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Economic Development (आर्थिक विकास): January 2024 UPSC Current Affairs | भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

भारत में मुद्रास्फीति: मांग बनाम आपूर्ति

चर्चा में क्यों? 

भारत की हालिया मुद्रास्फीति दर चिंता का एक विषय है, लेकिन भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) की हालिया अवलोकन से आपूर्ति और मांग दोनों कारकों से प्रभावित होने वाली बाज़ार की बदलती प्रवृत्ति के संकेत मिलते हैं।

  • जनवरी 2019 से मई 2023 तक की पूरी अवधि में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (CPI) हेडलाइन मुद्रास्फीति का लगभग 55%, आपूर्ति-पक्ष से संबंधित कारकों के लिये ज़िम्मेदार है जबकि मुद्रास्फीति में मांग चालकों का योगदान 31% था।

हाल के वर्षों में भारत में मुद्रास्फीति का क्या कारण है?

  • कोविड-19 की दोनों लहरों के दौरा आपूर्ति में व्यवधान मुद्रास्फीति का मुख्य कारण था। 
  • महामारी की शुरुआत, लॉकडाउन के कारण उत्पादन और मांग में कमी से आर्थिक विकास में भारी गिरावट आई।
  • इस चरण में कम मांग के कारण कमोडिटी की कीमतों में भी कमी देखी गई।
  • टीकों के वितरण और नियंत्रित मांग जारी होने के साथ अर्थव्यवस्था में पुनः सुधार हुआ, आपूर्ति की तुलना में मांग में तेज़ी से वृद्धि हुई। इस असंतुलन के परिणामस्वरूप कमोडिटी/वस्तुओं की कीमतों पर दबाव बढ़ गया। 
  • वर्ष 2022 में रूस-यूक्रेन संघर्ष की शुरुआत ने आपूर्ति शृंखला चुनौतियों को और बढ़ा दिया तथा कमोडिटी की कीमतों पर दबाव डाला।

Economic Development (आर्थिक विकास): January 2024 UPSC Current Affairs | भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy) for UPSC CSE in Hindi

मुद्रास्फीति के कारणों का आकलन करने की पद्धति क्या है?

  • एक महीने के भीतर कीमतों और वस्तु की मात्रा (prices and quantities) में अप्रत्याशित बदलाव यह निर्धारित करते हैं कि मुद्रास्फीति मांगजनित (जब कीमतें और मात्राएँ समानुपाती होती हैं) या आपूर्तिजनित (जब कीमतें और मात्राएँ व्युत्क्रमानुपाती होती हैं) है।
  • मांग (demand) में वृद्धि से कीमतों और मात्रा दोनों में वृद्धि होती है जबकि मांग में कमी से दोनों में कमी आती है।
  • यदि कीमतों और मात्राओं में अप्रत्याशित परिवर्तन होता है जो एक-दूसरे के विपरीत बढ़ते हैं, तो मुद्रास्फीति को आपूर्ति-प्रेरित माना जाता है। आपूर्ति में कमी कम मात्रा लेकिन कीमत में वृद्धि से संबंधित है। 
  • समग्र हेडलाइन मुद्रास्फीति (overall headline inflation) का आकलन करने के लिये उप-समूह स्तर पर मांग और आपूर्ति कारकों को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer price index- CPI) का उपयोग करके जोड़ा गया था।
  • हेडलाइन मुद्रास्फीति, अर्थव्यवस्था की कुल मुद्रास्फीति की माप है, जिसमें खाद्य एवं ऊर्जा की कीमतें इत्यादि शामिल हैं, जो अधिक अस्थिर(volatile) होती हैं और इनसे मुद्रास्फीति के बढ़ने की संभावना होती है।
  • उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (Consumer Price Index- CPI), जो यह निर्धारित करता है कि वस्तुओं की एक निश्चित टोकरी (basket of goods) खरीदने की लागत की गणना करके पूरी अर्थव्यवस्था में कितनी मुद्रास्फीति हुई है, इसका उपयोग हेडलाइन मुद्रास्फीति के आँकड़े ज्ञात करने के लिये किया जाता है।

मुद्रास्फीति क्या है?

परिचय

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund- IMF) द्वारा परिभाषित मुद्रास्फीति, एक निश्चित अवधि में कीमतों में वृद्धि की दर है, जिसमें समग्र मूल्य वृद्धि या विशिष्ट वस्तुओं और सेवाओं की व्यापक माप शामिल है।

यह जीवन यापन की बढ़ती लागत को दर्शाता है और इंगित करता है कि एक निर्दिष्ट अवधि, आमतौर पर एक वर्ष में, वस्तुओं और/या सेवाओं की लागत का एक समुच्चय कितना महँगा हो गया है।

आर्थिक असमानताओं और बड़ी आबादी के कारण भारत में मुद्रास्फीति का प्रभाव विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण है।

मुद्रास्फीति के विभिन्न कारण:

  • मांगजनित मुद्रास्फीति (Demand Pull Inflation):
    • मांगजनित मुद्रास्फीति (Demand Pull Inflation) तब होती है जब वस्तुओं और सेवाओं की मांग उनकी आपूर्ति से अधिक हो जाती है। जब अर्थव्यवस्था में समग्र मांग अधिक होती है, तो उपभोक्ता उपलब्ध वस्तुओं तथा सेवाओं के लिये अधिक भुगतान करने को तैयार होते हैं, जिससे कीमतों में सामान्य वृद्धि होती है।
    • उच्च उपभोक्ता व्यय वाली एक उभरती अर्थव्यवस्था अतिरिक्त मांग उत्पन्न कर सकती है, जिससे कीमतों पर दबाव बढ़ सकता है।
  • लागतजनित मुद्रास्फीति:
    • लागतजनित मुद्रास्फीति (Cost-Push inflation) वस्तुओं तथा सेवाओं की उत्पादन लागत में वृद्धि से प्रेरित होती है। यह बढ़ी हुई आय, कच्चे माल की बढ़ी हुई लागत अथवा आपूर्ति शृंखला में व्यवधान जैसे कारकों के कारण हो सकता है।
  • अंतर्निहित अथवा वेतन-मूल्य मुद्रास्फीति:
    • इस प्रकार की मुद्रास्फीति को अमूमन मज़दूरी तथा कीमतों के बीच फीडबैक लूप के रूप में वर्णित किया जाता है। जब श्रमिक अधिक वेतन की मांग करते हैं तो व्यवसाय बढ़ी हुई श्रम लागत की पूर्ति करने के लिये कीमतें बढ़ा सकते हैं। यह श्रमिकों को अधिक वेतन की मांग करने के लिये प्रेरित करता है तथा यह चक्र जारी रहता है।
    • श्रमिक संघों द्वारा सामूहिक सौदेबाज़ी के परिणामस्वरूप उच्च मज़दूरी दर प्राप्त हो सकती है, जिससे उत्पादन लागत में वृद्धि हो सकती है तथा बाद में वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतें बढ़ सकती हैं।

भारत का इस्पात क्षेत्र

चर्चा में क्यों?

हाल ही में 'ISA इस्पात कॉन्क्लेव 2023' का चौथा संस्करण आयोजित किया गया था, यह भारत के प्रमुख बुनियादी ढाँचा इनपुट का उत्पादन वर्ष 2030 तक दोगुना कर 300 मिलियन टन प्रति वर्ष करने पर केंद्रित था, इसमें इस्पात कंपनियों को अपनी क्षमता बढ़ाने के लिये प्रेरित किया गया।

इस कार्यक्रम में भारत की वृद्धि और विकास में इस्पात उद्योग की बहुमुखी भूमिका को रेखांकित करते हुए 'स्टील शेपिंग द सस्टेनेबल फ्यूचर' विषय पर चर्चा की गई।

भारत में इस्पात क्षेत्र की स्थिति क्या है?

