परमाणु विज्ञान | विज्ञान और प्रौद्योगिकी (Science & Technology) for UPSC CSE PDF Download

नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम (Nuclear Energy Programme)

  • पं. नेहरू के प्रोत्साहन तथा डॉ. होमी जहांगीर भाभा के सफल निर्देशन से आज भारत में नाभिकीय ऊर्जा से संबंधित तकनीक काफी विकसित अवस्था में पहुंच गयी है। भारत को इस क्षेत्र में विश्व के अग्रणी देशों में गिना जाने लगा है। 1948 में परमाणु ऊर्जा से संबंधित समस्त गतिविधियों के नीति निर्धारण हेतु परमाणु ऊर्जा आयोग (AEC) का गठन किया गया। 1954 में देश के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के सुचारु कार्यान्वयन हेतु एक कार्यकारी संस्था के रूप में परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) की स्थापना की गयी। परमाणु ऊर्जा विभाग परमाणु ऊर्जा प्रौद्योगिकी के विकास, विकिरण प्रौद्योगिकी के कृषि, दवाइयों और उद्योग में इस्तेमाल तथा मूलभूत अनुसंधान कार्यों में जुटा है। परमाणु ऊर्जा विभाग ने एक महत्वाकांक्षी नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम के अंतर्गत आंतरिक संसाधनों और बाहरी सहयोग से 2020 तक 20,000 मेगावॉट नाभिकीय ऊर्जा की स्थापित क्षमता को हासिल करने का लक्ष्य रखा है। भारतीय नाभिकीय ऊर्जा निगम लिमिटेड (एन.पी.सी.आई.एल.) परमाणु ऊर्जा विभाग की सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई है, जिस पर नाभिकीय रिएक्टरों के डिजाइन, निर्माण और संचालन का दायित्व है।
  • 1948 में पारित परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम के प्रमुख उद्देश्य हैं- विद्युत उत्पादन जैसे शांतिपूर्ण प्रयोजनों के लिए परमाणु ऊर्जा का विकास करना, उनका नियंत्रण एवं प्रयोग करना तथा कृषि, उद्योग, चिकित्सा, अनुसंधान एवं अन्य क्षेत्रों में नाभिकीय प्रयोगों का विकास करना ।
  • भारत ने 18 मई, 1974 को जैसलमेर जिले ( राजस्थान) में पोखरण नामक स्थान पर अपना प्रथम नाभिकीय विस्फोट किया था। इस विस्फोट की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इससे किसी भी प्रकार का नाभिकीय अवताप (Nuclear Fallout) नहीं हुआ। परमाणु ऊर्जा आयोग ने नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम के प्रथम स्तर के तहत पी. एच. डब्ल्यू. आर. प्रकार के रिएक्टरों के प्रारूप, निर्माण तथा संचालन में पूर्ण तकनीकी क्षमता हासिल कर ली है। भारत ने अपना दूसरा नाभिकीय विस्फोट 11 मई, 1 को किया और इस क्षेत्र में अपनी मजबूती का परिचय दे दिया।
  • परमाणु विद्युत उत्पादन के कार्यान्वयन की दृष्टि से परमाणु विद्युत बोर्ड के स्थान पर 1987 में भारतीय परमाणु विद्युत निगम लिमिटेड की स्थापना की गयी । इसे देश के समस्त परमाणु विद्युत संयंत्र के प्रारूप, निर्माण कार्य, संचालन तथा उत्पादन संबंधी दायित्व सौंपे गये हैं। तारापुर स्थित प्रथम दो इकाइयां क्वथन जल रिएक्टर (B. W.R.) किस्म की हैं, जबकि दाबित भारी जल रिएक्टर (P.H.W.R.) किस्म के सात रिएक्टर रावतभाटा (राजस्थान), कलपक्कम (तमिलनाडु), नरौरा (उत्तर प्रदेश) तथा काकरापार (गुजरात) में कार्यरत हैं। इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान केन्द्र, कलपक्कम में 40 मेगावाट शक्ति का एक फास्ट ब्रीडर टेस्ट रिएक्टर (F.B.T.R.) कार्य कर रहा है। प्रति 220 मेगावाट क्षमता वाले चार और रिएक्टर रावतभाटा ( राजस्थान) तथा कैगा (कर्नाटक) में बनाये गये हैं। 500 मेगावाट क्षमता वाले पी.एच.डब्ल्यू. प्रकार की रूसी रिएक्टर की दो इकाइयां कुडानकुलम (तमिलनाडु) में लगायी गयी हैं।

नाभिकीय ऊर्जा (Nuclear Energy)

