भारत का राजकोषीय घाटा
चर्चा में क्यों?
हाल ही में 2023-24 के शुरूआती चार महीनों में केंद्र का राजकोषीय घाटा पूरे वर्ष के लक्ष्य के 33.9% तक पहुँच गया।
- केंद्रीय बजट में, सरकार ने चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के 5.9% तक लाने का अनुमान व्यक्त किया है।
- वर्ष 2022-23 में राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 6.4% था जबकि पहले इसका अनुमान 6.71% व्यक्त किया गया था।
राजकोषीय घाटा
- परिचय:
- राजकोषीय घाटा सरकार के कुल व्यय और उसके कुल राजस्व (उधार को छोड़कर) के बीच का अंतर है।
- यह एक संकेतक है जो दर्शाता है कि सरकार को अपने कार्यों को वित्तपोषित करने के लिये किस सीमा तक उधार लेना चाहिये और इसे देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) के प्रतिशत के रूप में व्यक्त किया जाता है।
- उच्च और निम्न FD:
- उच्च राजकोषीय घाटे से मुद्रास्फीति, मुद्रा का अवमूल्यन और ऋण बोझ में वृद्धि हो सकती है।
- जबकि निम्न राजकोषीय घाटे को राजकोषीय अनुशासन और स्वस्थ अर्थव्यवस्था के सकारात्मक संकेत के रूप में देखा जाता है।
- राजकोषीय घाटे के सकारात्मक पहलू:
- सरकारी व्यय में वृद्धि: राजकोषीय घाटा सरकार को सार्वजनिक सेवाओं, बुनियादी ढाँचे और अन्य महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों पर व्यय बढ़ाने में सक्षम बनाता है जो आर्थिक विकास को प्रोत्साहित कर सकते हैं।
- सार्वजनिक निवेश का वित्तपोषण: सरकार राजकोषीय घाटे के माध्यम से बुनियादी ढाँचा/अवसंरचनात्मक परियोजनाओं जैसे दीर्घकालिक निवेश का वित्तपोषण कर सकती है।
- रोज़गार सृजन: सरकारी व्यय बढ़ने से रोज़गार सृजन हो सकता है, जो बेरोज़गारी को कम करने तथा जीवन स्तर को बढ़ाने में मदद कर सकता है।
- राजकोषीय घाटे के नकारात्मक पहलू:
- बढे हुए कर्ज़ का बोझ: लगातार उच्च राजकोषीय घाटा सरकारी ऋण में वृद्धि को दर्शाता है, जो भविष्य की पीढ़ियों पर कर्ज़ चुकाने का दबाव डालता है।
- मुद्रास्फीति का दबाव: बड़े राजकोषीय घाटे से धन की आपूर्ति में वृद्धि और उच्च मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो सकती है, जिससे सामान्य जन की क्रय शक्ति क्षमता कम हो जाती है।
- निजी निवेश में कमी: सरकार को राजकोषीय घाटे को पूरा करने के लिये भारी उधार लेना पड़ सकता है, जिससे ब्याज दरों में वृद्धि हो सकती है और निजी क्षेत्र के लिये ऋण प्राप्त करना मुश्किल हो सकता है, इस प्रकार निजी निवेश बाहर हो सकता है।
- भुगतान संतुलन की समस्या: यदि कोई देश बड़े राजकोषीय घाटे की स्थिति से गुज़र रहा है, तो उसे विदेशी स्रोतों से उधार लेना पड़ सकता है, जिससे विदेशी मुद्रा भंडार में कमी आ सकती है और भुगतान संतुलन पर दबाव पड़ सकता है।
भारतीय अर्थव्यवस्था और इम्पॉसिबल ट्रिनिटी
चर्चा में क्यों?
वर्तमान में भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) और भारतीय निवेशकों को "इम्पॉसिबल ट्रिनिटी" पर काबू पाने में एक चुनौती का सामना करना पड़ रहा है।
इम्पॉसिबल ट्रिनिटी
- परिचय:
- इम्पॉसिबल ट्रिनिटी, या त्रिलम्मा, इस विचार को संदर्भित करता है कि एक अर्थव्यवस्था स्वतंत्र मौद्रिक नीति, निश्चित विनिमय दर नहीं बनाए रख सकती है और एक ही समय में अपनी सीमाओं के विपरीत पूंजी के मुक्त प्रवाह की अनुमति नहीं दे सकती है।
- एक निश्चित विनिमय दर व्यवस्था में घरेलू मुद्रा अन्य विदेशी मुद्राओं जैसे अमेरिकी डॉलर, यूरो, पाउंड स्टर्लिंग आदि की एक बास्केट से जुड़ी होती है।
- एक सक्षम नीति निर्माता, किसी भी समय, इन तीन उद्देश्यों में से दो को प्राप्त कर सकता है।
- यह विचार 1960 के दशक की शुरुआत में कनाडा के अर्थशास्त्री रॉबर्ट मुंडेल और ब्रिटिश अर्थशास्त्री मार्कस फ्लेमिंग द्वारा स्वतंत्र रूप से प्रस्तावित किया गया था।
- इम्पॉसिबल ट्रिनिटी अंतर्राष्ट्रीय अर्थशास्त्र और मौद्रिक नीति में एक मौलिक अवधारणा है।
- यह उन अंतर्निहित चुनौतियों का वर्णन करती है जिनका सामना देश अपनी विनिमय दर और पूंजी प्रवाह से संबंधित तीन विशिष्ट नीतिगत उद्देश्यों को एक साथ प्राप्त करने का प्रयास करते हैं।
- चुनौतियाँ:
- जब कोई देश मुक्त पूंजी प्रवाह और निश्चित विनिमय दर को प्राथमिकता देता है, तो वह अपनी मौद्रिक नीति पर नियंत्रण खो देता है, जिससे वह बाह्य आर्थिक दबावों के प्रति संवेदनशील हो जाता है।
- यदि कोई देश एक निश्चित विनिमय दर और स्वतंत्र मौद्रिक नीति बनाए रखना चाहता है, तो उसे अपनी सीमाओं के विपरीत धन के प्रवाह को सीमित करने के लिये पूंजी नियंत्रण लागू करना होगा।
- स्वतंत्र मौद्रिक नीति और मुक्त पूंजी प्रवाह का विकल्प चुनने के लिये विनिमय दर में उतार-चढ़ाव को स्वीकार करने की आवश्यकता होती है, जिससे संभावित रूप से अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है।
- इम्पॉसिबल ट्रिनिटी के उदाहरण:
- विभिन्न देशों ने इम्पॉसिबल ट्रिनिटी की चुनौतियों का सामना किया है, जिनमें से कुछ उल्लेखनीय उदाहरण वर्ष 1997 में एशियाई वित्तीय संकट और वर्ष 1992 में यूरोपीय विनिमय दर तंत्र संकट हैं।
- इन संकटों को आंशिक रूप से प्रभावित देशों की निश्चित विनिमय दरों, स्वतंत्र मौद्रिक नीतियों और मुक्त पूंजी प्रवाह को एक साथ बनाए रखने में असमर्थता हेतु ज़िम्मेदार ठहराया गया था।
भारत का इम्पॉसिबल ट्रिनिटी से जूझना
इम्पॉसिबल ट्रिनिटी को संबोधित करने के लिये रणनीतियाँ और कार्य
- ब्याज दरों का प्रबंधन:
- अमेरिकी फेडरल रिज़र्व की तुलना में RBI ब्याज़ दरें बढ़ाने में सतर्क रहा है।
- दरें बढ़ाने की अनिच्छा मंदी उत्पन्न होने के भय से प्रेरित है, खासकर वर्ष 2024 में आगामी चुनावों के साथ।
- कम ब्याज़ दर मध्यस्थता अमेरिका (विश्व की आरक्षित मुद्रा) में पूंजी की उड़ान और भारतीय रुपए के आसन्न मूल्यह्रास का संकेत देती है।
- विदेशी मुद्रा भंडार की संरचना:
- भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में मुख्य रूप से 'हॉट मनी' (विदेशी संस्थागत निवेशकों (FII) से जो मध्यस्थता के अवसरों का लाभ उठाने के लिये घरेलू ऋण या इक्विटी बाज़ारों में निवेश करते हैं) और कॉर्पोरेट उधार (उदाहरण के लिये, अडानी ग्रीन एनर्जी, वेदांता, आदि) शामिल हैं, ना कि व्यापार से कमाया गया धन।
- व्यापार के माध्यम से अर्जित नहीं किये गए भंडार पर विश्वास करना मुद्रा स्थिरता बनाए रखने के लिये चुनौतीपूर्ण हो सकता है।
- पूंजी नियंत्रण लागू करना:
- भारत ने पूंजी प्रवाह को नियंत्रित करने के लिये विभिन्न उपाय लागू किये हैं, लेकिन उनकी प्रभावशीलता अभी अनिश्चित बनी हुई है।
पूंजी बहिर्प्रवाह को नियंत्रित करने के नीतिगत उपाय
- आयात प्रतिबंध और लाइसेंसिंग नीतियाँ:
- भारत ने पूंजी के बहिर्प्रवाह को सीमित करने की त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में, विशेष रूप से इलेक्ट्रॉनिक वस्तुओं पर आयात प्रतिबंध लगाया।
- इन प्रतिबंधों को बाद में घरेलू विनिर्माण सीमाओं के कारण लाइसेंस-आधारित आयात नीतियों में बदल दिया गया।
- हालाँकि, ये उपाय अनजाने में पूंजी के बहिर्वाह को रोकने के बजाय आपूर्ति-तन्य मुद्रास्फीति में योगदान कर सकते हैं।
- कर दरों में परिवर्तन:
- भारत ने पूंजी के बहिर्प्रवाह को प्रतिबंधित करने के साधन के रूप में आउटबाउंड प्रेषण पर कर दरों को 5% से बढ़ाकर 20% कर दिया है।
- 'इम्पॉसिबल ट्रिनिटी' के प्रबंधन में इस कर वृद्धि की प्रभावशीलता जाँच के दायरे में है।
- भारत की आर्थिक स्थिति पर चीन का प्रभाव:
- चीन की अपस्फीति और विभिन्न दरों में कटौती का उद्देश्य आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करना है। चीनी उपभोक्ता मूल्य सूचकांक जुलाई में पिछले वर्ष की तुलना में 0.3% गिर गया। इसके अतिरिक्त, चीनी युआन के मुकाबले INR में 4% की वृद्धि हुई है।
- भारतीय रुपए के मज़बूत होने के परिणामस्वरूप चीन से आयात में वृद्धि हो सकती है जो अंततः भारत के व्यापार संतुलन तथा मुद्रा गतिशीलता प्रभावित कर सकती है।
- चीनी मुद्रा युआन के मूल्यह्रास से वैश्विक बाज़ारों में भारत का निर्यात कम प्रतिस्पर्द्धी हो सकता है।
- विदेशी संस्थागत निवेशक (Foreign Institutional Investors- FIIs) और भारतीय ऋण:
- विदेशी संस्थागत निवेशको द्वारा भारतीय ऋण प्रतिभूतियों की हिस्सेदारी बेचे जाने तथा विदेशों में अधिक लाभदायक निवेश की तलाश करने से विदेशी मुद्रा की मांग में वृद्धि देखी जा रही है और विदेशी मुद्रा बाज़ार में भारतीय रुपया कमज़ोर हो रहा है।
भारतीय निवेशकों के लिये इम्पॉसिबल ट्रिनिटी के निहितार्थ
- रुपए के मूल्यह्रास से सुरक्षा:
- सूचना प्रौद्योगिकी और फार्मा जैसे क्षेत्रों में निवेश, जिनमें कमाई मुख्य रूप से डॉलर में होती हैं, रुपए के मूल्य में गिरावट क कम कर सकते हैं।
- रुपया कमज़ोर होने के समय इन कंपनियों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता में संभावित वृद्धि लाभकारी रिटर्न दे सकती है।
- विदेशी में निवेश में विविधता लाना:
- निवेशकों को 'इम्पॉसिबल ट्रिनिटी' द्वारा उत्पन्न चुनौतियों को स्वीकार करने के लिए स्वयं को अनुकूलित करना चाहिये।
- चुनौतीपूर्ण आर्थिक स्थिति में, पूंजी की सुरक्षा के लिये अंतर्राष्ट्रीय परिसंपत्तियों में निवेश करना आवश्यक हो जाता है।
आगे की राह
- भारत को पूंजी नियंत्रण उपायों को प्रभावी ढंग से लागू करने पर ध्यान देना चाहिये। इन उपायों से मुद्रा स्थिरता बनाए रखने और विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता है।
- देश को सक्रिय रूप से अपने विदेशी मुद्रा भंडार में विविधता लानी चाहिये और विदेशी निवेशकों के 'हॉट मनी' पर बहुत अधिक निर्भर रहने के बजाय व्यापार के माध्यम से लाभ अर्जित करने का लक्ष्य रखना चाहिये।
- इसके अतिरिक्त, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को आकर्षित करने से मुद्रा स्थिरता में मदद मिल सकती है और रुपया मज़बूत हो सकता है
- भारतीय रिज़र्व बैंक को मुद्रास्फीति नियंत्रण और विदेशी निवेश को आकर्षित करने संबंधी कार्यों पर विचार करते हुए ब्याज़ दरों के संदर्भ में संतुलित दृष्टिकोण अपनाना चाहिये। ब्याज़ दर का क्रमिक समायोजन इस संतुलन को हासिल करने में मदद कर सकता है।
वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट
चर्चा में क्यों?
हाल ही में भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (SEBI) ने घोषणा की है कि उसका लक्ष्य व्यापार निपटान प्रक्रियाओं की दक्षता बढ़ाने के लिये मार्च 2024 तक ट्रेडों का वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट अर्थात् एक घंटे का निपटान शुरू करना है।
- SEBI जनवरी 2024 तक सेकेंडरी मार्केट में ट्रेडिंग के लिये एप्लीकेशन सपोर्टेड बाय ब्लॉक्ड अमाउंट (ASBA) जैसी सुविधा लॉन्च करेगा।
व्यापार समझौता
- परिचय:
- व्यापार निपटान वित्तीय बाज़ारों में एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है जिसमें व्यापार में शामिल पक्षों के बीच धन और प्रतिभूतियों का हस्तांतरण शामिल होता है।
- इससे यह सुनिश्चित होता है कि खरीदार को खरीदी गई प्रतिभूतियाँ और विक्रेता को संविदित धनराशि प्राप्त हो।
- प्रतिभूति व्यापार के संदर्भ में यह निपटान प्रक्रिया लेन-देन को अंतिम रूप देती है।
- T+1 निपटान चक्र:
- जनवरी 2023 में भारत ने T+1 निपटान चक्र अपनाया, जहाँ T व्यापार तिथि का प्रतिनिधित्व करता है।
- इसका तात्पर्य यह है कि व्यापार-संबंधी निपटान वास्तविक लेन-देन के 1 व्यावसायिक दिवस या 24 घंटों के भीतर होता है।
- शीर्ष-सूचीबद्ध प्रतिभूतियों में T+1 निपटान चक्र लागू करने वाला भारत, चीन के बाद दूसरा देश बन गया है।
- इस बदलाव से कई फायदे हुए, जिनमें परिचालन दक्षता में वृद्धि, द्रुत फंड ट्रांसफर, त्वरित शेयर डिलीवरी और शेयर बाज़ार में प्रतिभागियों के लिये बेहतर सुविधा शामिल है।
रियल टाइम ट्रेड सेटलमेंट हेतु SEBI की नई योजना
- वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट:
- इस योजना के तहत जब कोई निवेशक शेयर बेचता है, तो बिक्री की राशि वन-आवर अर्थात् एक घंटे के अंदर उसके खाते में जमा कर दी जाएगी और खरीदार को उसी समय-सीमा के अंदर अपने डीमैट खाते में खरीदे गए शेयर प्राप्त होंगे।
- यह मौजूदा T+1 चक्र की तुलना में निपटान समय में कमी को दर्शाता है।
- तात्कालिक ट्रेड सेटलमेंट:
- SEBI स्वीकार करता है कि तात्कालिक निपटान करना अधिक जटिल कार्य है, जिसके लिये अतिरिक्त प्रौद्योगिकी विकास की आवश्यकता है।
- इसलिये उनकी योजना पहले वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट को लागू करने पर केंद्रित है और फिर तात्कालिक निपटान की दिशा में आगे बढ़ने की है।
- तात्कालिक निपटान शुरू करने की समय-सीमा वर्ष 2024 के अंत तक होने का अनुमान है।
वन-आवर ट्रेड सेटलमेंट के लाभ
- त्वरित लेन-देन: निवेशकों को निपटान समय में कमी का अनुभव होगा, जिससे धनराशि और प्रतिभूतियों तक त्वरित पहुँच संभव होगी।
- बढ़ी हुई तरलता: त्वरित निपटान से बाज़ार में तरलता में सुधार हो सकता है क्योंकि पुनर्निवेश के लिये धनराशि जल्द ही उपलब्ध हो जाएगी।
- जोखिम में कटौती: निपटान समय को कम करने से प्रतिपक्ष और बाज़ार जोखिम को कम किया जा सकता है, जिससे समग्र बाज़ार स्थिरता में वृद्धि होगी।
- निवेशक सुविधा: निवेशक अपने फंड और प्रतिभूतियों तक त्वरित पहुँच की सराहना करेंगे, जिससे बाज़ार अधिक उपयोगकर्ता-अनुकूल बन जाएगा।
भारत में बेरोज़गारी का मापन
बेरोजगारी एक गंभीर मुद्दा है जो किसी भी राष्ट्र के प्रदर्शन को बहुत प्रभावित कर सकता है। इसे प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए, यह समझना महत्वपूर्ण है कि बेरोजगारी को कैसे परिभाषित किया जाता है और कैसे मापा जाता है, विशेषत: भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में।
बेरोजगारी को परिभाषित करना
बेरोजगारी का पर्याय बेकारी नहीं है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) बेरोजगारी को एक व्यक्ति के नौकरी से बाहर होने, नौकरी लेने के लिए उपलब्ध होने और सक्रिय रूप से काम की तलाश में लगे रहने के रूप में परिभाषित करता है। इसमें तीन प्रमुख मानदंड शामिल हैं:
- नौकरी से बाहर: किसी व्यक्ति के पास औपचारिक रोजगार की कमी होनी चाहिए।
- काम के लिए उपलब्ध: उन्हें रोजगार लेने के लिए इच्छुक और सक्षम होना चाहिए।
- सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश: नई नौकरी के अवसरों की तलाश के लिए सक्रिय प्रयासों से बेरोजगारी की पहचान होती है।
इस परिभाषा में उन व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया है जिन्होंने रोजगार खो दिया है और सक्रिय रूप से नए अवसरों की तलाश नहीं करते हैं।
बेरोजगारी मापना
इसमें कई महत्वपूर्ण घटक शामिल हैं:
- श्रम बल: इसमें ऐसे व्यक्ति शामिल हैं जो किसी अर्थव्यवस्था में या तो कार्यरत हैं या बेरोजगार हैं।
- श्रम बल से बाहर: इसमें ऐसे व्यक्ति शामिल हैं जो न तो कार्यरत हैं और न ही सक्रिय रूप से रोजगार की तलाश कर रहे हैं, जैसे छात्र या अवैतनिक घरेलू काम में लगे व्यक्ति, इस श्रेणी में आते हैं।
- बेरोजगारी दर: इसकी गणना बेरोजगार व्यक्तियों की संख्या और श्रम बल के अनुपात के रूप में की जाती है। नौकरी की उपलब्धता और व्यक्तियों के नौकरी चाहने वाले व्यवहार जैसे कारकों के आधार पर इस दर में उतार-चढ़ाव हो सकता है।
