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Essays (निबंध): November 2022 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

सतत् शहरी नियोजन की ओर

संदर्भ
भारत दुनिया की सबसे तेज़ी से विकास करती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है और इसका या विकास इसके शहरों से प्रेरित है। अध्ययनों से यह भी पता चला है कि वर्ष 2030 तक भारतीय शहर देश के सकल घरेलू उत्पाद में 70% योगदान कर रहे होंगे। विश्व बैंक के अनुसार, भारत को अपनी तेज़ी से बढ़ती शहरी आबादी की मांगों की पूर्ति करने के लिये अगले 15 वर्षों में 840 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करने की आवश्यकता होगी।

  • ऐसे निष्कर्ष शहरीकरण (urbanisation) की उस घातीय दर में परिलक्षित भी होते हैं जिनसे देश गुज़र रहा है। जबकि यह वृहत आर्थिक विकास की दिशा में एक उल्लेखनीय मोड़ है, यह जीवनक्षमता (liveability) के संबंध में चुनौतियों का एक समूह भी लेकर आता है। उन चुनौतियों में गहराई से उतरने पर शहरीकरण के ढाँचे के भीतर एक अंतर्निहित सीमा का भी पता चलता है।
  • शहरीकरण अपने आप में कोई समस्या नहीं है, लेकिन अरक्षणीय और अनियोजित शहरीकरण सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ पैदा करने के लिये बाध्य है। इन समस्याओं से योजनाबद्ध और वैज्ञानिक तरीके से मुक़ाबला करने की ज़रूरत है।

भारत शहरी क्षेत्र को एक विकास इकाई के रूप में कैसे चिह्नित करता है?

  • भारत का अखिल भारतीय शहरी दृष्टिकोण सर्वप्रथम 1980 के दशक में राष्ट्रीय शहरीकरण आयोग (वर्ष 1988) के गठन के रूप में व्यक्त हुआ था।
  • राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों और 74वें संशोधन अधिनियम, 1992के माध्यम से भारतीय संविधान भारत के शहरी क्षेत्र में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण (नगर निकाय के रूप में) के लिये एक स्पष्ट अधिदेश लागू करता है।
  • इसके साथ ही, स्थानीय निकायों पर 15वें वित्त आयोग की रिपोर्ट ने भी शहरी शासन संरचनाओं और उनके वित्तीय सशक्तिकरण की आवश्यकता पर बल दिया।

शहरी विकास से संबंधित हाल की प्रमुख पहलें

  • शहरी कायाकल्प और शहरी परिवर्तन के लिये अटल मिशन (Atal Mission for Urban Rejuvenation and Urban Transformation- AMRUT)
  • प्रधानमंत्री आवास योजना-शहरी (PMAY-U)
  • जलवायु स्मार्ट शहर आकलन रूपरेखा 2.0 (Climate Smart Cities Assessment Framework 2.0)
  • द अर्बन लर्निंग इंटर्नशिप प्रोग्राम- ट्यूलिप (TULIP)

