मुगल साम्राज्य ने लगभग समूचे देश को एक सूत्र में बांध दिया था। अकबर के कुशल नेतृत्व में जो प्रशासन कायम हुआ उसने करीब 150 वर्षों तक साम्राज्य के स्थायित्व और विस्तार में मदद की। इस काल में जीवन के हर क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई। लेकिन औरंगजेब के शासनकाल में ही साम्राज्य के विरुद्ध मराठों, जाटों, सिक्खों आदि द्वारा विद्रोह शुरू हो गए थे। औरंगजेब के देहावसान के समय मुगल शक्ति की मुखाकृति पर अधः पतन की रेखायें खीच गई थीं।
परवर्ती मुगल
- औरंगजेब की मृत्यु के बाद जो मुगल बादशाह गद्दी पर बैठे उन्हें परवर्ती मुगल कहते हैं।
- इन शासकों के समय में वास्तविक सत्ता सरदारों के हाथों में चली गई। ये सरदार अपने-अपने मूल स्थान के आधार पर कई गुटों में बंटे हुए थे, जैसे - मध्य एशिया के तूरान प्रदेश से आए सरदारों ने अपना एक गुट बनाया और वे तूरानी कहे जाते थे।
- इसी तरह, ईरानी, अफगान और हिंदुस्तानी सरदारों के अपने-अपने अलग गुट थे और ये गुट अपनी सर्वोच्चता और सत्ता स्थापित करने के प्रयास करते रहे।
- औरंगजेब के शासनकाल के अंतिम दिनों में साम्राज्य में मनसबदारों की संख्या काफी बढ़ गई थी, मगर राजस्व घट गया था।
- प्रत्येक मनसबदार पहले से बड़ी जागीर की मांग करने लगा, ताकि उसे ज्यादा आमदनी हो सके।
- मनसबदारी ने तबादलों का विरोध और जागीरों पर अपना अधिकार पक्के और पुस्तैनी बनाने के प्रयास किए।
- जागीर बांटने का काम वजीर करता था। इसलिए वजीर के ओहदे पर कब्जा करने के लिए सरदारों के बीच संघर्ष चला। कोई भी सरदार वजीर के ओहदे पर कब्जा करके ही अपने रिश्तेदारों और अनुयायियों का हित साध सकता था।
बहादुर शाह (1707-1712 ई.)
औरंगजेब की मृत्यु के बाद गद्दी के लिए हुए संघर्ष में मुअल्लाम ने अपने प्रमुख विरोधी भाई आजमशाह को जाजउ में पराजित करके मार डाला और 63 वर्ष की आयु में बहादुर शाह के नाम से सिंहासनारूढ़ हुआ।
- बहादुर शाह ने शांतिप्रिय नीति अपनाई।
- उसने अपने अल्प शासनकाल में मराठों और राजपूतों से मेल-मिलाप करके मुगल साम्राज्य की साख फिर से कायम करने की कोशिश की।
- औरंगजेब ने शिवाजी के पोते साहू को कैद कर रखा था। बहादुर शाह ने उसे छोड़ दिया।
- उसने सिख नेता बन्दा बहादुर को जनवरी 1711 में ‘लोहागढ़ की लड़ाई’ में हराकर सरहिन्द पर पुनः कब्जा कर लिया।
- उसके आलस्य और आनंद लिप्स के कारण उसे शाहे-बेखबर कहा जाता था।
- 1712 ई. में उसकी मृत्यु हो गई।
जहांदार शाह (1712-1713 ई.)