भारत में बेरोजगारी का मापन
- अमेरिका और भारतीय संदर्भों की तुलना: अमेरिका और भारत दोनों बेरोजगारी दर को मापते हैं यद्यपि उनकी आर्थिक संरचना और तरीके काफी भिन्न हैं। अमेरिका अधिक औद्योगिकीकृत है, जबकि भारत के पास पर्याप्त विशाल अनौपचारिक क्षेत्र है, जो बेरोजगारी को मापने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली विधियों को विशिष्ट बनाता है।
- भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में, सामाजिक मानदंड व्यक्तियों के रोजगार तलाशने के निर्णयों को प्रतिबंधित कर सकते हैं, जिससे बेरोजगारी मापना जटिल हो जाता है। 2009-10 में राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन (एनएसएसओ) के एक सर्वे से पता चला कि घरेलू काम में लगी महिलाओं के एक बड़े अनुपात ने काम करने की इच्छा व्यक्त की, अगर उनके घरों में अवसर उपलब्ध हों। हालाँकि, इन महिलाओं को बेरोजगार नहीं माना जाता है क्योंकि वे सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश में नहीं हैं। यह विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में वास्तविक बेरोजगारी की स्थिति को मापने में सक्रिय नौकरी की तलाश पर केंद्रित परिभाषा की सीमाओं पर प्रकाश डालता है।
- भारत में, अनौपचारिक रोज़गार का क्षेत्र व्यापक है, और व्यक्ति अक्सर पूरे वर्ष विभिन्न आर्थिक गतिविधियों में संलग्न रहते हैं। जो देश में बेरोजगारी माप को चुनौतीपूर्ण बना देता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति एक सप्ताह के लिए बेरोजगार हो सकता है लेकिन अगले महीने आकस्मिक श्रम में नियोजित हो सकता है, और वर्ष के अधिकांश समय के लिए किसान के रूप में नियोजित हो सकता है। सवाल उठता है: क्या उन्हें बेरोजगार के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए अथवा नही।
भारत में बेरोजगारी का मापन
भारत में व्यक्तियों की रोजगार की स्थितियों को वर्गीकृत करने के लिए दो प्रमुख घटकों का उपयोग किया जाता है जिसमें सामान्य प्रधान और सहायक स्थिति (यूपीएसएस) तथा वर्तमान साप्ताहिक स्थिति (सीडब्ल्यूएस) शामिल हैं :
- सामान्य प्रधान और सहायक स्थिति (यूपीएसएस): किसी व्यक्ति की प्रमुख रोजगार स्थिति पिछले वर्ष में उनकी प्राथमिक आर्थिक गतिविधि से निर्धारित होती है। हालाँकि, सहायक भूमिका वाले लोगों को अभी भी नियोजित कार्यबल के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है यदि वे कम से कम 30 दिनों तक आर्थिक गतिविधियों में शामिल रहे हों।
- उदाहरण: एक व्यक्ति जो पांच महीने तक बेरोजगार था लेकिन पिछले वर्ष सात महीने तक आकस्मिक मजदूर के रूप में काम करता हो , उसे सहायक स्थिति (यूपीएसएस) के अनुसार नियोजित माना जाएगा।
- वर्तमान साप्ताहिक स्थिति (सीडब्ल्यूएस): सीडब्ल्यूएस पिछले सप्ताह के दौरान किसी व्यक्ति की रोजगार स्थिति पर ध्यान केंद्रित करते हुए एक छोटी संदर्भ अवधि अपनाता है। इस छोटी समय सीमा के परिणामस्वरूप यूपीएसएस की तुलना में बेरोजगारी दर अधिक हो सकती है।
- उदाहरण: किसी व्यक्ति को सीडब्ल्यूएस में नियोजित माना जाता है यदि उसने सर्वेक्षण से पहले के सात दिनों के दौरान कम से कम एक दिन और कम से कम एक घंटा काम किया हो।
- वर्तमान दैनिक स्थिति: यह बेरोजगारी बेरोजगारी को मापने का एक अन्य तरीका है लेकिन भारत में इसका उपयोग बहुत कम किया जाता है।
- बेरोजगारी माप के लिए कुछ अन्य संकेतकों का भी उपयोग किया जाता है जैसे आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस), श्रम बल भागीदारी दर (एलएफपीआर) और कार्यकर्ता जनसंख्या अनुपात (डब्ल्यूपीआर)।
बेरोजगारी मापन में चुनौतियाँ
बेरोजगारी मापन को अंतर्निहित चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, विशेषकर भारत जैसी कृषि अर्थव्यवस्थाओं में:
- अनौपचारिक अर्थव्यवस्था जटिलता: भारत में अनौपचारिक रोजगार की व्यापकता है जिससे व्यक्ति प्रायः बेरोजगारी और रोजगार की स्थिति में बदलाव करते हैं, जिससे माप संबंधी चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं।
- उदाहरण: ग्रामीण क्षेत्रों में छिटपुट रोजगार के अवसरों और रोजगार की अनौपचारिक प्रकृति के कारण शहरी क्षेत्रों की तुलना में बेरोजगारी दर कम हो सकती है।
- मापन में व्यापार-बंद (Trade-Offs ): भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में मापन ढांचे के लिए व्यापार-बंद (ऐसी स्थिति जहां एक विकल्प चुनने के लिए दूसरे विकल्प के कुछ पहलुओं का त्याग करना पड़ता है )की आवश्यकता होती है। लंबी संदर्भ अवधि के परिणामस्वरूप बेरोजगारी दर कम हो सकती है, जबकि छोटी अवधि के परिणामस्वरूप उच्च दर हो सकती है।
- उदाहरण: एक छोटी संदर्भ अवधि, जैसे सीडब्ल्यूएस में एक सप्ताह की समय सीमा, बेरोजगारी दर में उतार-चढ़ाव को पकड़ सकती है लेकिन व्यापक रोजगार तस्वीर का सटीक रूप से प्रतिनिधित्व नहीं कर सकती है।
लॉकडाउन का प्रभाव
भारत में COVID-19 लॉकडाउन ने बेरोजगारी मापन के लिए एक अनूठी चुनौती उत्पन्न की थी क्योंकि लॉकडाउन का आर्थिक व्यवधान आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) बेरोजगारी दर में तुरंत प्रतिबिंबित नहीं हुआ था इसका दीर्घकालिक प्रभाव बाद के सर्वेक्षणों में देखा गया था। जिन व्यक्तियों ने लॉकडाउन के दौरान नौकरी खो दी, उन्हें छह महीने के भीतर रोजगार मिलने पर बेरोजगार के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है, जिससे माप और जटिल हो जाती है।
बेरोजगारी के कारण
भारत में बेरोजगारी के प्रमुख कारण इस प्रकार हैं:
- विशाल जनसँख्या ।
- व्यावसायिक कौशल की कमी या कामकाजी आबादी का निम्न शैक्षिक स्तर।
- श्रम प्रधान क्षेत्र, विशेष रूप से विमुद्रीकरण के बाद निजी निवेश में मंदी से पीड़ित हैं
- कृषि क्षेत्र में कम उत्पादकता, कृषि श्रमिकों के लिए वैकल्पिक अवसरोंका आभाव और सेवा क्षेत्र में सीमित रोजगार तीनों क्षेत्रों के बीच संक्रमण को कठिन बनाती है।
- कानूनी जटिलताएँ, अपर्याप्त राज्य समर्थन, छोटे व्यवसायों के लिए कम बुनियादी ढाँचा, वित्तीय और बाज़ार संपर्क ऐसे उद्यमों को लागत और अनुपालन में वृद्धि के कारण अव्यवहार्य बनाते हैं।
- बुनियादी ढांचे की अपर्याप्त वृद्धि और विनिर्माण क्षेत्र में कम निवेश द्वितीयक क्षेत्र की रोजगार क्षमता को सीमित कर रहा है।
- आवश्यक शिक्षा या कौशल की कमी के कारण देश का विशाल कार्यबल अनौपचारिक क्षेत्र से जुड़ा हुआ है, और यह डेटा रोजगार के आंकड़ों में दर्ज नहीं किया जाता है।
- संरचनात्मक बेरोजगारी का मुख्य कारण स्कूलों और कॉलेजों में प्रदान की जाने वाली शिक्षा उद्योगों की वर्तमान आवश्यकताओं के अनुसार नहीं है।
- प्रतिगामी सामाजिक मानदंड जो महिलाओं को रोजगार लेने/जारी रखने से रोकते हैं।
बेरोजगारी का प्रभाव
किसी भी देश में बेरोजगारी का अर्थव्यवस्था पर निम्नलिखित प्रभाव पड़ता है:
- बेरोजगारी की समस्या गरीबी की समस्या को जन्म देती है।
- सरकार पर अतिरिक्त उधार का बोझ पड़ता है क्योंकि बेरोजगारी के कारण उत्पादन में कमी आती है और लोगों द्वारा वस्तुओं और सेवाओं की खपत कम हो जाती है।
- बेरोजगार व्यक्ति आसानी से असामाजिक तत्वों के बहकावे में आ सकते हैं। इससे उनका देश के लोकतांत्रिक मूल्यों से विश्वास समाप्त हो जाता है।'
- लंबे समय से बेरोजगार लोग पैसा कमाने के लिए गैरकानूनी और गलत गतिविधियों में शामिल हो सकते हैं जिससे देश में अपराध बढ़ता है।