  • किसी परमाणु में प्रोटॉन एवं न्यूट्रॉन की उपस्थिति होती है। जब कभी किसी न्यूट्रॉन (0n1) को यूरेनियम के नाभिक पर बमबारी कराया जाता है तो यह नाभिक टूट जाता है, जिसे विखंडन (Fission) की संज्ञा दी जाती है। विखंडन की इस प्रक्रिया में वस्तुतः यूरेनियम के द्रव्यमान में कमी आती है, जो कि द्रव्यमान ह्रास (Mass defect) कहलाती है (Δm), और इसे आइंस्टीन के प्रसिद्ध समीकरण, ΔE = ΔmC2 द्वारा निरूपित किया जाता है (ΔE = उत्पादित ऊर्जा, Δm = द्रव्यमान ह्रास, C= स्थिरांक = प्रकाश का वेग ) । इस प्रकार, विखंडन प्रक्रिया के फलस्वरूप जो ऊर्जा विमुक्त होती है, वह इसके द्रव्यमान में आयी कमी के तुल्य होती है (ie, ΔE ∝ Δm, चूंकि 'C' एक स्थिरांक है ) । यही ऊर्जा नाभिकीय ऊर्जा (Nuclear Energy) अथवा परमाणु ऊर्जा (Atomic Energy) कहलाती है, क्योंकि किसी परमाणु का सम्पूर्ण द्रव्यमान वस्तुत: उसके नाभिक में ही केंद्रित होता है। उपरोक्त नाभिकीय प्रतिक्रिया में लगभग 200 Mev (मिलियन इलेक्ट्रॉन वोल्ट) की ऊर्जा विमुक्त होती है। 1 ग्राम यूरेनियम को जलाने पर 5.128 x 1023 Mev ऊर्जा प्राप्त होती है, जो कि लगभग 20 टन TNT ( ट्राइनाइट्रोटॉल्विन) की ऊर्जा के तुल्य है।

नाभिकीय रिएक्टर (Nuclear Reactors)

  • नाभिकीय रिएक्टर अथवा परमाणु रिएक्टर नाभिकीय विखंडन के सिद्धांत पर कार्य करते हैं। यह दरअसल एक प्रकार की भट्ठी (Oven) है, जिसमें नाभिकीय पदार्थों को जलाना संभव हो पाता है, ताकि अत्यधिक परिमाण में ऊर्जा की प्राप्ति संभव हो सके।

नाभिकीय रिएक्टर के पाँच मुख्य अवयव होते हैं-

  • नाभिकीय ईंधन (Nuclear Fuel) : उदाहरणार्थ - यूरेनियम, प्लूटोनियम, थोरियम आदि। यही ईंधन नाभिकीय रिएक्टर में जलकर ऊर्जा देती है।
  • मंदक (Moderator): उदाहरणार्थ - भारी जल (D2O), ग्रेफाइट, बेरीलियम ऑक्साइड (Be2O) आदि। दरअसल ये ऐसे पदार्थ हैं, जो न्यूट्रॉन की गति को कम कर देते हैं, ताकि विखंडन का कार्य सफलतापूर्वक सम्पन्न हो सके। U235 सर्वाधिक उपर्युक्त ईंधन मानी गयी है, क्योंकि इसका नाभिक काफी अस्थायी प्रकृति का होता है। अत: इसे विखंडित करने हेतु न्यूट्रॉन की गति को कम करने की आवश्यकता होती है, ताकि यह अवशोषित न हो सके। वहीं दूसरी ओर, जब कभी U238 को विखंडित करना होता है तो इस हेतु तीव्रगामी न्यूट्रॉन की ही जरुरत होती है और इसलिए मंदक की जरुरत नहीं रह जाती है।
  • शीतलक (Coolant): उदाहरणार्थ- सामान्य जल (H2O), भारी जल (D2O), द्रव सोडियम (Liquid Sodium) आदि। इनका उपयोग विखंडन प्रक्रिया के परिणामस्वरूप रिएक्टर के गर्म हो जाने के बाद इसे ठंडा करने हेतु किया जाता है।
  • रक्षाकवच (Shield/Protector): यह सामान्यतया कंक्रीट की मोटी दीवार (RCC: Reinforced Cement Concrete) का बना होता है, ताकि विखंडन के परिणामस्वरूप निकलने वाले विकिरण रिएक्टर से बाहर न निकल सकें। कभी-कभी इसी रक्षाकवच के फटने से भयंकर दुष्परिणाम झेलने पड़ते हैं; जैसे- चेर्नोबिल (रूस) की घटना।
  • नियंत्रक छड़ें (Controlling Rods): उदाहरणार्थ; बोरॉन अथवा कैडमियम की छड़ें। दरअसल, नाभिकीय विखंडन प्रक्रिया को सम्पन्न करने हेतु सिर्फ 1 न्यूट्रॉन की बमबारी ही काफी होती है, ताकि इस पर नियंत्रण बनाये रखा जाये। ऐसे में, अतिरिक्त न्यूट्रॉनों को अवशोषित कर लिये जाने की जरुरत होती है, ताकि विखंडन का कार्य सुचारु एवं नियंत्रण के साथ सम्पन्न हो सके । रिएक्टर में रखी गयी ये छड़ें इसी कार्य को अंजाम देती हैं। उपरोक्त अवयवों की मदद से यूरेनियम के जलने से विद्युत ऊर्जा की प्राप्ति हो पाती है, जिसे निम्न रेखाचित्र द्वारा समझा जा सकता है

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नाभिकीय विखंडन (Nuclear Fission)

