सकरात के विचार
सुकरात के अनुसार नीतिशास्त्र का एक लक्ष्य है, नीति-विषयक सिद्धान्त से प्रवाहान्त प्राप्त करने के लिये नियम या साधन सुकरात व प्लेटो ने आचरण की अन्तिम परिर्णात को 'मानव मात्र से व्यवहार करने की कला', समाज में व्यवहार करने की कला और मानव उल्लास का विज्ञान' कहा। सकरात के अनुसार
- 'ज्ञान ही सद्गुण है' अर्थात् अज्ञानी व्यक्ति अनुचित साधन अपनाता है वहीं ज्ञानी व्यक्ति को उचित व अनुचित दोनों का ज्ञान होता है जिससे कि वह उचित साधन अपनाता है।
- सुकरात को 'शुभ और अशुभ' प्राकृतिक ज्ञान की समझ बहुत अच्छे से थी। उनके अनुसार शुभ व अशुभ के चयन से क्रमशः शुभ व अशुभ परिणाम आते हैं।
- निष्कर्षत: ज्ञानी व्यक्ति अनिवार्य रूप से शुभ कार्य का चयन करता है, फलस्वरूप सद्गुणी होता है।
- सुकरात ने 'मनुष्य प्रत्येक वस्तु का मानदण्ड है' जैसी उक्ति का खंडन किया अर्थात् नैतिकता के क्षेत्र में उसने मनुष्य की यांत्रिकतावादी व्याख्या नहीं की।
- सुकरात ने संशय का उपयोग सिर्फ साधन के लिए किया तथा परस्पर संवाद के सहारे सच की खोज का मार्ग सुझाया।
- सुकरात के अनुसार नैतिक जीवन ही शुभ है तथा ज्ञान के व्यावहारिक पक्ष पर बल दिया। उसके अनुसार ज्ञान और व्यवहार में एकरूपता होनी चाहिए। यदि एकरूपता न हो तो ज्ञान के आधार पर आचरण करना संभव नहीं है।
- सुकरात के अनुसार अज्ञान ही सबसे बड़ा पाप या अशुभ है। यही मनुष्यों को अनुचित कार्यों की ओर प्रवृत्त करता है। अनैतिक आचरण का कारण सदैव नैतिक आचरण का अज्ञान है। यह हमें अनुचित कर्मों की ओर ले जाता है तथा समुचित आचरण/सही कर्म को संपन्न करने के लिए हमारी सोच अथवा चिंतन प्रणाली भी सही होनी चाहिए। ज्ञान के अभाव में सद्गुण की प्राप्ति नहीं हो सकती। इससे सिद्ध हो सकता है कि कोई मनुष्य बुराई को जानते हुए उसका आचरण नहीं कर सकता।
प्लेटो के विचार
प्लेटो के नैतिक सिद्धान्त सुकरात से मिलते-जुलते हैं, किन्तु इनमें तत्व मीमांसा का भारी समावेश था। इसके अतिरिक्त, प्लेटो ने नैतिकता में राजनैतिक पहलू भी जोड़ दिया। अपनी प्रसिद्ध रचना 'रिपब्लिक' में प्लेटो का कहना है कि एक आदर्श राज्य या राष्ट्रमण्डल के नागरिक ही नैतिक हो सकते हैं।
- प्लेटो की तत्त्व-मीमांसा:
प्लेटो भौतिक विश्व को क्षणिक मानते हैं, एवं जो निरन्तर तात्कालिक विगत से वर्तमान में तथा फिर भविष्य में पारगमन की स्थिति में रहती है। - नैतिकता का सिद्धान्त:
प्लेटो का नैतिकता का सिद्धान्त सुकरात के सिद्धान्त का अनुसरण करता है। ये भी नैतिकता को बुद्धि के साथ मानते हैं, जिनके अनुसार नैतिकता पढ़ायी (सिखाई) जा सकती है और यह कि मनुष्य नैतिकता को उसी प्रकार सीख सकते हैं जैसे वे किसी अन्य विषय को सीख सकते हैं। नैतिकता कोई सहजात विशेषता या प्रकृति की कोई संयोगिक देन नहीं है। नैतिक लोग पैदा नहीं होते बल्कि शिक्षा द्वारा बनाये जाते हैं।
