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राज्य के नीति निर्देशक तत्व - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

नीति निर्देशक तत्वों की प्रकृति

  • संविधान के भाग चार में अंकित सिद्धान्तों का क्षेत्रा बहुत व्यापक है। इसके तहत राष्ट्रीय जीवन के प्रत्येक क्षेत्राµसामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक व प्रशासनिक के साथ ही साथ अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा का भी उल्लेख किया गया है।
  • निर्देशक सिद्धान्तों को अदालतों द्वारा लागू नहीं करवाया जा सकता। निर्देशक सिद्धांतों का उद्देश्य न्याय की स्थापना है, पर इनके पीछे कोई ऐसी कानूनी शक्ति नहीं है जिसके द्वारा राज्य को इनका पालन करने के लिए बाध्य किया जा सके।
  •  निर्देशक सिद्धान्त देश के शासन में आधारभूत स्थान रखते है। यद्यपि ये सिद्धान्त न्यायालयों द्वारा लागू नहीं होते तथापि वे देश के शासन में मौलिक स्थान रखते है।
  • कानून बनाते समय इनका प्रयोग करना राज्य का कर्त्तव्य होगा। यहां ‘राज्य’ से अभिप्राय सभी राजनीतिक सत्ताओं से है। संसद, राज्यों के विधानमण्डल, नगर निगम, जिला बोर्ड, पंचायतों और शासन के सभी अधिकारियों का यह कर्त्तव्य है कि इन आदर्शों को ध्यान में रखें और कानून या नियम बनाते समय इनको अमल में लाएं।
  • 25वें संशोधन (1971) द्वारा संविधान में एक नया अनुच्छेद (31ब्) जोड़ा गया जिसके अन्तर्गत यह व्यवस्था की गई है कि अनुच्छेद 39(इ) व 39(ब) को अमल में लाने के लिए यदि कोई कानून बनाया जाता है, तो उसे इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकेगी कि वह मौलिक अधिकारों के विरुद्ध है। ये दोनों अनुच्छेद धन के न्यायसंगत वितरण की घोषणा करते है। 42वें संशोधन (1976) द्वारा अन्य निर्देशक सिद्धान्तों को भी इसी कोटि में रख दिया गया। इन संशोधनों के फलस्वरूप ऐसे कानून बनाए जा सकते थे जो मूलभूत अधिकारों का उल्लघंन करते है। परन्तु उच्चतम न्यायालय ने मिनर्वा मिल्स केस (1980) में 42वें संशोधन अधिनियम की इस व्यवस्था को अवैध घोषित कर दिया है कि सभी निर्देशक सिद्धान्तों का दर्जा मौलिक अधिकारों से ऊपर है।