भारत के शहरी क्षेत्र से संबंधित प्रमुख चुनौतियाँ

  • कुशल परिवहन का अभाव: लोग सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर निजी परिवहन का उपयोग करना अधिक पसंद करते हैं। कारों पर निर्भरता के परिणामस्वरूप सड़कों पर भीड़भाड़, प्रदूषण और शहरों में यात्रा समय में वृद्धि की स्थिति बनी है।
  • इसके साथ ही, भारतीय शहरों में वाहनों की बढ़ती संख्या को जलवायु परिवर्तन के आवश्यक चालक के रूप में देखा जाता है क्योंकि ये वाहन दहन ईंधन पर अत्यधिक निर्भरता रखते हैं।
  • मलिन बस्तियाँ और अवैध बस्तियाँ: शहरी क्षेत्रों में रहना महँगा होता है, लेकिन अधिकांश लोग जो ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों में जाते हैं, वे इस तरह के जीवनयापन को वहन कर सकने की क्षमता नहीं रखते। यह स्थिति फिर प्रवासियों के लिये सुरक्षित आश्रय के रूप में मलिन बस्तियों के विस्तार की ओर ले जाती है।
  • विश्व बैंक के अनुसार भारत में मलिन बस्तियों में रहने वाली आबादी कुल शहरी आबादी का लगभग 35.2% थी।
  • मुंबई की धारावी को एशिया की सबसे बड़ी मलिन बस्ती माना जाता है।
  • पर्यावरणीय गुणवत्ता में गिरावट: शहरीकरण पर्यावरणीय क्षरण के प्रमुख कारकों में से एक है। सीमित स्थानों में लोगों की भीड़ हवा की गुणवत्ता को कम करती है और जल को दूषित करती है।
  • भवनों और कारखानों के निर्माण के लिये जंगलों एवं कृषि भूमि का विनाश भूमि की गुणवत्ता का क्षरण करता है।
  • घरेलू अपशिष्ट, औद्योगिक अपशिष्ट और अन्य अपशिष्ट जो सीधे नदियों में प्रवाहित कर दिये जाते हैं, जल की गुणवत्ता को कम करते हैं।
  • इसके साथ ही, शहरी क्षेत्र के बाहर कूड़ों के बड़े ढेर भारत के किसी भी महानगरीय शहर की पहचान ही बन गए हैं।
  • सीवेज की समस्या: तीव्र शहरीकरण शहरों के अनियोजित और अव्यवस्थित विकास की ओर ले जाता है और इनमें से अधिकांश शहर अक्षम सीवेज सुविधाओं से त्रस्त हैं।
  • अधिकांश शहरों में सीवेज कचरे के उपचार की उपयुक्त व्यवस्था मौजूद नहीं है। भारत सरकार के अनुसार, भारत में उत्पन्न सीवेज का लगभग 78% अनुपचारित ही रहता है जिसे इसे नदियों, झीलों या समुद्र में बहा दिया जाता है।
  • अर्बन हीट आइलैंड:शहरी क्षेत्रों में फुटपाथ, इमारतों और अन्य सतहों की सघन सांद्रता के साथ प्राकृतिक भूमि आवरण कम हो जाता है जो फिर ऊष्मा के अवशोषण और उसे बनाए रखने के साथ ‘अर्बन हीट आइलैंड’ (Urban Heat Island) का निर्माण करता है।
  • यह ऊर्जा लागत (जैसे, एयर कंडीशनिंग के लिये), वायु प्रदूषण के स्तर और गर्मी संबंधी बीमारियों एवं मृत्यु का कारण बनता है।
  • शहरी बाढ़:शहर के केंद्रीय क्षेत्रों में भूमि की कीमतों में वृद्धि और उपलब्ध भूमि की कमी के कारण भारतीय शहरों और कस्बों में नए विस्तार एवं विकास उनके निचले इलाकों में हो रहे हैं जिनके लिये प्रायः झीलों, आर्द्रभूमियों और नदियों की भूमि का अतिक्रमण भी किया जाता है।
  • नतीजतन, प्राकृतिक जल निकासी व्यवस्था की प्रभाविता कम हो गई है, जिससे शहरी बाढ़ (Urban Flooding) की समस्या उत्पन्न हुई है।
  • इसके अलावा बदतर ठोस अपशिष्ट प्रबंधन अत्यधिक वर्षा जल की निकासी में रुकावट उत्पन्न करता है, जिससे जलजमाव और बाढ़ की स्थिति बनती है।
  • शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) की अप्रभावी कार्यप्रणाली: यद्यपि संविधान द्वारा शहरी स्थानीय निकायों के लिये कार्यों की एक विस्तृत शृंखला रेखांकित की गई है, उन कार्यों को पूरा करने के लिये आवश्यक राजस्व के लिये वे केंद्र और राज्य पर निर्भर होते हैं।
  • ULBs को सौंपी गई शक्तियों, ज़िम्मेदारियों और धन के बीच असंतुलन तथा समयबद्ध ऑडिट की कमी के परिणामस्वरूप उनके अप्रभावी कार्यकरण की स्थिति बनती है।

