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मौलिक अधिकार - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

समता का अधिकार

  • अनुच्छेद 14 से 18 तक समता का अधिकार अन्तर्विष्ट है, जो निम्न प्रकार है:
    • प्रत्येक व्यक्ति विधि के समक्ष समान है।
    • सभी व्यक्तियों को विधि का समान संरक्षण प्राप्त है।
    • राज्य किसी नागरिक के विरुद्ध केवल धर्म, मूलवंश, जाति-लिंग, जन्म-स्थान या इनमें से किसी के आधार पर कोई विभेद नहीं करेगा। लेकिन राज्य स्त्रियों और बालकों के लिए और सामाजिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़े हुए नागरिकों के किन्हीं वर्गों की उन्नति के लिए या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए कोई विशेष कानून बना सकेगा।
    • कोई नागरिक केवल धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, जन्म-स्थान के आधार पर दुकानों, सार्वजनिक भोजनालयों, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश या पूर्णतः या अंशतः राज्य द्वारा पोषित सर्वसाधारण के लिए कुओं, तालाबों, स्नानघरों, सार्वजनिक समागम के स्थानों या सड़कों के उपयोग के अयोग्य नहीं समझा जाएगा।
    • सभी नागरिकों के लिए राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में समानता होगी। परंतु इस प्रावधान के दो अपवाद है:

 (i) संसद किसी राज्य के अधीन निश्चित नियुक्तियों के संबंध में राज्य क्षेत्रा के भीतर निवास के विषय में शर्त लगा सकती है, तथा

 (ii) नागरिकों के पिछड़े वर्गों के लिए राज्य की नियुक्तियों में स्थान आरक्षित किया जा सकता है।

  • कोई भी व्यक्ति अस्पृश्य नहीं माना जाएगा तथा अस्पृश्यता का प्रयोग करने वाला व्यक्ति विधि के अनुसार दंडित किया जाएगा।
  •  सेना या विद्या संबंधी उपाधि के सिवाय राज्य और कोई उपाधि नहीं देगा। भारतीय नागरिक विदेशों से उपाधि नहीं ले सकता तथा भारत सरकार के नियोजन में कार्यरत विदेशी भी राष्ट्रपति की अनुमति बिना के विदेशी उपाधि नहीं ग्रहण कर सकते।

संवैधानिक उपचारों का अधिकार
(1) बन्दी प्रत्यक्षीकरण (Habeas Corpus) - अंग्रेजी शब्द ”हैबियस काॅर्पस“ का शाब्दिक अर्थ है ‘शरीर प्राप्त करना’। बन्दी प्रत्यक्षीकरण की याचिका (रिट) एक आदेश के रूप में होती है। इसमें उस व्यक्ति को आदेश दिया जाता है जिसने किसी व्यक्ति को बन्दी बनाया अथवा नजरबन्द किया है। इस रिट द्वारा न्यायालय उस व्यक्ति को सशरीर अपने सामने निश्चित समय और स्थान पर उपस्थित करने का आदेश देता है जिसे बन्दी बनाया गया है। वह दोनों पक्षों के तर्क सुनकर इस बात का निर्णय देता है कि उसका बन्दीकरण अथवा नजरबन्दी वैध है अथवा अवैध। यदि न्यायालय को यह लगे कि व्यक्ति को बन्दी बनाने का कोई औचित्य नहीं है तो वह उसे मुक्त करने का आदेश देता है।
इस रिट का उद्देश्य मूल अधिकारों में दिये गये दैहिक स्वतंत्राता के संरक्षण के अधिकार की व्यवस्था करना है। इससे व्यक्ति राज्य अथवा उसके अधिकारियों द्वारा मनमानी या जबरदस्ती गिरफ्तारी से स्वयं को बचाता है।
(2) परमादेश लेख (Mandamus) - इसका शब्दार्थ है ‘हम आज्ञा देते है’। इससे जिस व्यक्ति या निकाय को यह आदेश दिया जाता है उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह किसी कर्त्तव्य को करे। इसका तात्पर्य यह है कि जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजनिक कर्त्तव्य का पालन नहीं करता है तो इस आदेश द्वारा न्यायालय उसे उस काम को करने का आदेश देता है। उदाहरण के लिए यदि किसी कर्मचारी को उचित कारणों के आधार पर नौकरी से निकाल दिया जाता है तो भी कानून के अनुसार वह तीन माह का वेतन पाने का अधिकारी होता है। यदि उसे वेतन नहीं दिया जाए तो न्यायालय ‘परमादेश’ द्वारा इस संस्था को तीन माह का वेतन देने का आदेश देती है।