  • नाभिकीय ऊर्जा की प्राप्ति दो रूपों में संभव है - नाभिकीय विखंडन की प्रक्रिया एवं नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया । नाभिकीय विखंडन की खोज वर्ष 1938 में Otto Hahn, Lise Meitner एवं Otto Frisch ने की। इन्होंने यह बताया कि जब यूरेनियम के नाभिक (U235) पर मंदगामी न्यूट्रॉन की बमबारी की जाती है तो यह नाभिक दो हल्के नाभिकों- बेरियम एवं क्रिप्टॉन में टूट जाता है और इस क्रम में यूरेनियम के नाभिक में द्रव्यमान की जो कमी आती है, उसके चलते एक वृहद परिमाण में ऊर्जा की प्राप्ति होती है। इसी ऊर्जा को नाभिकीय ऊर्जा कहते हैं ।
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  • ध्यान देने योग्य बात यह है कि प्रतिक्रिया के अंत में एक बार पुनः उस न्यूट्रॉन की प्राप्ति हो पाती है, जो कि रिएक्टर के यूरेनियम को पुनः तोड़ सकता है। इस प्रकार, यह एक श्रृंखला अभिक्रिया (Chain Reaction) को जन्म दे देता है। लेकिन इस हेतु सिर्फ एक ही न्यूट्रॉन की जरुरत पड़ती है। शेष दो न्यूट्रॉन को यदि रिएक्टर में यूं ही छोड़ दिया जायेगा तो विखंडन की प्रक्रिया अनियंत्रित हो जायेगी, जो कि विध्वंस पैदा करेगा (जैसे कि परमाणु बम)। अतः नाभिकीय ऊर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोगों हेतु (जैसे कि विद्युत उत्पादन) इन अतिरिक्त न्यूट्रॉनों को नियंत्रक छड़ों (सामान्यतया कैडमियम) द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है, ताकि एक नियंत्रित श्रृंखला अभिक्रिया (Controlled Chain Reaction) को संभव बनाया जाये। 

नाभिकीय संलयन (Nuclear Fusion)

  • नाभिकीय संलयन के माध्यम से जब ऊर्जा की प्राप्ति होती है, तो इस हेतु ईंधन के रूप में यूरेनियम की नहीं, अपितु हाइड्रोजन की आवश्यकता होती है। दरअसल, इस प्रक्रिया की जानकारी अमेरिकी वैज्ञानिकों - Robert d' Escort Atkinson तथा F.G Fritz Hountermans द्वारा वर्ष 1929 में ही दे दी गयी थी, हालांकि इसका प्रथम परीक्षण संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा ही वर्ष 1952 में किया गया।
    नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया निम्नवत सम्पन्न होती है-
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    सूर्य की असीमित ऊर्जा का स्रोत भी यही नाभिकीय संलयन प्रक्रिया है-
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    यहाँ तक कि हाइड्रोजन बम का निर्माण भी इसी सिद्धांत पर आधारित है-
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  • यहाँ पर ध्यान देने योग्य बात यह है कि हाइड्रोजन धनावेशित होता है और समान आवेश होने के बावजूद इनके नाभिक एक-दूसरे में संलीन हो जाते हैं। ऐसा वस्तुतः उस अत्यधिक ताप (107 केल्विन) के चलते संभव हो पाता है, जो कि इन नाभिकों के बीच के प्रतिकर्षण बल से कहीं अधिक इनमें गतिज ऊर्जा प्रदान करने में समर्थ हो पाता है। यही कारण है कि नाभिकीय संलयन प्रक्रिया को ताप-नाभिकीय अभिक्रिया (Thermo-Nuclear Reaction) भी कहते हैं। इस हेतु जिस अत्यधिक ताप की जरुरत होती है, वह नाभिकीय विखंडन की प्रक्रिया से प्राप्त कर लिया जाता है। परमाणु बम, जो कि नाभिकीय विखंडन के सिद्धांतों पर बनता है, की अपेक्षा हाइड्रोजन बम लगभग 1000 गुना अधिक शक्तिशाली होता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि संलयन प्रक्रिया के दौरान उत्पन्न हुआ न्यूट्रॉन, प्लूटोनियम को विखंडित करने की क्षमता रखता है, जिससे उस ताप-शक्ति का निर्माण होता है जो हाइड्रोजन नाभिकों के संलीन होने हेतु आवश्यक है। 

नाभिकीय प्रदूषण (Nuclear Pollution)

