ओत-प्रोत रहता था। कुछ तमिल राजा यवन अंगरक्षक रखते थे।
  • ईसा की लगभग पहली शताब्दी में लिखे गए पूर्वी-पश्चिमी व्यापार के समुद्री भूगोल - पेरिप्लस आॅफ द एरिथ्रीयन सी - में उन वस्तुओं का जिन्हें जहाजों से ले जाया जाता था तथा व्यापारियों और जलयानों द्वारा अपनाए गए मार्गों का विवरण दिया गया है।
  • इथोपिया के अंतर्देश से अफ्रीकी हाथीदांत और सोना यहां आता था, और साथ ही वह भारतीय मलमल के लिए बाजार भी था।
  • डायोस्कोराइड्स सोकोतरा का द्वीप विनिमय के लिए एक महत्वपूर्ण बंदरगाह था। भारतीय जलयान चावल, गेहूं, कपड़ा और दासियां यहां लाते थे और कछुए की पीठ की हड्डी यहां से ले जाते थे।
  • फारस की खाड़ी के दक्षिणी तटों पर स्थित नगर भारतीय तांबा, चंदन की लकड़ी, सागवान तथा आबनूस लेते थे और भारत को मोती, बैंगनी रंग, कपड़ा, मदिरा, खजूर, सोना तथा दास भेजते थे।
  • बेरीगाजा (आधुनिक भड़ौच) जिसे भारतीय स्रोतों में भारूकच्छ कहा गया है, भारत के पश्चिमी तट पर सबसे प्राचीन तथा सबसे बड़ा प्रवेश-द्वार था, और पश्चिमी एशिया के साथ अधिकांश व्यापार इसी के माध्यम से होता था, जिसमें इटली, यूनान तथा अरब की मदिरा, तांबा, टीन, जस्ता, मूंगा, पुखराज, गाज, शिलाजीत, मीठी तिपतिया घास, लाल हरताल, सुरमा, स्वर्ण तथा चांदी की मुद्राएं और विभिन्न प्रकार के औषधियुक्त मरहम शामिल थे।
  • बेरीगाजा से निर्यात की जानेवाली वस्तुओं में मसाले, जटामासी, मालाबाथरम, हीरे, नीलम तथा रत्न और कछुए की पीठ की हड्डी सम्मिलित थे।
  • उस समय व्यापार के लिए मार्ग प्रायद्वीप के चारों ओर होकर तट के ऊपर की ओर जाता था, जहां के अनेक स्रोतों में उल्लिखित समस्त बंदरगाहों में से एक - अरिकमेडु (जिसे पेरिप्लस ने पेडोक कहा है) के बारे में पर्याप्त जानकारी मिलती है।
  • 1945 ई. में हुई एक विस्तृत खुदाई में यहां एक ऐसी विशाल रोमन बस्ती का पता चला है, जो एक व्यापारिक केंद्र था और जिसके निकट एक बंदरगाह था।
  • अरिकमेडु मलाया और चीन जाने वाले मार्ग पर केवल साधारण बंदरगाह नहीं था, बल्कि यहां मलमल और अन्य वस्तुओं का निर्माण भी होता था, जो जहाजों द्वारा रोम भेज दिया जाता था।
  • रोमन मिट्टी के बर्तनों, माला के दानों, कांतथा पकी हुई मिट्टी की मूर्तियों के अवशेष देखने से प्रतीत होता है कि रोम निवासी अरिकमेडु का उपयोग पहली शताब्दी ई. पू. से ईसा की दूसरी शताब्दी के प्रारंभ तक करते रहे थे।
  • रोमन लोग माल का मूल्य मुख्यतः स्वर्ण-मुद्राओं में चुकाते थे। दक्कन और दक्षिण भारत में पाए गए अधिकांश सिक्के आगस्टस तथा टाइबेरियस के हैं।
  • चूंकि नीरो के सिक्कों में खोट था, अतः लोगों ने उसे जमा नहीं किया। इनमें से बहुत-से सिक्कों को छड़ से चिन्हित कर दिया गया है, जिसका उद्देश्य संभवतः उन्हें बाजार में चलने से रोकना और यह संकेत करना था कि वे बुलियन के रूप में इस्तेमाल किए जाते थे।
  • रोम से होने वाले व्यापार में भारत को वहां से हर वर्ष पचपन करोड़ सेस्टर्स की प्राप्ति होती थी।
  • प्लिनी ने यह शिकायत की थी कि भारतीय व्यापार रोम की राष्ट्रीय आय का एक बहुत बड़ा भाग हथिया लेता था।
  • भारत से अधिकतर धनवान रोमनों तथा उनके परिवार के लिए विलासिता के सामान - मसाले, रत्न, वस्त्र तथा मनोरंजक पशु-पक्षी (लंगूर, तोते तथा मोर) मंगाए जाते थे।
  • उत्तरी भारत से रोम-निवासियों के संपर्क अपेक्षाकृत अप्रत्यक्ष थे।
  • तक्षशिला अधिकांशतया भिन्न-भिन्न भागों से आने वाले माल का संग्रह-स्थल था। उदाहरण के लिए, नीलमणि तथा वैदूर्य ईरान तथा अफगानिस्तान से आता था और रेशम मध्य एशिया होते हुए ”रेशम मार्ग“ द्वारा चीन से आता था।
  • इस युग में पार्थिया से रोम का संघर्ष होने के कारण पार्थिया चीनी माल को सीधे रास्ते से पश्चिम तक नहीं जाने देता था, और इसलिए यह व्यापार तक्षशिला और भड़ौके माध्यम से होने लगा, जिससे उत्तर-पश्चिम भारत की समृद्धि में वृद्धि हुई।