  • वर्तमान परिदृश्य:
    • वित्त वर्ष 2023 में 125.32 मिलियन टन (MT) कच्चे इस्पात का उत्पादन और 121.29 मीट्रिक टन उपयोग के लिये तैयार इस्पात उत्पादन के साथ भारत कच्चे इस्पात के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है।
    • भारत में इस्पात उद्योग में पिछले दशक में पर्याप्त वृद्धि हुई है, वर्ष 2008 के बाद से इसके उत्पादन में 75% की वृद्धि हुई है।
    • वित्त वर्ष 2023 में भारत में इस्पात की प्रति व्यक्ति खपत 86.7 किलोग्राम थी।
    • लौह अयस्क जैसे कच्चे माल की उपलब्धता और लागत प्रभावी श्रमबल की भारत के इस्पात उद्योग में अहम भूमिका रही है।
    • वर्ष 2017 में शुरू की गई राष्ट्रीय इस्पात नीति के अनुसार, भारत का लक्ष्य वर्ष 2030-31 तक कच्चे इस्पात की क्षमता को 300 मिलियन टन तथा उत्पादन क्षमता को 255 मीट्रिक टन एवं प्रति व्यक्ति तैयार मज़बूत इस्पात की खपत को 158 किलोग्राम तक पहुँचाना है।
  • महत्त्व:
    • इस्पात विश्व भर में व्यापक रूप से उपयोग की जाने वाली सामग्रियों में से एक है। लौह और इस्पात उद्योग सर्वाधिक मुनाफे का उद्योग है।
    • इस्पात उद्योग की निर्माण कार्य, बुनियादी ढाँचे, ऑटोमोबाइल, इंजीनियरिंग तथा रक्षा जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में अहम भूमिका है।
    • भारतीय अर्थव्यवस्था में इस्पात सबसे प्रमुख क्षेत्रों में से एक है (वित्त वर्ष 21-22 में देश की GDP में 2% भागीदारी)।

इस्पात क्षेत्र के समक्ष चुनौतियाँ

  • आधुनिक इस्पात संयंत्र स्थापित करने में बाधाएँ:
    • आधुनिक इस्पात निर्माण संयंत्रों की स्थापना के लिये अत्यधिक निवेश एक बड़ी बाधा है।
    • 1 टन क्षमता वाले संयंत्र की स्थापना में लगभग 7000.00 करोड़ रुपए की लागत विभिन्न भारतीय संस्थाओं के लिये चुनौतीपूर्ण हो सकती है।
    • अन्य देशों की तुलना में भारत में महँगे वित्तीयन एवं ऋण वित्तपोषण पर निर्भरता के कारण उत्पाद की लागत में वृद्धि होती है, जिससे वैश्विक स्तर पर अंततः तैयार इस्पात उत्पाद को लेकर प्रतिस्पर्द्धा कम हो जाती है।
  • चक्रीय मांग और मानसून संबंधी चुनौतियाँ:
    • भारत में इस्पात की चक्रीय मांग के परिणामस्वरूप इस्पात कंपनियों को वित्तीय कठिनाइयाँ का सामना करना पड़ता है, मानसून जैसे तत्त्वों के कारण निर्माण कार्य की गति प्रभावित होती है।
    • कम मांग की अवधि के दौरान इस्पात संयंत्रों की आय व लाभ न्यूनतम हो जाते हैं, जिससे वित्तीय दबाव बढ़ता है, कई मामलों में विनिर्माण कार्य को बंद और स्थगित भी करना पड़ता है।
  • प्रति व्यक्ति कम खपत:
    • विश्व के औसत 233 किलोग्राम की तुलना में भारत में प्रति व्यक्ति इस्पात की खपत 86.7 किलोग्राम है, यह आर्थिक असमानताओं को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।
    • प्रति व्यक्ति कम आय और खपत वाली अर्थव्यवस्थाओं के लिये बड़े पैमाने पर इस्पात संयंत्र की स्थापना करना कम लाभदायक होता है।
    • प्रति व्यक्ति आय काफी अधिक होने के कारण चीन में इस्पात की अधिक मांग वहाँ की अर्थव्यवस्था की सुदृढ़ता को दर्शाती है।
  • प्रौद्योगिकी और अनुसंधान में कम निवेश:
    • भारत ऐतिहासिक रूप से इस्पात क्षेत्र के लिये प्रौद्योगिकी, अनुसंधान और विकास में निवेश करने में पीछे रहा है।
    • इससे अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान और प्रौद्योगिकी पर निर्भरता बढ़ती है, जिससे अतिरिक्त लागत में वृद्धि होती है। पुरानी तथा प्रदूषणकारी प्रौद्योगिकियाँ इस क्षेत्र को कम आकर्षक बनाती हैं।
  • निर्माण कार्यों में इस्पात का कम उपयोग:
    • भारत में इस्पात के उपयोग के बजाय पारंपरिक कंक्रीट-आधारित निर्माण विधियों का पालन, इस्पात उद्योग के विकास में बाधक है।
    • पश्चिमी देशों, जहाँ निर्माणी कार्य में दक्षता, मज़बूती और गति प्रदान करने के लिये इस्पात का बड़े पैमाने पर उपयोग किया जाता है, के विपरीत भारत में अभी भी अपनी निर्माण प्रथाओं में इस्पात का पूरी तरह से उपयोग नहीं किया जाता है।
  • पर्यावरणीय चिंताएँ: 
    • कार्बन डाइऑक्साइड के उत्पादन में इस्पात उद्योग तीन सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। नतीजतन, दुनिया भर में स्टील व्यापारियों को पर्यावरण तथा आर्थिक दोनों दृष्टिकोण से अपने कार्बन फुटप्रिंट को कम करने के लिये डीकार्बनाइज़ेशन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
  • यूरोपीय संघ के CBAM का प्रभाव: 
    • यूरोपीय संघ 1 जनवरी 2026 से इस्पात, एल्यूमीनियम, सीमेंट, उर्वरक, हाइड्रोजन और विद्युत की प्रत्येक खेप पर कार्बन टैक्स (कार्बन सीमा समायोजन तंत्र) एकत्र करना शुरू कर देगा। यह भारत द्वारा यूरोपीय संघ को लौह, इस्पात तथा एल्युमीनियम उत्पादों जैसे धातुओं के निर्यात को प्रतिकूल रूप से प्रभावित करेगा, क्योंकि इन्हें इन उत्पादों को यूरोपीय संघ के CBAM तंत्र के तहत अतिरिक्त जाँच प्रक्रियाओं का सामना करना पड़ेगा।
    • CBAM "फिट फॉर 55 इन 2030 पैकेज" का हिस्सा है, यह यूरोपीय संघ की एक योजना है जिसका उद्देश्य यूरोपीय जलवायु कानून के अनुरूप वर्ष 1990 के स्तर की तुलना में वर्ष 2030 तक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को लगभग 55% तक कम करना है।