  • जीवाश्म ईंधनों के दहन से उत्पन्न प्रदूषण की तुलना में नाभिकीय प्रदूषण कहीं अधिक खतरनाक एवं जानलेवा साबित हुआ है। नाभिकीय प्रदूषण दो विधियों से फैलता है- रिएक्टर से रिसने वाले नाभिकीय विकिरणों के रूप में (अल्फा, बीटा एवं गामा विकिरण) तथा रेडियो सक्रिय पदार्थ युक्त नाभिकीय कचरे के रूप में। वस्तुतः जब कभी कोई परमाणु विस्फोट होता है, तो सूक्ष्म रेडियो सक्रिय कण (जैसे-स्ट्रॉन्शियम आदि) पृथ्वी के वायुमंडल में प्रसरित हो जाते हैं; जिसे नाभिकीय अवताप (Nuclear Fallout) कहते हैं। यह अवताप तीन रूपों में संभव
    • स्थानीय अवताप (Local Fallout) जिसमें रेडियो सक्रिय तत्व विस्फोट के कुछ ही घंटों के अंदर पृथ्वी की सतह के लगभग 100 मील की परिधि में फैल जाते हैं।
    • क्षोभमंडलीय अवताप (Tropospheric Fallout) जिसमें विस्फोट के बाद ऐसे तत्व पृथ्वी की सतह से लगभग 8 मील की ऊँचाई तक फैल जाते हैं।
    • समतापमंडलीय अवताप (Stratospheric Fallout) जिसमें रेडियो सक्रिय तत्व पृथ्वी की सतह से लगभग 20 मील की ऊंचाई तक पहुंच जाते है।
  • इन अवतापों के कारण सम्पूर्ण जैविक संरचना दुष्प्रभावित होती है, खासकर मानव समुदाय पर सर्वाधिक असर पड़ता है। इससे वनस्पतियाँ सूखने लगती हैं तथा त्वचा कैंसर, रक्त कैंसर (ल्यूकीमिया), अस्थि कैंसर, फेफड़े की विकृतियाँ आदि जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। जब कभी कोई परमाणु विस्फोट किया जाता है तो कार्बन के सूक्ष्म कण (SootParticles) तथा रेडियो सक्रिय कचरे पृथ्वी के वायुमंडल में एक गुबार अथवा वृहद बादल के रूप में फैल जाते हैं। इनका सांद्रण इतना अधिक घना होता है कि ये लगभग पूर्णतः उस स्थल के आसपास सूर्य की किरणों को सतह पर आने से रोक देते हैं। परिणामस्वरूप, उस स्थल के आसपास का तापमान शून्य डिग्री के करीब हो जाता है और इससे शीतकालीन परिस्थितियां बन जाती हैं। इसी विशिष्ट परिस्थिति को नाभिकीय शीत (Nuclear Winter) कहते हैं। 
  • इस शीत के चलते हरित पौधे प्रकाश संश्लेषण नहीं कर पाते (प्रकाश की अनुपस्थिति के कारण), जिससे पादप एवं जंतु समुदाय व्यापक तौर पर दुष्प्रभावित होते हैं। साथ ही, वायुमडल में Co,-0, का संतुलन बिगड़ने से पृथ्वी का उष्मा बजट भी असंतुलित हो जाता है। विकिरणों के असंतुलन के चलते जहाँ मौसमी दशाएं बदल जाती हैं, वहीं मानसूनी वर्षा का स्वरूप भी कायम नहीं रह पाता। इस प्रकार, यह घटना पृथ्वी को काफी हद तक असंतुलन की अवस्था में लाने वाली साबित हो सकती है। 

रेडियो समस्थानिक (Radio Isotopes)

  • ऐसे परमाणविक नाभिक जो काफी अस्थायी प्रकृति के होते हैं, रेडियो समस्थानिक कहलाते हैं। ये काफी ऊर्जाक्षम (Energetic) होते हैं और अपने विघटन के क्रम में अधिक स्थायी स्वरूप को प्राप्त कर ऊर्जा का उत्सर्जन करते हैं। इसी क्रम में ये अल्फा, बीटा एवं गामा विकिरणों को उत्सर्जित करते हैं ।
    ऐसे रेडियो समस्थानिक वस्तुतः दो प्रकार के हो सकते हैं
    • प्राकृतिक रेडियो समस्थानिक (Natural Radio Isotopes), जैसे - यूरेनियम, प्लुटोनियम आदि।
    • कृत्रिम रेडियो समस्थानिक ( Artificial Radio Isoltopes), जैसे - आर्सेनिक, सोडियम, फॉस्फोरस आदि। ऐसे समस्थानिकों की संख्या 1800 से भी अधिक है।
  • चूंकि ये ऐसे पदार्थ होते हैं, जिनका विशेषकर चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपयोग संभव है, अतः भारत सरकार द्वारा वर्ष 1986 में परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) के तहत BRIT: Board of Radiation and Isotope Technology का गठन किया गया, जो कि ऐसे पदार्थों के निर्माण एवं विपणन का कार्य करता है।

रेडियो समस्थानिकों के व्यापक उपयोगों को निम्न रूप में समझा जा सकता है-

  • आर्सेनिक (As74): शरीर के ट्यूमर का पता लगाने में;
  • सोडियम (Na 24): रक्त के थक्के का पता लगाने में;
  • आयोडीन (I131) : थायरॉइड ग्रंथि की क्रियाशीलता को जानने में;
  • कोबाल्ट (Co60): कैंसर का उपचार करने में (Cancertherapy); 
  • फॉस्फोरस (P32): जीन अभियांत्रिकी में तथा रक्त संबंधी विकृतियों का पता लगाने में;
  • लोहा (Fe59): रक्त परिसंचरण की दर ज्ञात करने में;
  • एक्टीनियम (Ac90): कैंसर का पता लगाने में;
  • कोबाल्ट (CO60): एवं इरीडियम (Ir192) : कंप्यूटर प्रौद्योगिकी में;
  • कार्बन (C14): जीवाश्मों की आयु का पता लगाने में (रेडियो कार्बन डेटिंग);
  • गामा विकिरणः जीवाणुओं के मुक्तिकरण में (Sterilization);
  • उच्च उत्पादकता वाली अन्न की किस्मों (HYVs: High Yielding Varieties) के उत्पादन में; खाद्य प्रकीर्णन में कीट - प्रतिरोधी बीजों के उत्पादन में; फलों एवं बीजों के रखरखाव में; आदि।

रेडियो आयु-अंकन पद्धति (Radio Carbon Dating):