 (3) प्रतिषेध लेख (Prohibition) - इसका अर्थ है निषेध अर्थात् किसी काम के लिए मना करना। इसका उद्देश्य अधीनस्थ न्यायालयों को अपनी अधिकार सीमा में रहने का आदेश दिया जाता है।
 यह आज्ञापत्रा सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों द्वारा अपने अधीनस्थ (अवर) न्यायालयों को उन्हें किसी काम को करने से रोकने के लिए दिया जाता है। उदाहरण के लिए उच्च न्यायालय जिला न्यायालय को यह आदेश देता है कि यह विवाद आपकी अधिकार सीमा में नहीं है, इनकी सुनवाई न की जाए। यह आदेश अर्द्ध-न्यायिक संस्थाओं को भी दिये जा सकते है।
(4)उत्प्रेषण लेख (Writ of Certiorari) - इसका शब्दार्थ है ‘पूर्णतया सूचित होना’। इस रिट द्वारा उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय अपने अधीनस्थ न्यायालयों को यह आदेश देते हैं कि अमुक विवाद के संबंध में वे ‘पूर्णतया सूचित होना’ चाहते हैं। वह अधीनस्थ न्यायालयों से उच्च न्यायालय कोई विवाद, स्वयं के निर्णय के लिए अपने पास बुला सकता है।
(5) अधिकार पृच्छा (Quo-Warranto) - इसका शब्दार्थ है ‘किस अधिकार से’।
जब कोई व्यक्ति किसी सार्वजनिक पद पर पदाधिकारी के रूप में कार्य करता है जिसके रूप में उसे वैधानिक अथवा कानूनी रूप से करने का अधिकार नहीं है तो न्यायालय इस आदेश द्वारा उससे यह पूछता है कि संबंधित कार्य वह किस अधिकार से कर रहा है। व्यक्ति से संतोषजनक उत्तर प्राप्त न होने पर वह उसे पद त्याग करने के लिए कह सकता है। यह आदेश निजी संस्थाओं पर लागू नहीं होता। इस अधिकार पृच्छा रिट द्वारा न्यायालय व्यक्ति के अवसर की समानता के अधिकार की रक्षा करता है।