प्लेटो के नैतिकता का चार प्रकार से विभाजन किया गया है और उन्हें आत्मा (मन) के विभिन्न भागों से जोड़ा गया है। चार-नैतिक गुण हैं- बुद्धि या विवेक, शूरता, आत्म-संयम और न्याय। इसमें मुख्य समस्या यह सुनिश्चित करने की है कि संरक्षकों द्वारा विधायक के आशयों का पालन किया जाता है। यह उद्देश्य की प्राप्ति के लिये प्लेटो ने अनेक राजनैतिक, आर्थिक शैक्षिक व अन्य प्रकार के उपाय सुझाये हैं। - प्लेटो के अनुसार
(i) प्लेटो सुकरात के प्रसिद्ध नैतिक कथन 'ज्ञान सद्गुण है' से पूर्णतः सहमत थे परंतु जो सुकरात ने ज्ञान कीअवधारणा को परिभाषित नहीं किया उसके लिए प्लेटो कहते हैं कि 'ज्ञान वह है जो अनिवार्य, सार्वभौमिक और वस्तुनिष्ठ है।'
(ii)प्लेटो के अनुसार, यहाँ अनिवार्यता का मतलब प्रत्येक स्थिति में वह नियम अटल रहे, सार्वभौमिक का मतलब वह नियम सभी व्यक्तियों पर समान रूप से लागू हो, वस्तुनिष्ठता का मतलब वह नियम केवल वैचारिक न हो बल्कि वस्तुनिष्ठ रूप में विद्यमान हो।
अरस्तु के विचार
अरस्तु, प्लेटो के शिष्य हैं लेकिन जहाँ प्लेटो बुद्धिवादी एवं आदर्शवादी हैं, वहीं अरस्तु अनुभववादी एवं यथार्थवादी। अरस्तु के नैतिकता संबंधी विचार सुकरात की अपेक्षा अधिक व्यावहारिक हैं। इससे मानव के कार्य-व्यवहार में समरूपता आई। अरस्तु के योगदानों को निम्न शब्दों में समझा जा सकता है
- अरस्तु के अनुसार, वासनाओं और भावनाओं का पूरी तरह से दमन करना नैतिक दृष्टि से न तो आवश्यक है और न संभव। भावनाओं और वासनाओं का कितना नियमन बुद्धि के द्वारा किया जाए, यह परिस्थितियों पर निर्भर करता है।
- इनके अनुसार मनुष्य एक विचारशील (बौद्धिक) प्राणी है। अत: जहां तक वह बुद्धि के नियमानुसार कर्म करता है उसे सद्गुणी पुरूष कहा जाता है। मानव-जीवन का आदर्श विशुद्ध रूप से वैचारिक जीवन में निहित है।
- अरस्तु के अनुसार, बुद्धि के द्वारा वासनाओं और भावनाओं का नियमन भी श्रेय है तथा इन्होंने सदगुणों के निर्धारण के लिए 'स्वर्णिम माध्य' सिद्धांत का प्रतिपादन किया। अरस्तु के अनुसार, 'सद्गुण का अर्थ वासनाओं का आत्यांतिक दमन या उत्पीड़न नहीं है बल्कि उनका बुद्धि के द्वारा युक्तिपूर्वक नियमन करना है।'
- अरस्तु के स्वर्णिम माध्य सिद्धांत की व्यावहारिक जीवन में उपेक्षा नहीं की जा सकती। यह दो अतियों का निराकरण करके उनमें समन्वय स्थापित करने पर बल देता है। यही आदर्श सामाजिक जीवन का मार्गदर्शक सिद्धांत है।
थॉमस एक्वीनॉस के विचार
ये मध्यकालीन इटैलियन चिंतक है।- इन्होंने विधि पर विचार दिया है और इस संबंध में इनका विचार है कि विधि सर्वहित के लिए तर्क आधारित नियम है तथा यह अवश्य ही युक्तियुक्त व न्यायसंगत होना चाहिए, इसका रूप ऐसा होना चाहिए ताकि नैतिक रूप से लोग इसका अनुसरण कर सकें एवं यह मानवीय प्रकृति के अनुरूप होना चाहिए।
- एक्वीनॉस ने नैसर्गिक विधि पर भी अपने विचार प्रस्तुत किए और इस संदर्भ में उनका विचार है कि नैसर्गिक विधि की दो विशेषताएँ होती हैं
(i) यह सार्वभौम होता है।
(ii) यह अपरिवर्तनशील होता है।
डेविड ह्यूम के विचार
डेविड ह्यूम आधुनिक काल के विश्वविख्यात नैतिक चिंतक थे। वे स्कॉटलैंड के निवासी थे। ह्यूम का दर्शन अनुभव की पृष्ठभूमि में परमोत्कृष्ट है। उसके अनुसार यह अनुभव (Impression) और एकमात्र अनुभव ही है जो वास्तविक है। अनुभव के अतिरिक्त कोई भी ज्ञान सर्वोपरि नहीं है। बुद्धि से किसी भी ज्ञान का आविर्भाव नहीं होता