बहादुर शाह की मृत्यु के बाद उत्तराधिकारी के लिए हुए युद्ध में उसका ज्येष्ठ पुत्र अपने भाइयों को मारकर जुल्फिकार खान की सहायता से जहांदार की पदवी धारण करके गद्दी पर बैठा।
- उसने जुल्फिकार खान को पुरस्कार स्वरूप अपना प्रधानमंत्री बना लिया। जुल्फिकार खां औरंगजेब का सबसे ऊंचे ओहदे वाला सेनापति था।
- जहांदार शाह के शासनकाल में जुल्फिकार खां की मदद से 1712 ई. में जजिया खत्म कर दिया गया। जहांदार शाह एक अयोग्य व लोभी शासक था।
- सैय्यद बंधु - इलाहाबाद के राज्यपाल सैय्यद अब्दुल्ला और बिहार के राज्यपाल सैय्यद हुसैन अली - की मदद से जहांदार शाह का भतीजा फर्रुखसियार ने उसे अपदस्थ कर गद्दी प्राप्त कर ली।
फर्रुखसियर (1713-19 ई.)
वह केवल नाममात्र का शासक था। वास्तविक सत्ता सैय्यद बंधुओं के हाथ में थी, जिसकी मदद से वह सत्तासीन हुआ था।
- फर्रुखसियर के शासनकाल में सिक्कों के साथ हुए मुगल संघर्ष में बंदा बहादुर तथा उसके अनुयायियों को गिरफ्तार कर लिया गया। 1716 ई. में बंदा बहादुर को घोर यातना देकर मार डाला गया।
- उसने 1717 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी को बहुत-सी व्यापारिक सुविधायें प्रदान की।
- सैय्यद हुसैन अली ने मराठों से एक समझौता कर लिया जिसके अंतर्गत उसने उनकी सैनिक सहायता के बदले में उन्हें दक्षिण के छः प्रान्तों में चैथ और सरदेशमुखी देना स्वीकार कर लिया।
- फर्रुखसियार ने इस संधि को अमान्य कर दिया। उसने सैय्यद बंधुओं के बढ़ते प्रभाव से तंग आकर उनके विरुद्ध षड्यंत्र करना आरम्भ कर दिया था।
- सैय्यद बंधुओं ने फर्रुखसियार की हत्या कर दी तथा बारी-बारी से क्रमशः रफी-उस-दरजात तथा रफी-उस-द्दौला को थोड़े समय के लिए गद्दी पर बैठाया। जल्दी ही दोनों की मृत्यु हो गई।
मुहम्मद शाह (1719-48)
सैय्यद बंधुओं ने एक अन्य कठपुतले शासक रोशन अख्तर को मुहम्मद शाह की उपाधि के साथ 1719 ई. में गद्दी पर बैठाया।
- पर ये सैय्यद बंधु, जिन्हें ‘राजाओं के निर्माता’ के रूप में जाना जाता है, बहुत समय तक अपनी शक्ति नहीं बनाए रख सके। मुहम्मद शाह भी इनके नियंत्रण से तंग आकर इनसे मुक्ति के उपाय करने लगा।
- सैय्यद बंधुओं के बढ़ते नियंत्रण को रोकने के लिए बने दल का नेतृत्व दक्कन के पूर्व सूबेदार चिन किलिच खां (निजामुलमुल्क) और अवध के सूबेदार सादत खान ने किया।
- चिन किलिच खान के विद्रोह को दबाने जाते समय सैयद हुसैन अली को धोखे से मार डाला गया।
- दूसरा भाई सैय्यद अब्दुल्ला भी पराजित हुआ और उसे भी कैद करके मार डाला गया।
- इस प्रकार मुहम्मद शाह के शासन के प्रारम्भिक दौर में ही सैय्यद बंधुओं का खात्मा हो गया।
- मुहम्मद शाह स्वयं एक अयोग्य शासक था और उसके शासन काल में साम्राज्य का बिखरना जारी रहा।
- मुहम्मद शाह को ‘रंगीला’ भी कहा जाता था।
- सरदारों के विभिन्न दलों के बीच जारी कलहों ने केन्द्रीय सत्ता की शक्ति को कमजोर बना दिया था।
- वास्तविक सत्ता सरदारों ने हथिया ली थी। वे बादशाह के प्रति औपचारिक निष्ठा तो दिखाते रहे, मगर अपना काम निकालने के लिए उसे अपने हित के लिए प्रयोग करते थे।
- धीरे-धीरे अनेक इलाके साम्राज्य से अलग हो गए और बंगाल, अवध, हैदराबाद तथा रुहेलखंड में अर्ध-स्वतंत्र राज्यों का उदय हुआ।
- 1739 ई. में हुए नादिरशाह के आक्रमण ने साम्राज्य की कमजोरियों को और उजागर कर दिया।
- करनाल में हुए युद्ध में मुगल सेना बुरी तरह पराजित हुई। दिल्ली में सरेआम कत्ल हुआ जिसमें बच्चियों और बच्चों को भी नहीं बख्शा गया।
- नादिर शाह के नाम से खुतबा पढ़ा गया।
- मुगल साम्राज्य का राज्य-चिह्न छीन लिया गया, नागरिकों का धन ले लिया गया और प्रांतों के सूबेदारों से धन वसूला गया।
- वह सोना, चांदी, जवाहरात एवं कोहिनूर हीरा व मयूर सिंहासन सहित दिल्ली से रवाना हुआ।
अहमद शाह (1748-1754 ई.)