आगे की राह

  • सुव्यवस्थित शहरी नियोजन:हमारे प्रयासों को शहरी समस्याओं के संवहनीय एवं प्रभावी समाधान की दिशा में संरेखित करने की आवश्यकता है जिसमें हरित अवसंरचना, सार्वजनिक स्थानों का मिश्रित उपयोग और सौर एवं पवन जैसे वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करना शामिल हो सकता है।
  • सुव्यवस्थित शहरी नियोजन शहरी क्षेत्रों और पास-पड़ोस को स्वास्थ्यप्रद एवं अधिक कुशल क्षेत्रों में बदलते हुए निवासियों के कल्याण में सुधार लाने में मदद कर सकता है।
  • वहनीय और बेहतर शहर प्रबंधन के लिये अधिकाधिक नवोन्मेषी विचारों का उभार होना चाहिये। इस संबंध में सार्वजनिक-निजी भागीदारी को भी अवसर दिया जाना चाहिये।
  • शहरी रोज़गार गारंटी:शहरी गरीबों को एक आधारभूत जीवन स्तर प्रदान करने के लिये शहरी क्षेत्रों में मनरेगा योजना जैसी किसी योजना के कार्यान्वयन की आवश्यकता है।
  • राजस्थान में शुरू की गई इंदिरा गांधी शहरी रोज़गार गारंटी योजना इस दिशा में एक अच्छा कदम है।
  • हरित परिवहन:सार्वजनिक परिवहन पर पुनर्विचार करने और इनका पुनर्निर्माण करने की आवश्यकता है। इसके तहत ई-बसों को अपनाना, बस कॉरिडोर बनाना, और बस रैपिड ट्रांजिट सिस्टम का उपयोग करना शामिल है जो भारत के शहरी क्षेत्र में हरित गतिशीलता (Green Mobility) को सक्षम करेगा।
  • अनौपचारिक शहरी अर्थव्यवस्था का औपचारीकरण: प्रवासी श्रमिकों के हित में प्रवासियों के डेटा को संकलित करने और शहर की विकास गतिविधियों में इनका उपयोग करने की आवश्यकता है।
  • इसके अलावा, श्रम मंत्रालय द्वारा प्रस्तावित असंगठित कामगार सूचकांक नंबर कार्ड (UWIN Card) भी कार्यबल को औपचारिक बनाने में मदद करेगा।
  • सतत् विकास का लोकतंत्रीकरण: शहर के विकास के संबंध में प्रचलित ‘आर्थिक’ दृष्टिकोण को एक ‘संवहनीय’ दृष्टिकोण से प्रतिस्थापित किया जाना चाहिये, जिसमें पारिस्थितिक और सामाजिक दृष्टिकोण से विचार किया जाना भी शामिल होगा।
  • तदनुसार, शासन में नागरिकों की भागीदारी से भारत में स्थानीय स्तर पर सतत् विकास का लोकतंत्रीकरण किया जाना चाहिये, जैसे कि हर शहर में सहभागी बजट का उपयोग किया जाना चाहिये, स्थानीय रूप से सबसे उपयुक्त साधनों का चयन करना चाहिये और सबसे तात्कालिक मुद्दों को लक्षित किया जाना चाहिये।
  • किसी भी विकासात्मक गतिविधि के संबंध में स्थानीय स्तर पर संवहनीयता प्रभाव आकलन (Sustainability Impact Assessments- SIA) को अनिवार्य बनाया जाना चाहिये।

स्पॉटलाइटिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर निवेश

संदर्भ
आधारभूत संरचना या अवसंरचना क्षेत्र (Infrastructure sector) भारतीय अर्थव्यवस्था के लिये एक प्रमुख चालक है। यह क्षेत्र भारत के समग्र विकास को आगे ले जाने के लिये प्रमुख रूप से उत्तरदायी है और सरकार द्वारा इस पर गहन ध्यान दिया जाता है। देश भर में आधारभूत संरचना परियोजनाओं को सुविधाजनक बनाने के लिये केंद्र के साथ-साथ राज्य स्तर पर कई पहल की गई है।

  • लेकिन विभिन्न क्षेत्रों में उत्कृष्ट, अत्याधुनिक आधारभूत संरचना निर्माण के मार्ग में अभी भी कई बाधाएँ हैं। सतत उच्च विकास और एक प्रतिस्पर्द्धी विनिर्माण क्षेत्र की ओर भारत की राह सुदृढ़ और विश्वसनीय राष्ट्रीय आधारभूत ढाँचे से होकर ही गुज़रेगी।