नीति निदेशक तत्वों का वर्गीकरण

  • संविधान के अनुच्छेद-38 में लोक कल्याणकारी एवं समाजवादी राज्य की स्थापना हेतु प्रावधान है। इस अनुच्छेद में संविधान की प्रस्तावना की प्रतिध्वनि सुनायी देती है। इसमें कहा गया है कि राज्य ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना करे जिससे सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय जनता को प्राप्त हो सके। 44वें संशोधन (1978) द्वारा इस अनुच्छेद के खण्ड-2 की स्थापना की गयी। अब अनुच्छेद-38(2) के अनुसार ”राज्य विशिष्टतया आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा और अवसरों की समानता स्थापित करने का प्रयास करेगा।“
  • अनुच्छेद-39 में प्रावधान है कि राज्य सभी नागरिकों को समान रूप से जीवन निर्वाह के साधन उपलब्ध करायेगा। अर्थव्यवस्था का संचालन इस प्रकार करेगा कि धन, संपत्ति एवं उत्पादन साधनों का जनहितों के प्रतिकूल केन्द्रीकरण न हो। आर्थिक क्षेत्रा में मजदूर स्त्रियों तथा बालकों को संरक्षण प्रदान करने हेतु यह सुनिश्चित करेगा कि स्त्रियोंव पुरुषों को समान कार्य के लिए समान वेतन प्राप्त हो।
  • अनुच्छेद-40 के अनुसार, स्वायत्त शासन की इकाइयों  के रूप में ग्राम पंचायतों के संगठन का प्रावधान है। इस अनुच्छेद के अनुसार राज्य का यह दायित्व हो जाता है कि वह देश में पंचायती राज से संबंधित संस्थाओं का संवर्धन और विकास करे।
  • अनुच्छेद-43 के अनुसार, राज्य को यह अधिकार होगा कि वह उपयुक्त कानून निर्माण द्वारा अथवा आर्थिक गठन द्वारा सभी मजदूरों की जीविका के लिए यथेष्ट मजदूरी एवं कार्य के लिए अनुकूल परिस्थितियों को प्रदान करने का प्रयास करेगा।
  •  राज्य ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करेगा जिससे उन्हें जीवन स्तर की श्रेष्ठता, अवकाश के समय का पूर्ण उपयोग तथा सामाजिक एवं सांस्कृतिक अवसर प्राप्त करना निश्चित हो सके। 1976 में 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा एक नया अनुच्छेद-43क जोड़ा गया, जिसके द्वारा यह व्यवस्था की गई कि राज्य उचित विधान के अन्तर्गत मजदूरों की प्रबंध में भागीदारी निश्चित करेगा।
  • अनुच्छेद-44 कानूनी पहलू पर जोर देता हुआ राज्य को सभी नागरिकों के लिए एक समान विधि संहिता बनाने का निर्देश देता है जिसके बिना नागरिकों में समानता एवं राष्ट्रीय समाकलन, सुदृढ़ता व एकता की भावना विकसित नहीं हो सकती। अनुच्छेद-45 में यह कहा गया है कि संविधान लागू होने के समय से 10 वर्ष के अंदर राज्य सभी 14 वर्ष तक की आयु के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध करायेगा।
  • अनुच्छेद-46 के अन्तर्गत राज्य समाज के दुर्बल अंगों  विशेषतः अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के शैक्षिक एवं आर्थिक हितों की उन्नति में विशेष सावधानी रखेगा और उन्हें सामाजिक अन्याय एवं सभी प्रकार के शोषण से संरक्षण प्रदान करेगा।
  • अनुच्छेद-47 के अनुसार राज्य का यह कर्तव्य होगा कि वह स्वास्थ्य के लिए पौष्टिकता एवं जीवनयापन का स्तर ऊँचा करने का प्रयास करे, विशेषकर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक मादक पेय और अन्य मादक पदार्थों के सेवन पर प्रतिबंध लगाये।
  • अनुच्छेद-48 के अनुसार राज्य कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों से संगठित करने का प्रयास करेगा और विशेषकर गायों और बछड़ों तथा दुधारू और वाहक पशुओं की नस्लों के परीक्षण और उनके वध को प्रतिषिद्ध करने के लिए कदम उठाएगा।

42वें संविधान संशोधन, 1976 द्वारा अनुच्छेद-48 में एक नया अनुच्छेद 48। जोड़ा गया और प्रावधान किया गया कि ‘राज्य देश के पर्यावरण की रक्षा और उसमें सुधार का प्रयास करेगा। राज्य के द्वारा वन्य जीवन की सुरक्षा का प्रयास भी किया जायेगा।’

