उत्तर वैदिक काल
- प्रस्तुत कालावधि तक आर्यों का विस्तार सम्पूर्ण गंगा-यमुना के मैदानों में हो चुका था। पूर्व में सीमा आधुनिक बिहार की ‘सोन’ नदी तक जा चुकी थी, जबकि दक्षिण में विन्ध्य श्रृंखला भी ज्ञात हो चुकी थी।
- आर्यों को लोहे के ज्ञान एवं उसके विविध प्रयोग ने घने जंगलों के उन्मूलन में अत्यन्त सहायता प्रदान की, फलतः सम्पूर्ण ‘आर्यावर्त’ इनकी कर्मस्थली बन गया।
- आर्यों के राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक सभी क्षेत्रों में विशेषीकरण व वर्गीकरण की प्रवृत्ति पनपने लगी, फलतः आर्यों का विकास सरलीकरण से दुरुहता एवं विशेषीकरण की ओर उन्मुख हो गया।
- चातुर्य वर्ण-व्यवस्था पूर्णरूपेण स्थापित हो गयी-क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र चार वर्णों का उल्लेख जगह-जगह दिखाई देता है। ‘वर्ण व्यवस्था’ का आधार ‘कर्म’ से हटकर ‘जन्म’ हो चला था।
- जाति प्रथा पूर्णरूपेण नहीं स्थापित हो पायी थी परन्तु उस ओर प्रवृत्त दिखाई पड़ती है। सूत्रा साहित्य से इस व्यवस्था पर प्रकाश पड़ता है।
- समाज में अनेक पेशों का आविर्भाव हो चुका था।
- आर्यों एवं अनार्यों के मध्य सरलीकरण शुरू हो चुका था जिसका कारण सामाजिक एवं व्यावहारिक विवशता रही होगी। आर्यों एवं अनार्यों के मध्य वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित होने लगे थे।
- समाज में दासों के बारे में व्यापक सूचनाएं मिलती है।
- स्त्रियों की स्थिति में वैदिक काल की अपेक्षा पराभव शुरू हो गया था, फिर भी स्त्रियों की दशा सन्तोषजनक रही।
- वयस्क विवाह, कन्या की शिक्षा आदि का ध्यान रखा जाता था, ‘सती प्रथा’ का अभी भी प्रचलन नहीं हुआ था, परन्तु कतिपय साक्ष्य मिलते है। ‘नियोग प्रथा’ चलन में आ गयी थी।
- बहुपत्नी प्रथा का प्रचलन शुरू हो गया था। संभ्रांत व ऋषि, दोनों द्वारा अनेक पत्नी रखने के साक्ष्य है।
- ‘बहुपति प्रथा’ अभी भी प्रचलन में नहीं थी।
- कृषि क्षेत्रा में पर्याप्त प्रगति हुयी और कृषि का महत्व बढ़ता गया जबकि वैदिक काल की तुलना में पशुपालन का महत्व अपेक्षतया कम हो गया।
- कृषि कर्म में अत्यधिक अनुकूलन के साथ ही आर्यों के जीवन में स्थायित्व बढ़ा और स्थानीय इकाइयों का स्थायी आविर्भाव हुआ। अब आर्य भ्रमणशीलता से परे स्थायी जीवनोन्मुख हो चले थे।
- बड़े हलों (बैलों तक से खीचने वाले हलों) का प्रयोग किया जा रहा था। कृषि की विभिन्न पद्धतियों, प्रतिक्रियाओं एवं खाद के प्रयोग की जानकारी मिलती है।
- धान्यों के उत्पादन एवं उनके प्रकारों में वृद्धि हुई। इनमें गोधूम (यव), व्रीहि (चावल), मुद्ग (मुंग), मास (उड़द), तिल, मसूर आदि प्रमुख थे।