भारत में अवसंरचना का वर्तमान परिदृश्य

  • ‘इंफ्रा-डेफिसिट इंडिया’: भारत विश्व में दूसरा सबसे बड़ा (ब्राजील के बाद) अवसंरचनागत घाटा रखने वाला देश है क्योंकि इसने 1990 के दशक की शुरुआत से ही 6% से अधिक की तीव्र गति से विकास किया है लेकिन आपूर्ति में अनुरूप वृद्धि नहीं हुई है।
  • विश्व बैंक की ‘भारत की शहरी अवसंरचना आवश्यकताओं का वित्तपोषण’ (Financing India’s Urban Infrastructure Needs) शीर्षक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2036 तक 600 मिलियन लोग भारत के शहरी क्षेत्रों में रह रहे होंगे, जो जनसंख्या के 40% भाग का प्रतिनिधित्व करेंगे।
  • इससे भारतीय शहरों की पहले से ही तनी हुई शहरी अवसंरचना और सेवाओं पर अतिरिक्त दबाव पड़ने की संभावना है।
  • वर्तमान में भारतीय शहरों की अवसंरचनात्मक आवश्यकताओं का महज 5% ही निजी स्रोतों के माध्यम से वित्तपोषित किया जा रहा है।
  • अवसंरचना क्षेत्र का महत्त्व:
    • अवसंरचना क्षेत्र भारत के आर्थिक विकास के लिये एक उत्प्रेरक के रूप में कार्य करता है क्योंकि यह टाउनशिप, हाउसिंग, बिल्ट-अप इंफ्रास्ट्रक्चर और निर्माण विकास परियोजनाओं जैसे संबद्ध क्षेत्रों के विकास को संचालित करता है।
    • वैश्विक निवेशकों ने आधारभूत संरचना परियोजनाओं के लिये भारत को अपने शीर्ष गंतव्य स्थलों में से एक के रूप में देखना शुरू कर दिया है। भारत अपने युवा उभार, मध्यम वर्ग के उदय और विशाल घरेलू बाज़ार के दम पर अवसंरचनात्मक परियोजनाओं पर उच्च प्रतिफल या रिटर्न दर की की पेशकश करता है।
  • संबंधित पहलें:
    • सरकार ने वित्त वर्ष 2020-25 की अवधि के लिये अवसंरचना विकास को समर्थन देने हेतु राष्ट्रीय अवसंरचना पाइपलाइन (NIP) शुरू की है, जहाँ शहरी अवसंरचना प्रमुख फोकस क्षेत्रों में से एक है।
    • सरकार ने लॉजिस्टिक्स लागत को कम करने के लिये आधारभूत संरचना परियोजनाओं की समन्वित योजना और निष्पादन के उद्देश्य से महत्त्वाकांक्षी गति शक्ति योजना भी शुरू की है।
    • राष्ट्रीय निवेश और अवसंरचना कोष (National Investment and Infrastructure Fund- NIIF) एक सरकार समर्थित इकाई है, जो देश के अवसंरचना क्षेत्र को दीर्घकालिक पूंजी प्रदान करने के लिये स्थापित की गई है। इसे दिसंबर 2015 में श्रेणी-II वैकल्पिक निवेश कोष के रूप में स्थापित किया गया था।
    • नवंबर 2021 में भारत, इज़राइल, अमेरिका और यूएई (I2U2) ने क्षेत्र में अवसंरचना विकास परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित करने तथा द्विपक्षीय सहयोग को मज़बूत करने के लिये एक नया चतुर्भुज आर्थिक मंच स्थापित किया।
    • मार्च 2021 में भारत में अवसंरचना परियोजनाओं को निधि देने के लिये राष्ट्रीय अवसंरचना वित्तपोषण और विकास बैंक (National Bank for Financing Infrastructure and Development- NaBFID) की स्थापना के लिये संसद में इस आशय का एक विधेयक पारित किया गया।