  •   अनुच्छेद- 49 के अनुसार ”राज्य संसद द्वारा राष्ट्रीय महत्व के घोषित प्रत्येक स्मारक या वस्तु को जिसका ऐतिहासिक एवं कलात्मक महत्व है उसे दूषित होने, स्थानांतरण किये जाने या बाहर भेजे जाने से सुरक्षित रखेगा।“
  • अनुच्छेद-50 के अन्तर्गत कार्यपालिका को न्यायपालिका से पृथक करने की व्यवस्था की गई है। राज्य के द्वारा इसके लिए प्रयास किया भी गया है।
  •  संविधान के अनुच्छेद-51 में राष्ट्रीय स्तर से ऊपर उठकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर से संबंधित राज्य के कर्तव्यों का उल्लेख किया गया है। इस अनुच्छेद में ‘राज्य’ का यह कर्तव्य निश्चित किया गया है कि वह अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा में वृद्धि कर नई दिशा देने का प्रयास करे, विभिन्न राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण एवं सम्मानपूर्ण संबंध बनाये रखने का प्रयास करे। साथ ही राज्य राष्ट्रों के आपसी व्यवहार में अंतर्राष्ट्रीय कानून और संधियों के प्रति सम्मान की भावना में वृद्धि तथा अंतर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा सुलझाने का प्रयास करे।
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FAQs on राज्य के नीति निर्देशक तत्व - भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. राज्य के नीति निर्देशक तत्व क्या हैं?
Ans. राज्य के नीति निर्देशक तत्व भारतीय राजव्यवस्था में एक महत्वपूर्ण अवधारणा हैं। इन तत्वों का उद्देश्य नीति निर्माण और नीति के प्रत्यायोजन का निर्धारण करना है ताकि राज्य सरकार अपने कार्यों को संगठित और सुविधाजनक ढंग से संचालित कर सके। ये तत्व नीतियों के रूप में व्यक्त होते हैं और सरकारी नीतियों की तैयारी, प्रशासनिक कार्यवाही और नीति निर्माण के प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
2. भारतीय राजव्यवस्था में UPSC क्या हैं?
Ans. UPSC (यूपीएससी) भारतीय राजव्यवस्था के महत्वपूर्ण एजेंसी के रूप में जानी जाती हैं। इसका पूरा नाम संघ लोक सेवा आयोग हैं। UPSC का प्रमुख कार्य संघ लोक सेवा परीक्षा, जिसे भारतीय नागरिकों के लिए अधिकारी और संघीय सेवाओं में नियुक्ति के लिए आवेदन करने का एक मान्यता प्राप्त परीक्षा हैं, का आयोजन करना हैं।
3. भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) क्या हैं और कैसे बने सकते हैं?
Ans. भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) भारतीय नागरिकों के लिए सबसे प्रतिष्ठित संघीय सेवा हैं। IAS अधिकारी संघीय सरकारी विभागों में सबसे ऊच्च पदों पर काम करते हैं। IAS अधिकारी की नियुक्ति UPSC के द्वारा आयोजित संघ लोक सेवा परीक्षा के माध्यम से होती हैं। इस परीक्षा के लिए योग्यता, उम्र सीमा और अन्य पात्रता मानदंडों को पूरा करना आवश्यक होता हैं। योग्यता पूरी होने के बाद, उम्मीदवारों को संघ लोक सेवा आयोग के द्वारा आयोजित तीन चरणों की परीक्षा (प्रारंभिक परीक्षा, मुख्य परीक्षा और साक्षात्कार) में सफलता प्राप्त करनी होगी।
4. राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का क्या महत्व हैं?
Ans. राज्य के नीति निर्देशक तत्वों का महत्वपूर्ण योगदान हैं भारतीय राजव्यवस्था के विकास में। इन तत्वों के माध्यम से नीति निर्माण की प्रक्रिया व्यक्त होती हैं और सरकारी नीतियों को व्यवस्थित ढंग से संचालित करने में मदद मिलती हैं। ये तत्व नीति निर्माण के लिए मार्गदर्शन प्रदान करते हैं, नीतियों के प्रत्यायोजन का निर्धारण करते हैं, नीति के प्रभाव का मूल्यांकन करते हैं, सामान्य नीति दिशा निर्देश तैयार करते हैं और नीति के लिए आवश्यक संसाधनों का निर्धारण करते हैं।
5. UPSC परीक्षा की तैयारी के लिए कौन-कौन सी बुक्स पढ़ी जा सकती हैं?
Ans. UPSC परीक्षा की तैयारी के लिए कई पुस्तकें उपलब्ध हैं। कुछ महत्वपूर्ण पुस्तकों के नाम निम्नलिखित हैं: - 'Indian Polity' by M. Laxmikanth - 'Indian Economy' by Ramesh Singh - 'India's Struggle for Independence' by Bipan
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