1748 में मुहम्मद शाह की मृत्यु हो गई और उसका एकमात्र पुत्र अहमद शाह शासक बना।
- वह दिन-रात रंगरेलियां मनाता रहता था तथा उसकी मां कुदासिया बेगम उसकी ओर से शासन करती थी।
- उसके शासनकाल में रोहिल्लाओं ने विद्रोह किया जिसे दबाने के लिए मुगलों को मराठों से सहायता लेनी पड़ी।
- उत्तर-पश्चिम की ओर से अहमद शाह अब्दाली का आक्रमण होता रहा जिसे रोकने में मुगल शासक नाकामयाब रहे।
- नवाब वजीर तथा आसफ जाह के पोते गाजिउद्दीन के बीच गृहयुद्ध प्रारम्भ हो गया।
- 1754 में गाजिउद्दीन वजीर बना और उसी वर्ष उसने अहमद शाह को अंधा बनाकर सलीमगढ़ में कैद कर दिया।
आलमगीर द्वितीय (1754-59 ई.)
अहमद शाह को कैद करने के बाद जहांदार शाह के पुत्र आलमगीर द्वितीय को गद्दी पर बैठाया गया।
- अब मुगल साम्राज्य सिमटकर महज दिल्ली के आस-पास तक सीमित रह गया।
- 1756 में अहमद शाह अब्दाली ने भारत पर चैथा आक्रमण किया, दिल्ली को लूटा और नजीबुल्ला को अपना पूर्णाधिकारी दूत तथा मुगल सम्राट का बख्शी नियुक्त किया और तब अफगानिस्तान वापस चला गया।
- नजीब की नियुक्ति और सम्राट पर उसके प्रभाव से नाखुश वजीर इमादुलमुल्क ने 1759 ई. में आलमगीर द्वितीय की हत्या करवा दी।
शाह आलम द्वितीय (1759-1806 ई.)