संबंधित चुनौतियाँ

  • भारत की सबसे बड़ी चुनौती विशाल अवसंरचनागत वित्तीय अंतराल है, जिसके जीडीपी के 5% से अधिक होने का अनुमान है।
  • भूमि अधिग्रहण, आक्रामक बोली लगाना और गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ अवसंरचनात्मक PPPs (सार्वजनिक-निजी भागीदारी) के लिये प्रमुख चुनौतियाँ हैं ।
  • भारत तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के उच्च स्तर का सामना कर रह है और अर्थव्यवस्था के भविष्य के विकास के लिये सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिये ऋण वृद्धि को आधार के रूप में बहाल करने की आवश्यकता है।
  • बैंकों में तनावग्रस्त परिसंपत्तियों के साथ-साथ बैंकों की छोटी पूंजी के कारण इन परिसंपत्तियों पर अतिरिक्त और संभावित रूप से गंभीर क्षति की स्थिति बन सकती है।
  • इसके अलावा, क्रेडिट ब्याज दरों की स्थिरता की कमी से क्षेत्र में निवेश के लिये एक उल्लेखनीय जोखिम उत्पन्न हुआ है।
  • यह तथ्य कि भारत में अवसंरचना निवेश आम तौर पर USD पर अपेक्षित प्रतिफल/रिटर्न पर आधारित होता है न कि उपयोगकर्त्ता शुल्क पर, एक असंतुलन का सृजन करता है और देश में विदेशी अवसंरचना निवेश के कुल प्रवाह को प्रभावित करता है।

अवसंरचना क्षेत्र को सशक्त करने के लिये क्या उपाय किये जा सकते हैं?

  • नीति/नियामक ढाँचे में निरंतरता सुनिश्चित करना: निविदा प्रक्रिया में एक बेहतर नियामक वातावरण और निरंतरता की आवश्यकता है। विभिन्न सरकारी विभागों में निरंतरता और नीतिगत सामंजस्य की कमी को प्राथमिकता से संबोधित किया जाना चाहिये।
  • तनावग्रस्त परिसंपत्तियों की समस्या से निपटने के लिये सरकार और RBI के मध्य एक समग्र दृष्टिकोण होना चाहिये। गैर-निष्पादित संपत्तियों, PSUs के पुनरुद्धार के लिये सभी क्षेत्रों में एक समर्पित नीति का निर्माण करने की आवश्यकता है।
  • उचित उपयोगकर्त्ता शुल्क: अवसंरचन वित्तपोषण, अवसंरचना सेवा प्रदाताओं की वित्तीय व्यवहार्यता और पर्यावरण एवं संसाधन उपयोग संवहनीयता को बढ़ाने के लिये यह आवश्यक है।
  • उपयोगकर्त्ता शुल्क महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि देश भर के कई क्षेत्रों में आंशिक रूप से शून्य या बहुत कम उपयोगकर्त्ता शुल्क के कारण कीमती संसाधनों (जैसे भूजल) का अत्यधिक उपयोग एवं अपव्यय होता है।
  • उचित उपयोगकर्त्ता मूल्यों से प्रेरित पर्यावरणीय संवहनीयता एवं संसाधन उपयोग दक्षता के अलावा इस नीति प्राथमिकता में अपार संसाधन सृजन क्षमता भी है।
  • अवसंरचना का स्वायत्त विनियमन: चूँकि भारत और विश्व निजी भागीदारी के लिये अधिकाधिक क्षेत्रों को खोल रहे हैं, निजी क्षेत्र अनिवार्य रूप से स्वायत्त अवसंरचना विनियमन की मांग करेगा।
  • विश्वव्यापी प्रवृत्ति बहु-क्षेत्रीय नियामकों की ओर है क्योंकि आधारभूत संरचना क्षेत्रों में नियामक भूमिका आम है और ऐसे संस्थान नियामक क्षमता का निर्माण करते हैं, संसाधनों का संरक्षण करते हैं और नियामक कब्जे को रोकते हैं।
  • संपत्ति पुनर्चक्रण (AR) और BAM: BAM (Brownfield Asset Monetisation) का मूल विचार ब्राउनफील्ड AR के माध्यम से अवसंरचनागत संसाधनों को बढ़ाना है ताकि डी-रिस्क्ड ब्राउनफील्ड सार्वजनिक क्षेत्र की संपत्तियों में बंधी धनराशि को मुक्त करके त्वरित ग्रीनफील्ड निवेश किया जा सके।
  • इन परिसंपत्तियों को एक ट्रस्ट (InvITs) या एक कॉर्पोरेट संरचना (TOT मॉडल) में स्थानांतरित किया जा सकता है, जो कैपिटल कंसिडरेशन (जो इन अंतर्निहित परिसंपत्तियों से भविष्य के नकदी प्रवाह के मूल्य पर कब्जा करता है) के बजाय संस्थागत निवेशकों से निवेश प्राप्त करता है।
  • भारत के पास अवसंरचना क्षेत्रों में ब्राउनफील्ड संपत्तियों का एक बड़ा भंडार है।
  • घरेलू फंड का उपयोग: भारतीय पेंशन फंड जैसे घरेलू स्रोत जो निष्क्रिय पड़े हुए हैं, यदि कुशलता से उपयोग किये जाएँ तो इस क्षेत्र को बड़ा बढ़ावा मिल सकता है।
  • भारत अवसंरचना विकास को बढ़ावा देने के लिये घरेलू धन के कुशल उपयोग पर कनाडा, नीदरलैंड, ऑस्ट्रेलिया एवं ऐसे अन्य देशों के अभ्यासों का अनुकरण कर सकता है।
  • वैश्विक नेतृत्व का लाभ उठाना: भारत दिसंबर 2022 से G20 की अध्यक्षता ग्रहण कर रहा है। विभिन्न G20 देशों ने अपनी अध्यक्षता में अवसंरचना के लिये एजेंडा निर्धारित किया है, जैसे कि परिसंपत्ति वर्ग के रूप में अवसंरचना के लिये रोडमैप (अर्जेंटीना, 2018), गुणवत्तापूर्ण अवसंरचना निवेश के सिद्धांत (जापान, 2019), इंफ्राटेक (सऊदी अरब, 2020) और प्रतिफल/रिकवरी के लिये संवहनीय अवसंरचना का वित्तपोषण (इटली, 2021)।
  • G20 की अध्यक्षता भारत के लिये एक अवसर है कि वह स्वयं के लिये और विश्व के लिये अवसंरचना एजेंडे को निर्धारित करे।