- बेरोजगारी देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है क्योंकि जिस कार्यबल को संसाधनों को उत्पन्न करने के लिए लाभप्रद रूप से नियोजित किया जा सकता था वह वास्तव में शेष कामकाजी आबादी पर निर्भर हो जाता है, जिससे राज्य के लिए सामाजिक-आर्थिक लागत बढ़ जाती है। उदाहरण के लिए, बेरोजगारी में 1% की वृद्धि से सकल घरेलू उत्पाद में 2% की कमी आती है।
- प्रायः देखा जाता है कि बेरोजगार लोग नशीली दवाओं और शराब के आदी हो जाते हैं या आत्महत्या का प्रयास करते हैं, जिससे देश के मानव संसाधनों को नुकसान होता है।
भावी रणनीति
- श्रम प्रधान उद्योगों को बढ़ावा देना: रोजगार सृजन को बढ़ावा देने के लिए, खाद्य प्रसंस्करण, चमड़ा और जूते, लकड़ी विनिर्माण, कपड़ा और परिधान जैसे श्रम प्रधान क्षेत्रों को बढ़ावा देना आवश्यक हैं।
- उद्योगों का विकेंद्रीकरण: विभिन्न क्षेत्रों में औद्योगिक गतिविधियों के विस्तार को प्रोत्साहित करना, हर क्षेत्र में रोजगार के अवसर प्रदान करने के लिए महत्वपूर्ण है। यह दृष्टिकोण ग्रामीण-से-शहरी प्रवासन दबाव को भी कम कर सकता है।
- उद्यमिता संवर्धन: विशेष रूप से युवाओं के बीच उद्यमशीलता को बढ़ावा देना महत्वपूर्ण है क्योंकि उद्यमी रोजगार सृजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
- महिला श्रम बल भागीदारी: सामाजिक बाधाओं को तोड़ने और नौकरी बाजार में महिलाओं के प्रवेश और निरंतर भागीदारी को सुनिश्चित करने के उपायों को लागू करना आवश्यक है।
- कुशल कार्यबल विकास: कुशल श्रम शक्ति तैयार करने के लिए शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन और उसे रोजगार उन्मुख बनना अत्यावश्यक है।
- प्रभावी कार्यक्रम कार्यान्वयन: मेक इन इंडिया, स्किल इंडिया, स्टार्ट-अप और स्टैंड-अप इंडिया जैसी मौजूदा पहलों का प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित करना रोजगार सृजन के लिए महत्वपूर्ण है।
- राष्ट्रीय रोजगार नीति (एनईपी): एक व्यापक राष्ट्रीय रोजगार नीति (एनईपी) विकसित करना आवश्यक है, जिसमें बहुआयामी हस्तक्षेप शामिल हो जो श्रम और रोजगार क्षेत्र से परे विभिन्न सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को संबोधित करता हो।
निष्कर्ष
बेरोजगारी राजनीतिक और आर्थिक संदर्भों में एक महत्वपूर्ण कारक है, विशेषकर भारत जैसी विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में। प्रभावी नीति निर्धारण और श्रम बल के सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिए बेरोजगारी माप की जटिलताओं को समझना आवश्यक है।
भारत में कपास उत्पादन
हाल ही में वस्त्र मंत्रालय ने 7 अक्टूबर, 2020 को द्वितीय ‘विश्व कपास दिवस’ (World Cotton Day) पर भारतीय कपास के लिए अब तक का पहला ब्रांड एवं लोगो (Brand & Logo) लॉन्च किया।
भारतीय कपास का ब्रांड एवं लोगो (Brand & Logo)
- भारतीय कपास के लिए ब्रांड एवं लोगो (Brand & Logo) लॉन्च होने से भारत का कपास , विश्व कपास व्यापार में ‘कस्तूरी कॉटन’ (Kasturi Cotton) के रूप में जाना जाएगा।
- कस्तूरी कॉटन ब्रांड सफेदी, चमक, मृदुलता, शुद्धता, शुभ्रता, अनूठापन एवं भारतीयता का प्रतिनिधित्व करेगा।
विश्व कपास दिवस (World Cotton Day)
- विश्व कपास दिवस प्रत्येक वर्ष 7 अक्टूबर को मनाया जाता है।
- इस दिवस को विश्व व्यापार संगठन (World Trade Organisation- WTO) द्वारा संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization- FAO), व्यापार और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (United Nations Conference on Trade and Development- UNCTAD), अंतर्राष्ट्रीय व्यापार केंद्र (International Trade Centre- ITC) और अंतर्राष्ट्रीय कपास सलाहकार समिति (International Cotton Advisory Committee- ICAC) के सचिवालयों के सहयोग से आयोजित किया जाता है।
- विश्व कपास दिवस का आयोजन पहली बार वर्ष 2019 में किया गया था।
- इस दिवस के द्वारा कपास के महत्व पर प्रकाश डाला जाता है।
- इस दिवस का मनाने का उद्देश्य विश्वभर में कपास अर्थव्यवस्थाओं के सामने आने वाली चुनौतियों को उजागर करना है।
महत्वपूर्ण बिन्दु
- कपास, कपड़ा या वस्त्र उद्योग के लिए अति महत्वपूर्ण है। यह लोगों को बड़ी संख्या रोज़गार भी प्रदान करता है। एक टन कपास 5 या 6 लोगों को वर्ष भर का रोजगार प्रदान करता है।
- कपास की खेती पूरे विश्व में होती है और एक टन कपास से औसत पांच लोगों को पूरे वर्ष भर रोजगार प्राप्त होता है। कपास सूखारोधी फसल है। विश्व के केवल 2.1 प्रतिशत कृषि योग्य भूमि में कपास की खेती होती है, लेकिन यह विश्व की वस्त्र जरूरतों के 27 प्रतिशत को पूरा करती है।
- वर्तमान समय में कपास की खेती एक बहुत बड़े क्षेत्रफल में हो रही है। मानव जीवन में इसका बहुत ही महत्त्व है। इसीलिए कपास की मांग दिन प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही है।
कपास
- कपास, एक महत्वपूर्ण नकदी फसल है। इससे रुई तैयार की जाती हैं, व्यावसायिक जगत में इसे ‘श्वेत स्वर्ण’ (सफेद सोना) के नाम से जाना जाता है। कपास के पौधे बहुवर्षीय व झाड़ीनुमा वृक्ष जैसे होते हैं।
- कपास रेशे वाली फसल है। यह कपडे़ तैयार करने का नैसर्गिक रेशा है। कपास से निर्मित वस्त्र ‘सूती वस्त्र’ कहलाते हैं। कपास में मुख्य रूप से सेल्यूलोस होता है।
- कपास की खेती के लिए काली मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है।
- इतिहासकारों का मानना है कि कपड़े अर्थात वस्त्रों के लिए कपास का उपयोग प्रागैतिहासिक काल(prehistoric times) से ही किया जा रहा है। भारतीय उपमहाद्वीप की सिंधु घाटी सभ्यता से भी कपास के साक्ष्य पाये गए हैं।
कपास की किस्में
- रेशे के आधार पर कपास की किस्में निम्नलिखित हैं-
- लम्बे रेशे वाली कपास
- मध्य रेशे वाली कपास
- छोटे रेशे वाली कपास
- लम्बे रेशे वाले कपास सबसे सर्वोत्तम प्रकार के होते हैं, जिसकी लम्बाई 5 सें.मी. से अधिक होती है। इससे उच्च कोटि का कपड़ा बनाया जाता है। तटीय क्षेत्रों में पैदा होने के कारण इसे 'समुद्र द्वीपीय कपास' भी कहते हैं।
- मध्य रेशे वाला कपास, जिसकी लम्बाई 3.5 से 5 सें.मी. तक होती है, 'मिश्रित कपास' कहलाता है।
- तीसरे प्रकार का कपास छोटे रेशे वाला होता है, जिसके रेशे की लम्बाई 3.5 सें.मी. तक होती है।
कपास के उत्पादन हेतु भौगोलिक दशाएँ
- तापमान: कपास के पौधे के लिए उच्च तापमान (साधारणतः 20° सेंटीग्रेट से 30° सेंटीग्रेट तक) की आवश्यकता पड़ती है, किन्तु यह 40° तक की गर्मी में भी पैदा किया सकता है। पाला अथवा ओला इसकी फ़सल के लिए घातक है। समुद्री पवनों के प्रभाव में उगने वाली कपास का रेशा लम्बा और चमकदार होता है।
- वर्षा: कपास के लिए साधरणतः 50 से 100 से.मी. तक की वर्षा पर्याप्त होती है। यह मात्रा थोड़े-थोड़े दिनों के अन्तर से प्राप्त होनी चाहिए।
- मिट्टी: कपास का उत्पादन विभिन्न प्रकार की मिट्टियों में किया जा सकता है, किन्तु आर्द्रतापूर्ण दक्षिणी भारत की चिकनी और काली मिट्टी अधिक लाभप्रद मानी जाती है। सामान्यतः भारत में कपास तीन प्रकार की मिट्टियों में पैदा की जाती है-
- भारी काली दोमट मिट्टी, जो गुजरात व महाराष्ट्र राज्यों में मिलती है। भारत में कपास का सर्वोत्कृष्ट क्षेत्र भरुच, अहमदाबाद तथा ख़ानदेश ज़िलों में फैला है।
- लाल और काली चट्टानी मिट्टी, जो दक्कन, बरार और मालवा के पठार पर फैली है।
- सतलुज और गंगा के हल्की कछारी मिट्टी के क्षेत्र में।
- दक्षिण भारत की काली मिट्टी कपास के लिए सर्वाधिक उपयुक्त है, इसलिए इसे 'रेगुर मिट्टी' के नाम से भी जाना जाता है।
भारत में कपास की वर्तमान स्थिति
- कपास, भारत की प्रमुख वाणिज्यिक फसलों में से एक है और यह लगभग 6.00 मिलियन कपास कृषकों को आजीविका प्रदान करती है।