।ह्यूम के नीतिशास्त्र की मुख्य समस्या नैतिक पदों के अर्थ की है। किसी चीज को नैतिक दृष्टि से अच्छा-बुरा कहने का क्या अर्थ है? इसके उत्तर के लिए वह आनुभविक और वैश्लेषिक प्रणाली का प्रयोग करता है। उसका कहना है कि हमें पहले तो अनुभव के आधार पर यह स्थिर करना चाहिए कि इन पदों का प्रयोग किन-किन चीजों के लिए होता है और फिर बौद्धिक विश्लेषण द्वारा उनके सामान्य लक्षणों को। तभी हम कह सकते हैं कि इन पदों के प्रयोग का अर्थ यह बतलाना है कि वे वस्तुएं उन (सामान्य) गुणों से युक्त हैं।
नैतिक पदों, में- ईमानदार, दयालु, उदार, दुष्ट, चरित्रहीन आदि का प्रयोग मनुष्य अपनी, उसकी क्रियाओं और प्रवृत्तियों के विशेषण के रूप में करता है। ह्यूम का कहना है कि सभी प्रशंसनीय नैतिक क्रियाओं या प्रवृत्तियों का सामान्य लक्षण यह है कि वे अपने कर्ता या धारक के लिए या दूसरों के लिए तत्काल सुखदायी या उपयोगी होता है। यहां पर चार सम्भावनाएं हैं -
- तत्काल सुखदायी होना।
- उनके लिए उपयोगी होना।
- दूसरों के लिए तत्काल सुखदायी होना।
- दूसरों के लिए उपयोगी होना।
किसी क्रिया का नैतिक दृष्टि से प्रशंसनीय होने के लिए कम से कम चारों ओर से किसी एक गुण का उसमें होना जरूरी है और उसके निन्दनीय होने के लिए चारों के विरोधी गुणों का। यदि उसमें चारों का अभाव मात्र है तो वह न तो प्रशंसनीय होता है, न निन्दनीय। ह्यूम नैतिक और अनैतिक दृष्टियों से आंके गए मूल्यों में भेद, मिलने वाले सुख या उपयोगिता की भिन्नता के आधार पर करता है। ह्यूम तो मानता है कि उपयोगी या सुखद होना किसी भी मूल्यवान वस्तु का लक्षण है।
नैतिक निर्णयों के स्वरूप के विषय में ह्यूम का कहना है कि वे तथ्यात्मक नहीं होते, न उन्हें तथ्यात्मक वाक्यों से निगमित ही किया जा सकता है क्योंकि तथ्यात्मक वाक्य वर्णनात्मक होते हैं मूल्यात्मक नहीं। नैतिक निर्णय किसी तथ्य का वर्णन मात्र नहीं करते, बल्कि कर्त्तव्य, शुभ-अशुभ आदि की भावना को भी व्यक्त करते हैं। नैतिक निर्णय बुद्धि नहीं बनाती। बुद्धि तो केवल संबंधित तथ्यों का विश्लेषण भर कर देती है। किसी वस्तु का मूल्यांकन करना, यह कहना कि वह अच्छी या बुरी है, भावना का काम है, बुद्धि का नहीं। बुद्धि हमें प्रेरित नहीं कर सकती, वह केवल तथ्यों के हमारे ज्ञान को सुस्पष्ट कर देती है। हमारी क्रियाओं के लिए प्रेरणा तो भावना से ही मिलती है।
एडम स्मिथ के विचार
ये 18वीं सदी के ब्रिटिश आर्थिक चिंतक थे।- मानव की एक नैसर्गिक प्रवृत्ति होती है, दूसरों का ख्याल रखना और इसके पीछे कोई दूसरा कारण नहीं होता सिवाय कि दूसरों को प्रसन्न देखकर वह स्वयं प्रसन्न होता है।
- मानव की यह प्रवृत्ति उसे नैतिकता की और ले जाती है।
यद्यपि प्रत्येक मानव स्वहितों में कार्य करता है लेकिन वह अंततः सर्वहितों को बल प्रदान कर देता है अर्थात् उसके स्वहित के कार्य भी समाज को लाभ पहुँचाते हैं।
प्रत्येक आर्थिक तंत्र का एक नैतिक आधार होता है ओर प्रत्येक व्यवसाय एक नैतिक चुनौती होती है क्योंकि इसमें यह सुनिश्चित करना होता है कि इसमें दोनों पक्षों को निष्पक्ष रूप से लाभ हो।
