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कुछ पारिभाषिक शब्द (भाग - 2) - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

नकारात्मक व सकारात्मक अधिकारों के अन्तर: नकारात्मक मौलिक अधिकारों में वे अधिकार आते हैं जो निषेधाज्ञाओं के रूप में हैं। वे राज्य की शक्ति पर मर्यादाएं लगाते हैं, किसी नागारिक को कोई अधिकार नहीं देते।जैसे अनुच्छेद . 14 में कहा गया है कि व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता से अथवा विधि के समान संरक्षण से राज्य द्वारा वंचित नहीं किया जाएगा।
मौलिक अधिकारों का दूसरा सकारात्मक रूप है, जिसके अन्तर्गत व्यक्ति को विशिष्ट अधिकार प्राप्त होते हैं। स्वतंत्र ता का अधिकार, धार्मिक शिक्षा और संस्-ति के अधिकारों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है।

‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ (Procedure established by Law) : ‘विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया’ का अर्थ है कि जब विधान मण्डल जीवन तथा दैहिक स्वतंत्र ता के अपहरण के सम्बन्ध में कोई कानून बना देता है तो न्यायालय उसे अवैध नहीं ठहरा सकता। गिरफ्तारी, कैद या नजरबन्दी सम्बन्धी कानून चाहे कितने कड़े क्यों न हों, भारत में न्यायालय उनमें हस्तक्षेप नहीं कर सकते। वे केवल इस बात की परीक्षा करेंगे कि किसी व्यक्ति के जीवन या दैहिक स्वतंत्रता पर होने वाला आघात कानून पर आधारित है या नहीं, उसकी अच्छाई या बुराई की परीक्षा वे नहीं करेंगे। न्यायालय बहुत कड़े तथा जुल्म से भरे गिरफ्तारी, कैद या नजरबन्दी सम्बन्धी कानून को भी अवैध नहीं ठहरा सकते। इस प्रकार इस सम्बन्ध में अन्तिम शक्ति विधान मण्डल को दे दी गई है। इतना होते हुए भी न्यायालय का मत है कि कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया निष्पक्ष व उचित होनी चाहिए।

आनुपातिक प्रतिनिधत्व प्रणाली : वर्तमान लोकतंत्र शासन की सबसे जटिल समस्या यह है कि देश के अन्दर विद्यमान अनेक जातियों व वर्गों को प्रतिनिधित्व किस प्रकार दिया जाए। साधारणतः यह माना जाता है कि मतों के अनुपात में प्रतिनिधित्व ही सच्चा प्रतिनिधित्व है। जिस प्रणाली के द्वारा मतों के अनुपात में प्रतिनिधित्व दिया जाता है, उसे आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली कहा जाता है। इस प्रणाली का प्रवर्तक उन्नीसवीं शताब्दी का एक अंग्रेज दार्शनिक टाॅमस हेयर था।

एकल संक्रमण प्रणाली के दो गुण :
(i)  इस प्रणाली का यह गुण है कि कोई भी मत बेकार नहीं जाता, क्योंकि मतों का परिवर्तन एक उम्मीदवार से दूसरे उम्मीदवार के लिए कर लिया जाता है। 
(ii) मतदाता को अपने प्रतिनिधि चुनने में पर्याप्त स्वतंत्र ता होती  है। मतदाता अपनी पसन्द के अनुसार प्रतिनिधियों को मत दे सकता है।

प्रत्याह्वन या वापिस बुलाना (Recall): इस पद्धति के द्वारा जनता अपने चुने हुए प्रतिनिधियों को निश्चित अवधि से पूर्व वापिस बुलाना चाहे तो एक निश्चित अनुपात में नागरिक हस्ताक्षर करके एक प्रार्थना-पत्र सरकार को दे देते हैं। साधारणतः ऐसा करने पर प्रतिनिधि स्वयं ही त्याग-पत्र दे देता है। यदि वह स्वयं त्याग-पत्र नहीं देता तो जनमत संग्रह किया जाता है। बहुमत के विरुद्ध हो जाने पर उसे अपने स्थान से हटा दिया जाता है।

जनमत संग्रह : जनमत संग्रह स्विट्जरलैण्ड में प्रयोग में लाया जाता है। यदि वहां की संघीय सरकार संविधान में संशोधन करना चाहती है तो उसे जनमत संग्रह करना पड़ता है। यदि जनता और राज्य सरकारें इस संशोधन को पारित कर देती हैं तो संविधान में संशोधन मान लिया जाता है। दूसरे, किसी कानून को जनमत संग्रह के लिए रखने की मांग तीन हजार लोग या आठ राज्य कर सकते हैं।

एकल संक्रमणीय मत पद्धति (Single Transferable Vote System) : एकल संक्रमणीय मत पद्धति में अनेक प्रतिनिधियों  वाले (बहुसदस्यीय) चुनाव क्षेत्र बनते हैं जिनमें एक से अधिक प्रतिनिधि चुनने की व्यवस्था होती है। प्रत्येक मतदाता को केवल एक मत देना होता है। इसके साथ ही वह मत पत्र पर अपनी दूसरी, तीसरी, चैथी व पांचवीं आदि पसंदों को अंकित कर सकता है। मतों की गिनती के समय आवश्कतानुसार पसंदों का ‘संक्रमण’ करना इस प्रणाली की विशेषता है। पसंदों का यह संक्रमण तब तक चलता है जब तक निर्धारित संख्या में प्रतिनिधि को अपनी जीत के लिए एक आवश्यक चुनाव अंक तक कम से कम मत प्राप्त नहीं हो जाते। चुनाव अंक निकालने की सामान्य विधि निम्नलिखित है:
कुछ पारिभाषिक शब्द (भाग - 2) - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