- भारत कपास का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक है और विश्व में कपास का सबसे बड़ा उपभोक्ता देश है।
- भारत प्रति वर्ष लगभग 6.00 मिलियन टन कपास का उत्पादन करता है जो विश्व कपास का लगभग 23 प्रतिशत है।
- भारत विश्व की कुल जैविक कपास ऊपज के लगभग 51 प्रतिशत का उत्पादन करता है जो वहनीयता की दिशा में भारत के प्रयासों को प्रदर्शित करता है।
कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) एवं सीसीआई
- हाल ही में भारतीय कपास निगम (सीसीआई) ने कपास का अब तक का सर्वोच्च न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का प्रचालन किया है। इससे नए कपास सीजन के दौरान, एमएसपी के तहत कपास की खरीद और बढ़ेगी।
- सीसीआई ने कपास उत्पादक सभी राज्यों में 430 खरीद केंद्र खोले हैं और किसानों के खातों में 72 घंटे के भीतर डिजिटल तरीके से भुगतान किए जा रहे हैं।
- प्रौद्योगिकी का लाभ उठाते हुए, सीसीआई द्वारा एक मोबाइल ऐप ‘कौट-ऐली’(Cott-Ally)का विकास किया गया है जिससे कि मौसम की स्थिति, फसल की स्थिति तथा सर्वश्रेष्ठ कृषि प्रचलनों के बारे में नवीनतम सूचना उपलब्ध कराई जा सके।
- एमएसएमई मिलों, खादी ग्रामोद्योग, सहकारी क्षेत्र मिलों को अपनी नियमित बिक्री में सीसीआई द्वारा प्रति कैंडी 300 रुपये की छूट दी जा रही है जिससे कि उनकी प्रतिस्पर्धात्मकता क्षमता एवं दक्षता बढ़ाई जा सके।
कपास एवं भारतीय वस्त्र उद्योग
- भारतीय वस्त्र उद्योग (मुख्य रूप से सूती वस्त्र उद्योग) के लिए कपास, महत्वपूर्ण कच्चा माल उपलब्ध कराता है।
- भारतीय वस्त्र उद्योग में कपास, प्राकृतिक और मानवनिर्मित फाइबर, रेशम आधारित वस्त्र, बुना हुआ परिधान और अन्य परिधान शामिल हैं।
- भारतीय वस्त्र उद्योग, अपनी समग्र मूल्य शृंखला, मजबूत कच्ची सामग्री तथा सशक्त विनिर्माण क्षमता के कारण विश्व के बड़े वस्त्र उद्योगों में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस उद्योग की विशिष्टता इसके व्यापक विस्तार में है जहां एक तरफ गहन पूंजी वाले मिल उद्यम हैं वहीं दूसरी ओर सूक्ष्म कारीगरी वाले हस्त उद्योग हैं।
- भारतीय वस्त्र उद्योग के कृषि तथा देश की संस्कृति तथा परंपराओं के साथ नैसर्गिक संबंध हैं जो घरेलू तथा निर्यात बाजारों, दोनों के लिए उपयुक्त उत्पादों के बहुआयामी विस्तार को संभव बनाते हैं।
- कपड़ा उद्योग भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए औद्योगिक उत्पादन, रोजगार सृजन और निर्यात से प्राप्त आय में महत्वपूर्ण योगदान देता है। उद्योग में कपास, प्राकृतिक और मानवनिर्मित फाइबर, रेशम आधारित वस्त्र, बुना हुआ परिधान और अन्य परिधान शामिल हैं।
भारतीय वस्त्र उद्योग के क्षेत्र में चुनौतियाँ
- वर्तमान में भारत के पास सस्ती और प्रचुर श्रम उपलब्ध है किन्तु वह इसका समुचित लाभ नहीं ले पा रहा है। यहाँ फैक्ट्रियों से माल को गंतव्य स्थान पर पहुंचाने में लगने वाली लागत और समय बहुत अधिक है। इससे लागतों में वृद्धि होती है और उत्पादनकर्ताओं को नुकसान होता है।
- भारत में श्रम कानून भी जटिल हैं, जो वर्तमान की जरूरतों के अनुरूप नहीं हैं।
- श्रम बाजार की समस्याओं के कारण ही भारत के परिधान उत्पाद, फर्मो के आकार आदि चीन, बांग्लादेश व वियतनाम की फर्मो से बहुत छोटे हैं।
- उल्लेखनीय है कि चीन में मजदूरी दरों में वृद्धि होने के कारण , उनका परिधान या वस्त्र विश्व बाजार से बाहर होता जा रहा है। इनका स्थान लेने के लिए वियतनाम और बांग्लादेश बड़ी तेजी से आगे बढ़ रहे हैं, जबकि भारत के पास अवसर होने के बावजूद भी वह इनसे प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर पा रहा है।
- परिधान के मामले में कर और सीमा शुल्क नीतियाँ ऐसी विकृतियों से भरी हैं कि भारत निर्यात में प्रतिस्पर्द्धा नहीं कर पाता है। इसके अलावा, निर्यात बाजारों में विद्यमान भेदभाव भी इसका एक बड़ा कारण है।
- उद्योग निकाय ने आरोप लगाया है कि जीएसटी लागू होने से भी इस उद्योग पर प्रभाव पड़ा है। राज्य और केन्द्रीय करों के कारण तथा साथ ही लेवी वसूलने के कारण भी यह उद्योग प्रतिस्पर्द्धा से बाहर है।
- कच्चे माल की उच्च लागत भी एक बड़ी चुनौती है। भारतीय मिलों को कच्चे माल पर अधिक खर्च करना पड़ता है जिससे कि उत्पादन की लागत बढ़ जाती है।
- इसके अलावा कुशल निर्यात बुनियादी ढ़ाचे में कमी, वित्त और विपणन सुविधाओं की कमी, नवाचार का अभाव आदि भी एक बड़ी चुनौती है।
भारत सरकार के प्रयास
- श्रम क़ानूनों में सुधार: भारत सरकार ने भारत में उपस्थित लगभग 44 जटिल केन्द्रीय श्रम क़ानूनों को चार श्रम संहिताओं में सरलीकृत रूप में विभाजित किया है। अब इन श्रम संहिताओं को भारतीय संसद ने भी पारित कर दिया है। श्रम क़ानूनों में सुधार न सिर्फ भारत में कामगारों या कर्मचारियों को सहूलियत प्रदान करेगा बल्कि यहाँ आर्थिक गतिविधियों को भी प्रोत्साहित करेगा।
- लाजिस्टिक क्षेत्र की कीमतों को नीचे लाना: भारत सरकार लाजिस्टिक क्षेत्र की कीमतों को नीचे लाने हेतु लगातार प्रयासरत है। इसके लिए बुनियादी ढांचे के निर्माण पर बल दिया जा रहा है।
- ड्यूटी ड्रॉबैक कवरेज में वृद्धिः यह अपनी तरह की पहली योजना है जिसके तहत राज्य यदि लेवियों के रूप में पुनअर्दायगी नहीं कर पाया है तो अब उसकी पुनअर्दायगी केन्द्र सरकार द्वारा की जाएगी।
- प्रौद्योगिकी उन्नयनः संशोधित प्रौद्योगिकी उन्नयन निधि योजना के तहत वर्ष 2022 तक लगभग 95,000 करोड़ रुपये के नये निवेश को प्रेरित करने तथा लगभग 35 लाख लोगों के लिए रोजगार के सृजन का उद्देश्य रखा गया है।
- एकीकृत कौशल विकास योजनाः वस्त्र क्षेत्र में कुशल श्रमशक्ति की कमी को दूर करने के उद्देश्य से वस्त्र मंत्रालय 15 लाख अतिरिक्त कुशल श्रम शक्ति उपलब्ध कराने के लिए एकीकृत कौशल विकास योजना का क्रियान्वयन कर रहा है।
- एकीकृत वस्त्र पार्क योजनाः यह योजना 10 वीं पंचवर्षीय योजना से क्रियान्वय में है। इस योजना का क्रियान्वयन पीपीपी मोड पर किया जाता है जहाँ भारत सरकार वस्त्र विनिर्माण इकाइयों के लिए सुविधाएं विकसित करने हेतु 40 करोड़ रुपये की अतिरिक्त वित्तीय सहायता उपलब्ध कराती है।
- व्यापक हथकरघा कलस्टर विकास योजनाः इस योजना के तहत 15,000 से अधिक हथकरघों वाले कलस्टरों के लिए सरकार 40 करोड़ रुपये तक की निधि उपलब्ध करा रही है।
- बुनकर मुद्रा योजनाः इस योजना की शुरूआत हथकरघा बुनकरों को तीन वर्ष की अवधि के लिए रियायती ऋण मार्जिन मनी सहायता और ऋण गारंटी उपलब्ध कराने के लिए वर्ष 2015 में की गई थी।
- शैक्षिक सुविधाएं: बुनकरों को उनके अनुकूल शैक्षणिक सेवा उपलब्ध कराने के लिए इग्नू तथा राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय संस्थान के साथ समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गये हैं, जिसके तहत मंत्रालय SC, ST, बीपीएल एवं महिला बुनकरों के मामले में फीस का 75% उपलब्ध कराती है।
निष्कर्ष
भारत सरकार को टेक्सटाइल क्षेत्र के लिए प्रचुर कच्चा माल (यथा- कपास आदि) को उपलब्ध कराने पर ध्यान देना चाहिए। इसके अतिरिक्त , टेक्सटाइल क्षेत्र वर्तमान में हो रहे परिवर्तन के साथ सामंजस्य बैठा सके, इसके लिए सरकार को एक राष्ट्रीय टेक्सटाइल नीति बनाने की जरूरत है।
ग्रेशम का नियम और मुद्रा विनिमय दर
ग्रेशम का नियम, जिसे अंग्रेज वित्तीय विशेषज्ञ थॉमस ग्रेशम को स्वामित्व में रखा जाता है, ने श्रीलंका में वर्ष 2022 के आर्थिक संकट का एक महत्वपूर्ण कारण बना. इस संकट का मुख्य कारण था कि श्रीलंका के सेंट्रल बैंक ने श्रीलंकाई रुपए और अमेरिकी डॉलर के बीच एक स्थिर विनिमय दर को लागू कर दिया था.