भारत के मुक्त व्यापार समझौतों में संशोधन

संदर्भ
भारत वित्त वर्ष 2023 तक 450-500 बिलियन अमेरिकी डॉलर के महत्त्वाकांक्षी निर्यात शिपमेंट लक्ष्य के साथ निर्यात-उन्मुख घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देने के लिये पिछले दो वर्षों से कई भागीदारों – द्विपक्षीय और क्षेत्रीय दोनों – के साथ मुक्त व्यापार समझौतों (Free Trade Agreements- FTAs) पर वार्ता कर रहा है।

  • वित्त वर्ष 2021-22 में भारत का निर्यात 418 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया जो वित्त वर्ष 2018-19 में महामारी-पूर्व के स्तर 331 बिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर गया। यद्यपि व्यापार में ये उपलब्धियाँ प्रशंसनीय हैं, फिर भी भारत में अभी भी व्यापक संभावनाएँ मौजूद हैं जिन्हें साकार किया जाना चाहिये।
  • यदि हम भारत के ट्रेड पोर्टल (India’s Trade Portal) के अनुमानों पर गौर करें तो कई क्षेत्रों—विशेष रूप से फार्मास्यूटिकल्स, रत्न एवं आभूषण और रसायनों में भारत की निर्यात क्षमता और वास्तविक निर्यात में व्यापक अंतर दिखाई देता है। इसलिये, यह उपयुक्त समय होगा कि क्षेत्र-विशिष्ट और बाज़ार-विशिष्ट समस्याओं का समाधान किया जाए ताकि हम सभी क्षेत्रों में निर्यात की पूर्ण क्षमता को साकार कर सकें।

मुक्त व्यापार समझौता (FTA) क्या है?