  • हमारे वायुमंडल में कार्बन दो रूपों में पाया जाता है - C12 ( सामान्य कार्बन) तथा C14 ( रेडियो सक्रिय कार्बन)। हरित पादपों द्वारा जब प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया सम्पन्न की जाती है, तो उसके लिए जिस कार्बन की जरुरत होती है (CO2), उसमें C12 एवं C14 दोनों ही मौजूद होते हैं। चूंकि इस प्रक्रिया के द्वारा ही भोज्य पदार्थ / ग्लुकोज का निर्माण होता है, अत: इसमें जो कार्बन उपस्थित होता है, वह भी इन दोनों ही रूपों में पाया जाता है। जब जंतुओं द्वारा इन पादपों/पादप उत्पादों को खाया जाता है तो कार्बन के ये दोनों ही रूप (C12 एवं C14) जंतु शरीर में भी मौजूद होते हैं। जब किसी जीव की मृत्यु होती है, तो उसमें C12 की मात्रा तो यथावत बनी रहती है, परंतु समय बीतने के साथ C14 की मात्रा घटती चली जाती है (C14 वस्तुत: एक रेडियो सक्रिय तत्व है, अत: इसका विघटन होता है)। ऐसे में C12 एवं C14 के अनुपात के आधार पर हम इस बात का पता लगा सकने की स्थिति में होते हैं कि कोई भी जीवाश्म ( Fossil) कितना पुराना है अर्थात उसका जीवनकाल क्या रहा होगा। ध्यातव्य है कि किसी भी जीव के जीवित रहने की स्थिति में C12 एवं C14 का अनुपात हमेशा स्थिर होता है, जो कि 102:1 होता है।
  • उदाहरणः यदि यह मान लिया जाये कि जीवाश्म के अंदर C12 की कुल मात्रा 1000 x 1012 है, तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि यह जीवाश्म जब जीवित अवस्था में जीव के रूप में था तो इसमें C12 की मात्रा यथावत ही रही होगी (C12 विघटित नहीं होता)। इसका तात्पर्य यह भी है कि उस जीवित अवस्था में जीव में मौजूद C14 की कुल मात्रा 1000 रही होगी (C12:C14::1012:1)। यदि जीवाश्म में वर्तमान में मौजूद C14 की मात्रा 500 हो, तो इसका तात्पर्य यह हुआ कि इसका द्रव्यमान जीवित अवस्था की अपेक्षा ठीक आधी रह गयी है। हम यह भी जानते हैं कि C14 की अर्द्ध-आयु (Half Life Period) 5,730 वर्ष होती है; अर्थात यह जीवाश्म 5730 वर्ष पुरानी मानी जायेगी।

नोटः जितने समय में किसी रेडियो सक्रिय तत्व का द्रव्यमान आधा हो जाता है, उसे ही उस तत्व की अर्द्ध-आयु (Half Life Period) कहते हैं, जिसे t1/2 से निरूपित किया जाता है।

खाद्य प्रकीर्णन (Food Irradiation)

  • वह प्रक्रिया जिसके माध्यम से खाद्य पदार्थों को परिरक्षित करने हेतु इन्हें विकिरण के प्रभाव में लाया जाता है, खाद्य प्रकीर्णन कहलाती है। भारत सरकार द्वारा वर्ष 1998 में इस प्रक्रिया को विधिक मान्यता प्रदान की गयी। ऐसे कई तरह के खाद्य पदार्थ हैं, जैसे कि चावल, गेहूं, शुष्क मेवे, आम, अदरख, लहसुन, प्याज, माँस, चिकन आदि, जिनका खाद्य प्रकीर्णन विधि से परिरक्षण किया जाता है। इस हेतु आयनीकृत विकिरणों (एक्स किरणों, गमा किरणों तथा त्वरित इलेक्ट्रॉनों) का उपयोग किया जाता है। ये ऐसे विकिरण हैं जिनकी मदद से खाद्य पदार्थों में विद्यमान सूक्ष्म जीवों (Microbes) को पूरी तरह समाप्त कर पाना संभव हो पाता है, ताकि इन्हें सड़ने - गलने से बचाया जा सके । ऐसे पदार्थ जिनके उपयोग से इन किरणों को उत्पन्न किया जाता है, रेडियो न्यूक्लिड्स (Radio Nucleides) कहलाते हैं; जैसे- कोबाल्ट (CO60) एवं सीजियम ( Cs137)। लेकिन इन पदार्थों का उपयोग विकिरण डालने हेतु एक नियंत्रित रूप में ही किया जाना चाहिए। यह देखा गया है कि यदि किसी खाद्य पदार्थ पर 10 किलो ग्रे तक का विकिरण दिया जाता है, तो इसका दुष्प्रभाव हमारे स्वास्थ्य पर नहीं पड़ता। ('ग्रे' वस्तुतः विकरित द्रव्यमान की इकाई है; 1 ग्रे = 1 जूल/1 किलो ग्राम

उपयोग

  • विभिन्न तरह के खाद्य पदार्थों को क्षरित होने से बचाने में;
  • खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता एवं पोषक मूल्यों को लंबे समय तक बनाये रखने में;
  • बीजों के अंकुरण एवं फलों के पकने के समय को बढ़ाने में;
  • खाद्य पदार्थों पर कीटों एव सूक्ष्म जीवों के संक्रमण को समाप्त करने में;
  • मॉस एवं समुद्री उत्पादों के पाश्चरीकरण में।