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता

  • वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता का अर्थ है- शब्दों, लेखों, मुद्रणों, चित्रों या किसी अन्य प्रकार से अपने विचारों को व्यक्त करना। अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता में किसी व्यक्ति के विचारों को किसी ऐसे माध्यम से अभिव्यक्त करना सम्मिलित है जिससे वह दूसरों तक उन्हें संप्रेषित कर सके।
  • अनु. 19 में प्रयुक्त ‘अभिव्यक्ति’ शब्द इसके क्षेत्रा को बहुत विस्तृत कर देता है। विचारों को व्यक्त करने के जितने भी माध्यम है, वे अभिव्यक्ति पदावली के अंतर्गत आ जाते है। इस प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता में प्रेस की स्वतंत्राता भी सम्मिलित है। विचारों का स्वतंत्रा प्रसारण ही इस स्वतंत्राता का मुख्य उद्देश्य है। यह भाषण द्वारा या समाचार-पत्रों द्वारा किया जा सकता है।
  • अनु. 19 (1-क) में ‘जानने का अधिकार’(Right to know) भी शामिल है। इसमें सरकार के संचालन से संबंधित सूचनाएं जानने का अधिकार भी आता है। केवल आपवादिक मामले में जब देश की सुरक्षा अथवा लोकहित में आवश्यक हो तभी उनका प्रकटीकरण नहीं किया जा सकता है। लोकतांत्रिक सरकार एक खुली सरकार होती है जिसके विषय में जनता को जानने का अधिकार होता है।
  • वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता में विचारों के प्रसार की स्वतंत्राता सम्मिलित है और वह स्वतंत्राता विचारों के प्रसारण की स्वतंत्राता द्वारा सुनिश्चित है। उस स्वतंत्राता के लिए परिचालन की स्वतंत्राता उतनी ही आवश्यक है जितनी कि प्रकाशन की स्वतंत्राता। निस्संदेह परिचालन के बिना प्रकाशन का कोई महत्व नहीं होगा।
  • वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता केवल अपने ही विचारों के प्रसार की स्वतंत्राता तक सीमित नहीं है। इसमें दूसरों के विचारों के प्रसार एवं प्रकाशन की स्वतंत्राता भी सम्मिलित है जो प्रेस की स्वतंत्राता द्वारा ही संभव है।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता में प्रेस की स्वतंत्राता शामिल है; क्योंकि समाचार-पत्रा विचारों को अभिव्यक्त करने के माध्यम मात्रा ही है। प्रेस की स्वतंत्राता एक साधारण नागरिक की स्वतंत्राता से बढ़कर नहीं है और यह उन निर्बन्धनों के अधीन है जो अनु. 19 (2) द्वारा नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता पर लगाये गये है।
  • प्रेस की स्वतंत्राता में सूचनाओं तथा समाचारों को जानने का अधिकार भी शामिल है। प्रेस को व्यक्तियों से साक्षात्कार के माध्यम से सूचनाएं जानने की स्वतंत्राता है। किन्तु जानने की स्वतंत्राता आत्यंतिक नहीं है। प्रेस की जानने की स्वतंत्राता किसी व्यक्ति पर प्रेस को सूचना अथवा समाचार देने का कोई विधिक कर्त्तव्य अधिरोपित नहीं करती है। प्रेस नागरिकों से तभी सूचनाएं जान सकता है जब वे प्रेस को अपनी इच्छा से कोई बात बताना चाहते हों।
  • वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता को किसी भौगोलिक परिसीमा में नहीं बांधा जा सकता है। इस अधिकार का प्रयोग भारत की सीमा के भीतर ही नहीं वरन् विश्व के किसी देश की भूमि पर किया जा सकता है।
  • प्रेस की स्वतंत्राता का अर्थ है- सरकार की बिना पूर्व-अनुमति के अपने विचारों को प्रकाशित करना। अतः यदि कोई विधि विचारों के प्रकाशन पर पूर्व-अवरोध (Pre-Censorship) का प्रावधान करती है तो वह अनु. 19(1) द्वारा प्रदत्त स्वतंत्राता का अतिक्रमण करती है।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि ऐसी कोई विधि जो समाचार-पत्रों पर पूर्व-अवरोध का प्रावधान करती है या उनके परिचालन को कम करती है या उसके आरम्भ किये जाने को रोकती है या उनके चालू रहने के लिए सरकारी सहायता को आवश्यक बना देती है, वह अनुच्छेद 19(1-क) में प्रदत्त स्वतंत्राता का अतिक्रमण करती है; अतः अवैध है।
  • प्रेस की स्वतंत्राता औद्योगिक संबंधों को विनियमित करने वाले कानूनों के अधीन है। चूंकि प्रेस भी एक कारखाना है, इसलिए ऐसे कानून, जो उसमें काम करने वाले श्रमिकों और पत्राकारों की दशाओं के सुधार की दृष्टि से बनाए जाते है, अनु. 19(1-क) का उल्लंघन नहीं करते है।
  • इसी प्रकार प्रेस की स्वतंत्राता संसदीय विशेषाधिकारों के भी अधीन है। उच्चतम न्यायालय ने यह अभिनिर्धारित किया है कि कोई समाचार-पत्रा किसी सदस्य द्वारा विधानमंडल में दिये गये भाषण का वह भाग प्रकाशित नहीं कर सकता है जिसे स्पीकर के आदेश द्वारा कार्यवाही से निकाल दिया (expunged) गया है।
  • अनु. 19(2) में निम्नलिखित आधारों का उल्लेख है जिनके आधार पर वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता पर निर्बन्धन लगाये जा सकते है-