उनका विचार कि निष्पक्षता, उदारवादिता किसी भी आर्थिक व्यवस्था का केंद्र होता है।
डमैनअल कांट के विचार
इनके नैतिक सिद्धांत को 'नैतिक विशुद्धतावाद' कहा जाता है। इनका सिद्धांत मानव समाज के लिए एक आदर्श रहा है, जिससे निर्णय प्रक्रिया में हमेशा ही मानव समुदाय को मदद मिलती रही है। मानव व्यवहार के क्षेत्र में कांट के योगदानों को उसके सूत्रों द्वारा समझा जा सकता है। कांट की गणना पाश्चात्य दर्शन के नैतिक चिंतन के क्षेत्र में महानतम दार्शनिकों में होती है। कहा जाता है कि 'कांट की बौद्धिकता नैतिकता से पोषित है।' वास्तव में कांट को नैतिकता के स्वतः साध्य के रूप में सिद्ध करने, इसे धर्म से स्वतंत्र करने, नैतिक नियमों को सार्वभौमिक रूप से परिभाषित करने का तथा मनुष्य को गरिमा प्रदान करते हुए स्वत: साध्य के रूप में सिद्ध करने का श्रेय प्राप्त है।
कांट के अनुसार
- केवल उसी सिद्धांत के अनुसार काम करें जिसकी इच्छा आप उसी समय सार्वभौम नियम बन जाने की कर सकते हैं। कांट के सूत्र का अभिप्राय यह है कि यदि कोई काम हम करने लगें, तो यह अवश्य सोचना चाहिए कि यदि यह, सार्वभौम नियम बनने लायक है तो उसे उचित समझकर अवश्य करना चाहिए। इसी प्रकार जो कर्म सार्वजनिक नियम नहीं बन सकता, उसे अनुचित समझकर त्याग देना चाहिए। उदाहरण, शपथ तोडना ऐसा कार्य है जिसे सार्वभौम नियम नहीं बनाया जा सकता। यदि सब लोग शपथ भंग करने लगे तो फिर शपथ का कोई अर्थ नहीं रहेगा। अतः हमे उसी प्रकार काम करना चाहिए जिस प्रकार हम उन्हीं परिस्थितियों में दूसरे व्यक्तियों से आशा रखते हैं।
- कांट के अनुसार नैतिकता की तीन पूर्व मान्यताएँ हैं:
(i) इच्छा स्वातंत्र्य,
(ii) आत्मा की अमरता,
(iii) ईश्वर का अस्तित्व - ऐसा कर्म करें कि मानवता चाहे आपके अंदर हो या दूसरे के अंदर, सदैव साध्य बनी रहे, साधन नहीं। मनुष्य का आवश्यक धर्म उसकी विवेकशक्ति है। विवेक सभी मनुष्यों में सामान्य रूप से पाया जाता है, इसलिए सभी व्यक्तियों का मूल्य बराबर है। प्रत्येक व्यक्ति को एक-दूसरे के व्यक्तित्व का सम्मान करना चाहिए। प्रत्येक व्यक्ति साध्य है, उसे किसी का साधन नहीं बनना चाहिए। व्यक्ति को स्वयं सुखों की खोज में साधन नहीं बनना चाहिए। उसे किसी अन्य मनुष्य का इस्तेमाल भी अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए साधन रूप में नहीं करना चाहिए। सदैव अपने आपको पूर्ण बनाने की कोशिश करें और दूसरों के लिए अनुकूल परिस्थितियां बनाकर उसका सुखसाधन करें, क्योंकि आप दूसरे को पूर्ण नहीं बना सकते। कोई व्यक्ति केवल अपने को पूर्ण बना सकता है, दूसरों को पूर्ण बनाना उसके वश की बात नहीं। व्यक्ति स्वयं अपने संबंधों को नियंत्रित करके पूर्ण बन सकता है दूसरों के संबंधों को नियंत्रित नहीं कर सकता इसलिए दूसरों को पूर्ण बनाना भी किसी की क्षमता के बाहर है।