- विभिन्न उद्योग धन्धों की भी जानकारी मिलती है। महुवाहे, पापित, धोबी, वधिक, रथकार, कुम्भकार, धातुकर्मी, धनुष-बाण निर्माता, टोकरी निर्माता, कर्मकार, जलपोत निर्माता आदि प्रमुख उद्यमी थे।
- बड़ी-बड़ी जहाजों से व्यापार की सूचना मिलती है।
- ब्याज पर धन देने की प्रथा चल पड़ी थी एवं व्यापारी प्रमुखों के रूप में ‘श्रेष्ठि’ का अस्तित्व सुदृढ़ हो चला था।
- व्यापार का प्रमुख आधार अभी भी वस्तु विनिमय था।
- राजनैतिक परिदृश्य में राजा की स्थिति व ज्ञान-शौकत में अत्यन्त वृद्धि हुयी एवं सुदृढ़ता आ गयी। ‘राजा की सत्ता’ कैसे अस्तित्व में आयी अब इस पर चिन्तन होने लगा और ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ ने उद्धोष कर दिया कि ‘युद्ध की परिस्थितियों से राजा का जन्म हुआ’।
- ‘राजा’ के लिए बड़ी-बड़ी उपाधियाँ जैसे अधिराज, राजाधिराज, सम्राट, एकराट आदि प्रयुक्त होने लगी। वाजपेय, राजसूय एवं अश्वमेध यज्ञों का व्यापक प्रचलन हो गया।
- ‘राजा’ की सत्ता पूर्णरूपेण स्थापित हो चुकी थी, परन्तु वह निरंकुश नहीं था, उसे जनता की इच्छा का पालन करना पड़ता था। राजा से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह मंत्रियों की सलाह से काम करे एवं ‘सभा’ तथा ‘समिति’ के नियंत्राण को स्वीकार करे।
- ‘राजस्व का दैवीय सिद्धान्त’ अस्तित्व में नहीं आया था, परन्तु राजा प्रार्थना द्वारा दैवीय गुण अवश्य प्राप्त कर सकता था।
- राज्य मूलतः ‘न्यास’ था जहाँ राजा से अपेक्षा थी कि वह प्रजा की सुख सुविधा का ख्याल करे एवं धर्म तथा सत्य के प्रति निष्ठावान रहे। राज्य एक भौगोलिक स्वरूप ग्रहण कर लिया था।
- धार्मिक मामलों के कारण ब्राह्मणों ने इस युग तक अपनी सर्वोच्चता स्थापित कर ली थी एवं ‘ब्राह्मण मनुष्य के रूप में देवता है’ ऐसा सतपथ ब्राह्मण मेें उद्धोष होने लगा।
- ‘राजा’ की स्थिति के साथ ही मंत्रियों की स्थिति भी व्यापक व सुदृढ़तर होती गयी। मंत्रियों की संख्या में वृद्धि हो गयी।
- मंत्रियों के लिए ‘रत्निन’ शब्द प्रयुक्त हुआ है। इन ‘रत्निनों’ की तालिका में सूत, रथकार, कर्मकार, ग्रामिणी तथा राजा उल्लेखनीय है। ब्राह्मण ग्रंथों में रत्निनों की संख्या 12 तक पहुँच गयी है।
- ‘सभा’ एवं ‘समिति’ संस्थाओं के बारे में विद्वानों में मतमतान्तर है, परन्तु ये संस्थाएं अस्तित्व में थीं और ‘समिति’ का आधार ‘सभा’ से बड़ा था। ‘सभा’ के सदस्यों को ‘सभेय’, ‘सभासद’ या ‘सभासीन’ कहा गया है जबकि अध्यक्ष के लिए ‘सभापति’ एवं सभा-रक्षक के लिए ‘सभापाल’ शब्द आए है।
- इक्षवाकु उपनिषद में कहा गया है कि ”सभा के बिना प्रजापति भी कार्य नहीं कर सकेंगे“।
