भारतीय हस्तशिल्प कला
हाथीदांत-देश के कलात्मक विकास में हाथीदांत से बनी वस्तुओं का काफी महत्त्व रहा है। हाथीदांत से बनी वस्तुओं का साक्ष्य हमें स®धव सभ्यता से ही प्राप्त होता है। इसमें अलंकरण के विशेष गुण थे। आभूषणों में इसका प्रयोग बड़े ही आकर्षक ढंग से किया जा सकता था एवम् इसकी कटाई द्वारा इसे आभूषणों में परिवर्तित भी किया जा सकता था। इस तरह यह धन तथा शुभ-शकुन दोनों की विषय-वस्तु बन गया। साथ ही इसको सुसज्जा के लिए भी प्रयोग किया जा सकता था। इसे काटकर लकड़ी पर जोड़ दिए जाने पर यह केवल लकड़ी की सतह को रूपांतरित ही नहीं करता अपितु उसे बहुमूल्य भी बना देता है।
विश्व प्रसिद्ध ग्रंथ ‘अर्थशास्त्र’ में हाथीदांत के लिए गहन जंगलों का सावधानीपूर्वक विकास करने पर बल दिया गया था, जिससे हाथियों की नस्ल में वृद्धि हो सके। चन्द्रगुप्त तथा सम्राट अशोक के काल में हाथीदांत कला नक्काशी, फलकों, पट्टों, उच्च प्रतिच्छायाओं पर, बड़ी आकृतियां अन्य उत्कृष्ट रूपों में चरमोत्कर्ष पर पहुंची। शुंगकाल में यह राजभवनों तथा विशिष्ट वर्गों की सीमाओं से निकलकर देश के सभी भागों में व्याप्त हो गई। ये वस्तुएं अब घरेलू उपयोग तथा धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयोग होने लगीं। कुषाण काल में, भारत में मध्य एशिया, विशेषतः पश्चिम से जोड़ने वाले सिल्क मार्ग द्वारा हाथीदांत से बनी वस्तुओं का क्षेत्रा और अधिक विस्तृत हुआ। आगे चलकर गुप्तकाल में हाथीदांत से बनी अनेक उत्कृष्ट मूत्र्तियों का प्रादूर्भाव हुआ, जिसमें महात्मा बुद्ध की आकर्षक मूत्र्ति के अतिरिक्त अनेक हिन्दू देवी-देवताओं की मूत्र्तियाँ भी थीं। मुगलकाल में हाथीदांत के प्रयोग पर अत्यधिक ध्यान दिया गया। जहांगीर के संस्मरणों से ज्ञात होता है कि हाथीदांत कला में पारंगत शिल्पकारों को बड़ी संख्या में राजदरबारों में नियुक्त किया जाता था। इस कला के अन्य अनेक विलक्षण उदाहरण आज भी, अमृतसर के स्वर्णमंदिर में दर्शन द्वारों, बीकानेर के गण मंदिरों के द्वारों, उदयपुर, जयपुर एवम् मैसूर के राजभवनों तथा देश के अन्य अनेक स्मारकीय भवनों में अलंकृतियों के रूप में देखे जा सकते है।
काष्ठ कार्य-आरंभ से ही भारत में प्राकृतिक संसाधनों का विपुल भंडार रहा है। यहाँ लकड़ी की अनेक किस्में उपलब्ध हैं तथा प्रत्येक किस्म की निजी संरचनात्मक क्षमता अथवा गुण होते है। सभ्यता के उषाकाल में ही मनुष्य के भीतर का कलाकार इस सामग्री को कोई ठोस रूप अथवा आकार देने के लिए उत्कंठित हुआ। तदुपरान्त, शीघ्र ही इससे एक अद्भूत सौन्दर्य जगत का निर्माण हुआ। आस-पास के वातावरण तथा छोटी से छोटी वस्तु को भी नक्काशी द्वारा सुन्दर बनाया जा सकता था।