ग्रेशम का नियम
- ग्रेशम का नियम एक मौद्रिक सिद्धांत है जो बताता है कि "बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है"। बुरी मुद्रा वह मुद्रा है जिसका मूल्य उसके अंकित मूल्य के बराबर या उससे कम है। अच्छी मुद्रा में उसके अंकित मूल्य से अधिक मूल्य की संभावना होती है।
- इसका मतलब यह है कि यदि एक उच्च आंतरिक मूल्य के साथ और एक कम आंतरिक मूल्य के साथ दो प्रकार की मुद्राएँ प्रचलन में हैं, तो लोग अधिक मूल्यवान धन जमा करेंगे और कम मूल्यवान धन व्यय करेंगे।
- परिणामस्वरूप कम मूल्यवान मुद्रा बाज़ार पर हावी हो जाएगी, जबकि अधिक मूल्यवान मुद्रा प्रचलन से गायब हो जाएगी।
- यह नियम तब लागू होता है जब सरकार दो मुद्राओं के बीच विनिमय दर तय करती है, जिससे आधिकारिक दर और बाज़ार दर के बीच असमानता उत्पन्न होती है।
- यह न केवल कागज़ी मुद्राओं पर बल्कि कमोडिटी मुद्राओं और अन्य वस्तुओं पर भी लागू होता है।
- ग्रेशम के नियम के क्रियान्वयन के उदाहरण:
- ग्रेशम का नियम श्रीलंका के आर्थिक संकट के दौरान तब महत्त्वपूर्ण मुद्दा बन गया जब देश के सेंट्रल बैंक द्वारा श्रीलंकाई रुपए और अमेरिकी डॉलर के बीच एक स्थिर विनिमय दर निर्धारित की गई।
- अनौपचारिक बाज़ार दरों से पता चलता है कि अमेरिकी डॉलर का मूल्य बहुत अधिक है, इसके बावजूद सरकार ने एक अमेरिकी डॉलर के लिये 200 श्रीलंकाई रुपए की स्थिर दर पर ज़ोर दिया।
- इसके कारण श्रीलंकाई रुपए को वास्तव में उससे अधिक मूल्यवान माना जाने लगा और अमेरिकी डॉलर का बाज़ार दरों के अनुसार कम मूल्यांकन किया गया।
- परिणामस्वरूप आधिकारिक विदेशी मुद्रा बाज़ार में कम अमेरिकी डॉलर उपलब्ध थे और व्यक्तियों ने आधिकारिक लेन-देन में उनका उपयोग करने से बचना शुरू कर दिया।
- ग्रेशम के नियम की विषमता:
- ग्रेशम के नियम के विपरीत थियर्स का नियम एक ऐसी घटना पर प्रकाश डालता है जहाँ "अच्छी मुद्रा, बुरी मुद्रा को प्रचलन से बाहर कर देती है।" मुक्त विनिमय दर के माहौल में लोग उच्च-गुणवत्ता वाली मुद्राओं को पसंद करते हैं और जिन्हें वे निम्नतर मानते हैं उन मुद्राओं को धीरे-धीरे त्याग देते हैं ।
- हाल के वर्षों में निजी क्रिप्टोकरेंसी (अच्छी मुद्रा) के उदय को प्रायः इस उदाहरण के रूप में उद्धृत किया जाता है कि कैसे सुप्रसिद्ध, निजी मुद्रा उत्पादक सरकार द्वारा जारी मुद्राओं (बुरी मुद्रा) को विस्थापित कर सकते हैं।
स्थिर विनिमय दरों के लाभ और हानियाँ
- लाभ:
- मूल्य स्थिरता: स्थिर विनिमय दरें मूल्य स्थिरता प्रदान कर सकती हैं। यह स्थिरता उच्च मुद्रास्फीति दर या अस्थिर मुद्रा वाले देशों के लिये विशेष रूप से लाभदायक हो सकती है।
- कम लेन-देन लागत: एक निश्चित विनिमय दर प्रणाली में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में लगे व्यवसायों को मुद्रा-संबंधित लेन-देन लागतों जैसे- मुद्रा रूपांतरण शुल्क और विनिमय दर जोखिम प्रबंधन खर्चों का कम सामना करना पड़ सकता है।
- निवेशक का विश्वास: निश्चित विनिमय दरें निवेशकों का विश्वास बढ़ा सकती हैं। स्थिर मुद्रा वाले देश में निवेशकों द्वारा पूंजी लगाने की अधिक संभावना होती है, जिससे पूंजी की लागत कम हो जाती है और संभावित रूप से आर्थिक विकास में तेज़ी आती है।
- हानि:
- मौद्रिक नीति की स्वायत्तता की हानि: एक महत्त्वपूर्ण कमी यह है कि स्थिर विनिमय दरों को अपनाने वाले देश अपनी मौद्रिक नीति पर नियंत्रण छोड़ देते हैं।
- अधिकीलित विनिमय दर को बनाए रखने के लिये उन्हें एंकर मुद्रा की नीतियों के अनुसार ब्याज दरों और धन आपूर्ति को समायोजित करने की आवश्यकता हो सकती है, जो उनकी घरेलू आर्थिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं हो सकती है।
- संभावित हमले: निश्चित विनिमय दर प्रणालियाँ सट्टा हमलों के प्रति संवेदनशील हो सकती हैं।
- यदि निवेशकों को लगता है कि किसी देश की मुद्रा का मूल्य अधिक है, तो वे बड़े पैमाने पर सेल ऑफ कर सकते हैं, जिससे केंद्रीय बैंक को अधिकीलित विनिमय दर बनाए रखने के लिये अपने विदेशी मुद्रा भंडार को समाप्त करने हेतु मजबूर होना पड़ेगा।
- बाहरी निर्भरता: निश्चित विनिमय दर प्रणालियाँ किसी देश के भविष्य को एंकर मुद्रा जारीकर्त्ता की स्थिरता और नीतियों से जोड़ती हैं।
- यदि एंकर मुद्रा को समस्याओं का सामना करना पड़ता है, तो इसका असर संबंधित देश के विनिमय दर पर भी पड़ सकता है।
स्थिर विनिमय दरों के विकल्प
- फ्लोटिंग विनिमय दर: इसे लचीली विनिमय दर के रूप में भी जाना जाता है, यह एक ऐसी प्रणाली है जहाँ मुद्रा का मूल्य विदेशी मुद्रा बाज़ार में आपूर्ति और मांग से निर्धारित होता है।
- इस प्रणाली में विनिमय दर में लगातार उतार-चढ़ाव हो सकता है और आधिकारिक तौर पर यह किसी अन्य मुद्रा या वस्तु से जुड़ी या तय नहीं की जाती है।
- फ्लोटिंग विनिमय दरें मुद्राओं को आर्थिक स्थितियों, व्यापार असंतुलन और बाज़ार की ताकतों के लिये स्वतंत्र रूप से समायोजित करने की अनुमति देती हैं।
- उदाहरण: कनाडा और ऑस्ट्रेलिया।
- प्रबंधित फ्लोट (Managed Float): प्रबंधित फ्लोटिंग विनिमय दर (Managed Float Exchange Rate), जिसे डर्टी फ्लोट भी कहा जाता है, एक ऐसी प्रणाली है जहाँ किसी देश का केंद्रीय बैंक या सरकार अपनी मुद्रा के मूल्य को प्रभावित करने के लिये कभी-कभी विदेशी मुद्रा बाज़ार में हस्तक्षेप करती है।
- जबकि विनिमय दर में कुछ हद तक परिवर्तन संभव है, अधिकारी कुछ आर्थिक लक्ष्यों के जवाब में इसके मूल्य को स्थिर करने या प्रबंधित करने या अत्यधिक अस्थिरता को रोकने के लिये अपनी मुद्रा खरीद या बेच सकते हैं।
उदाहरण: भारत और चीन।
आयुष क्षेत्र की प्रगत
विश्व होम्योपैथी दिवस प्रत्येक साल 10 अप्रैल को मनाया जाता है। यह होम्योपैथी के संस्थापक डॉ सैमुअल हनीमैन की जयंती के मौके पर मनाया जाता है। होम्योपैथी एक चिकित्सा पद्धति है जो औषधियों और उनके अनुप्रयोग पर आधारित है।
भारत में होम्योपैथी उस समय आरम्भ की गयी थी, जब कुछ जर्मन मिशनरियों और चिकित्सकों ने स्थानीय निवासियों के बीच होम्योपैथिक दवाओं का वितरण करना आरम्भ किया था। तथापि, होम्योपैथी ने भारत में 1839 में उस समय अपनी जड़ पकड़ी, जब डॉ. जॉन मार्टिन होनिगबर्गर ने स्वर-तंत्रें के पक्षाघात के लिए महाराजा रणजीत सिंह का सफलतापूर्वक इलाज किया। डॉ. होनिगबर्गर कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) में बस गये और हैजा चिकित्सक के रूप में लोकप्रिय हो गये। वर्ष 1973 में संसद ने देश में होम्योपैथिक शिक्षा और प्रैक्टिस को विनियमित करने के लिए होम्योपैथी केन्द्रीय परिषद अधिनियम पारित किया।