- साध्यों के सदस्य के रूप में कार्य करें । वस्तुतः कांट ने एक ऐसे आदर्श जगत की कल्पना की है जिसमें साध्यों का साम्राज्य रहता है। इस व्यवस्था में प्रत्येक व्यक्ति एक साध्य है, कोई भी साधन नहीं कहा जा सकता। विवेक सभी व्यक्तियों में समान रूप से निहित है, इसलिए सबका मूल्य बराबर है। यहां ऊंच-नींच का भाव नहीं है। यहां प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे की सुख-सुविधा का हमेशा ख्याल रखता है।
- कांट का कथन है कि मनुष्य में शरीर और आत्मा के साथ-साथ बुद्धि भी विद्यमान रहती है। बुद्धि न्यायाधीश के समान शरीर और आत्मा के मध्य न्याय करते हुए नैतिकता का निरपेक्ष आदेश देती है। यह आदेश 'कर्तव्य के लिए कर्त्तव्य' पर आधारित है।
सीजेयर बेकैरिया के विचार
ये 18वीं सही के इटैलियन चिंतक हैं।
- इन्होंने नैसार्गिक न्याय के विचार को प्रस्तुत किया।
- नैसर्गिक न्याय के अंतर्गत इन्होंने विचार दिया कि नैसर्गिक न्याय का तात्पर्य है न्याय का मानव प्रकृति के अनुरूप होना उसका विरोधी नहीं होना।
- उन्होंने मृत्युदंड और मानव यातनाओं का विरोध किया।
- बिकैरिया ने यह विचार दिया कि दंड संहिता नैसर्गिक न्याय के अनुरूप होना चाहिए, इसका विरोधी नहीं।
हीगल के विचार
हीगेल कहता है कि 'एक अच्छा व्यक्ति अक्सर हाँ तर्क से ज्यादा आवेग पर काम करता है और इसलिए कोई यदि कर्त्तव्य के आधार पर कार्य करता है तब निश्चित तौर पर वह, भले ही वह सही कर रहा हो, अधम चरित्र को दर्शाता है।' हीगेल का नीतिशास्त्र इस विचार पर केंद्रित है कि व्यक्ति के रूप में हमारा नैतिक सत्यनिष्ठा कुछ सार्वभौमिक नियमों के समूह के बजाय सामाजिक समुदाय पर आधारित है। वह कहता है कि नैतिकता का आधार सार्वभौमिक एवं अनिवार्य तर्कों का कानून नहीं है, परिवार का विशेष नियम एवं व्याख्या है। नैतिकता का विकास किसी व्यक्ति के आस-पास के विचारों से होता है। व्यक्ति की पृष्ठभूमि के आधार पर प्रत्येक व्यक्ति का अपना नैतिक का आदर्श होता है। नैतिकता के इस विचार को अत्यधिक व्यावहारिक माना जाता है।
हीगेल यह भी कहता है कि यदि कोई व्यक्ति संकट में फंस चुका है तो उसका अच्छा अंत नहीं हो सकता। हीगेल संभवतः पुराने प्रश्न को व्याख्यायित कर रहा है कि क्यों अच्छे लोगों के साथ बुरा होता है। वह कहता है कि कभी-कभी हमारा नैतिक अधिकार सुखद परिणाम की ओर नहीं ले जाता। मतलब यह कि हमें फल या परिणाम की चिंता ज्यादा नहीं करनी चाहिए बल्कि उन चुनावों पर ध्यान देना चाहिये जो कि उस परिणाम तक पंहुचने के लिए हम चुनते हैं।
मैक्स वेबर के विचार
ये जर्मन समाजशास्त्री और चितंक थे (19-20)वीं सदी में।- Ethics of Ultimate ends जिसका तात्पर्य है कि व्यक्ति को अच्छा कार्य करना चाहिए परिणामों को सोचे बगैर।
- Ethics of Responsibility इसका तात्पर्य है कि प्रत्येक व्यक्ति कार्यों और परिणामों के लिए व्यक्तिगत रूप से जिम्मेदार है।
- Administrative Ethics जिसके अंतर्गत वह विभिन्न विचार प्रस्तुत करता है
(i) प्रशासक को राजनीति से नहीं जुड़ना चाहिए।
(ii) प्रशासक की दृष्टि निष्पक्ष होनी चाहिए।
(iii) प्रशासक अपने कार्यों के लिए उत्तरदायी होता है।
(iv) प्रशासक को सदैव विधि का अनुसरण करना चाहिए।
(v) प्रशासक को अपने Superiour (वरिष्ठ) के आदेश का पालन करना चाहिए लेकिन यह आवश्यकहै कि वह आदेश विधिसंगत हो।