  • इसी युग में दक्षिण-पूर्व एशिया से व्यापार का विस्तार हुआ, और इसका प्रारंभ रोम-निवासियों की मसालों की मांग से हुआ था, जिसने भारतीय व्यापारी को मध्यस्थ बनकर मलाया, जावा, सुमात्रा, कंबोडिया तथा बोर्नियो जैसे मसाले पैदा करने वाले देशों की जोखिम भरी यात्राएं करने के लिए प्रेरित किया।
  • धीरे-धीरे दक्षिण-पूर्व एशिया में बसे हुए भारतीयों के साथ और बड़े व्यापार का विकास हुआ, जिसका नेतृत्व भारत के पश्चिमी और दक्षिणी तटों के व्यापारियों ने किया। बाद में दक्षिण भारतीय व्यापारियों ने इस व्यापार पर लगभग पूर्ण आधिपत्य जमा लिया।
  • कलिंग तथा मगध के वणिक भी बड़े व्यापारियों में थे, परंतु व्यापार के इस प्रारंभिक इतिहास में उन्होंने अपना ध्यान श्रीलंका, बर्मा तथा भारत के पूर्वी तट पर ही केंद्रित रखा।
  • उत्तर-पश्चिम की मुद्राओं पर यूनानी भाषा अंकित है, जिससे ज्ञात होता है कि यूनानी लोग स्थानीय भारतीय भाषा के साथ-साथ यूनानी भाषा का प्रयोग भी करते थे।
  • स्ट्राबो की ज्योग्राफी, एरियन के इंडिका, प्लिनी की नेचरल हिस्ट्री, पेरीप्लस मेरिस एरिथ्री तथा टोलेमी की ज्योग्राफी में भारत की विस्तृत चर्चा हुई।
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FAQs on गुप्तकालीन शासन व समाज - गुप्त-पूर्व एवं गुप्त काल में व्यापार और वाणिज्य, इतिहास, यूपीएससी, आईएएस - इतिहास (History) for UPSC CSE in Hindi

1. गुप्तकालीन शासन और समाज में व्यापार और वाणिज्य किस प्रकार से विकसित हुए?
उत्तर: गुप्तकालीन शासन और समाज में व्यापार और वाणिज्य महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। गुप्त साम्राज्य के समय में, व्यापारी और वाणिज्यिक गतिविधियों में विशेष ध्यान दिया जाता था। गुप्त साम्राज्य के व्यापारिक मार्गों ने विभिन्न देशों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित किए और विदेशी वस्त्र, सुविधाएं, खाद्य पदार्थ और अन्य वस्तुओं की आपूर्ति और विपणन की व्यवस्था की।
2. गुप्त-पूर्व और गुप्त काल में इतिहास किस प्रकार से दर्ज किया गया?
उत्तर: गुप्त-पूर्व और गुप्त काल में इतिहास को विभिन्न तरीकों से दर्ज किया गया। इतिहासकार गुप्तकाल के इतिहास को विशेष रूप से ग्रंथों, शिलालेखों, अभिलेखों, शिल्पकला और प्राचीन साहित्य के माध्यम से अध्ययन करते हैं। इन स्रोतों में गुप्त साम्राज्य के राजा, सम्राट, युद्ध, धर्म, संस्कृति, विज्ञान, कला और साहित्य के विषय में विवरण दिए जाते हैं।
3. गुप्तकाल में व्यापार और वाणिज्य कैसे विकसित हुए थे?
उत्तर: गुप्तकाल में व्यापार और वाणिज्य का विकास विभिन्न कारणों से हुआ था। गुप्त साम्राज्य के समय में व्यापारी और वाणिज्यिक गतिविधियों को महत्व दिया जाता था। गुप्त साम्राज्य के व्यापारिक मार्ग विभिन्न देशों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित करते थे और विदेशी वस्त्र, सुविधाएं, खाद्य पदार्थ और अन्य वस्तुएं आपूर्ति और विपणन की व्यवस्था की जाती थी। इसके अलावा, गुप्तकाल में स्थानीय व्यापार और वाणिज्य भी महत्वपूर्ण थे, जहां लोग स्थानीय उत्पादों का विपणन करते थे और अपने व्यापार को बढ़ावा देते थे।
4. गुप्तकालीन शासन और समाज में गुप्तकाल में क्या महत्वपूर्ण बदलाव हुए?
उत्तर: गुप्तकाल में शासन और समाज में कई महत्वपूर्ण बदलाव हुए। गुप्त साम्राज्य के समय में सुंदरवली ग्रंथों के लिए महत्वपूर्ण गुप्त साम्राज्य के मेंढ़क, उद्यान और नीरवता के लिए जाना जाता था। गुप्तकाल में विज्ञान, गणित और तकनीकी में भी बदलाव हुआ, जैसे इंद्रधनुष्य और गणितीय निर्माण की खोज की गई। सामाजिक रूप से, गुप्तकाल में वर्णाश्रम व्यवस्था मजबूत थी, जिसमें चतुर्वर्णी व्यवस्था के अनुसार लोगों की सामाजिक पदानुक्रम निर्धारित होती थी।
5. गुप्तकाल में व्यापार और वाणिज्य का महत्व किस प्रकार से दिखाया गया?
उत्तर: गुप्तकाल में व्यापार और वाणिज्य का महत्व विभिन्न प्रमाणों में दिखाया गया।
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