आगे  की राह

  • पर्यावरणीय प्रभाव को कम करने और सतत् उत्पादन प्रथाओं को प्रोत्साहित करने के लिये हरित प्रौद्योगिकियों में निवेश करना तथा उन्हें अपनाना।
  • ग्रीन स्टील/हरित इस्पात के उत्पादन को प्रोत्साहित किया जाना चाहिये और इसे पारंपरिक, कार्बन-सघन कोयला-आधारित संयंत्र निर्माण प्रक्रिया के लिये विद्युत, हाइड्रोजन तथा कोयला गैसीकरण जैसे कम कार्बन ऊर्जा स्रोतों को प्रतिस्थापित करके प्राप्त किया जा सकता है।
  • इस्पात उत्पादन में कार्बन दक्षता बढ़ाने के उपायों को लागू करने से CBAM के प्रभाव को कम करने में मदद मिल सकती है। इस्पात उत्पादों के कार्बन फुटप्रिंट को कम करने हेतु स्वच्छ तथा अधिक सतत् प्रौद्योगिकियों को अपनाना व उन्हें बढ़ावा देना बेहद प्रभावी कदम हो सकता है।
  • उचित और न्यायसंगत CBAM नियमों को बढ़ावा देने के लिये अंतर्राष्ट्रीय संगठनों एवं नीति निर्माताओं के साथ संवाद स्थापित करना महत्त्वपूर्ण है। अन्य उद्योगों तथा देशों के साथ सहयोगात्मक प्रयासों से ऐसे समाधान विकसित किये जा सकते है जो भारतीय इस्पात क्षेत्र के समक्ष आने वाली चुनौतियों का समाधान कर सकते हैं।

भारत का खिलौना उद्योग

चर्चा में क्यों?

भारतीय प्रबंधन संस्थान (Indian Institutes of Management- IIM) लखनऊ ने हाल ही में वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय (Ministry of Commerce & Industry- MoCI) के तहत उद्योग संवर्द्धन और आंतरिक व्यापार विभाग (Department for Promotion of Industry and Internal Trade- DPIIT) के आदेश पर “भारत में निर्मित खिलौनों की सफलता की कहानी (Success Story of Made in India Toys)” पर अध्ययन किया है, जिसमें एक पर प्रकाश डाला गया कि वित्त वर्ष 2014-15 की तुलना में वित्त वर्ष 2022-23 में खिलौना निर्यात में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है।

अध्ययन के अनुसार भारतीय खिलौना उद्योग की स्थिति क्या है?

  • विकास की प्रवृत्तियाँ:
    • भारतीय खिलौना उद्योग ने वित्त वर्ष 2014-15 और वित्त वर्ष 2022-23 के बीच उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की, जिसमें आयात में 52% की भारी गिरावट तथा निर्यात में 239% की उल्लेखनीय वृद्धि हुई।
    • यह वृद्धि आत्मनिर्भरता और वैश्विक प्रतिस्पर्द्धात्मकता की दिशा में बदलाव का संकेत देती है।
  • गुणवत्ता में सुधार: 
    • घरेलू बाज़ार में उपलब्ध खिलौनों की गुणवत्ता में समग्र वृद्धि हुई है। यह अंतर्राष्ट्रीय मानकों को पूरा करने और उपभोक्ता संतुष्टि तथा सुरक्षा सुनिश्चित करने के महत्त्व पर बल देती है।
  • विकास वाहक:
    • उन्नत विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र: सरकारी प्रयासों ने एक अधिक अनुकूल विनिर्माण पारिस्थितिकी तंत्र के निर्माण की सुविधा प्रदान की है। छह वर्षों में विनिर्माण इकाइयों की संख्या दोगुनी करना, आयातित इनपुट पर निर्भरता को 33% से घटाकर 12% करना, सकल विक्रय मूल्य में 10% CAGR की वृद्धि करना और श्रम उत्पादकता में सुधार करना उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हैं।
    • वैश्विक एकीकरण और निर्यात पर फोकस: खिलौना उद्योग में शीर्ष निर्यातक देश के रूप में भारत का उभरना वैश्विक खिलौना मूल्य शृंखला में सफल एकीकरण का संकेत देता है। संयुक्त अरब अमीरात और ऑस्ट्रेलिया जैसे प्रमुख देशों में शून्य-शुल्क बाज़ार पहुँच ने इस विकास पथ में योगदान दिया है।

खिलौना उद्योग में विकास को बढ़ावा देने के लिये सरकारी पहल क्या हैं?

  • खिलौनों के लिये राष्ट्रीय कार्य योजना (National Action Plan for Toys- NAPT): यह एक व्यापक योजना है जिसमें 21 विशिष्ट कार्य बिंदु शामिल हैं, जो DPIIT द्वारा समन्वित है और कई केंद्रीय मंत्रालयों/विभागों द्वारा कार्यान्वित है। यह योजना डिज़ाइन, गुणवत्ता नियंत्रण, स्वदेशी खिलौना समूहों को बढ़ावा देने आदि जैसे विभिन्न पहलुओं को सुनिश्चित करती है।
  • मूल सीमा शुल्क (Basic Customs Duty- BCD) में वृद्धि: खिलौनों पर BCD में पर्याप्त वृद्धि (फरवरी 2020 में 20% से 60% और उसके बाद मार्च 2023 में 70% तक) का उद्देश्य घरेलू खिलौना उद्योग को सस्ते आयात से बचाना तथा स्थानीय विनिर्माण को प्रोत्साहित करना है।
  • अनिवार्य नमूना परीक्षण (Mandated Sample Testing): वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के तहत विदेश व्यापार महानिदेशालय (Directorate General of Foreign Trade- DGFT) ने निम्न स्तरीय खिलौनों के आयात को रोकने तथा बेहतर गुणवत्ता नियंत्रण सुनिश्चित करने के लिये प्रत्येक आयात खेप/प्रेषण के लिये नमूना परीक्षण अनिवार्य किया है।
  • खिलौनों के लिये गुणवत्ता नियंत्रण आदेश (Quality Control Order- QCO): वर्ष 2020 में जारी यह आदेश देश में निर्मित और बेचे जाने वाले खिलौनों की समग्र गुणवत्ता को बढ़ाने के लिये जनवरी 2021 से प्रभावी खिलौनों के गुणवत्ता मानकों पर ज़ोर देता है।
  • खिलौना विनिर्माताओं के लिये प्रावधान: भारतीय मानक ब्यूरो (Bureau of Indian Standards- BIS) द्वारा विशेष प्रावधान किये गए हैं जिसमें एक निर्दिष्ट अवधि के लिये परीक्षण सुविधाओं के बिना लघु इकाइयों को लाइसेंस देना, गुणवत्ता मानकों के अनुपालन की सुविधा प्रदान करना शामिल है।
  • BIS मानक चिह्न: BIS मानक चिह्नों के माध्यम से गुणवत्ता मानकों का अनुपालन सुनिश्चित करते हुए घरेलू विनिर्माताओं को 1,200 से अधिक लाइसेंस तथा विदेशी विनिर्माताओं को 30 से अधिक लाइसेंस प्रदान किये गए हैं।
  • क्लस्टर-आधारित दृष्टिकोण: MSME मंत्रालय द्वारा पारंपरिक उद्योगों के पुनर्जनन के लिये निधि की योजना (Scheme of Funds for the Regeneration of Traditional Industries- SFURTI) जैसी योजनाओं के माध्यम से घरेलू खिलौना उद्योग का समर्थन किया जा रहा है तथा वस्त्र मंत्रालय द्वारा विभिन्न खिलौना उत्‍पादन केंद्रों को खिलौनों का डिज़ाइन तैयार करने एवं ज़रूरी साधन मुहैया कराने में सहायता प्रदान की जा रही है।
  • प्रचार पहल: द इंडियन टॉय फेयर 2021 और टॉयकैथॉन जैसे आयोजनों का उद्देश्य स्वदेशी खिलौनों को बढ़ावा देना, नवाचार को प्रोत्साहित करना तथा खिलौना उद्योग में प्रदर्शन एवं विचार के लिये एक मंच तैयार करना है।

आगे की राह

भारत को चीन तथा वियतनाम जैसे प्रमुख खिलौना विनिर्माण केंद्रों के प्रतिस्पर्द्धी विकल्प के रूप में स्थापित करने के लिये खिलौना उद्योग तथा सरकार के बीच निरंतर सहयोगात्मक प्रयास आवश्यक हैं।
प्रौद्योगिकी को अपनाना, ई-कॉमर्स पर ध्यान केंद्रित करना, साझेदारी तथा निर्यात को प्रोत्साहन देना, ब्रांड निर्माण में निवेश करना एवं बच्चों के साथ प्रभावी संचार के लिये शिक्षकों व अभिभावकों के साथ जुड़ना प्रमुख पहचाने गए पहलू हैं।


ऋण स्थिरता और विनिमय दर प्रबंधन

चर्चा में क्यों? 