आलमगीर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र अली गौहर 1759 में शाह आलम की उपाधि सहित शासक हुआ, पर 1771 तक वह दिल्ली नहीं लौटा। वह दिल्ली तभी लौटा, जब मराठों ने वहां प्रभाव स्थापित करके उसे वहां आने को आमंत्रित किया।
- तब तक वह वजीर के भय से दिल्ली से दूर अवध के शुजाउद्दौला के यहां शरणार्थी की हैसियत से 1765 तक था जहां इसी समय इलाहाबाद की संधि के अनुसार वह अंग्रेजों के संरक्षण में आ गया।
- अंग्रेजों ने उसे कड़ा व इलाहाबाद के क्षेत्र के अतिरिक्त 26 लाख रुपये वार्षिक उसके व्यय के लिए दिया और इसके बदले बादशाह ने अंग्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी का अधिकार प्रदान किया।
- उसी के शासन-काल में प्रसिद्ध पानीपत की तीसरी लड़ाई (1761 ई.) हुई। अहमद शाह अब्दाली के हाथों मराठों की भीषण पराजय हुई।
- 1806 ई. में शाह आलम की मृत्यु हो गई।
अकबर द्वितीय (1806-1837)
शाह आलम की मृत्यु के पश्चात उसका पुत्र अकबर द्वितीय उत्तराधिकारी हुआ जो अपनी मृत्यु तक अंग्रेजों के संरक्षण में बना रहा।
बहादुर शाह जफर द्वितीय (1837-1857): बहादुर शाह 1837 में मुगल शासक बना। उसने 1857 के विद्रोह में अंग्रेजों के विरुद्ध भाग लिया और फलस्वरूप उसे कैद करके रंगून भेज दिया गया जहां 1862 में उसकी मृत्यु हो गई। इस तरह नाम मात्र का मुगल शासन समाप्त हो गया क्याकि अंग्रेजों ने उसके किसी उत्तराधिकारी को वैध न माना।
मुगल साम्राज्य के पतन के कारण
औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता (उसने 1679 ई. में हिन्दुओं पर पुनः जजिया कर लगा दिया), उसकी दक्षिण नीति, मराठा शक्ति से निपटने में उसकी असफलता, साम्राज्य के एकीकरण व स्थायित्व की जगह असीमित विस्तार की नीति, राजपूत राज्यों के साथ सतत् संघर्ष, सतनामियों की समस्या, जाट एवं सिक्खों का विद्रोह, उत्तराधिकार नियम का अभाव, औरंगजेब द्वारा सत्ता हथियाने के लिए अपनाए गए तरीकों की पुनरावृत्ति एवं बार-बार होने वाले उत्तराधिकार युद्ध, अयोग्य एवं कमजोर शासक, प्रशासन में अनियमितता, अमीरों एवं सरदारों का स्वार्थ एवं शासन के प्रति निष्ठा में कमी, मुगल अमीरों की चरित्रहीनता एवं नैतिक पतन, जहाँगीरों से होने वाली आमदनी में निरन्तर कमी, कृषकों की बदतर माली हालत, कृषि उपज में गिरावट तथा भारी कृषक असन्तोष, विदेश व्यापार में उदासीनता तथा नौसेना का अभाव, जनता में राष्ट्रवादी भावना का अभाव, सेना में नैतिकता एवं अनुशासन की कमी, बृहद् सैन्य संचालन के लिए पर्याप्त धन का अभाव, विदेशी आक्रमणों का तांता तथा यूरोपीय शक्तियों, विशेषकर अंग्रेजों, द्वारा साम्राज्य की स्थापना इत्यादि ने मुगल साम्राज्य को पूर्णतया नष्ट कर दिया।
➤ समाज और राजनीति की कुछ विशेषताएं
- राजनीतिक संघर्षों के इस काल में वाणिज्य-व्यवसाय में वृद्धि हुई।
- इस काल में वाणिज्य-व्यापार के कुछ प्रमुख केन्द्र थे - बंगाल में मुर्शिदाबाद और ढाका, दक्षिण में हैदराबाद और मछलीपट्टनम् तथा अवध में फैजाबाद, वाराणसी, लखनऊ और गोरखपुर।
- सूबे के शासकों ने हिन्दू व मुसलमान अधिकारियों तथा सरदारों का समर्थन प्राप्त करने की कोशिश की।
- राज्य के विभिन्न पदों पर नियुक्तियां करते समय धर्म का ख्याल नहीं किया जाता था। उदाहरण के तौर पर अवध में नवाब की सेना में नागा संन्यासी भी थे।