केन्द्रीय होम्योपैथी अनुसंधान परिषद
- सीसीआरएच आयुष मंत्रलय के तहत एक स्वायत्त अनुसंधान संगठन है। यह संगठन होम्योपैथी में समन्वय, विकास, प्रसार एवं वैज्ञानिक अनुसंधान को बढ़ावा देती है।
- इसे औपचारिक रूप से 30 मार्च 1978 को आयुष विभाग, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रलय, भारत सरकार के अधीन एक स्वायत्त संगठन के रूप में गठित किया गया था।
- परिषद का मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है और पूरे भारत में परिषद् के 22 संस्थान/ इकाइयों के नेटवर्क के माध्यम से बहु-केंद्रित अनुसंधान कार्य किये जाते हैं।
होम्योपैथी क्षेत्रों का मूल्यांकन
- आज की भाग-दौड़ वाली जिंदगी में बीमारियों ने मनुष्य के शरीर में अपनी पैठ बना ली है, तो लोग भी उनका जड़ से इलाज चाहते हैं। इसके लिए वह होम्योपैथी का सहारा लेते हैं। यह एक ऐसी पद्धति है जिसमें उपचार में तो समय लगता है लेकिन यह बीमारी को जड़ से मिटाती है। यही कारण है जिसके कारण यह पद्धति तेजी से लोकप्रिय हो रही है।
- इसकी खासियत यह है कि यह आर्थराइटिस, डायबिटीज, थायरॉइड और अन्य तमाम गंभीर मानी जाने वाली बीमारियों का प्रभावी इलाज करती है और वह भी बिना किसी दुष्प्रभाव के। आमतौर पर यह धारणा है कि होम्योपैथी दवाईयों का असर बहुत देर से होता है, लेकिन ऐसा नहीं है। दरअसल, यह पद्धति केवल पुरानी और गंभीर बीमारियों को पूरी तरह ठीक करने में थोड़ा समय लेती है, अन्यथा बुखार, सर्दी-खांसी या अन्य मौसमी या छोटी-मोटी बीमारियों में होम्योपैथिक दवाएँ उतनी ही तेजी से असर करती हैं, जितनी कि अन्य पद्धतियों की दवाएँ।
- वाणिज्य संस्थान एचोसैम की रिपोर्ट के अनुसार भारत में होम्योपैथी का बाजार इस समय करीब 12.5 अरब रुपए का है। उम्मीद की जा रही है कि 2020 तक यह लगभग 26 अरब रुपए की हो जाएगी। होम्योपैथी का बाजार प्रतिवर्ष 25-30 प्रतिशत की गति से आगे बढ़ रहा है।
- लोगों के बीच होम्योपैथिक चिकित्सा की जितनी माँग बढ़ रही है, उस अनुपात में भारत में पर्याप्त चिकित्सक नहीं हैं। भारत में एलोपैथी और आयुर्वेद के बाद होम्योपैथी तीसरी सर्वाधिक लोकप्रिय चिकित्सा पद्धति है। हालाँकि, आज यह सबसे तेजी से आगे बढ़ रही है।
भारत में होम्योपैथी
- होम्योपैथी भारत में लगभग दो सौ साल पहले आरंभ की गयी थी। आज यह भारत की बहुलवादी स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। भारत सरकार ने आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, और सिद्ध और होम्योपैथी जिसे सामूहिक रूप से ‘आयुष’ के नाम से जाना जाता है, जैसे अन्य पारंपरिक प्रणालियों के विकास एवं प्रगति के लिए निरंतर प्रयास किए हैं। सरकार के निरंतर प्रयासों के कारण, केन्द्र और सभी राज्यों में होम्योपैथी का एक संस्थागत ढांचा स्थापित हुआ है।
- आयुष सेवाओं को देश की स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदायगी प्रणाली में प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक स्वास्थ्य सुरक्षा के सभी स्तरों पर शामिल किया गया है। भारत सरकार ने आयुष प्रणालियों को बढ़ावा देने और देश में स्वास्थ्य सुरक्षा के कार्यक्षेत्र में वृद्धि के लिए अनेक कार्यक्रम चलाए हैं।
- होम्योपैथी में स्वास्थ्य सुरक्षा सेवाएं राज्य सरकारों और म्यूनिसिपल निकायों, श्रम मंत्रलय और रेल मंत्रलय द्वारा चलाये जाने वाले 235 अस्पतालों और 8117 औषधालयों द्वारा उपलब्ध करवाई जाती है। भारत सरकार ने देश में मौलिक स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदायगी प्रणाली में आवश्यक संरचनात्मक सुधार करने के लिए राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) का शुभारंभ किया है, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में इन प्रणालियों के जरिये स्वास्थ्य सुरक्षा को सुसाध्य बनाने के लिए भारतीय औषध प्रणालियों और होम्योपैथी को मुख्यधारा में लाया जाता है।
- पिछले दो दशकों से शिक्षा, अनुसंधान और औषध विकास को उन्नत करने और स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदायगी में तीव्रता लाने के लिए की गयी पहलों के साथ सेवाओं की गुणवत्ता में वृद्धि करने पर निरंतर ध्यान केंद्रित किया गया है।
मौजूदा वैश्विक परिदृश्य
- वर्तमान में होम्योपैथी को 80 से अधिक देशों में प्रयोग किया जाता है। इसे 42 देशों में अलग औषध-प्रणाली के रूप में कानूनी मान्यता प्राप्त है और 28 देशों में पूरक और वैकल्पिक चिकित्सा के रूप में मान्यता दी गयी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) होम्योपैथी को, पारंपरिक और पूरक औषधि के सबसे अधिक इस्तेमाल किये जाने वाली पद्धतियों में से एक पद्धति के रूप में मान्यता दी है।
- अधिकांश यूरोपीय देश होम्योपैथी के बारे में जानते हैं और इनमें से 29 प्रतिशत अपने यहाँ के नागरिकों की स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए होम्योपैथी का इस्तेमाल करते हैं। अध्ययनों से यह पता लगा है कि यूरोपीय देशों में बच्चों के लिए होम्योपैथी को पारंपरिक और पूरक चिकित्सा के रूप में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाता है।
आयुष: एक संक्षिप्त विवरण
- आयुष का विस्तृत रूप निम्नलिखित प्रकार से है: A = आयुर्वेद, Y = योग एवं प्राकृतिक चिकित्सा, U = यूनानी, S = सिद्ध, H = होम्योपैथी।
- आयुष को एक वैकल्पिक चिकित्सा पद्धति के रूप में देखा जाता है जो एलोपैथिक चिकित्सा की तुलना में अत्यधिक कम लागत वाली है।
- आयुष की अनुसार, यह चिकित्सा पद्धति बड़ी संख्या में देश के नागरिकों की स्वास्थ्य जरूरतों को पूरा कर सकती है और भारत के लिए यह एक अतुलनीय विरासत है।
- आयुर्वेद भारतीय उपमहाद्वीप की प्राचीन चिकित्सा प्रणाली है, जो रोगों के उपचार के बजाय स्वस्थ जीवनशैली पर ध्यान केंद्रित करती है।
- यूनानी प्रणाली का उत्थान ग्रीस में हुआ था और यह भारत में भी व्यापक रूप से अपनाया गया है, जो विभिन्न विज्ञानों का अध्ययन कर उपचारात्मक में उपयोग करती है।
- योग व्यक्तिगत विकास और सामाजिक सुधार के लिए एक विशेष साधन है, जो आत्मानुभूति के लिए प्राकृतिक साधन प्रदान करता है।
- प्राकृतिक चिकित्सा मानव जीवन की विभिन्न दिक्ततों के लिए उपाय प्रदान करने के साथ-साथ स्वास्थ्य को बढ़ावा देती है और ब्रिटिश नेचरोपैथिक एसोसिएशन के अनुसार इसका विश्वास बढ़ रहा है।
- सिद्ध प्रणाली भारत में दवा की प्राचीन प्रणालियों में से एक है, जो रोगों के उपचार के लिए भौतिकी विज्ञान, रसायन विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, एनाटॉमी, फिजियोलॉजी, पैथोलॉजी, चिकित्सा और सर्जरी का इस्तेमाल करती है।