  • FTA विभिन्न देशों या क्षेत्रीय ब्लॉकों के बीच एक समझौता होता है जो व्यापार बढ़ाने के दृष्टिकोण से आपसी बातचीत के माध्यम से व्यापार बाधाओं (Trade Barriers) को कम करने या उन्हें समाप्त करने का लक्ष्य रखता है।
  • इसमें माल, सेवाएँ, निवेश, बौद्धिक संपदा, प्रतिस्पर्द्धा, सरकारी खरीद और अन्य क्षेत्र शामिल हैं।
  • मुक्त व्यापार की यह अवधारणा व्यापार संरक्षणवाद (Trade Protectionism) या आर्थिक अलगाववाद (Economic Isolationism) का विलोम है।
  • FTAs को अधिमान्य व्यापार समझौते (Preferential Trade Agreement- PTA), व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते (Comprehensive Economic Cooperation Agreement- CECA) और व्यापक आर्थिक भागीदारी समझौते (Comprehensive Economic Partnership Agreement- CEPA) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

FTAs का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

  • FTAs स्थानीय उत्पादन को विदेशी व्यापार के साथ संयुक्त कर अर्थव्यवस्थाओं में विकास को बढ़ावा देने में सहायता करते हैं।
  • चूँकि FTAs के कारण प्रत्येक देश द्वारा कम लागत पर चयनित वस्तुओं का उत्पादन किया जाता है, अंतर्राष्ट्रीय व्यापार उत्पादन और खपत में वृद्धि लाता है।
  • सीमारहित व्यापार (Borderless Trade) को सुविधाजनक बनाने के अलावा, FTAs अधिकाधिक व्यवसायों के लिये सीमा पार व्यापार को आसान बनाकर आपूर्ति शृंखलाओं में विविधता लाने में मदद करते हैं।

भारत के मुक्त व्यापार समझौतों की वर्तमान स्थिति

  • भारत वर्तमान में 12 FTAs का कार्यान्वयन कर रहा है जिसमें भारत-यूएई CEPA नवीनतम है।
  • नवंबर 2019 में क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (Regional Comprehensive Economic Partnership- RCEP) से भारत के बाहर आने के बाद 15 सदस्यीय FTA समूह (जिसमें जापान, चीन और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं) में भारत के लिये मुक्त व्यापार समझौते ठंडे बस्ते में चले गए थे।
  • लेकिन अब संयुक्त अरब अमीरात, यूनाइटेड किंगडम, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा के साथ भारत के द्विपक्षीय मुक्त व्यापार समझौतों पर बातचीत जारी है।

भारत के प्रमुख व्यापार समझौते

  • व्यापक आर्थिक सहयोग और साझेदारी समझौता (Comprehensive Economic Cooperation and Partnership Agreement- CECPA)
  • दक्षिण एशियाई मुक्त व्यापार क्षेत्र (South Asian Free Trade Area- SAFTA)
  • एशिया प्रशांत व्यापार समझौता (Asia Pacific Trade Agreement- APTA)
  • दक्षिण एशिया अधिमान्य व्यापार समझौता (South Asia Preferential Trading Agreement- SAPTA)