- हिन्दुओं और मुसलमानों के निकट आने से एक मिली-जुली संस्कृति के विकास में मदद मिली।
- भारतीय भाषाओं, जैसे - बंगला, मराठी, तेलगू और पंजाबी ने अच्छी प्रगति की और उनका साहित्य अधिक समृद्ध बना।
- पहले से विकसित होती आ रही उर्दू का अब अधिक इस्तेमाल होने लगा और शहरा में यह और भी प्रचलित हो गया। उसका साहित्य, विशेषकर काव्य-साहित्य, समृद्ध होने लगा।
- शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में जैसे - ख्याल और अर्ध-शास्त्रीय गायन-शैली ठुमरी तथा गजल में, खूब प्रगति हुई।
- मुगल और राजपूत शैलियों के प्रभाव से देश के कई हिस्सों में, विशेषकर कुलू, कांगड़ा और चंबा में, चित्रकला का विकास हुआ।
- इस प्रकार कलहों और युद्धों के बावजूद सांस्कृतिक प्रगति जारी रही।
- अठारहवीं सदी के भारत में राजनीतिक एकता का अभाव था। मुगल साम्राज्य का निरंतर पतन होता गया और उसके बराबर शक्ति और प्रतिष्ठा वाले ऐसे किसी अन्य भारतीय राज्य का उदय नहीं हुआ जो देश का केन्द्रीय सत्ता में एकीकरण कर सके।
- नए भारतीय राज्यों में मराठों ने सबसे ऊंची हैसियत प्राप्त कर ली, मगर वे भी एकीकरण की भूमिका को निभाने में असमर्थ रहे। विस्तार के उनके तरीकों ने उन्हें अन्य शासकों और लोगों से विलग कर दिया।
- हिन्दू ऊंच-नीच के भेदभाव से ग्रसित थे और अनगिनत जातियों में बंटे हुए थे। ऐसा कोई समान उद्देश्य नहीं था जो सभी पृथक गुटों को एक साथ ला सकता।
- मुसलमान भी समुदायों में बंटे थे और कुछ समुदाय अपने को दूसरों से श्रेष्ठ समझते थे।
- बाह्य और आंतरिक व्यापार काफी मात्रा में हो रहा था, मगर इसने आम जनता के आर्थिक और सामाजिक जीवन को अधिक प्रभावित नहीं किया।
- गांव एक स्वतंत्र आर्थिक इकाई था और अपनी जरूरत की वस्तुएं खुद बना लेता था।
- आमतौर पर गांव के कुल उत्पादन का आधे से अधिक राजस्व के रूप में ले लिया जाता था। वह राजस्व बड़ी सेनाएं रखने में और सरदारों के विलासी जीवन पर खर्च होता था।
- शासकों में परिवर्तन, नए राज्यों का उदय और इसी प्रकार के अन्य राजनीतिक परिवर्तन गांवों के जीवन को नहीं के बराबर प्रभावित करते थे।
- यूरोप में जिस तरह के मध्य वर्ग का उदय हुआ था, वैसा मध्य वर्ग भारत में नहीं था। मगर ऐसे परिवार अवश्य थे जो व्यापार के जरिए धनी हो गए थे। परंतु उन्होंने जो धन-दौलत इकट्ठी की थी, उसका उपयोग कर्ज देने और ब्याज कमाने के लिए किया गया न कि नए हुनर, वस्तुओं के उत्पादन की नई विधियां और नई तकनीक विकसित करने के लिए।
- भारत के राजनीतिक जीवन में एक नए तत्व का प्रवेश हुआ था। यूरोप की व्यापारी कम्पनियों ने इस देश के राजनीतिक मामलों में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया था। साथ ही, वे कम्पनियां अपनी राजनीतिक सत्ता स्थापित करने के प्रयास में जुटी हुई थीं।
- भारतीय राज्यों के शासक अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुकाबले अपना स्वार्थ साधने की आशा में विदेशी व्यापारी कम्पनियों के हाथों की कठपुतली बनने के लिए पूर्णतः तैयार थे।
- पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की पराजय होने के पहले से ही भारत में ब्रिटिश विजय की शुरुआत हो चुकी थी जो आगे भी जारी रही।