(i) राज्य की सुरक्षा: राज्य की सुरक्षा के हित में नागरिकों के वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता पर युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते है। संशोधित अनु. 19(2) में ‘राज्य सुरक्षा’ पदावली के पहले ”उसके हित में“ (in the interest) वद्धि पदावली के प्रयोग का अर्थ यह है कि यदि किसी कार्य से राज्य सुरक्षा को खतरे की आशंका भी हो तो उसे करने पर रोक लगाया जा सकता है, भले ही उस कार्य से वस्तुतः देश की सुरक्षा को कोई आघात नहीं पहुँचता हो।
(ii)  विदेशी राज्यों के साथ मैत्राीपूर्ण संबंधः निर्बन्धन का यह आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा अनु. 19(2) में जोड़ा गया है। यह उपबंध केवल विदेशी राज्यों के संबंध में लागू होता है। संविधान के प्रयोजन के लिए ‘विदेशी राज्य’ में काॅमनवेल्थ के सदस्य सम्मिलित नहीं है। पाकिस्तान चूंकि काॅमनवेल्थ का सदस्य है, अतः इस प्रयोजन के लिए उसे विदेशी राज्य नहीं माना जाता है।
(iii) लोक व्यवस्था: संविधान के प्रथम संशोधन (1951) द्वारा अनु. 19(2) में ‘लोक व्यवस्था’ (Public order) पदावली को जोड़ा गया। संशोधन के परिणामस्वरूप अब लोक व्यवस्था का साधारण भंग या अपराध करने के लिए उकसाना भी इस स्वतंत्राता पर निर्बन्धन लगाने के लिए उचित आधार हो सकते है। ”लोक व्यवस्था के हित में“ पदावली केवल ऐसे कथनों तक सीमित नहीं है जो सीधे अव्यवस्था फैलाने के उद्देश्य से किए जाते है, बल्कि इसमें वे कथन शामिल है जिनमें अव्यवस्था फैलाने की प्रवृति होती है।
(iv) शिष्टाचार या सदाचार: ऐसे कथनों या प्रकाशनों पर जिनसे लोक-नैतिकता या शिष्टता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, सरकार निर्बन्धन लगा सकती है। ऐसे प्रकाशन, जो व्यक्तियों के मन में, जो उन्हें पढ़ते है, कामुक विचार और वासनामय इच्छा उत्पन्न करते है, अश्लील समझे जाते है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 292 से लेकर 294 तक नैतिकता एवं शिष्टता के हित में वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता पर निर्बन्धन लगाने का उपबंध करती है। ये धाराएं किसी व्यक्ति द्वारा सार्वजनिक स्थानों पर अश्लील प्रकाशनों को बेचने, प्रचार या प्रदर्शन करने, अश्लील कृत्यों का करने, अश्लील गानों या अश्लील भाषणों आदि का प्रतिषेध करती है। किन्तु भारतीय दण्ड संहिता में ‘अश्लीलता’ की कोई कसौटी नहीं दी गई है।
(v) न्यायालय का अवमान: -  न्यायालय अवमान अधिनियम, 1971 की धारा 2 के अनुसार ‘न्यायालय अवमान’ के अंतर्गत सिविल और आपराधिक दोनों प्रकार के अवमान शामिल है। ‘सिविल अवमान’ का अर्थ है जान-बूझकर न्यायालय के फैसले, डिक्री, निदेश, आदेश, रिट या उसकी किसी प्रक्रिया की अवहेलना या न्यायालय को दिये गये वचन को जान-बूझकर भंग करना। ‘आपराधिक अवमान’ से तात्पर्य ऐसे प्रकाशनों (चाहे वे मौखिक, लिखित या किसी माध्यम से हों) से है, जो-
(अ) न्यायालयों या न्यायाधीशों की निन्दा की प्रवृत्ति वाला या उसके प्राधिकार को कम करने वाला हो, या
(ब) जो पक्षपात का लांछन लगाता हो या न्यायिक कार्यवाहियों में हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप करने की प्रवृत्ति वाला हो, या
(स) किसी भी प्रकार से न्याय प्रशासन के कार्य में हस्तक्षेप करता हो या हस्तक्षेप की प्रवृत्ति वाला हो या इस कार्य में अवरोध करता हो या अवरोध की प्रवृत्ति वाला हो।

  •  किन्तु निम्नलिखित कृत्यों से न्यायालय का अवमान नहीं होता है-

(क) निर्दोष प्रकाशन और उसका वितरण,
(ख) न्यायिक कार्यवाहियोंüका उचित और सही प्रकाशन,
(ग) न्यायिक कृत्य की उचित आलोचना,
(घ) न्यायाधीशों के विरुद्ध ईमानदारी से की हुई शिकायत,
(ङ) वाद की न्यायिक कार्यवाहियों का सही प्रकाशन।