- ‘सभा’ में एक स्वर से किसी निर्णय की अपेक्षा की जाती थी, परन्तु मतभेद की स्थिति में ‘बहुमत’ को आधार बनाया जाता था-जिसके लिए ‘वरिष्ठ’ शब्द प्रयुक्त हुआ है।
- अथर्ववेद में ‘सभा एवं समिति’ को प्रजापति की दो पुत्रियाँ बताया गया है। यह इन संस्थाओं के महत्व का सूचक है जिससे जनमानस में इनकी दैहिक उत्पत्ति परिकल्पित हो गयी।
- ‘सभा-समिति’ में अन्तर का कहीं स्पष्ट उल्लेख नहीं है परन्तु प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार-
;पद्ध सभा में चुने हुये कुछ विशिष्ट लोग होते थे और प्रायः यह न्यायालय का भी कार्य देखती थी।
;पपद्ध समिति के सदस्यों की संख्या अधिक रही होगी और इसमें राजा के गुण-दोषों की चर्चा व विवेचना होती रही होगी।
;पपपद्ध राजा के स्थायित्व एवं राज्य की सुदृढ़ता के लिए समिति का सहयोग अपरिहार्य था।
- धार्मिक दृष्टि से परवर्ती वैदिक युग दो धाराओं में बँट गया था-
(क) परवर्ती संहिताओं (वेदों) एवं ब्राह्मण ग्रंथों में एक विशिष्ट तरह की धार्मिक प्रक्रिया विकसित हुयी और जिसका आधार याज्ञिक कर्मकाण्ड बना।
(ख) दूसरी तरफ आरण्यक एक नए धर्म दर्शन का उद्बोधन करते प्रतीत होते है, जिनकी चरम परिणति उपनिषदों के तत्व चिन्तन में मिलती है और ‘आत्म-ब्रह्म’ के स्वरूप व सम्बन्ध की व्याख्या अस्तित्व ग्रहण कर ली।
- ऋग्वेद के सहज यज्ञों का स्वरूप बदल गया और जटिल यज्ञों ने उसका स्थान ग्रहण कर लिया जो कि कई दिनों या वर्षों में सम्पादित होते थे।
छः दर्शन
1. पूर्व मीमांसा: इस विचारधारा की प्रारंभिक कृति जैमिनी के सूत्र कहे जाते हैं (छठी शती ई.पू.)। प्रारंभिक मीमांसा विद्वानों में शबरस्वामिन महानतम था, जो छठी शताब्दी ई.पू. में हुआ था।
2. वैशेषिकः यह न्याय से प्राचीन है। इसका संस्थापक उलूक कणाद था। इसके महान अनुयायियों में प्रशस्तपद था, जो संभवत छठी शताब्दी का है। वैशेषिक पदार्थों से संबंधित है। कणाद (अणुओं को खाने वाला) भगवान को किसी विशिष्ट श्रेणी का नहीं मानता था। कणाद ईसाई सम्वत् की शुरुआती अवधि में था।
3. योगः इसका प्रारंभिक ग्रंथ पतंजलि का योग सूत्र है (दूसरी सदी ई.पू.)। वर्तमान रूप व्यास की देन है, जो उसके सात सदियों बाद हुआ था। इस दर्शन के अनुसार हमारे लक्ष्य की प्राप्ति के आठ साधन हैंः यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान तथा समाधि।
4. न्यायः संस्थापक अक्षपद गौतम (ईस्वी सन् की प्रारंभिक शताब्दी में) था। पक्षीलासवामिन वात्स्यायन इसका प्रमुख प्रसारकत्र्ता था, जो संभवतः चैथी शताब्दी ई. में था। यह तर्क पर विशेष जोर देता है, जो सभी अध्ययनों का आधार है।