विशेषता

  • यह प्रक्रिया खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता में कोई परिवर्तन नहीं आने देती।
  • खाद्य पदार्थों को ताजा बनाये रखने में मदद करती है।
  • खाद्य पदार्थों में से बीमारी के लिए जिम्मेदार तत्वों को समाप्त करती है।
  • चूंकि Co60 जल में विलेय है, अतः यह पर्यावरणीय प्रदूषण नहीं फैलाता।

सीमाएं

  • दुग्ध एवं दुग्ध उत्पादों का प्रकीर्णन संभव नहीं होता।
  • किसी खाद्य पदार्थ की बिगड़ी हुई गुणवत्ता में सुधार नहीं ला सकती।
  • यदि विकिरण की मात्रा कम पड़ जाती है तो फिर खाद्य पदार्थ सड़ने-गलने लगते हैं; यदि यह अधिक हो जाये
    तो स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बन सकते हैं।
  • इस प्रक्रिया के दौरान कुछ अवांछित एवं विषैले तत्वों का निर्माण संभव है, जैसे कि फॉर्मल्डिहाइड, फॉर्मिक अम्ल,
    बेंजीन, पेरॉक्साइड आदि जो कि मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक साबित होते हैं।

यूरेनियम का रसायन (Chemistry of Uranium):

  • यूरेनियम प्रकृति का सबसे भारी तत्व है, जिसका उपयोग परमाणु विधाओं में होता है।
  • यह चाँदी की तरह एक चमकदार धातु है, जिसका नामकरण 'यूरेनस' ग्रह पर हुआ है।
  • खानों से यह 'पिच ब्लेंड' के रूप में प्राप्त किया जाता है, जो कि वस्तुतः यूरेनियम के ऑक्साइडों (UO2, एवं UO3,)
    का एक मिश्रण है।
  • इसकी खोज 1789 में M.H. Claproth ने की; जबकि 1842 में E.M. Pelignot ने यह बताया कि यह दरअसल
    एक धातु है।
  • काँच एवं मिट्टी के बर्तनों (Pottery) को आकर्षक रंग प्रदान कर सकता है।
  • सबसे उपयुक्त नाभिकीय ईंधन (U235) के रूप में प्रयुक्त होता है।
  • इसका विकिरण मानव के साथ-साथ तमाम जीव-जंतुओं के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।

संवर्द्धित यूरेनियम (Enriched Uranium)

  • नाभिकीय विखंडन प्रक्रिया हेतु U235 कहीं अधिक उपयुक्त ईंधन मानी गयी है। ऐसा इसलिए है कि U238 (एक अन्य प्राकृतिक यूरेनियम) की तुलना में यह अधिक अस्थायी (Unstable) प्रकृति का होता है। यही कारण है कि एक मंदगामी न्यूट्रॉन की बमबारी द्वारा इसके नाभिक को विखंडित किया जा सकता है। लेकिन समस्या यह है कि प्रकृति में मौजूद U235 की मात्रा मात्र 0.7% ही है। लगभग 99.3% मात्रा U238 की ही है।
  • समस्थानिक पृथक्करण प्रक्रिया (Isotopic Separation Process) के माध्यम से U235 की प्रतिशतता 2.34% तक बढ़ायी जा सकी है। इस प्रकार से बढ़ा हुआ यूरेनियम ही संवर्धित यूरेनियम (Enriched Uranium) कहलाता है और यह प्रकिया यूरेनियम का संवर्द्धन (Enrichment of Uranium) कहलाती है।

क्षरित यूरेनियम (DU: Depleted Uranium)

  • प्राकृतिक यूरेनियम (U235) के संवर्द्धन की प्रक्रिया के दौरान जिस अधिक घनत्व वाले धात्विक पदार्थ का निर्माण एक सह-उत्पाद (By-Product) के रूप में होता है, उसे ही क्षरित यूरेनियम कहते हैं। यह प्राकृतिक यूरेनियम की तुलना में 40% तक कम रेडियो सक्रिय होता है। 
  • यह यूरेनियम कई रूपों में उपयोगी है। विशेषकर, सैन्य साजो-समान अथवा अस्त्रों आदि को ले जाने वाले वाहनों के निर्माण में इसका प्रयोग होता है, क्योंकि अत्यधिक घनत्व के कारण इस पर बंदूक की गोली भी निष्प्रभावी साबित होती है। इसकी मदद से निर्मित अस्त्र काफी सांघातिक शक्ति वाले साबित हुए हैं। 
  • इसके कुछ दुष्परिणाम भी हैं। यदि इसके सूक्ष्म कण सांस की मदद से फेफड़े में पहुंचते हैं तो इससे कई तरह की विकृतियां उत्पन्न हो सकती हैं। इससे संक्रमित भोज्य पदार्थ अथवा जल हमारे स्वास्थ्य को दुष्प्रभावित कर सकता है।

भारतीय नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम (INEP: Indian Nuclear Energy Programme)