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (International Monetary Fund - IMF) ने हाल ही में भारत पर अपनी वार्षिक अनुच्छेद IV परामर्श रिपोर्ट जारी की, जिसमें देश की ऋण स्थिरता और विनिमय दर प्रबंधन से संबंधित महत्त्वपूर्ण मुद्दों का अवलोकन किया गया है।

भारत के आर्थिक आउटलुक से संबंधित IMF के अनुमान क्या हैं? 

  • ऋण स्थिरता: IMF ने भारत की दीर्घकालिक ऋण स्थिरता के बारे में चिंता व्यक्त की।
  • इसने अनुमान लगाया कि भारत का सामान्य सरकारी ऋण, जिसमें केंद्र और राज्य दोनों शामिल हैं, संभावित रूप से वित्तीय वर्ष 2028 तक विशेष रूप से प्रतिकूल परिस्थितियों में सकल घरेलू उत्पाद के 100% तक बढ़ सकता है।
  • ऋण प्रबंधन की चुनौतियाँ: रिपोर्ट में अधिक विवेकपूर्ण ऋण प्रबंधन प्रथाओं की आवश्यकता पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें जलवायु परिवर्तन शमन लक्ष्यों को प्राप्त करने और प्राकृतिक आपदाओं के खिलाफ लचीलापन बढ़ाने के लिये वित्तपोषण की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता पर बल दिया गया है।
  • भारतीय वित्त मंत्रालय ने  IMF के ऋण अनुमानों का विरोध किया और उन्हें आसन्न वास्तविकता के बजाय सबसे खराब स्थिति के रूप में खारिज कर दिया।
  • विनिमय दर गतिशीलता: IMF ने दिसंबर 2022 से अक्टूबर 2023 के लिये भारत की वास्तविक विनिमय दर व्यवस्था को "फ्लोटिंग" से "स्थिर व्यवस्था (stabilized arrangement)" में पुनर्वर्गीकृत किया।
  • यह पुनर्वर्गीकरण RBI के हस्तक्षेप के कारण रुपए के मूल्य में नियंत्रित उतार-चढ़ाव के बारे में  निष्कर्ष शामिल हैं।
  • स्थिर क्रेडिट रेटिंग: सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्था के रूप में सराहना पाने के बावजूद भारत की सॉवरेन क्रेडिट रेटिंग काफी समय से स्थिर बनी हुई है।
  • फिच रेटिंग्स और एसएंडपी ग्लोबल रेटिंग्स जैसी एजेंसियों ने कमज़ोर राजकोषीय प्रदर्शन, बोझिल कर्ज़ और कम प्रति व्यक्ति आय के बारे में चिंताओं का हवाला देते हुए वर्ष 2006 से भारत की क्रेडिट रेटिंग को 'बीबीबी-स्थिर दृष्टिकोण के साथ' पर बनाए रखा है।

भारत का वर्तमान ऋण परिदृश्य क्या है?

  • सरकार का वर्तमान ऋण स्तर: मार्च 2023 तक केंद्र सरकार का ऋण ₹155.6 ट्रिलियन था, जो सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 57.1% था। इस बीच, राज्य सरकारों पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 28% ऋण था।
  •  वित्त मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2022-23 में भारत का सार्वजनिक ऋण-से-GDP (debt-to-GDP) अनुपात 81% है। यह, FRBM लक्ष्य द्वारा निर्दिष्ट स्तरों से कहीं अधिक है।
  • FRBM अधिनियम में वर्ष 2018 के संशोधन ने केंद्र, राज्यों और उनके संयुक्त खातों के लिये क्रमशः 40%, 20% तथा 60% पर ऋण-GDP लक्ष्य निर्दिष्ट किये।
  • भारत के बढ़ते ऋण स्तर से संबंधित परस्पर जुड़े कारक:
    • उच्च राजकोषीय घाटा: सरकार लगातार अपनी आय से अधिक व्यय करती है, जिसके कारण घाटे को उधार के माध्यम से पूरा किया जाता है। यह घाटा निम्न कारणों से उत्पन्न हो सकता है:
    • उच्च व्यय प्रतिबद्धताएँ: सामाजिक कल्याण कार्यक्रम, सब्सिडी और रक्षा व्यय सरकारी परिव्यय में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं।
    • धीमी राजस्व वृद्धि: कर सुधारों से राजस्व संग्रह में पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई है, जिससे राजस्व-व्यय में अंतर उत्पन्न हो गया है।
    • वैश्विक भू-राजनीतिक घटनाएँ: रूस-यूक्रेन युद्ध और बढ़ती कमोडिटी कीमतों जैसी घटनाओं से आर्थिक व्यवधान एवं उच्च आयात लागत हो सकती है, जिससे सरकार को स्थिरता बनाए रखने के लिये उधार लेने हेतु मजबूर होना पड़ सकता है।
    • अनौपचारिक अर्थव्यवस्था और कर रिसाव: भारत की बड़ी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था कुशल कर संग्रह के लिये चुनौतियाँ पेश करती है।
    • कृषि और छोटे व्यवसायों जैसे क्षेत्रों में कर चोरी तथा औपचारिकता की कमी राजस्व सृजन को सीमित करती है, जिससे संभावित रूप से सरकार को ऋण वित्तपोषण पर निर्भर रहने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
    • गारंटी और आकस्मिकताएँ: सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं द्वारा लिये गए ऋण या आकस्मिक देनदारियों हेतु सरकार की गारंटी, जैसे सार्वजनिक-निजी भागीदारी से संभावित नुकसान, अप्रत्यक्ष रूप से ऋण में काफी वृद्धि करते हैं।
    • विनिमय दर में उतार-चढ़ाव: विनिमय दरों में उतार-चढ़ाव विदेशी मुद्रा-मूल्य वाले ऋण की सेवा की लागत को प्रभावित करते हैं, जिससे संभावित रूप से समग्र ऋण बोझ बढ़ जाता है।
  • भारत में ऋण प्रबंधन हेतु विधान:
    • राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 (FRBM अधिनियम): FRBM अधिनियम एक भारतीय कानून है जो सरकार के राजकोषीय संचालन में वित्तीय अनुशासन लाने और देश के राजकोषीय घाटे को कम करने के लिये बनाया गया है।
    • FRBM का लक्ष्य केंद्र और राज्यों के लिये विशिष्ट ऋण-GDP लक्ष्य निर्धारित करना है।
      • हालाँकि महामारी से उत्पन्न व्यवधान ने निर्दिष्ट सीमा को पार करते हुए ऋण-GDP अनुपात को बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
    • इसके अलावा इसके अधिनियमन के कई वर्षों के बावजूद, भारत सरकार FRBM अधिनियम के लक्ष्यों को पूरा करने के लिये संघर्ष कर रही है।

सतत् ऋण प्रबंधन के लिये भारत क्या उपाय कर सकता है? 