भारत में व्याप्त चुनाव सम्बन्धी तीन प्रमुख कुरीतियां 
(i)  भारत में जाति प्रथा बहुत पुरानी है। अतः राजनीतिक दल चुनावों के समय जातिगत भावना को भड़काते हैं। यह प्रथा अब कुरीति बन गई है।
(ii)  इसी प्रकार भाषा व सम्प्रदायों के आधार पर भी भावनाओं को भड़काना आम बात हो गई है।
(iii)  एक अन्य कुरीति की ओर हमारा ध्यान जाना आवश्यक है और वह है धन का नग्न उपयोग। धन के द्वारा गरीब मतदाताओं को खरीदना अब एक सामान्य बात हो गई है।

हित या दबाव समूह : हित समूह से तात्पर्य लोगों के उस औपचारिक संगठन से है जिनके हित समान होते हैं और जो देश के घटना चक्र को अपने पक्ष में करने के लिए प्रयत्नशील रहते हैं। उनका प्रयास रहता है कि शासन अपनी नीति का निर्धारण व क्रियान्वयन इस प्रकार करे कि उनके समूह के हित सुरक्षित रहें और उनको प्रोत्साहन मिलता रहे। इनका कार्य राजनीति में भाग लेकर शासन पर अधिकार करने का नहीं होता।

हित व दबाव समूहों के प्रकार : हित व दबाव समूहों को सामान्यतः तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है -
(1) विशेष वर्ग हित समूह (Class Interest Groups) । इनमें सामान्यतः (i)  व्यापारिक समूह, (ii)  ट्रेड यूनियनें,(iii)  किसानों के समूह तथा (iv) अध्यापकों व विद्यार्थियों के समूह सम्मिलित हैं।
(2) पंथ तथा सम्प्रदाय पर आधारित समूह।
(3) जाति व क्षेत्र पर आधारित समूह।

नगर-क्षेत्रों की स्थानीय संस्थाओं का वर्गीकरण कीजिए। : भारत में विद्यमान छोटे व बड़े नगरों में कई प्रकार की स्थानीय संस्थाएं संगठित हैं जिनका इस प्रकार वर्गीकरण किया जा सकता है -
1.नगर निगम (Municipal Corporation)
2.नगरपालिकाएं (Municipalities)
3.टाऊन एरिया कमेटी (Town Area Committe es)
4.अनुसूचित क्षेत्र कमेटी (Notified Area Committees)
5.छावनी बोर्ड (Cantonment Boards)
6.पोर्ट ट्रस्ट (Port Trust)
7.इम्प्रूवमेंट ट्रस्ट अर्थात् सुधार न्यास (Improvement Trusts)

सामुदायिक विकास योजना : सामुदायिक विकास वह प्रणाली है जिसके द्वारा पंचवर्षीय योजना गांवों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में आमूल परिवर्तन का शुभारम्भ करना चाहती है। इस प्रकार सामुदायिक विकास योजना ग्रामीण जीवन की वह योजना है जो जन सहयोग से सम्पूर्ण ग्राम के विकास से सम्बन्धित होती है।

सामुदायिक विकास योजना का लक्ष्य : सामुदायिक विकास योजना का लक्ष्य एक ग्राम या ग्रामों के एक समूह को इकाई मानकर सम्पूर्ण ग्राम्य जीवन में परिवर्तन करना तथा सामाजिक व आर्थिक विकास के लिए ग्रामीणों के सहयोग से कार्य करना है। इससे ग्राम्य जीवन आत्म-निर्भर बनेगा, क्योंकि उनकी निर्धनता, रोग-ग्रस्तता, अशिक्षा तथा अज्ञानता को समूल नष्ट करने की इस योजना में सामथ्र्य है।

अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति आयोग के गठन  प्रकाश : भारत के राष्ट्रपति ने अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति आयोग का 1978 में गठन किया और उसे अनुसूचित जातियों व जनजातियों के विकास के लिए किए गए सांविधानिक प्रावधानों के अनुपालन की जांच करने का दायित्व सौंपा। इस कार्य के सम्पादन के लिए एक अनुसूचित जाति और अनुसूचित  जनजाति आयुक्त की भी राष्ट्रपति ने नियुक्ति की। यह आयुक्त उपर्युक्त आयोग का पदेन सदस्य बनाया गया। सितम्बर, 1987 में इस आयोग का ‘अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए राष्ट्रीय आयोग’ के रूप में पुनर्गठन हुआ।

भारत की विदेश नीति के कोई दो सिद्धान्त 
(i) भारत ने स्वतंत्र ता प्राप्ति के पश्चात से अपनी विदेश नीति के प्रमुख सिद्धान्त के रूप में गुट निरपेक्षता को अपनाया। इसके अन्तर्गत उसने तय किया कि वह सैनिक गुटों से बराबर की दूरी बनाए रखेगा और किसी भी सैनिक गुट में शामिल नहीं होगा।
(ii)  भारत प्राचीन काल से ही विश्व शान्ति के लिए प्रयास करता रहा है। वर्तमान में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात उसने विश्व शान्ति की स्थापना को अपनी विदेश नीति का सिद्धान्त बनाया।

प्रत्यक्ष प्रजातंत्र : प्रत्यक्ष प्रजातंत्र ऐसे शासन को कहते हैं जिसमें जनता स्वयं प्रत्यक्ष रूप से कानून बनाए तथा कर्मचारियों को नियुक्त करे। ऐसा करने के लिए किसी नगर के सभी नागरिक एक स्थान पर समय-समय पर एकत्रित होकर स्वयं कानून बनाते हैं एवं अपने देश की नीतियां निर्धारित करते हैं। यह प्रजातंत्र का आदर्श रूप है लेकिन इस प्रकार का प्रजातंत्र केवल थोड़ी जनसंख्या वाले देशों में ही स्थापित हो सकता है। आजकल प्रत्यक्ष प्रजातंत्र अमरीका के कुछ राज्यों तथा स्विट्जरलैंड के कुछ प्रान्तों में विद्यमान है।

अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र : आधुनिक राज्य  जनसंख्या व क्षेत्र दोनों प्रकार से बृहत् हैं। उनमें प्रत्यक्ष प्रजातंत्र सम्भव नहीं है। अतः आजकल विश्व के लगभग सभी देशों में प्रजातंत्र का अप्रत्यक्ष रूप ही देखने को मिलता है। अप्रत्यक्ष प्रजातंत्र में जनता एक निश्चित अवधि के लिए अपने प्रतिनिधियों को चुनती है। ये प्रतिनिधि संसद के रूप में मतदाताओं की भावनाओं के अनुसार कानून का निर्माण करते हैं एवं शासन चलाते हैं। यही प्रतिनिधि अपने में से मन्त्रिापरिषद् के सदस्यों का निर्वाचन करते हैं जो कि कार्यपालिका के रूप में, विधानपालिका द्वारा बनाए गए कानूनों को देश में लागू करते हैं।

अध्यक्षीय प्रणाली : अध्यक्षात्मक सरकार उस शासन-प्रणाली को कहते हैं जिसमें कार्यपालिका संवैधानिक दृष्टि से विधानपालिका के प्रति उत्तरदायी नहीं होती और दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं होता। राज्य का अध्यक्ष वास्तविक कार्यपालिका होता है। इस प्रणाली में राज्य का अध्यक्ष केवल नाममात्र की कार्यपालिका नहीं होता, बल्कि वास्तविक कार्यपालिका होता है और संविधान तथा कानूनों द्वारा दी गई वास्तविक शक्तियों का प्रयोग करता है।

सामूहिक उत्तरदायित्व : संसदीय सरकार में वास्तविक शक्ति मंत्रिमंडल के हाथ में होती है तथा राष्ट्रपति नाममात्र का शासक होता है। मंत्रिमंडल का निर्माण जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों से होता है। इस बहुमत दल का नेता प्रधानमंत्री कहलाता है। कानून निर्माण से लेकर देश के पूरे प्रशासन की जिम्मेदारी मंत्रिमंडल पर होती है। मंत्रिमंडल संसद या लोकसभा के सम्मुख अपने कार्यों के लिए सामूहिक रूप से उत्तरदायी होता है। यदि संसद एक मंत्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पास कर दे तो पूरे मंत्रिमंडल को त्यागपत्र देना पड़ता है। मंत्रिमंडल जो भी निर्णय संसद या देश के सामने प्रस्तुत करता है, तो प्रत्येक मंत्री उसके लिए उत्तरदायी होता है।

शक्तियों के पृथक्करण सिद्धान्त : प्रत्येक सरकार के कार्यों को प्रायः 3 भागों में बाँटा जा सकता है - 
(i) कानून का निर्माण 
(ii) कानूनों को लागू करना
(iii) न्याय करना
शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धान्त वह सिद्धान्त है जो इस बात पर बल देता है कि ये तीनों कार्य एक ही व्यक्ति अथवा व्यक्ति समूह के हाथों में न होकर तीन अलग-अलग व्यक्तियों अथवा व्यक्ति समूहों के हाथों में होने चाहिए।

संवैधानिक अध्यक्ष : संसदीय शासन प्रणाली में दो प्रकार के अध्यक्ष होते हैं- संवैधानिक अध्यक्ष तथा वास्तविक अध्यक्ष। संवैधानिक अध्यक्ष उसे कहते हैं जिसे संविधान तथा कानून के अनुसार सभी प्रकार की कार्यपालिका शक्तियां प्राप्त होती हैं, परन्तु वह उन शक्तियों के प्रयोग स्वयं नहीं करता बल्कि उनका प्रयोग वास्तविक कार्यपालिका द्वारा किया जाता है। संसदीय शासन प्रणाली के नाममात्र मुखिया को ही संवैधानिक मुखिया कहा जाता है। भारत में राष्ट्रपति संवैधानिक मुखिया है।

एकात्मक शासन प्रणाली : एकात्मक शासन से अभिप्राय उस शासन व्यवस्था से है, जिसमें संविधान द्वारा शासन की समस्त शक्तियां और अधिकार केन्द्रीय सरकार को सौंपे जाते हैं और केन्द्रीय सरकार के आदेश सम्पूर्ण देश में लागू होते हैं। देश में एक ही विधानसभा, कार्यपालिका व एक ही न्यायपालिका होती है। इंग्लैंड, जापान, फ्रांस व स्वीडन में एकात्मक शासन प्रणाली है।

संघात्मक शासन : फेडरेशन (Federation )  शब्द लैटिन भाषा के 'Fodus' से लिया गया है, जिसका अर्थ है सन्धि या समझौता। इस प्रकार संघात्मक शासन ऐसा शासन है जिसका निर्माण अनेक स्वतन्त्र राज्य अपनी पृथक स्वतन्त्र ता रखते हुए समान उद्देश्यों की पूर्ति के लिए एक केन्द्रीय सरकार के रूप में करते हैं। इसमें संविधान द्वारा केन्द्र और राज्यों में शक्तियों का बंटवारा होता है। ऐसी शासन-प्रणाली में कठोर संविधान होता है तथा केन्द्र और राज्यों में झगड़ों का फैसला करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की जाती है। 

सर्वप्रभुत्व सम्पन्न- भारतीय संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक सर्वप्रभुत्व सम्पन्न देश घोषित किया गया है। इसके अनुसार हमारा देश अपने आन्तरिक व विदेश नीति में पूर्ण रूप से स्वतन्त्र है। हमारा देश 15 अगस्त, 1947 से पहले सर्वप्रभुत्व सम्पन्न नहीं था। परन्तु अब यह अमेरिका, इंग्लैंड और फ्रांस के समान एक सर्वप्रभुत्व सम्पन्न देश है। यह अपनी किसी भी नीति के लिए किसी देश के अधीन नहीं है।

 समाजवादी- समाजवादी शब्द को 1976 ई. में 42वें संविधान संशोधन द्वारा भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जोड़ा गया। इस शब्द का तात्पर्य यह है कि भारत में किस प्रकार की शासन व्यवस्था हो जिसके अनुसार समाज के सभी वर्गों को विकास व उन्नति के लिए उचित अवसर प्राप्त हो सके तथा आर्थिक असमानता को कम किया जाए। इस नीति के अनुसार भारत सरकार यह प्रयत्न करेगी कि उत्पादन और वितरण के साधनों का राष्ट्रीयकरण किया जाए।