  • 1948: परमाणु ऊर्जा आयोग (AEC: Atomic Energy Commission) की स्थापना।
  • 1948: भारतीय नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम (INEP: Indian Nuclear Energy Programme) की घोषणा ।
  • 1954: परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE: Department of Atomic Energy) की स्थापना की गयी, जो प्रत्यक्षतः प्रधानमंत्री के अधीन कार्य करता है।
  • 1974: पोखरण (राजस्थान) में प्रथम परमाणु विस्फोट किया गया।
  • 1998: पोखरण (राजस्थान) में ही दूसरा परमाणु विस्फोट किया गया।
  • 1987 : परमाणु ऊर्जा विभाग (DAE) के अधीन एक सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रम के तौर पर नाभिकीय ऊर्जा निगम लिमिटेड (NPCIL) की स्थापना की गयी ।
  • भारत ने वर्ष 1948 में ही नाभिकीय ऊर्जा कार्यक्रम की घोषणा कर दी थी। इस नीति का सर्वाधिक प्रासंगिक पक्ष यह है कि इसमें "No First Use" की बात कही गयी है। तात्पर्य यह कि भारत अपनी परमाणु क्षमता का प्रयोग किसी भी अन्य देश पर प्रथमत: नहीं करेगा। लेकिन भारत अपनी परमाणु क्षमता को उच्चतम स्थिति में इसलिए रखना चाहता है, ताकि वह न्यूनतम प्रतिरोधक क्षमता (Minimum Detterence) हासिल कर सके। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से यह बात चाहिए, वह भी तब जब उसके दो पड़ोसी देश - चीन एवं पाकिस्तान उसके लिए परेशानियां खड़ी करती रही हैं?" इस संदर्भ में यही कहना उचित होगा कि भारत ने प्रारंभ से ही शक्ति के प्रयोग को 'अंतिम उपाय' माना है और उसने इस संदर्भ में लगातार संयम का परिचय दिया है। अभी तक किसी भी युद्ध की शुरुआत भारत द्वारा नहीं की गयी है। सम्पूर्ण विश्व भारत को एक ‘शांति प्रिय' देश के रूप में पहचानता है । हमारी इस छवि ने हमें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति के साथ-साथ सहयोग भी प्रदान किया है । इसने हमारी अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक खास विश्वसनीयता स्थापित की है। ऐसे में, भारत को यथास्थिति के साथ परमाणु शक्ति का विकास करने की जरुरत है, ताकि यदि कोई देश भारत पर हमला करता है तो वह इसका प्रत्युत्तर दे सके। इसी तथ्य के मद्देनजर भारत द्वारा तीन चरणों में परमाणु ऊर्जा के विकास की रूपेरखा तय की गयी है
    • प्रथम चरण (1st Stage): यूरेनियम 235 का ईंधन के तौर पर प्रयोग करते हुए तापीय ऊर्जा की प्राप्ति हेतु तापीय रिएक्टरों/ दाबित भारी जल रिएक्टरों (PHWRs) का प्रयोग करना । इसमें मंदक के तौर पर जहां भारी जल अथवा ग्रेफाइट का प्रयोग किया जाता है, वहीं शीतलक के तौर पर भी भारी जल (D, O) का ही प्रयोग होता है।
    • द्वितीय चरण (2nd Stage): यह वस्तुत: एक ब्रीडर रिएक्टर है, क्योंकि इसमें यूरेनियम 0238 का प्रयोग ईंधन के तौर पर करने से उस प्लुटोनियम की उत्पत्ति होती है, जिसका द्रव्यमान यूरेनियम से अधिक होता है। फिर इस प्लुटोनियम को विखंडित कर तापीय ऊर्जा की प्राप्ति से विद्युत ऊर्जा उत्पन्न कर ली जाती है। इसमें मंदक की आवश्यकता नहीं होती और शीतलक के तौर पर द्रवित सोडियम (Liquid Sodium) का प्रयोग होता है। यह रिएक्टर तापीय रिएक्टर की अपेक्षा कहीं कम रेडियो सक्रिय पदार्थों का उत्सर्जन करता है।
    • तृतीय चरण (3rd Stage): भारत के पास थोरियम ( Th222) की अधिकता है, परतु तकनीकी विशेषज्ञता हासिल न हो सकने के कारण हम इसका उपयोग परमाणु ऊर्जा के विकास में करने में असमर्थ रहे हैं। वस्तुतः थोरियम का प्रयोग करते हुए यूरेनियम (U233) के माध्यम से परमाणु ऊर्जा की प्राप्ति को संभव बनाने का कार्यक्रम इसमें निहित है।
  • भारत द्वारा सम्पन्न नाभिकीय समझौते (Nuclear Deals done by India):
    • वर्ष 2016 तक भारत ने निम्न देशों के साथ नागरिक / गैर - सैन्य नाभिकीय समझौते (Civil Nuclear Agreements) सम्पन्न किये थे- अर्जेंटीना, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, चेक गणराज्य, फ्रांस, जापान, कजाकस्तान, मंगोलिया, नामीबिया, रूस, दक्षिण कोरिया, यूनाइटेड किंगडम, यू. एस. ए. तथा वियतनाम ।