काष्ठ शिल्प में मूर्तियों के निर्माण तथा वास्तुशिल्प के प्रयुक्त होने पर यह अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया। भारत में सदैव मूर्तियों का निजी जगत रहा है। जिसमें विज्ञान, सौन्दर्य बोध तथा समाज विज्ञान आदि विषय से संबंधित कृतियां होती थीं। आकृति निर्माण के संबंध में धार्मिक तत्व भी होते थे। मूर्ति निर्माण में महत्वपूर्ण तथ्यों का ध्यान रखा जाता था। आंतरिक भावों या मनोवैज्ञानिक तथ्यों का तो विशेष रूप से ध्यान रखा जाता था। इसमें कल्पना को मूर्त रूप देनेवाले तत्वों जैसे आकार, संतुलन, गुणधर्म तथा विशिष्टता के प्रतीकों के निर्धारण के नियम निश्चित होते थे। शिल्पकार की निर्मित कृति से अपेक्षित था कि वह उस भाव को अभिव्यक्त करने में समर्थ हो जो भाव संपूर्ण मूर्ति को स्पंदित एवम् गतिमान बनानेवाली लय से अनुप्रमाणित हो। यहां तक कि नरसिंह की अर्धसिंह तथा अर्धमानव रूपी अलौकिक एवम् विलक्षण प्रतिमा से परिचित प्रतीकों द्वारा उसका असामान्य रूप अभिव्यक्त होता है, जिसमें सिंह रूप में उसकी पाश्विक प्रवृत्ति तथा नर रूप में उसकी मानवीय प्रवृत्ति की झलक विद्यमान है।
हिमाचल प्रदेश में कुल्लू, कांगड़ा, चम्बा, किन्नौर तथा कश्मीर के भवनों तथा मंदिरों में काष्ठ-कार्य की उत्कृष्टता के कुछ प्राचीन उदाहरण आज भी उपलब्ध है। यहाँ घरों की ऊपरी मंजिल के छज्जों के प्रत्येक खंड को सूक्ष्म नक्काशी द्वारा सुसज्जित किया जाता था जो अत्यंत मनोहारी प्रतीत होता था। दरवाजों तथा खिड़कियों पर भी नक्काशी देखने को मिलती है। आज भी प्राचीन नगरों में उत्कृष्ठ काष्ठ-कला के नमूने व्यापक रूप से दिखाई दे जाते है। काष्ठ-नक्काशी के प्राचीनतम उदाहरणों में से एक महाराष्ट्र की ‘कार्ले’ गुफाओं में दृष्टिगोचर होता है। जहां लटकते हुए कमल के आकार वाले झूमर तथा झालर-सी बनाई गई है, जिसमें पाश्र्व अवलंब पर हाथी तथा घोड़ों की आकृतियों के रूप में नक्काशी की गई है।
धातु से निर्मित वस्तुएं-
हस्तशिल्प में धातु से निर्मित वस्तुओं का आरंभिक साक्ष्य मोहनजोदड़ो से प्राप्त (3 हजार ईसा पूर्व) नृत्यांगना की आकृति है। दिल्ली के कुतुबमीनार के निकट खड़ा गुप्तकालीन लौह-स्तंभ तथा उड़ीसा के कोणार्क सूर्य मंदिर की कड़ियां भारतीय शिल्पकारों द्वारा धातु के निर्भीक एवम् सफल प्रयोग के रूप में आज भी देखे जा सकते है। प्राचीन मत्स्य-पुराण में विभिन्न प्रकार की आवश्यकताओं की पूत्र्ति के लिए विभिन्न? प्रकार के संयोजनों एवम् सम्मिश्रणों का वर्णन मिलता है। जैसे तांबा और जस्ता के सम्मिश्रण से पीतल अथवा तांबा तथा रांगा के संयोग से कांस्य इत्यादि के रूप में मिश्र-धातुओं का निर्माण किया जाता था। तांबे तथा रांगे के संयोग से बनी कांस्य धातु ने संभवतः प्रतिमा-निर्माण की प्रमुख सामग्री के रूप में स्थान ले लिया था। आठ-धातुओं के सम्मिश्रण ‘अष्टधातु’ तथा पांच धातुओं के संयोग से बने ‘पंचलौह’ जैसी विविध प्रकार की धातुओं का प्रयोग प्रतिमा के सार्वभौम संबंध को स्थापित करने के लिए किया गया।