धर्मनिरेपक्ष- धर्म-निरपेक्ष शब्द को भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 42वें संविधान संशोधन 1976 द्वारा जोड़ा गया। इसका तात्पर्य यह है कि भारत किसी धर्म या पंथ को राज्य धर्म के रूप में स्वीकार नहीं करता और न ही किसी धर्म का विरोध करता है। प्रस्तावना के अनुसार भारतवासियों को धार्मिक विश्वास, धर्म व उपासना की स्वतन्त्र ता होगी। धर्म को लोगों का व्यक्तिगत मामला माना गया है। अतः राज्य लोगों के इस कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेगा। 

भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को क्यों लागू किया गया ? : 
भारत के नये संविधान को 26 जनवरी, 1950 को इसलिए लागू किया गया क्योंकि 26 जनवरी भारत के इतिहास का एक महत्वपूर्ण दिन था। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने दिसम्बर 1929 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वतन्त्रता की मांग का प्रस्ताव पास किया था और 26 जनवरी, 1930 का दिन स्वतन्त्रता दिवस के नाम से मनाया था। इसके बाद कांगे्रस ने हर वर्ष 26 जनवरी का दिन इसी रूप में मनाया। अतः इसी पवित्र दिवस की याद ताजा रखने के लिए संविधान सभा ने संविधान को 26 जनवरी, 1950 को लागू करने का निर्णय किया।

राज्य के नीति के निर्देशक सिद्धान्त : 
राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्त कुछ ऐसे नैतिक सिद्धान्त हैं जो कि केन्द्र व राज्य सरकारों को उन पर अमल करने का निर्देश देते हैं। ये सिद्धान्त संघ तथा राज्य सरकारों की सामाजिक तथा आर्थिक नीतियों के निर्धारण में मार्गदर्शन का कार्य करते हैं। इसमें संशय नहीं कि यदि इन सिद्धान्तों पर अमल किया जाए तो एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना हो सकती है। दूसरे शब्दों में, राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्त वे आदेश-पत्र हैं जिनको राज्य की व्यवस्थापिका तथा कार्यपालिका को कोई भी कानून या नीति बनाने समय ध्यान में रखना पड़ता है।

राज्य नीति के निर्देशक तत्त्वों की न्यायिक अयोग्यता: 
राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्तों का वर्णन संविधान के चैथे भाग में अनुच्छेद 36 से 51 तक में किया गया है। राज्य के नीति-निर्देशक सिद्धान्त न्याय योग्य नहीं हैं। निर्देशक सिद्धान्तों के पीछे कानूनी शक्ति नहीं है। इन सिद्धान्तों को न्यायालयों द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। यदि सरकार निर्देशक सिद्धान्तों की अवहेलना करती है तो नागरिक न्यायालय में नहीं जा सकता। निर्देशक सिद्धान्तों को लागू करना या न करना सरकार की इच्छा पर निर्भर करता है।  

भारतीय संविधान के चार संघात्मक लक्षण : भारतीय संविधान के चार संघात्मक लक्षण निम्नलिखित हैं-
(i) शक्तियों का विभाजन - प्रत्येक संघीय देश की तरह भारत में भी केन्द्र और राज्य के बीच शक्तियों का विभाजन किया गया है। इन शक्तियों को तीन विषयों में विभाजित किया गया है - संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची।
(ii) लिखित संविधान - संघीय व्यवस्था में संविधान लिखित होता है ताकि केन्द्र और प्रान्तों की शक्तियों का स्पष्ट वर्णन किया जा सके। भारत का संविधान लिखित है।
(iii) कठोर संविधान - संघीय व्यवस्था में संविधान का कठोर होना अति आवश्यक है। भारत का संविधान भी कठोर है। संविधान की महत्वपूर्ण धाराओं में संसद दो तिहाई बहुमत तथा राज्यों के विधानमंडलों के बहुमत से ही संशोधन कर सकती है।
(iv) संविधान की सर्वोच्चता - भारतीय संविधान की सर्वोच्चता की स्थापना की गई है। संविधान के अनुसार बनाए गए कानूनों का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति का कत्र्तव्य है। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय किसी भी कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकते हैं जो संविधान के विरुद्ध हो। 

भारतीय संविधान के चार एकात्मक लक्षण :
(i) शक्तियों का विभाजन केन्द्र के पक्ष में - भारतीय संविधान में शक्तियों का जो विभाजन किया गया है वह केन्द्र के पक्ष में है। संघीय सूची में बहुत ही महत्वपूर्ण विषय हैं। इनकी संख्या भी राज्यसूची के विषयों की संख्या से अधिक है। संघीय सूची में 97 विषय हैं, जबकि राज्य सूची में 66 विषय हैं। समवर्ती सूची के विषयों पर भी असली अधिकार केन्द्र का है।
(ii) राष्ट्रपति द्वारा राज्यों के राज्यपालों की नियुक्ति -  भारत में राज्य के राज्यपालों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है तथा वे राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत ही अपने पद पर रहते हैं, अर्थात् राष्ट्रपति जब चाहे राज्यपाल को हटा सकता है।
(iii) राज्यों के क्षेत्र में परिवर्तन - संसद को राज्यों के क्षेत्र में परिवर्तन करने, नवीन राज्य उत्पन्न करने या पुराने राज्य समाप्त करने का अधिकार प्राप्त है।
(iv) इकहरी न्याय व्यवस्था - भारत में इकहरी न्याय व्यवस्था की स्थापना की गई है। देश के सभी न्यायालय सर्वोच्च न्यायालय के अधीन कार्य करते हैं।