  •  ‘न्यायालय अवमान’ के लिए अधिनियम में 6 महीने का कारावास या 2000 रुपये तक का आर्थिक दण्ड या दोनों दिया जा सकता है। अधिनियम के अधीन न्यायाधीशों,
  • न्यायाधीशों, मजिस्ट्रेटों या न्यायिक कृत्य करने वाले व्यक्तियों को भी अपने ही न्यायालय के अवमान के लिए साधारण व्यक्तियों की ही भांति दण्डित किया जा सकता है। 

(vi) मानहानि: कोई भी ऐसा कथन या प्रकाशन, जो किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचता है, मानहानि कहलाता है। उक्त कथन या प्रकाशन पर अनु. 19(2) के अंतर्गत युक्तियुक्त निर्बन्धन लगाये जा सकते है। भारतीय दण्ड संहिता की धारा 419 में मानहानि से संबंधित विधि दी हुई है।
(vii)  अपराध-उद्दीपन: यह आधार संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया है। वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्राता किसी व्यक्ति को इस बात का अधिकार नहीं देती कि वे लोगों को अपराध करने के लिए भड़कायें या उकसायें। अपराध करने की उत्तेजना देने वाले भाषणों को विधि द्वारा रोका एवं दण्डित किया जा सकता है।
(viii) भारत की संप्रभुता एवं अखण्डता: - यह आधार अनु. 19(2) में संविधान के सोलहवें संशोधन अधिनियम, 1963 द्वारा जोड़ा गया है। इसके अंतर्गत ऐसे कथन के प्रकाशन पर निर्बन्धन लगाया जा सकता है जिससे भारत की अखण्डता एवं संप्रभुता पर किसी प्रकार की आंच आती हो या भारत के किसी भाग को संघ से पृथक् होने के लिए उकसाया जाता हो

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FAQs on मौलिक अधिकार - भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. मौलिक अधिकार क्या है?
उत्तर: मौलिक अधिकार एक व्यक्ति के अधिकारों और स्वतंत्रताओं का संरक्षण करने का अधिकारिक और सांसदिक प्रक्रिया है। यह भारतीय संविधान द्वारा निर्धारित किया गया है और हर नागरिक को समान अधिकारों का लाभ उठाने का अधिकार देता है।
2. मौलिक अधिकार किसके द्वारा संरक्षित किए जाते हैं?
उत्तर: मौलिक अधिकार भारतीय संविधान द्वारा संरक्षित किए जाते हैं। संविधान ने भारत के नागरिकों को विभिन्न मौलिक अधिकार जैसे स्वतंत्रता, जीवन, स्वतंत्रता, भाषण, समानता, संघर्ष में हिस्सेदारी, राजनीतिक भाषा में स्वतंत्रता, धर्म, संगठन, संघर्ष और अधिकारों का संरक्षण करने का अधिकार दिया है।
3. मौलिक अधिकार कैसे संरक्षित किए जाते हैं?
उत्तर: मौलिक अधिकार को भारतीय न्यायपालिका, संघ और राज्य शासन द्वारा संरक्षित किया जाता है। न्यायपालिका भारतीय संविधान के माध्यम से मौलिक अधिकारों की संरक्षा करती है, संघ और राज्य शासन अपने क्षेत्र के नागरिकों के मौलिक अधिकारों की संरक्षा करते हैं।
4. मौलिक अधिकार क्यों महत्वपूर्ण हैं?
उत्तर: मौलिक अधिकार महत्वपूर्ण हैं क्योंकि वे नागरिकों को स्वतंत्रता, समानता, और अधिकारों की सुरक्षा के लिए आवश्यक होते हैं। यह नागरिकों को अपने विचारों को व्यक्त करने, अदालत में न्याय प्राप्त करने, धर्मानुयाय करने और अन्य अधिकारों का लाभ उठाने का अधिकार देते हैं।
5. मौलिक अधिकार के उदाहरण क्या हैं?
उत्तर: मौलिक अधिकार के उदाहरण निचे दिए गए हैं: - स्वतंत्रता का अधिकार - जीवन का अधिकार - स्वतंत्रता का अधिकार - समानता का अधिकार - भाषण का अधिकार - धर्म का अधिकार - संघर्ष में हिस्सेदारी का अधिकार - राजनीतिक भाषा में स्वतंत्रता का अधिकार - संगठन का अधिकार - अधिकारों का संरक्षण करने का अधिकार
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