धातु से निर्मित वस्तुओं में से सबसे आकर्षक एवम् मोहक वस्तु खिलौना है। इसका निर्माण प्रचुर मात्रा में होता है तथा प्रत्येक क्षेत्रा की निजी विशेषताओं से युक्त होते है। धातु से बनी अन्य वस्तुओं में दीपदानों की गणना श्रेष्ठ कृति में होती है।
वस्त्रा कला-
शिल्पकारिता में सूती वस्त्र एवं रेशमी वस्त्र कला अत्यधिक उत्कृष्ट रहे है। इसका इतिहास भी काफी प्राचीन रहा है। हड़प्पा-काल के रेशम के धागे प्राप्त हुए है। प्राचीन मिश्रवासी कफन के लिए उच्चकोटि के भारतीय मलमल का आयात करते थे। ऋग्वेद में उस काल के कपड़ों का महत्त्वपूर्ण विवरण उपलब्ध है। अनेक प्राचीन ग्रंथों में विभिन्न प्रकार की वस्त्रा सामग्री का विस्तृत रूप से वर्णन मिलता है। जैसे कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ में तो, प्रयुक्त होने वाले भिन्न-भिन्न वस्त्रो की नामसूची भी दी गई है।
भारतीय बुनाई में कालीन का स्थान प्रमुख है। भारत में, वातावरण के कारणों से, विशेषतः सूत से फर्श ढकने की परम्परा अत्यधिक प्राचीन है। मुगलकाल में, ऊनी सूत से बने कालीन के प्रचुर उत्पादन ने महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त किया। आज भी भारत में व्यापक पैमाने पर खूबसूरत कालीन का निर्माण किया जाता है। कालीनों की डिजाइनें इंडोपर्शियन, मध्य एशिया, तुर्की यहां तक की फ्रांस से भी सम्बद्ध हो सकती है। आजकल कालीनों का निर्माण निर्यात की दृष्टि से भी किया जाता है।
आभूषण-
भारतीयों का आभूषण-प्रेम अति प्राचीन है। इसका निरन्तर विकास हड़प्पा सभ्यता से ही हुआ है। अथर्ववेद तथा यजुर्वेद में भी विभिन्न प्रकार के आभूषणों का वर्णन मिलता है। इन ग्रंथों में वर्णित आभूषणों में से प्रत्येक आज भी प्रचलित है। इसमें सोना, चाँदी, कांस्य, तांबा, अष्टधातु तथा इसके अलंकरण के लिए बहुमूल्य पत्थरों एवम् कांच का प्रयोग किया जाता था। माणिक, शंख, मोती, हाथीदांत, कांच तथा विभिन्न प्रकार के अन्य बहुमूल्य पत्थरों का प्रयोग भी प्रचुर मात्रा में किया जाता था।
लोक आभूषणों के अलंकरण में प्रयोग की जानेवाली प्राकृतिक वस्तुओं का भी उल्लेख मिलता है। बीज, सीपी, फूल-पत्तियों, सरस फल तथा गिरीदार फलों का प्रयोग प्रचुर मात्रा में किया गया। स्वर्ण अथवा चांदी से बने आभूषणों को भी इसी तरह सुसज्जित किया जाता है जैसे, कंगन पर चमेली की कली अथवा गलहार पर चंपक फूल या पक्षी का रूप देने के लिए पत्तियों को परस्पर गूंथ दिया जाता है।
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1. भारतीय हस्तशिल्प कला क्या है? |
2. हस्तशिल्प कला का इतिहास क्या है? |
3. भारतीय हस्तशिल्प कला के प्रमुख उदाहरण क्या हैं? |
4. हस्तशिल्प कला का महत्व क्या है? |
5. भारतीय हस्तशिल्प कला के प्रमुख प्रदर्शनी कौन-कौन सी हैं? |
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