"भारतीय संविधान संघात्मक और एकात्मक का मिश्रण है।" :
भारतीय संविधान द्वारा भारत में संघात्मक शासन स्थापित किया गया है लेकिन संघात्मक होने के साथ-साथ एकात्मक संविधान के लक्षण भी मजबूत हैं। संविधान में शक्तियों का बंटवारा केन्द्र तथा राज्यों में कर दिया गया है। इसमें राज्य भी अपने पास बहुत सी शक्तियां रखते हैं लेकिन संकट काल के समय केन्द्र एकात्मक रूप धारण कर लेता है और राज्यों की शक्तियां छीन सकती है। भारत में नागरिकों को इकहरी नागरिकता प्राप्त है। अर्थात् वह किसी भी राज्य का रहने वाला हो, भारतीय ही कहलायेगा। अतः अन्त में यही कहा जा सकता है कि भारतीय संविधान का शरीर संघात्मक है लेकिन आत्मा एकात्मक।

भारत में केन्द्र और राज्यों के सम्बन्ध:
संघात्मक व्यवस्था की एक यह विशेषता होती है कि इसमें केन्द्र और राज्य सरकारों के मध्य शक्तियों, अधिकार एवं कार्यो का संविधान द्वारा स्पष्ट विभाजन कर दिया जाता है, जिससे केन्द्र एवं राज्य सरकारों के मध्य किसी भी प्रकार का झगड़ा न हो और दोनों सरकारें अपने कार्यों एवं उत्तरदायित्वों को सही ढंग से निभा सकें और सम्पूर्ण देश में शांति एवं सुरक्षा का वातावरण बना रहे। भारतीय संविधान की व्यवस्था के अनुसार संघ व उसके राज्यों के सम्बन्धों का अध्ययन तीन शीर्षकों के अन्तर्गत रखा जाता है -
(i) विधायी सम्बन्ध,
(ii) प्रशासकीय सम्बन्ध, और
(iii) वित्तीय सम्बन्ध।

"भारतीय संविधान अर्द्ध-संघात्मक है।":
अर्द्ध-संघात्मक से तात्पर्य है कि संघ और राज्यों में शक्तियों का बंटवारा तो किया गया हो परन्तु राज्य की अपेक्षा संघ अधिक शक्तिशाली हो। भारतीय संघीय व्यवस्था को अर्द्ध-संघात्मक का नाम दिया जाता है क्योंकि यहां केन्द्र, प्रान्तों की अपेक्षा बहुत शक्तिशाली है। 

राज्यों की स्वायत्तता :
राज्यों की स्वायत्तता का अर्थ है कि संघ की इकाइयों को अपने आंतरिक क्षेत्र में अपनी शक्तियों का प्रयोग करने की स्वतन्त्रता होनी चाहिए। जो शक्तियां राज्यों को संविधान के द्वारा दी गई हैं उनमें केन्द्र का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। भारत में संघीय व्यवस्था है और संघ तथा राज्यों की शक्तियां व अधिकार क्षेत्र बंटे हुए हैं। परन्तु समय-समय पर जब केन्द्र सरकार राज्यों की शक्तियों में हस्तक्षेप करती है तो उनकी स्वायत्तता को खतरा पैदा हो जाता है और दोनों में आपसी तनाव बढ़ता है।,

भारत के योजना आयोग के संगठन का संक्षिप्त वर्णन :
भारत की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में सुधार लाने के लिए भारत सरकार ने 15 मार्च, 1950 को योजना आयोग (Planning Commission) की स्थापना की। भारत का प्रधानमंत्री योजना आयोग का अध्यक्ष (Ex&officio Chair person) होता है। योजना अयोग की सदस्य संख्या निश्चित नहीं है। इसमें एक अध्यक्ष (प्रधानमंत्री ), एक उपाध्यक्ष, दो केन्द्रीय मंत्री (प्रायः वित्त और रक्षा मंत्री ) और शेष चार पूर्णकालिक सदस्य होते हैं, जिनमें एक आयोग का सचिव भी होता है।

भारत के योजना आयोग के प्रमुख कार्यों का संक्षिप्त वर्णन 
: भारत के योजना आयोग के प्रमुख कार्य निम्नलिखित हैं -
(i) देश के भौतिक, पूंजीगत, मानवीय, तकनीकी तथा कर्मचारी वर्ग सम्बन्धी साधनों का अनुमान लगाना और जो साधन राष्ट्रीय आवश्यकता की तुलना में कम प्रतीत होते हों उनकी वृद्धि की सम्भावनाओं के सम्बन्ध में अनुसंधान करना।
(ii) देश के साधनों के अधिकतम प्रभावशाली तथा सन्तुलित उपयोग के लिए योजनाएं बनाना।
(iii) नियोजन के स्वीक्र-त कार्यक्रमों तथा परियोजनाओं के बारे में में प्राथमिकताएं निश्चित करना।
(iv) आर्थिक विकास प्राप्त करने हेतु पिछडे़पन की प्रवृति के कारणों का पता लगाना।

योजना आयोग की भारत के आर्थिक नियोजन में भूमिका :
सामाजिक व आर्थिक विकास हेतु योजना आयोग की भूमिका को भुलाया नही जा सकता। स्वतन्त्रता के बाद भारत में जितना विकास हुआ है, उसका श्रेय योजना आयोग को जाता है। स्वतन्त्रता के बाद बनने वाली अनेक पंचवर्षीय तथा कुछेक एक-वर्षीय योजनाएं भारत में आर्थिक नियोजन के लिए अत्यधिक सहायक सिद्ध हुई हैं। यह एक अन्य बात है कि आर्थिक व सामाजिक विकास की दृष्टि से भारत को एक केन्द्रीकृत ढांचा प्रदान किया गया है।  

राष्ट्रपति राष्ट्रीय संकट की घोषणा कब करता है?
उत्तर: राष्ट्रपति धारा 352 के अन्तर्गत राष्ट्रीय संकट की घोषणा उस समय कर सकता है जब युद्ध, बाह्य आक्रमण तथा सशस्त्र विद्रोह के कारण संकट पैदा हो चुका हो या उसके पैदा होने की संभावना हो। राष्ट्रपति ऐसी घोषणा मंत्रिमंडल की लिखित सिफारिश पर ही कर सकता है। ऐसी घोषणा समस्त भारत या उसके किसी भी संबंधित भाग में लागू हो सकती है।