    • 6 सितम्बर, 2008 को NSG (Nuclear Suppliers Group) ने भारत को छूट प्रदान करते हुए उसे नागरिक नाभिकीय तकनीक एवं ईंधन अन्य देशों से प्राप्त करने की इजाजत दे दी । परमाणु सम्पन्न देशों में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है, जो कि बिना परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर किये इस छूट को हासिल कर सका है।
    • भारत ने वर्ष 2005 में ही संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ एक नाभिकीय समझौता किया, जिसे ' 123 एग्रीमेंट' भी कहते हैं। दरअसल, अमेरिकी एटॉमिक एनर्जी एक्ट, 1954 के खंड - 123 में यह व्यवस्था की गयी है कि अमेरिका एवं किसी अन्य देश के बीच नाभिकीय समझौते की पूर्व-शर्त यह होगी कि उस सम्बद्ध देश को अमेरिका के साथ सहयोग समझौता (Agreement for Cooperation) करना होगा। इसी आधार पर वर्ष 2009 में भारत द्वारा LoI (Letter of Intent) जारी किया गया, जिसका उद्देश्य अमेरिका से 10000 MW परमाणु शक्ति को प्राप्त करना था। लेकिन इस समझौते को अभी तक व्यावहारिक स्वरूप प्राप्त नहीं हो सका है, जिसके पीछे मूल वजह उस प्रावधान को माना जा रहा है, जिसे कि नाभिकीय उत्तरदायित्व कानून (Nuclear LiabilityLaw) के नाम से जाना जाता है। विशेषज्ञों का मानना रहा है कि भारत द्वारा स्थापित यह विशेष कानून विदेशी नाभिकीय कंपनियों को हतोत्साहित करने वाला है, क्योंकि इसमें यह व्यवस्था है कि यदि नाभिकीय संयंत्रों में आयी किसी भी तरह की विकृति से कोई दुर्घटना घटती है तो दुर्घटनाग्रस्त अथवा प्रभावित लोगों को क्षतिपूर्ति देने की जिम्मेदारी सम्बद्ध कम्पनी की बनती है। 
  • परमाणु अप्रसार संधि (NPT: Nuclear Non-Proliferation Treaty): 
    • 1 जुलाई, 1968 को इस संधि पर हस्ताक्षर किये गये। 
    • 5 मार्च, 1970 को यह संधि प्रभावी बनी।
    • इसके तहत कुल 190 देश शामिल हैं।
    • पांच प्रमुख देश इसमें शामिल नहीं हैं- भारत, पाकिस्तान, इजरायल, उत्तरी कोरिया (2003 में संधि से बाहर आ गया था) एवं दक्षिणी सूडान।
    • संधि का मुख्य उद्देश्य परमाणु अस्त्रों और इससे सम्बद्ध प्रौद्योगिकी के प्रसार को रोकना है। साथ ही, परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण प्रयोगों को बढ़ावा देकर पूर्ण निरस्त्रीकरण को संभव बनाना है।
    • संधि के तहत चुनिंदा देशों को इस संधि से परे रखा गया है, जिन्हें परमाणु-सम्पन्न राष्ट्र राज्य (NWSP: Nuclear
      Weapon State Parties) का दर्जा दिया गया है- संयुक्त राज्य अमेरिका, युनाइटेड किंगडम, फ्रांस, रूस एवं चीन।
    • इन पांचों देशों को परमाणु अस्त्र को बनाये रखने की छूट यह संधि प्रदान करती है, क्योकि इन्होंने यह शक्ति 1 जनवरी, 1967 से पूर्व ही हासिल कर ली थी।
    • भारत ने अभी तक इस संधि पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं, क्योंकि उसकी यह स्पष्ट मान्यता रही है कि यह संधि विभेदनकारी (Discriminatory) है, क्योंकि इसमें चुनिंदा देशों की परमाणु शक्ति सम्पन्नता को बनाये रखने की विशिष्ट छूट प्रदान की गयी है। भारत का मानना है कि इस संधि की सार्थकता तभी संभव है, जब विश्व को पूर्णतः
      परमाणु अस्त्र रहित बनाया जाये।
  • नाभिकीय आपूर्तिकर्ता समूह (NSG: Nuclear Suppliers Group):  इसकी स्थापना वर्ष 1974 में की गयी (कुल सदस्य संख्या-48)। यह एक बहुपक्षीय निर्यात नियंत्रण संधि है, जिसके तहत ऐसे देश शामल हैं जो कि नाभिकीय ईंधनों एवं प्रौद्योगिकी को निर्यात करने की सामर्थ्य रखते हैं। संधि के तहत यह व्यवस्था कायम की गयी है कि सदस्य देशों द्वारा किसी भी गैर-सदस्य देश को नाभिकीय पदार्थों, उपकरणों अथवा प्रौद्योगिकियों का निर्यात नहीं किया जा सकेगा, ताकि परमाणु अस्त्रों का अप्रसार संभव हो सके। भारत इस समूह की सदस्यता हेतु पिछले कई दशकों से प्रयासरत रहा है, ताकि वह नाभिकीय शक्ति का समुचित विकास कर सके। परंतु, कई ऐसे देश हैं, खासकर चीन, ब्राजील, ऑस्ट्रिया, न्यूजीलैंड, आयरलैंड एवं तुर्की जो भारत को इसमें प्रवेश होने देने के मार्ग में इस आधार पर रोड़े अटकाते रहे हैं कि भारत ने एनपीटी पर हस्ताक्षर नहीं किये हैं और इसलिए उस पर भरोसा नहीं जताया जा सकता है।
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