भारत की विदेश व्यापार नीति से संबंधित प्रमुख समस्याएँ

  • पारदर्शिता और संवीक्षा की कमी: भारत अधिकांश FTAs पर बंद दरवाज़ों के पीछे बातचीत करता है, जहाँ उद्देश्यों और प्रक्रियाओं के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध होती है और उनकी नगण्य संवीक्षा की जाती है।
  • इसके अलावा, कोई संस्थागत तंत्र मौजूद नहीं है जो FTAs पर हस्ताक्षर के दौरान और उसके बाद कार्यकारी के कृत्यों की संवीक्षा में सक्षम हो।
  • ऋणात्मक व्यापार संतुलन: पिछले एक दशक में भारत ने दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के संगठन (आसियान), दक्षिण कोरिया, जापान और मलेशिया के साथ FTAs पर हस्ताक्षर किये हैं। लेकिन निर्यात में वृद्धि के बावजूद भारत आसियान और जापान जैसे देशों के साथ ऋणात्मक व्यापार संतुलन (Negative Balance of Trade) की स्थिति रखता है।
  • भारत ने वर्ष 2020-21 में आसियान देशों के साथ 15.95 बिलियन अमेरिकी डॉलर का व्यापार घाटा दर्ज किया। वित्त वर्ष 2020-21 में जापान के साथ भारत का व्यापार घाटा 6.49 बिलियन डॉलर का रहा।
  • आयात पर अत्यधिक निर्भरता: जबकि भारत अपनी तेल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये आयात पर 85% निर्भरता रखता है, एक घरेलू कोयला संकट भी बिजली की मांग की पूर्ति के लिये शुष्क ईंधन की विदेशी आपूर्ति को सुनिश्चित करने के लिये उसे विवश कर रहा है।
  • इसके अतिरिक्त, जारी रूस-यूक्रेन युद्ध सहित विभिन्न भू-राजनीतिक घटनाक्रमों ने वैश्विक तेल एवं कमोडिटी की कीमतों में भारी वृद्धि की है और वैश्विक आपूर्ति शृंखला में व्यवधान उत्पन्न किया है।
  • आत्मनिर्भरता को भ्रमित रूप से संरक्षणवाद समझा जाना:आत्मनिर्भर भारत’ अभियान ने इस भ्रम को बढ़ाया है कि भारत तेज़ी से एक संरक्षणवादी बंद बाज़ार अर्थव्यवस्था में परिणत होता जा रहा है।

आगे की राह

  • खुली और प्रतिस्पर्द्धी अर्थव्यवस्था की ओर: भारत के व्यापार नीति ढाँचे को आर्थिक सुधार का सहयोग प्रदान किया जाना चाहिये, जिसके परिणामस्वरूप एक खुली, प्रतिस्पर्द्धी और प्रौद्योगिकीय रूप से उन्नत अर्थव्यवस्था का निर्माण होगा।
  • इसलिये, भारत को वैश्विक आर्थिक नेटवर्क में उद्यमियों को शामिल करने पर ध्यान देना चाहिये जो उन्हें अधिक वित्तीय सुरक्षा प्राप्त कर सकने का अवसर देगा।
  • MSME क्षेत्र को सुदृढ़ बनाना: सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 29% और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में 40% के योगदान के साथ MSMEs महत्त्वाकांक्षी निर्यात लक्ष्यों को प्राप्त करने में प्रमुख खिलाड़ी होने की भूमिका रखते हैं।
  • भारत के लिये विशेष आर्थिक क्षेत्रों (Special Economic Zones- SEZs) को MSME क्षेत्र से जोड़ना और छोटे व्यवसायों को प्रोत्साहित करना महत्त्वपूर्ण है।
  • घरेलू आधार का विस्तार करना: भारत को इंजीनियरिंग वस्तुओं, इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद, ड्रग्स एवं फार्मास्यूटिकल्स, वस्त्र और कृषि मशीनरी जैसे मूल्यवर्द्धित उत्पादों में अपने घरेलू विनिर्माण आधार को सुदृढ़ करने की आवश्यकता है, जिसका उपयोग फिर निर्यात को बढ़ावा देने के लिये किया जा सकता है।
  • अवसंरचनात्मक विकास: एक सुदृढ़ आधारभूत संरचना नेटवर्क—जिसमें गोदाम, बंदरगाह, परीक्षण प्रयोगशाला, प्रमाणन केंद्र आदि शामिल हैं, भारतीय निर्यातकों को वैश्विक बाज़ार में प्रतिस्पर्द्धा कर सकने में सक्षम बनाएगा।
  • भारत को आधुनिक व्यापार अभ्यासों को भी अपनाने की आवश्यकता है जिन्हें निर्यात प्रक्रियाओं के डिजिटलीकरण के माध्यम से लागू किया जा सकता है। इससे समय और लागत दोनों की बचत होगी।
  • FTAs की संवीक्षा: वाणिज्य समिति FTAs की संवीक्षा करने, समझौतों एवं वार्ताओं के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करने और इस प्रकार विधायिका के लिये कार्यकारी जवाबदेही सुनिश्चित करने का कार्य सौंपा जाना चाहिये।
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