वित्तीय संकट क्या होता है ? इसे कब लागू किया गया था?
संविधान की धारा 360 में वित्तीयं संकट की व्यवस्था है। इसमें कहा गया है कि यदि राष्ट्रपति को विश्वास हो जाए कि भारत या उसके किसी भाग का वित्तीय स्थायित्व या उसकी वित्तीय साख खतरे में है तो वह वित्तीय संकट की घोषणा कर सकता है। इसके अन्तर्गत राष्ट्रपति राज्यों को वित्तीय आदेश भेज सकता है और सरकारी कर्मचारियों जिनमें उच्च तथा सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भी सम्मिलित हैं, के वेतन और भत्तों में कमी के आदेश दे सकता है। 
वित्तीय संकट की घोषण अब तक नहीं हुई है।

आपातकाल की घोषणा होने पर केन्द्र-राज्यों के वित्तीय सम्बन्धों पर क्या प्रभाव पड़ता है ?
(i) संघ सरकार वित्तीय मामलों में राज्य सरकार को निर्देश दे सकती है।
(ii) राज्यों को अपने कर्मचारियों का वेतन घटाने का आदेश भी दे सकती है।
(iii) राज्य विधानसभाओं द्वारा पास किए गए धन-विधेयकों को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए सुरक्षित रखा जाता है।
(iv) राज्यों को यह भी निर्देश दिया जा सकता है कि वे केन्द्र की अनुमति के बिना कोई खर्चा न करें।

द्विसदनीय व्यवस्थापिका पर एक संक्षिप्त टिप्पणी 
उत्तर: जे.एस.मिल, सर हेनरी मैन आदि विद्वानों ने द्वि-सदनीय प्रणाली को समर्थन प्रदान किया है। जब विधानमंडल के दो सदन हों तो उसे द्वि-सदनीय विधानमंडल कहा जाता है। इंग्लैण्ड, अमेरिका, फ्रांस, भारत, स्विट्जरलैंड, रूस आदि देशों में द्वि-सदनीय प्रणाली प्रचलित है। पहले सदन को निम्न सदन तथा दूसरे सदन को ऊपरी सदन कहा जाता है।

प्रदत व्यवस्थापन’(Delegated Legislation) पर एक संक्षिप्त टिप्पणी :
कल्याणकारी राज्य में सरकार के कार्य बढ़ते जा रहे हैं। ससंद के प्रत्येक सत्र में सैकड़ों बिल कानून निर्माण के लिए प्रस्तुत होते हैं। विधायिका के पास उन सब पर पूरी तरह से विचार करने और कानूनों की तकनीकी बारीकियों को समझने की न तो क्षमता है न समय। परिणामस्वरूप, विधायिका उस कानून को मुख्य बातों सहित पास करके उसे लागू करने के लिए आवश्यक नियम तथा व्यवस्थाएं बनाने का अधिकार कार्यपालिका को दे देती है। कार्यपालिका के इस कानून-निर्माण अधिकार को प्रदत्त व्यवस्थापन कहते हैं।
 
"परिपृच्छा तथा पहल" :
कानून बनाने में जनता के सीधे हस्तक्षेप के लिए जो नई लोकतन्त्रीय पद्धति है उसे प्ररिपृच्छा तथा पहल का नाम दिया गया है। स्विट्जरलैण्ड और संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ राज्यों में मतदाताओं को इसके माध्यम से विधानमंडल में प्रस्तुुत विधेयक पर कानून बनाने से पहले विचार-विमर्श तथा समीक्षा करने का अधिकार दिया गया है। स्विट्जरलैण्ड में पहल का अधिकार भी लोकप्रिय है। इसमें जनता को अपने प्रतिनिधियों द्वारा पारित किए गए कानून पर अपने सुझाव देने का अधिकार प्राप्त है।

"जनमत संग्रह तथा प्रत्याह्वान":
जनमत संग्रह का अर्थ है किसी प्रश्न पर जनता का मत जानना। इसमें लोगों के विचार तथा इच्छा मालूम की जाती है। ‘प्रत्याह्वान’ का अर्थ है वापस बुलाना। संयुक्त राज्य अमेरिका के कुछ राज्यों में लोगों को यह अधिकार दिया गया है कि वे जनहित व कल्याणकारी कार्य न करने वाले प्रतिनिधि को अवधि बीतने से पहले ही वापिस बुला सकें।   

भारत की संसद की तीन विधायी शक्तियों का वर्णन 
(i)  कानून निर्माण - भारतीय संसद आवश्यकतानुसार नए कानूनों का निर्माण करती है और पुराने कानूनों में संशोधन करती है।
(ii) अध्यादेशों को मंजूरी देना -  जब संसद का अधिवेशन न हो रहा हो और राष्ट्रपति कोई अध्यादेश जारी कर दे तो संसद अधिवेशन के समय उस अध्यादेश को मंजूरी देती है और उसे पूर्ण कानून का दर्जा प्राप्त हो जाता है।
(iii) संविधान में संशोधन - संसद के पास भारत के संविधान में संशोधन करने का अधिकार है।

संसद के चार गैर-विधायी कार्यों का उल्लेख :
(i) संसद का मंत्रिमंडल पर नियन्त्रण होता है। मंत्रिमंडल को तब तक अपने पद पर बने रहने का अधिकार है जब तक उसे संसद का बहुमत प्राप्त होता है।
(ii) संसद राष्ट्रीय नीतियों को निर्धारित करती है।
(iii) संसद अगर चाहे तो राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति को महाभियोग द्वारा हटा सकती है।
(iv) संसद उपराष्ट्रपति और राष्ट्रपति के चुनाव में भाग लेती है।