5. सांख्यः कपिल के द्वारा लिखित, जो 580 ई.पू. में हुआ था। यह भगवद्गीता में समाहित किया गया है तथा उपनिषदों में प्रारंभिक रूप से प्राप्य है। इसके मूल सिद्धांतों में पुरुष एवं प्रकृति का द्वैतवाद है। प्रकृति तीन तरह के गुणों का विकास करती है- सत् (अच्छाई तथा प्रसन्नता का स्त्रोत) एवं तामस (असहनशीलता तथा भेदभाव आदि का स्त्रोत)। विश्व सत्य नहीं है। प्रकृति सत्य है। सांख्य ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं करता है। प्रकृति तथा पुरुष ईश्वर से स्वतंत्र हैं।
6. उत्तर मीमांसा (वेदांत भी कहा जाता है) : बादरायण ने इसके प्रमुख तत्वों को ईसा की प्रारंभिक सदियों में स्थापित किया था। इस विचारधारा का एक प्रमुख विचारक गौड़पद छठी सदी के मध्य का है। वेदान्त में 55 सूत्र शामिल हैं, जो चार पाठोें में विभक्त हैं।
- यज्ञ अब साधन से साध्य बन चले थे और इनका सम्पादन ‘पेशेवर पुरोहित वर्ग’ ही करा सकते थे क्योंकि मंत्रों के उच्चारण की अशुद्धि कुप्रभावकारी मानी जाती थी।
- ऋग्वैदिक देवमण्डली का महत्व भी च्युत हो गया और इंद्र, वरुण आदि के स्थान पर प्रजापति, विष्णु एवं शिव-रुद्र प्रतिष्ठित हो गये।
- ऋग्वैदिक 7 पुराहितों के स्थान पर अब 14 पुरोहितों का उल्लेख मिलने लगा। धर्म के क्षेत्रा पर ब्राह्मणों ने अपना एकाधिकारपूर्ण वर्चस्व स्थापित कर लिया।
- आरण्यकों के युग तक पहुँचते-पहुँचते धर्म के क्षेत्रा में इस कर्मकाण्डीय दुरुह याज्ञिक एवं रुढ़िगत धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया होने लगी और नवीन विचारों ने आकार ग्रहण किया।
- आरण्यकों ने याज्ञिक कर्मकाण्ड का स्पष्ट विरोध करते हुए आत्मन, ब्रह्म, कर्म, पुनर्जन्म व मोक्ष, माया आदि पारलौकिक व दार्शनिक अवधारणाओं को प्रस्तुत किया।
- आरण्यकों की यह विचारधारा उपनिषदों में एक नवीन धर्म व दर्शन के रूप में स्थापित हो गयी। यह धर्म याज्ञिक धर्म से पूर्णतया भिन्न था।
- उपनिषदों में ‘ज्ञान’ की महत्ता पर बल दिया गया और मनुष्य के सांसारिक दुखों से मुक्ति की चिन्ता स्पष्ट मुखरित हुयी। उपनिषदिक चिन्तकों ने याज्ञिक विधानों की भत्र्सना करते हुये इसे ‘टूटी नाव पर बैठने’ के समकक्ष बताया।
- उपनिषद आत्मा एवं ब्रह्म के तादाम्य पर बार-बार जोर देते हैं और ‘ब्रह्म सत्यं जगत् मिथ्या’ का उद्धोष करते हैं। ‘जो कुछ है ब्रह्म हैं’ की अभिव्यक्ति ‘तत् त्वमसि’ द्वारा करते हैं। संसार माया व भ्रम है (श्वेताश्वतर उपनिषद)।
- उपनिषदिक धार्मिक विधान के मुख्य तत्व निम्नलिखित थे-
1. दुःखों से भरे संसार की परिकल्पना एवं सांसारिक बन्धन व सम्बन्ध को मायाजनित भ्रम बताया।
2. आत्मन् एवं ब्रह्म की परिकल्पना एवं आत्मा को ब्रह्म में लीन करने की चेतना (मोक्ष) जीवन का परम् लक्ष्य। आवागमन के सिद्धान्त से मुक्ति (मोक्ष)।
3. चिन्तन, मनन व तपस्या की ओर आग्रह।