पॉल एच. एप्पलेबी के विचार
अमेरिकी प्रशासनिक चिंतक 20वीं सदी- इन्होंने 3 मुख्य नैतिकता सिद्धांतों अर्थात् Tenological, Deontological & Virtue Ethics के अंतर्गत Virtue Ethics पर बल दिया।
- इनका विचार कि प्रशासक की नैतिकता प्रशासक के स्व-अनुशासन और उसके अच्छे चरित्र से स्थापित होती है। लेकिन मात्र अच्छा चरित्र ही पर्याप्त नहीं है, इसे प्रजातांत्रिक तंत्र का समर्थन प्राप्त होना चाहिए।
- इन्होंने प्रजातांत्रिक नैतिकता का विचार प्रस्तुत किया और इसके अंतर्गत प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं पर बल दिया जैसे निर्वाचन, विधि का शासन इत्यादि।
- इनका विचार कि प्रशासक को सदैव प्रजातांत्रिक दाएरे में ही कार्य करना चाहिए।
- इन्होंने Big Democracy का विचार प्रस्तुत किया और इसके लिए उन्होंने Big Government को आवश्यक बताया। मतलब एक वृहद् प्रजातंत्र के लिए एक वृहद् सरकार की आवश्यकता है अर्थात् एक ऐसी सरकारी व्यवस्था जो सक्रिय, अनुशासित, कार्यकुशल, ईमानदार और जो सभी मामलों से जुड़े जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सार्वजनिक हितों को प्रोत्साहन देना।
यथार्थवादी चिंतक
- अंतर्राष्ट्रीय मामलों में राज्य मुख्य अभिकर्ता Main Actor है और राष्ट्रीय हित मुख्य मुद्दा होता है तथा शक्ति मुख्य साधन होता है।
- अंतर्राष्ट्रीय वातावरण प्रतियोगिता का वातावरण है और इसमें अराजकतावादी स्थिति है अर्थात् कोई प्रभावी नियंत्रण वाली व्यवस्था नहीं है। इसलिए राज्यों को मुख्यतः अपने हितों के लिए कार्य करना होता है और ऐसी स्थिति में अंतर्राष्ट्रीय माहौल में नैतिकता महत्व खो देती है।
- राज्य/राष्ट्र मुख्यतः "Hight Politics" से ही संबंधित होते हैं। Hight Politics का मतलब राजनैतिक-सैनिक-सुरक्षा संबंधी राजनीति।
- राष्ट्रों के द्वारा अपने हितों के लिए कार्य करना उसका अधिकार भी है और उसका कर्तव्य भी और यही उसके लिए नैतिक है। राष्ट्रीय हितों से समझौता करना अनैतिक है।
यथार्थवादी और उदारवादी चिंतक
- इस चिंतन में अंतर्राष्ट्रीय संबंध, मामलों और जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टि
- अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में नैतिक आदर्शों को महत्वपूर्ण माना गया है।
- अंतर्राष्ट्रीय विधि, अंतर्राष्ट्रीय संगठन के भूमिका को महत्वपूर्ण माना गया है।
- मानव अधिकारों और मानव गरिमा की सुरक्षा को महत्वपूर्ण माना गया है।
- राज्य केवल High Politics से ही नहीं जुड़ता जबकि Low Politics से भी जुड़ रहा है।
- यह हितों के बीच समन्वय की बात करता है।
- यह प्रजातांत्रिक शांति सिद्धांत पर बल देता है जिसका तात्पर्य है कि प्रजातांत्रिक आदर्शों का अनुसरण शांति स्थापित करती है।
सैद्धांतिक यथार्थवादी चिंतक
- इस चिंतन में यथार्थावाद और आदर्शवाद का एक संतुलित रूप है।
- इसमें आदर्शवाद के नैतिक मूल्य और यथार्थवाद के शक्ति राजनीतिक शक्ति दोनों ही तत्व निहित हैं।
- इसके अंतर्गत केंद्रीय विचार है राजनैतिक नैतिकता का अनुसरण और शक्ति का जिम्मेदार प्रयोग।