राज्यसभा की रचना की संक्षिप्त विवेचना :
संविधान के अनुसार राज्यसभा के सदस्यों की संख्या अधिक-से-अधिक 250 हो सकती है, जिनमें से 238 सदस्य राज्यों का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे तथा 12 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा मनोनीत किये जा सकते हैं जिन्हें समाज सेवा, कला तथा विज्ञान, शिक्षा आदि के क्षेत्र में विशेष ख्याति प्राप्त हो। राज्य सभा की रचना में संघ की इकाइयों को समान प्रतिनिधित्व देने का वह सिद्धान्त जो अमेरिका की सीनेट की रचना में अपनाया गया है, भारत में नही अपनाया गया। हमारे देश में विभिन्न राज्यों की जनसंख्या के आधार पर उनके द्वारा भेजे जाने वाले सदस्यों की संख्या संविधान द्वारा निश्चित की गई है।

लोकसभा की रचना :
प्रारम्भ में लोकसभा के सदस्यों की अधिकतम संख्या 500 निश्चित की गई थी। 1963 में सविधान के 14वें संशोधन के अन्तर्गत इसके निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 535 निश्चित की गई। 31वें संशोधन के अन्तर्गत इसके निर्वाचित सदस्यों की अधिकतम संख्या 545 निश्चित की गई। इस प्रकार लोकसभा के सदस्यों की कुल संख्या 547 हो सकती है। 547 सदस्यों का ब्यौरा इस प्रकार है -

(a) 525 सदस्य राज्यों में से चुने हुए,
(b) 20 सदस्य संघीय क्षेत्रों में से चुने हुए, और
(c) 2 एंग्लो-इण्डियन जाति के सदस्य जिनको राष्ट्रपति मनोनीत करता है, यदि उसे विश्वास हो जाए कि इस जाति को लोकसभा में उचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है। 
आजकल लोकसभा की कुल सदस्य संख्या 545 है। इसमें 543 निर्वाचित सदस्य हैं और 2 सदस्य राष्ट्रपति द्वारा एंग्लो-इण्डियन समुदाय से नियुक्त किए हुए हैं।

राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए  योग्यता :
राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए निम्नलिखित योग्यताएं निश्चित हैं
(i) वह भारत का नागरिक हो।
(ii) वह तीस वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
(iii) वह संसद द्वारा निश्चित अन्य योग्यताएं रखता हो।
(iv) वह पागल तथा दिवालिया न हो।
(v) भारत सरकार या राज्य सरकार के अधीन किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो।

लोकसभा का सदस्य बनने के लिए  योग्यताएं : 
लोकसभा का सदस्य वही व्यक्ति बन सकता है जिसमें निम्नलिखित योग्यताएं हों -   
(i) वह भारत का नागरिक हो।
(ii) वह 25 वर्ष की आयु पूरी कर चुका हो।
(iii) वह भारत सरकार या किसी राज्य सरकार के अन्तर्गत किसी लाभदायक पद पर आसीन न हो।
(iv) वह संसद द्वारा निश्चित की गई अन्य योग्यताएं रखता हो।
(v) वह पागल तथा दिवालिया न हो।
(iv) किसी न्यायलय द्वारा इस पद के लिए अयोग्य न घोषित किया गया हो। यदि चुने जाने के बाद भी किसी सदस्य में कोई अयोग्यता उत्पन्न हो जाए तो उसे अपना पद त्यागना पडे़गा।

राज्यसभा के सदस्यों के विशेषाधिकार :
राज्यसभा के सदस्यों को निम्नलिखित विशेषाधिकार प्राप्त हैं-
(i) राज्यसभा के सदस्यों को अपने विचार प्रकट करने की पूर्ण स्वतन्त्रता है। सदन में दिए गए भाषणों के कारण उसके विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई कार्यवाही नहीं की जा सकती है।
(ii) अधिवेशन के दौरान तथा 40 दिन पहले और अधिवेशन समाप्त होने के 40 दिन बाद तक सदन के किसी भी सदस्य को दीवानी अभियोग के कारण गिरफ्तार नहीं किया जा सकता।
(iii) सदस्यों को वे सब विश्ेाषाधिकार प्राप्त होते हैं जो संसद द्वारा समय-समय पर निश्चित किए जाते हैं।

साधारण विधेयक :
 कानून बनाने के लिए जो प्रस्ताव संसद में रखा जाता है उसे विधेयक अथवा बिल कहते हैं। विधेयक दो प्रकार के होते हैं -
(i) साधारण विधेयक 
(ii) धन विधेयक 
साधारण बिलों को भी दो भागों में बांटा जाता है-
(i) सरकारी विधेयक तथा
(ii) गैर सरकारी विधेयक 
(i) सरकारी विधेयक कृ जो विधेयक मंत्रीमंडल के सदस्य संसद में प्रस्तुत करते हैं वह सरकारी विधेयक कहलाते हैं।
(ii) गैर सरकारी विधेयक कृ वे विधेयक जो विपक्ष द्वारा रखे जाते हैं उन्हें गैर सरकारी विधेयक कहते हैं।

धन विधेयक :
धन विधेयक उसको कहते हैं जिसका सम्बन्ध टैक्स लगाने, बढ़ाने तथा कम करने, खर्च करने, ऋण लेने, ब्याज देने आदि बातों से सम्बन्धित हो। यदि इस बात पर शंका हो कि अमुक विधेयक धन विधेयक है या नहीं, तब लोकसभा के स्पीकर का निर्णय अन्तिम समझा जाता है। उस विधेयक को केवल लोकसभा में पेश किया जा सकता है। धन विधेयक केवल मंत्री ही पेश कर सकते हैं।

"अनुदान मांगों" पर एक संक्षिप्त टिप्पणी :
 वार्षिक बजट की आम चर्चा के बाद लोकसभा अनुदान की मांगों पर गहराई से विचार करती है। मंत्रीगण अपने-अपने विभागों की अनुदान की मांगें रखते हैं तथा व्याख्यापरक भाषण देते हैं। इसके बाद सदस्यगण भाषण देते हैं। प्रत्येक मांग के सम्बन्ध में लोकसभा इन शक्तियों का प्रयोग कर सकती है-
(i) मांग स्वीकार की जा सकती है,
(ii) मांग अस्वीकार की जा सकती है, और
(iii) मांग की राशि घटाई जा सकती है परन्तु लोकसभा मांग की राशि को बढ़ा नहीं सकती।