  • अल्पकालिक: राजकोषीय समेकन:
    • लक्षित सुधार: सब्सिडी को सुव्यवस्थित करना, सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में सुधार करना तथा प्रशासनिक अक्षमताओं को कम करना एवं FRBM अधिनियम के लक्ष्यों का सख्ती से अनुपालन करना ऋण चुकौती व लाभकारी निवेश के लिये संसाधनों की बचत कर सकता है।
    • बेहतर कर दक्षता: कर प्रशासन को सुदृढ़ करने तथा कर चोरी की रोकथाम से अत्यधिक उधार लिये बिना राजस्व में उल्लेखनीय वृद्धि हो सकती है।
  • दीर्घकालिक: विकासोन्मुख रणनीतियाँ:
    • कौशल विकास और शिक्षा: शिक्षा तथा कौशल विकास कार्यक्रमों के माध्यम से मानव पूंजी में निवेश करने से उत्पादकता एवं प्रतिस्पर्द्धात्मकता में वृद्धि होती है जिससे उच्च आर्थिक विकास होता है तथा कराधान में सुधार होता है।
    • निर्यात संवर्द्धन: निर्यात बाज़ारों में विविधता लाने, उच्च मूल्य वाले निर्यात को प्रोत्साहित करने तथा प्रतिस्पर्द्धात्मक चुनौतियों का समाधान करने से विदेशी मुद्रा आय को बढ़ावा मिल सकता है जिससे संभावित रूप से बाह्य ऋण की आवश्यकता कम हो सकती है।

GST संबंधी चुनौतियों का समाधान

चर्चा में क्यों?

हालिया वस्तु एवं सेवा कर (Goods and Services Tax- GST) राजस्व डेटा एक चिंताजनक परिदृश्य उजागर करता है जिसके अनुसार भारतीय राज्यों में उपभोग वृद्धि एक समान नहीं है जिससे राष्ट्रीय आर्थिक सुधार में संभावित असंगति का पता चलता है।

हाल के GST से संबंधित आँकड़ों के प्रमुख निष्कर्ष क्या हैं? 

  • कुल GST संग्रह: वर्ष 2022-23 की तुलना में वर्ष 2023-24 के प्रथम नौ महीनों में इसमें 11.7% की वृद्धि दर्ज की गई।
  • केंद्रीय GST की तुलना में राज्य GST संग्रह उच्च दर (15.2%) से बढ़ा जो राज्यों में मौजूद विविध उपभोग/खपत स्वरूप का सुझाव देता है।
  • राज्यों के बीच असमानताएँ: मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र तथा कर्नाटक जैसे कुछ राज्यों में राज्य GST राजस्व में उल्लेखनीय वृद्धि (17% से 18.8%) दर्ज की गई जबकि गुजरात, पश्चिम बंगाल एवं आंध्र प्रदेश जैसे अन्य राज्यों में एकल-अंकीय वृद्धि हुई। 
  • सबसे कम निजी उपभोग विस्तार: राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (National Statistical Office- NSO) का अनुमान है कि वर्तमान वर्ष के लिये निजी अंतिम उपभोग व्यय (Private Final Consumption Expenditure- PFCE) की वृद्धि केवल 4.4% होगी जो वर्ष 2002-03 (महामारी के समय के अतिरिक्त) के बाद से सबसे धीमी है।
  • PFCE को निवासी परिवारों और परिवारों की सेवा करने वाले गैर-लाभकारी संस्थानों (Non-Profit Institutions Serving Households- NPISH) द्वारा वस्तुओं एवं सेवाओं की अंतिम खपत पर किये गए व्यय के रूप में परिभाषित किया गया है, इसमें आर्थिक क्षेत्र के भीतर अथवा बाह्य व्यय दोनों शामिल हैं।

वस्तु एवं सेवा कर क्या है?

  • परिचय: GST एक मूल्य वर्द्धित कर प्रणाली है जो भारत में वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति पर लगाया जाता है। 
  • यह एक व्यापक अप्रत्यक्ष कर है जिसे 1 जुलाई, 2017 को 101वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2016 के माध्यम से 'एक राष्ट्र एक कर' के नारे के साथ भारत में लागू किया गया था।
  • कर स्लैब: नियमित करदाताओं के लिये प्राथमिक GST स्लैब वर्तमान में 0% (शून्य-रेटेड), 5%, 12%, 18% और 28% हैं।
  • कुछ GST दरें हैं जिनका आमतौर पर कम उपयोग किया जाता है, जैसे– 3% और 0.25%।
  • GST के लाभ:
    • सरलीकृत कर व्यवस्था: GST ने कई अप्रत्यक्ष करों को प्रतिस्थापित कर दिया, जिससे अनुपालन आसान हो गया और व्यवसायों के लिये कागज़ी कार्रवाई कम हो गई।
    • पारदर्शिता में वृद्धि: ऑनलाइन GST पोर्टल कर प्रशासन को सरल बनाता है और प्रणाली में पारदर्शिता को बढ़ावा देता है।
    • कर का बोझ कम होना: व्यापक करों के समाप्त होने से कीमतें कम होने से उपभोक्ताओं को लाभ होता है।
    • आर्थिक विकास को बढ़ावा: कर बाधाओं को दूर करके और दक्षता में सुधार करके, GST से उच्च आर्थिक विकास तथा रोज़गार सृजन में योगदान की उम्मीद है।
    • GST परिषद: GST परिषद एक संवैधानिक निकाय है जो भारत में GST के कार्यान्वयन से संबंधित मुद्दों पर सिफारिशें करने के लिये ज़िम्मेदार है।
    • संशोधित संविधान के अनुच्छेद 279A (1) के अनुसार, GST परिषद का गठन राष्ट्रपति द्वारा किया गया था।

भारत में GST से संबंधित वर्तमान प्रमुख चुनौतियाँ क्या हैं? 

  • जटिलता और अनुपालन बोझ: भारत में GST में कई कर स्लैब के साथ एक जटिल संरचना है, जिससे अनुपालन आवश्यकताओं में वृद्धि हुई है।
  • यह जटिलता व्यवसायों, विशेषकर छोटे उद्यमों के लिये विविध नियमों को समझने और उनका पालन करने में एक चुनौती पेश करती है।
  • प्रौद्योगिकी और बुनियादी ढाँचे की तैयारी: GST का सफल कार्यान्वयन काफी हद तक मज़बूत तकनीकी बुनियादी ढाँचे पर निर्भर करता है। व्यवसायों के बीच तकनीकी तत्परता की कमी और प्रौद्योगिकी को अपनाने में असमानता जैसे मुद्दे GST नेटवर्क के निर्बाध कामकाज में बाधा बन सकते हैं।
  • इनपुट टैक्स क्रेडिट (ITC) सत्यापन: सरकारी अधिकारियों ने हाल ही में GST बकाया की चोरी में शामिल 29,000 से अधिक फर्जी फर्मों की पहचान की है और उनका भंडाफोड़ किया है।
  • सभी राज्यों में एकाधिक पंजीकरण: कई राज्यों में काम करने वाले व्यवसायों को GST अनुपालन के लिये प्रत्येक राज्य में अलग-अलग पंजीकरण करना होगा।
  • पंजीकरण की यह बहुलता प्रशासनिक बोझ बढ़ाती है और अखिल भारतीय उपस्थिति वाले व्यवसायों के लिये अनुपालन लागत बढ़ाती है, जिससे लॉजिस्टिक चुनौतियों में योगदान होता है।