- होम्योपैथी एक वैज्ञानिक आधार पर निर्मित चिकित्सा प्रणाली है जो बड़ी तेजी से बढ़ रही है और लगभग पूरी दुनियाभर में इसे व्यवहार में लाया जा रहा है।
राष्ट्रीय होम्योपैथी आयोग (एनसीएच) विधेयक, 2019
- यह बिल होम्योपैथी सेंट्रल काउंसिल एक्ट, 1973 को रद्द करता है और ऐसी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली का प्रावधान करता है जो निम्नलिखित बातो को सुनिश्चित करेः (i) उच्च स्तरीय होम्योपैथिक मेडिकल प्रोफेशनल्स पर्याप्त संख्या में उपलब्ध हों, (ii) होम्योपैथिक मेडिकल प्रोफेशनल्स नवीनतम चिकित्सा अनुसंधानों को अपनाएँ, (iii) मेडिकल संस्थानों का समय-समय पर मूल्यांकन किया जाए और (iv) एक प्रभावी शिकायत निवारण प्रणाली मौजूद हो।
- राष्ट्रीय होम्योपैथी आयोग के कार्यः एनसीएच के कार्यों में निम्नलिखित शामिल हैं: (i) मेडिकल संस्थानों और होम्योपैथिक मेडिकल प्रोफेशनल्स को रेगुलेट करने के लिए नीतियाँ बनाना, (ii) स्वास्थ्य सेवाओं से संबंधित मानव संसाधन और इंफ्रास्ट्रक्चर संबंधी जरूरतों का मूल्यांकन करना, (iii) यह सुनिश्चित करना कि राज्य की होम्योपैथी आयुर्विज्ञान परिषदें बिल के रेगुलेशंस का पालन कर रही हैं, अथवा नहीं, (iv) बिल के अंतर्गत गठित स्वायत्त बोर्डों के बीच समन्वय स्थापित करना।
चुनौतियाँ
- आमतौर पर ये धारणा है कि होम्योपैथिक दवाएँ सबसे ज्यादा सुरक्षित और प्रभावशील होती हैं। काफी हद तक ये बात सही भी है। ये सही है कि एलोपैथ की तुलना में होम्यौपैथ बिना केमिकल का विकल्प है। इसके बावजूद ये भी सही है कि इसके कुछ साइड इफेक्ट्स भी हो सकते हैं। हर मायने में ये फायदेमंद भी नहीं होती, कभी-कभी ये नुकसानदायक भी हो सकती है।
- होम्योपैथ दवाओं का सबसे बड़ा नुकसान ये है कि किसी आपातकाल स्थिति में ये दवाएँ किसी काम की नहीं होती हैं। इसका कारण साफ है कि ये दवाएँ धीरे-धीरे असर करती हैं। सर्जरी या अन्य किसी स्थिति में जिस समय मरीज को तुरंत इलाज की जरूरत होती है तो ये होम्योपैथ किसी भी तरह से मदद नहीं कर सकती।
- पोषण संबंधी समस्या या पोषण की कमी होने की स्थिति में ये होम्योपैथिक दवा बिल्कुल भी असरकारी नहीं होती। उदाहरण के रूप में एनीमिया या आयरन की कमी या अन्य तत्वों की कमी होने पर ये दवाएँ बिल्कुल बेअसर साबित होती हैं।
- होम्योपैथ का साइड इफेक्ट ये भी है कि डॉक्टर की दी गई दवाओं का सेवन अगर निश्चित समय से ज्यादा सीमा तक किया जाए तो इसका ओवरडोज भी आपको नुकसान पहुंचा सकता है। इस वजह से आपके पेट में इंफेक्शन व अन्य परेशानियाँ भी हो सकती हैं।
- हर किसी पर होम्योपैथिक दवाएँ उतनी असरकारी नहीं होती हैं। ये जरूरी नहीं है कि किसी एक व्यत्तिफ़ को होम्योपैथिक दवाएँ फायदा करे तो दूसरे को भी करे।
- अकसर ऐसा होता है कि होम्योपैथ दवाओं का परामर्श आपके चिकित्सीय इतिहास व बीमारियों पर निर्भर करता है। ऐसा न होने की स्थिति में यह दवाएं आपको अपेक्षाकृत लाभ नहीं पहुंचा सकेंगी।
- होम्योपैथ में अब भी 20 रुपये में दवा सहित इलाज हो जाता है लेकिन, चिकित्सकों का कहना है कि यह इलाज दवाओं की गुणवत्ता के दृष्टिकोण से ऽतरनाक है। बाजार में ग्लोब्यूल्स (सफेद छोटी गोली) 30 से 40 रुपये डिब्बे में भी मिलती है और 150 रुपये के भी डिब्बे में भी, लेकिन दोनों की गुणवत्ता और स्वास्थ्यकर दृष्टिकोण में अंतर है। इसी तरह जिस प्लास्टिक के डिब्बे में तरल दवा दी जाती है उस डिब्बे की भी गुणवत्ता जरूरी है, क्योंकि तरल दवा और कम माइक्रो क्षमता वाले डब्बे से प्रतिक्रिया का होना भी संभव है।
होम्योपैथी के फायदे
- होम्योपैथी की लोकप्रियता आज तेजी से बढ रही है और प्रचलित एलोपैथ चिकित्सा पद्धति के बाद यह सबसे अधिक पसंद की जाने वाली और प्रयोग में लाई जाने वाली चिकित्सा पद्धति है।
- होम्योपैथ पाचन तंत्र को व्यवधान नहीं पहुंचाता और ना ही वह एंटीबायोटिक्स की तरह प्रतिरक्षा प्रणाली को कमजोर करता है। होम्योपैथिक दवाएं सुरक्षित होती हैं और एलोपैथ दवाओं के विपरीत, ये दवाएं सामान्यतः साइड इफैक्ट रहित होती हैं एवं कोई ढाँचागत क्षति नहीं पहुंचाती। ऐसा इसलिए है, क्योंकि होम्योपैथिक दवाएं कोई रासायनिक क्रिया नहीं करती और शरीर के अपने प्रतिरक्षा प्रणाली एवं रोग निदान की शत्तिफ़ को उत्तेजित करती हैं।
- ये दवाएँ नवजात शिशु, बच्चों, गर्भवती स्त्रियों, दुग्धपान करानेवाली माताओं एवं वृद्ध लोगों के लिए सुरक्षित है और इनके खुराक की चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
- होम्योपैथिक दवाएँ एक्यूट और क्रॉनिक दोनों प्रकार के रोगों में प्रभावी होती हैं। इस पद्धति में कई ऐसी क्रॉनिक बीमारियों का इलाज होता है, जो दूसरी पद्धति में असाध्य मानी जाती हैं।
- विभिन्न एक्यूट और क्रॉनिक रोगों के अतिरित्तफ़ यह कई एलर्जिक रोगों में भी प्रभावकारी है।
- एलोपैथिक और आयुर्वेदिक की तुलना में होम्योपैथिक दवाएँ सस्ती होती हैं। चूंकि इस पद्धति में डॉक्टर रोग की पहचान करने एवं दवा का चयन करने के लिए लक्षणों पर भरोसा करते हैं, रोग की पहचान की प्रक्रिया महँगी नहीं होती।
- वायरल डिजीज, चर्म रोग, किडनी और पित्त की थैली का स्टोन, हर प्रकार के अर्थराइटीज, दमा, पेट संबंधी बीमारियां, मानसिक बीमारी, बवासीर, रत्तफ़चाप, साइनस, टड्ढूमर आदि जैसे बिमारियों का सफल ईलाज (ट्रीटमेंट्स) होम्योपैथी चिकित्सा के माध्यम से किया जा सकता है।
आगे की राह
- आज भारत ही नहीं बल्कि विश्व में विभिन्न तरह की संक्रामक एवं गैर-संक्रामक बिमारियाँ कायम है। इसके निदान के लिए होम्योपैथिक दवाओं को सबसे ज्यादा सुरक्षित और प्रभावशाली बनाने की आवश्यकता है ताकि विश्व के सभी लोगों को स्वास्थ्य सुरक्षा प्रदान किया जा सके।
- होम्योपैथिक दवाओं के क्षेत्रों में और भी अनुसंधान की जरूरत है ताकि दवाओं को बीमारियों के अनुकूल तथा प्रभावकारी बनाया जा सके।
- भारत में राष्ट्रीय एवं ग्रामीण स्तर पर होम्योपैथिक दवाओं से संबंधित जागरूकता अभियान तथा प्रचार-प्रसार करना भी अतिआवश्यक है क्योंकि अभी भी ग्रामीण लोग इसके उपयोगिता को सही तरीके से नहीं जानते हैं।
- एलोपैथी की तुलना में इसके साइड इफेक्ट्स भी नहीं है और ये सस्ते हैं। अतः इसकी उपलब्धता ग्रामीण स्तर पर सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
- सरकार को भारत के सभी अस्पतालों में होम्योपैथिक दवा उपलब्ध कराना चाहिए और इससे संबंधित विभिन्न योजनाओं को आरंभ करना चाहिए ताकि गरीब जनता को उचित एवं सस्ते दामों पर होम्योपैथिक चिकित्सा मिल सके।