"विनियोजन विधेयक" :
मंत्रियों द्वारा रखी गयी मांगों पर जब लोकसभा की स्वीकृति ली जाती है तो इन सारी मांगों और जितना भी व्यय देश की संचित निधि से होना है, उन्हें मिलाकर एक विधेयक का रूप दे दिया जाता है जिसे विनियोजन विधेयक कहते हैं। ऐसे विधेयक पर संसद के किसी भी सदन में ऐसा कोई संशोधन नहीं रखा जा सकता जिसके द्वारा संचित निधि के नाम डाले गए किसी खर्च अथवा जिस मद में इसे खर्च करना है, आदि में परिवर्तन किया जा सके। अन्य किसी भी विधेयक की भांति इसके लिए भी दोनों सदनों की स्वीकृति आवश्यक है। 

संसदीय कार्यपालिका तथा अध्यक्षात्मक कार्यपालिका में भेद :
संसदीय कार्यपालिका वह कार्यपालिका है जहां राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया होता है जबकि मन्त्रिामंडल वास्तविक कार्यपालिका होती है। मन्त्रिामंडल के सदस्य संसद में से लिए जाते हैं और ससंद के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होते हैं।
अध्यक्षात्मक कार्यपालिका वह कार्यपालिका है जहां राज्य का अध्यक्ष वास्तविक मुखिया होता है। मन्त्री संसद के सदस्य नहीं होते हैं और न ही संसद की बैठकों में भाग लेते हैं। वे संसद के प्रति उत्तरदायी भी नहीं होते। संसद को उनको हटाने का अधिकार भी नहीं होता।

नाममात्र तथा वास्तविक कार्यपालिका में भेद: 
नाममात्र की कार्यपालिका के हाथों में वास्तविक शक्तियां नहीं होतीं। सम्राट या राष्ट्रपति कहने को तो बहुत शक्तिशाली हैकृ वह संसद का अधिवेशन बुलाता है, विधेयकों पर अनुमति प्रदान करता है, मंत्रियों की नियुक्ति करता है। परन्तु उसकी ये शक्तियां नाममात्र की होती हैं। संसदीय प्रणाली में वास्तविक शक्तियां प्रधानमंत्री, मंत्रीमंडल के हाथों में होती हैं। भारत, इंग्लैण्ड, जापान तथा डेनमार्क आदि देशों में राज्य का अध्यक्ष नाममात्र का मुखिया होता है और वास्तविक कार्यपालिका मन्त्रिामंडल ही है। वहीं अमेरिका में अध्यक्षात्मक सरकार है जहां वास्तविक कार्यपालिका राष्ट्रपति है, क्योंकि संविधान व कानून ने जो शक्तियां प्रदान की हैं वह उनका व्यावहारिक प्रयोग भी कर सकता है।

वंशानुगत तथा निर्वाचित कार्यपालिका में भेद :
जब राज्य का अध्यक्ष राजा होता है और उसकी मृत्यु के उपरान्त उसके पुत्र या पुत्री को सिंहासन पर बिठाया जाता है, तो इसे पैतृक कार्यपालिका कहते हैं। इंग्लैण्ड, जापान, नेपाल आदि देशों में पैतृक कार्यपालिका का प्रचलन है।
जहां राज्य के अध्यक्ष को जनता प्रत्यक्ष रूप से चुनती है वहां उसे निर्वाचित कार्यपालिका कहते हैं। वहां अध्यक्ष के पद की अवधि निश्चित होती है। पेरू और चिली में राष्ट्रपति को जनता प्रत्यक्ष रूप से चुनती है।

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FAQs on कुछ पारिभाषिक शब्द (भाग - 2) - भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. भारतीय राजव्यवस्था क्या है?
उत्तर: भारतीय राज्यव्यवस्था भारत की संविधानिक और न्यायिक प्रणाली है जो देश के शासन की व्यवस्था को संचालित करती है। इसमें निर्धारित संविधानिक मानदंडों के अनुसार, भारत में सर्वाधिकार जनता के हाथ में हैं और राज्य की सत्ता जनता के नाम पर चलती है।
2. भारतीय संविधान क्या है?
उत्तर: भारतीय संविधान भारत का मूल नियमक दस्तावेज है जिसमें देश की राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक प्रणाली को व्यवस्थित करने के लिए निर्धारित नियम और विधियाँ होती हैं। इसे 26 नवंबर 1949 को संविधान सभा द्वारा स्वीकृत किया गया और 26 जनवरी 1950 को लागू हो गया।
3. भारतीय राज्यपाल क्या होता है?
उत्तर: भारतीय राज्यपाल राज्य के संघीय नयायिक शाखा का मुखिया होता है। वह राज्य के मुख्य कार्यपालक अधिकारी होते हैं और राज्य सरकार के प्रमुख होते हैं। राज्यपाल को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 153 के तहत नियुक्त किया जाता है।
4. भारतीय लोकसभा क्या है?
उत्तर: भारतीय लोकसभा भारत की संसद का निचला सदन है और यह देश के लोकतांत्रिक प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह लोकतंत्र के सबसे बड़े संसदीय सदनों में से एक है और इसमें निर्धारित संख्या में विधायकों की निर्वाचन होती है।
5. संघ लोक सेवा आयोग क्या है?
उत्तर: संघ लोक सेवा आयोग (UPSC) भारत सरकार की संस्था है जो विभिन्न संघ लोक सेवाओं के लिए परीक्षाएं आयोजित करती है। इसका मुख्य उद्देश्य योग्य और निष्पक्ष सामरिक, नागरिक सेवा और अन्य स्तरीय सेवाओं की भर्ती करना है। UPSC का मुख्यालय नई दिल्ली में स्थित है।
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