आगे की राह 

  • कर संरचना को सरल और तर्कसंगत बनाना: कर स्लैब की संख्या को कम करके GST कर संरचना को सरल बनाना।
  • अधिक स्पष्ट और एकसमान कर प्रणाली, व्यवसायों के लिये अनुपालन को आसान बनाएगी तथा कर दायित्वों की स्पष्ट समझ को बढ़ावा देगी।
  • अनुपालन प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करना: व्यवसायों पर प्रशासनिक बोझ को कम करने के लिये अनुपालन प्रक्रियाओं को सरल और सुव्यवस्थित करने की दिशा में काम करने की आवश्यकता है। इसमें रिटर्न फाइलिंग प्रक्रियाओं में सामंजस्य स्थापित करना, समय पर रिफंड सुनिश्चित करना और टैक्स फाइलिंग के लिये उपयोगकर्त्ता के अनुकूल इंटरफेस लागू करना शामिल हो सकता है।
  • कर चोरी-रोधी उपायों पर ध्यान देना: विशेष रूप से नकली चालान और धोखाधड़ी गतिविधियों के माध्यम से कर चोरी को रोकने के उपायों को मज़बूत करने की आवश्यकता है।
  • संदिग्ध लेनदेन की पहचान करने के लिये उन्नत डेटा एनालिटिक्स और प्रौद्योगिकी का उपयोग करना तथा धोखाधड़ी प्रथाओं को रोकने के लिये गैर-अनुपालन हेतु कड़े दंड लागू करना।

विश्व रोज़गार और सामाजिक आउटलुक: रुझान 2024

चर्चा में क्यों?

हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने विश्व रोज़गार और सामाजिक आउटलुक: रुझान 2024 रिपोर्ट जारी की है, जिसमें बताया गया है कि वैश्विक बेरोज़गारी दर वर्ष 2024 में बढ़ने वाली है और बढ़ती असमानताएँ एवं स्थिर उत्पादकता चिंता का कारण हैं।

रिपोर्ट के मुख्य तथ्य क्या हैं?

  • बिगड़ती आर्थिक स्थितियों के बीच लचीलापन: बिगड़ती आर्थिक स्थितियों के बावजूद, वैश्विक श्रम बाज़ारों ने बेरोज़गारी दर और नौकरियों के अंतर दर (रोज़गार रहित व्यक्तियों की संख्या जो नौकरी खोजने में रुचि रखते हैं) दोनों में सुधार के साथ आश्चर्यजनक लचीलापन दिखाया है।
  • वैश्विक बेरोज़गारी रुझान:
    • वर्ष 2023 में वैश्विक बेरोज़गारी दर 5.1% थी, जो वर्ष 2022 की तुलना में मामूली सुधार है।
    • हालाँकि रिपोर्ट में श्रम बाज़ार के बिगड़ते परिदृश्य का अनुमान लगाया गया है, वर्ष 2024 में अतिरिक्त 20 लाख श्रमिकों के नौकरियों की तलाश करने की उम्मीद है, जिससे वैश्विक बेरोज़गारी दर 5.2% तक बढ़ जाएगी।
  • असमान पुनर्प्राप्ति:
    • महामारी से उबरना असमान है, नई कमज़ोरियों और कई संकटों के कारण व्यापक सामाजिक न्याय की संभावनाएँ कम हो रही हैं।
    • बेरोज़गारी दर और नौकरियों के अंतर दर दोनों के संदर्भ में, उच्च एवं निम्न आय वाले देशों के बीच मतभेद बने रहते हैं।
    • वर्ष 2023 में उच्च आय वाले देशों में बेरोज़गारी अंतराल दर 8.2% था जबकि निम्न आय वाले देशों  में यह 20.5% थी।
    • इसी प्रकार र्ष 2023 में उच्च आय वाले देशों में बेरोज़गारी दर 4.5% पर बनी रही जबकि कम आय वाले देशों में यह 5.7% थी।
  • आय असमानता में वृद्धि:
    • आय असमानता में वृद्धि हुई है तथा अधिकांश G20 देशों में प्रयोज्य आय में गिरावट आई है।
    • वास्तविक प्रयोज्य आय में कमी को कुल मांग तथा अधिक निरंतर आर्थिक सुधार के लिये एक नकारात्मक कारक के रूप में देखा जाता है।
    • प्रयोज्य आय निवल आय प्रदर्शित करती है। यह करों के बाद शेष राशि को संदर्भित करती है।
  • कामकाज़ी गरीबी की स्थिति:
    • वर्ष 2020 के बाद संबद्ध क्षेत्र में तेज़ी से गिरावट के बावजूद अत्यधिक गरीबी में रहने वाले श्रमिकों की संख्या (क्रय शक्ति समता के संदर्भ में प्रति व्यक्ति प्रति दिन 2.15 अमेरिकी डॉलर से कम आय) वर्ष 2023 में लगभग 1 मिलियन बढ़ गई।
    • मध्यम निर्धनता (PPP के संदर्भ में प्रति व्यक्ति प्रति दिन USD3.65 से कम आय) में रहने वाले श्रमिकों की संख्या 2023 में 8.4 मिलियन बढ़ गई।
    • कामकाज़ी गरीबी एक चुनौती के रूप में बनी रहने की संभावना है।
  • अनौपचारिक कार्य दरों की स्थिति:
    • अनौपचारिक कार्य की दरों में स्थिरता रहने की उम्मीद है जो वर्ष 2024 में वैश्विक कार्यबल का लगभग 58% है।
  • श्रम बाज़ार का असंतुलन: 
    • महामारी से पहले श्रम बाज़ार में भागीदारी की दर की वापसी विभिन्न समूहों के बीच भिन्न-भिन्न रही है।
    • महिलाओं की भागीदारी में तेज़ी से वापसी हुई है, परंतु लैंगिक अंतर अभी भी बना हुआ है, विशेषकर उभरते और विकासशील देशों में।
    • .युवा बेरोज़गारी दर और NEET (रोज़गार, शिक्षा या प्रशिक्षण में नहीं) श्रेणी उच्च बनी हुई है, जिससे दीर्घकालिक रोज़गार संभावनाओं के लिये चुनौतियां खड़ी हो रही हैं।
  • उत्पादकता में कमी:
    • महामारी के बाद थोड़े समय के लिये उत्पादकता में वृद्धि तो देखी गई किंतु श्रम उत्पादकता पिछले दशक में देखे गए निम्न स्तर पर लौट आई है।
    • कौशल की कमी और बड़े डिजिटल एकाधिकार के प्रभुत्व सहित बाधाओं के साथ, तकनीकी प्रगति और बढ़े हुए निवेश के बावजूद उत्पादकता वृद्धि धीमी बनी हुई है।
  • अनिश्चित परिदृश्य और संरचनात्मक चिंताएँ:
    • हाल ही में देखे गए असंतुलन केवल महामारी का परिणाम मात्र नहीं है बल्कि संरचनात्मक चुनौतियाँ भी इसका कारण हो सकती हैं। कार्यबल संबंधी चुनौतियाँ व्यक्तिगत आजीविका और व्यवसाय दोनों के लिये खतरा पैदा करती हैं।
    • गिरते जीवन स्तर, कमज़ोर उत्पादकता, निरंतर मुद्रास्फीति और अधिक असमानता सामाजिक न्याय तथा सतत् पुनर्प्राप्ति  के प्रयासों को क्षीण करती है। रिपोर्ट इन चुनौतियों से प्रभावी ढंग से और शीघ्रता से निपटने की आवश्यकता पर जोर देती है।
  • सकारात्मक वास्तविक मज़दूरी:
    • भारत और तुर्की में वास्तविक मज़दूरी अन्य G20 देशों की तुलना में "सकारात्मक" है, लेकिन उपलब्ध डेटा 2021 के सापेक्ष 2022 का संदर्भ देता है। इसका तात्पर्य यह है कि वैश्विक चुनौतियों के बावजूद, भारत में वेतन वृद्धि मुद्रास्फीति से आगे निकलने में कामयाब रही है, जिससे वास्तविक मज़दूरी में सुधार में योगदान मिला है।
    • अन्य G20 देशों में वास्तविक मज़दूरी में गिरावट देखी गई; गिरावट विशेष रूप से ब्राज़ील (6.9%), इटली (5%) और इंडोनेशिया (3.5%) में देखी गई।

दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 पर चिंताएँ

चर्चा में क्यों? 

दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (IBC) कई उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये वर्ष 2016 में लागू हुई, जिसमें देनदार की संपत्ति के मूल्य को अधिकतम करना, उद्यमिता को बढ़ावा देना, मामलों का समय पर समाधान सुनिश्चित करना और हितधारकों के हितों को संतुलित किया जाता है।

हालाँकि, हाल के घटनाक्रमों ने इस संहिता की प्रभावशीलता और समाधान प्रक्रिया के बारे में चिंताएँ बढ़ा दी हैं।

IBC के साथ प्रमुख मुद्दे क्या हैं?

  • न्यून पुनर्भुगतान प्रतिशत: 
    • वर्ष 2023 में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा जारी वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (FSR) के अनुसार, रिज़ॉल्यूशन योजना अनुमोदन प्रक्रिया में आम तौर पर क्रेता द्वारा केवल 15% भुगतान शामिल होता है और पुनर्भुगतान में बैंकों द्वारा किसी भी अतिरिक्त ब्याज के बिना वर्षों लग सकते हैं।
    • इससे पुनर्भुगतान प्रक्रिया की प्रभावशीलता पर सवाल खड़े हो गए हैं।
  • निपटान और पुनर्प्राप्ति:
    • हाल के निपटान और समाधान, जैसे कि रिलायंस कम्युनिकेशंस इंफ्रास्ट्रक्चर लिमिटेड (RCIL) मामले ने कम निपटान राशि तथा विस्तारित समाधान अवधि के कारण चिंताएँ बढ़ा दी हैं।
    • उदाहरण के लिये RCIL के निपटान की राशि ऋण का मात्र 0.92% थी और समाधान योजना को पूरा करने में चार वर्ष लग गए, जो निर्धारित अधिकतम 330 दिनों से कहीं अधिक था।
    • वित्तीय ऋणदाताओं (FC) को आदर्श रूप से मूलधन और ब्याज मिलना चाहिये।
    • चूक की पहचान करने और उसे स्वीकार करने में समय लेने वाली प्रक्रियाएँ पुनर्प्राप्ति दरों को कम करने में योगदान करती हैं। यह समाधान कार्यवाही को समय पर शुरू करने में बाधा उत्पन्न करता है, जिससे पुनर्प्राप्ति दर कम हो जाती है।
  • हेयर कट्स और पुनर्प्राप्ति दरें:
    • "हेयरकट्स" की अवधारणा, जिसमें ऋण और अर्जित ब्याज को बट्टे खाते में डालना शामिल है, ने प्रमुखता प्राप्त कर ली है।
    • प्रमोटर अपनी कंपनी को शोधन कर्मचारियों के पास ले जाकर और बैंकरों/राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (NCLT) से पर्याप्त छूट प्राप्त करके लाभ उठा रहे हैं।
    • समाधान के बाद, उधारकर्त्ता और दिवाला पेशेवर (IP) अमीर/धनी बने रहते हैं, जबकि ऋणदाताओं को नुकसान होता है तथा बैंक देनदारी से मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि केवल कंपनियों को दिवालिया घोषित किया जाता है, मालिकों को नहीं, जिससे जमाकर्त्ताओं को नुकसान होता है।
    • इसके परिणामस्वरूप वित्तीय ऋणदाताओं को प्राप्त होने वाली वसूली दर कम हो गई है तथा कुछ मामलों में बकाया ऋण का केवल 5% ही प्राप्त हुआ है।

Economic Development (आर्थिक विकास): January 2024 UPSC Current Affairs | भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy) for UPSC CSE in Hindi

  • वसूली योग्य मूल्य:
    • वर्ष 2023 में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) द्वारा जारी FSR लेनदारों के लिये कम वसूली योग्य मूल्य प्राप्त होने के मुद्दे को उजागर करता है जिसमें बैंक अथवा वित्तीय लेनदार बड़े कॉरपोरेट्स के NCLT द्वारा निपटाए गए मामलों में औसतन केवल 10-15% की वसूली करते हैं। हालाँकि RBI का कहना है कि लेनदारों को परिसमापन पर प्राप्य मूल्य (Liquidation Value) का 168.5% तथा उचित मूल्य का 86.3% मिलता है।
    • FSR के अनुसार 597 परिसमापन में से ₹1,32,888 करोड़ के दावे की तुलना में वसूल हुई राशि स्वीकृत दावों का 3% थी।
    • जबकि बैंक किसानों, छात्रों, MSME तथा आवासीय ऋण पर नवीनतम ब्याज़ लेते हैं, जिसमें देरी की स्थिति में ज़ुर्माना ब्याज भी शामिल है और साथ ही संबद्ध स्थिति कॉरपोरेट्स के साथ अलग तरह से व्यवहार किया जाता है।
    • परिसमापन से प्राप्त राशि भी न्यूनतम रही है, जिससे पुनर्प्राप्ति प्रक्रिया संबंधी चिंताएँ बढ़ गई हैं।
  • विनियामक रिपोर्टें:
    • वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (Financial Stability Report- FSR) में कॉरपोरेट दिवाला समाधान प्रक्रिया (Corporate Insolvency Process- CIRP) संबंधी कई मुद्दे उजागर होते हैं।
    • रिपोर्ट के अनुसार स्वीकृत दावे बकाया से कम हैं तथा बैंक अथवा वित्तीय ऋणदाता परिसमापन पर प्राप्य मूल्य व उचित मूल्य का केवल एक अंश ही वसूल कर पा रहे हैं।
  • संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट:
    • वित्त पर संसदीय स्थायी समिति (Parliamentary Standing Committee) की 32वीं रिपोर्ट में कम वसूली दर से संबंधित चिंता को उजागर किया गया है जिसमें 95% तक की कटौती एवं 180 दिनों से अधिक समय से लंबित 71% से अधिक मामलों के साथ समाधान प्रक्रिया में देरी स्पष्ट रूप से संसद द्वारा संहिता के मूल उद्देश्य तथा रिज़ॉल्यूशन प्रोफेशनल्स (RP) और इन्सॉल्वेंसी प्रोफेशनल्स (IP) से संबंधित मुद्दों से विचलन की ओर इशारा करती है। ।
    • यह ऋणदाताओं की समिति (Committee of Creditors- COC) के लिये एक पेशेवर आचार संहिता की आवश्यकता और हेयरकट/मार्जिन की सीमा तय करने की भी सिफारिश करता है।
  • सीमित न्यायिक बेंच क्षमता:
    • न्यायाधीशों की कमी के कारण IBC समाधान प्रक्रिया बाधित होती है जिसके परिणामस्वरूप मामले के निपटान में देरी आती है। जिसके परिणामस्वरूप मामले के निपटान में देरी लगती है।

दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 की मुख्य विशेषताएँ क्या हैं?

  • परिचय:
    • दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (IBC), 2016 कंपनियों, व्यक्तियों एवं साझेदारियों के दिवालियेपन को समयबद्ध तरीके से हल करने के लिये एक रूपरेखा प्रदान करता है।
    • दिवाला एक ऐसी स्थिति है जहाँ किसी व्यक्ति या संगठन की देनदारियाँ उसकी संपत्ति से अधिक हो जाती हैं और वह संस्था अपने दायित्वों या ऋणों को पूरा करने के लिये पर्याप्त नकदी जुटाने में असमर्थ होती है क्योंकि उनका भुगतान बकाया हो जाता है।
    • दिवालियापन तब होता है जब किसी व्यक्ति या कंपनी को कानूनी तौर पर उनके देय और देय बिलों का भुगतान करने में असमर्थ घोषित कर दिया जाता है।
    • दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता (संशोधन) अधिनियम, 2021 दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 में संशोधन करता है।
    • इस संशोधन का उद्देश्य कूट के तहत सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यमों (MSME) के रूप में वर्गीकृत कॉर्पोरेट व्यक्तियों के लिये एक कुशल वैकल्पिक दिवाला समाधान ढाँचा प्रदान करना है।
    • इसका लक्ष्य सभी हितधारकों के लिये त्वरित, लागत प्रभावी और परिणाम सुनिश्चित करना है।
  • उद्देश्य:
    • देनदार की संपत्ति के मूल्य को अधिकतम करना।
    • उद्यमिता को बढ़ावा देना।
    • मामलों का समय पर एवं प्रभावी समाधान सुनिश्चित करना।
    • सभी हितधारकों के हितों को संतुलित करना।
    • प्रतिस्पर्द्धी बाज़ार और अर्थव्यवस्था को सुगम बनाना।
    • सीमा पार दिवालियापन मामलों के लिये एक रूपरेखा प्रदान करना।
  • IBC कार्यवाही:
  • भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता बोर्ड (IBBI): 
    • IBBI भारत में दिवाला कार्यवाही की देखरेख करने वाले नियामक प्राधिकरण के रूप में कार्य करता है।
    • इसमें पदेन सदस्य भी होते हैं।
    • IBBI के अध्यक्ष एवं तीन पूर्णकालिक सदस्य सरकार द्वारा नियुक्त किये जाते हैं तथा वे वित्त, कानून और दिवालियापन के क्षेत्र में विशेषज्ञ होते हैं।
  • कार्यवाही का निर्णय:
    • राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (NCLT) कंपनियों के लिये कार्यवाही का निर्णय करता है।
    • ऋण वसूली न्यायाधिकरण (DRT) व्यक्तियों के लिये कार्यवाही संभालता है।
    • समाधान प्रक्रिया की शुरुआत को मंज़ूरी देने, पेशेवरों की नियुक्ति करने और लेनदारों के अंतिम निर्णयों का समर्थन करने में अदालतें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
  • संहिता के तहत दिवाला समाधान की प्रक्रिया:
    • डिफॉल्ट पर देनदार या लेनदार द्वारा शुरू किया गया।
    • दिवाला पेशेवर प्रक्रिया का प्रबंधन करते हैं, लेनदारों को वित्तीय जानकारी प्रदान करते हैं और देनदार परिसंपत्ति प्रबंधन की देखरेख करते हैं।
    • 180 दिन की अवधि समाधान प्रक्रिया के दौरान देनदार के खिलाफ कानूनी कार्रवाई पर रोक लगाती है।
  • ऋणदाताओं की समिति (CoC):
    • दिवाला पेशेवरों द्वारा गठित, CoC में वित्तीय ऋणदाता शामिल हैं।
    • CoC बकाया ऋणों के भाग्य का निर्धारण करती है, ऋण पुनरुद्धार, पुनर्भुगतान अनुसूची में बदलाव या परिसंपत्ति परिसमापन पर निर्णय लेती है।
    • 180 दिनों के भीतर निर्णय न लेने पर देनदार की संपत्ति परिसमापन में चली जाती है।
  • परिसमापन प्रक्रिया:
    • देनदार की संपत्ति की बिक्री से प्राप्त आय को निम्नलिखित क्रम में वितरित किया जाता है:
    • पहला दिवाला समाधान लागत, जिसमें दिवाला पेशेवर का पारिश्रमिक शामिल है, दूसरा सुरक्षित लेनदार, जिनके ऋण संपार्श्विक द्वारा समर्थित हैं और तीसरा श्रमिकों, अन्य कर्मचारियों का बकाया, अगला असुरक्षित लेनदार।

आगे की राह

  • समाधान योजनाओं में उच्च पुनर्भुगतान प्रतिशत सुनिश्चित करने के उपाय लागू करें। इसमें योजनाओं को मंज़ूरी देने के लिये कठिन मूल्यांकन मानदंड, क्रेता द्वारा पर्याप्त अग्रिम भुगतान की आवश्यकता पर बल देना और समय पर भुगतान को प्रोत्साहित करना शामिल हो सकता है।
  • किसी एक कॉरपोरेट घराने के लिये ऋण की अधिकतम सीमा 10,000 करोड़ रुपए लागू करने का RBI का निर्णय बट्टे खाते में डालने के दौरान बैंकों के बोझ को कम करने के लिये महत्त्वपूर्ण है।
  • चूँकि मूल उद्देश्य पूरे नहीं हुए हैं इसलिये IBC और NCLT की पूर्ण समीक्षा की तत्त्काल आवश्यकता है।
  • "हेयरकट्स" की अवधारणा का पुनर्मूल्यांकन करें और प्रमोटरों द्वारा दुरुपयोग को रोकने के लिये उपायों को लागू करें। ऐसे सुरक्षा उपाय पेश करें जो प्रमोटरों और वित्तीय ऋणदाताओं के बीच घाटे का उचित वितरण सुनिश्चित करें।
  • मामलों की स्थिति और देरी के कारणों पर नियमित अपडेट सुनिश्चित करके समाधान प्रक्रिया में पारदर्शिता बढ़ाएँ।
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FAQs on Economic Development (आर्थिक विकास): January 2024 UPSC Current Affairs - भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian Economy) for UPSC CSE in Hindi

1. What is the impact of currency demonetization in India?
Ans. The demonetization of currency in India had a significant impact on the economy, leading to a decrease in liquidity, disruption in cash-based transactions, and a shift towards digital payments.
2. How is the steel industry in India faring currently?
Ans. The steel industry in India is facing challenges such as fluctuating demand, rising raw material costs, and competition from imports, which are impacting its growth and profitability.
3. What are the key issues faced by the toy industry in India?
Ans. The toy industry in India is struggling with competition from imported toys, lack of quality standards, and limited access to modern manufacturing technologies, affecting its growth potential.
4. How can businesses manage stability in loan rates and exchange rates effectively?
Ans. Businesses can manage stability in loan rates and exchange rates effectively by hedging against currency risks, negotiating favorable loan terms, and diversifying their foreign exchange exposure.
5. What are the main challenges in implementing GST and how can they be addressed?
Ans. The main challenges in implementing GST include tax compliance, technology integration, and transition issues. These can be addressed through better taxpayer education, simplification of processes, and robust IT infrastructure.
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