UPSC Exam  >  UPSC Notes  >  सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi  >  विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (भाग - 6) - सामान्य विज्ञानं

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (भाग - 6) - सामान्य विज्ञानं | सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

हब्बल दूरबीन: हब्बल दूरबीन में आये तकनीकी व्यवधान को दूर करने के प'चात् डिस्कवरी अन्तरिक्ष यान और अन्तरिक्ष वैज्ञानिक 28 दिसम्बर, 1999 को कैनेडी अन्तरिक्ष केन्द्र पर उतर गये। ज्ञातव्य हो कि 20 दिसम्बर, 1999 को डिस्कवरी को हब्बल दूरबीन की मरम्मत के लिए अन्तरिक्ष में भेजा गया था। दूरबीन के गायरोस्कोप तथा दिकसूचक यंत्रा में व्यवधान आ गये थे। गायरोस्कोप टेलिस्कोप को सीधा रखने में प्रयुक्त होता है।
तीन अरब की लागत वाली इस दूरबीन की लम्बाई 43 फुट एवं भार 112500 किलोग्राम है। यह अन्तरिक्ष पर निगाह रखने वाली शक्तिशाली दूरबीन है जिसने 13 नवम्बर '99 को काम करना बन्द कर दिया था। 22 दिसम्बर '99 को इसे यान की वेधशाला में ले जाकर मरम्मत की शुरुआत की गयी। इसके पूर्व डिस्कवरी यान का प्रक्षेपण नौ बार स्थगित किया गया था। इस अंतरिक्ष दूरबीन की तीसरी बार मरम्मत की गयी। इसके पहले 1993 में दूरबीन के आॅप्टिक लेंस में आयी खराबी दूर की गयी थी। 1997 में हब्बल की अन्तिम मरम्मत की गयी थी।
हब्बल निर्माण अभियान दल के अंतरिक्ष यात्राी स्टीव और जार्ज गुंस्फील्ड ने डिस्कवरी से बाहर जाकर इस दूरबीन को चुस्त दुरुस्त किया।
इन दोनों वैज्ञानिकों ने दूरबीन के रेडियो ट्रांसमीटर बदले और दूरबीन के पुराने रीयल टू रीयल माॅडल की जगह साॅलिड स्टेट रिकाॅर्डर लगाये। इसके अतिरिक्त 23 दिसम्बर '99 को मायकल फोयल और क्लौड निकोलियर नामक वैज्ञानिकों ने हब्बल में नया केंद्रीय कम्प्यूटर लगाया और दिशा निर्देशक को फिर से चमका दिया। 25 दिसम्बर को हब्बल को पुनः उसकी कक्षा में स्थापित कर दिया गया।

इस आॅपरेशन में 7 करोड़ डाॅलर मूल्य के उपकरण लगाये गये, जिनमें सुपर फास्ट कम्प्यूटर भी शामिल थे। यह पुराने कम्प्यूटर के मुकाबले 20 गुणा ज्यादा तेजी से कार्य करने में सक्षम है। इसके अतिरिक्त नये गायरोस्कोप, विद्युुत ताप को नियंत्रित करने वाली बैटरियां, नई निर्देशक इकाई, डेटा रिकार्डर, रेडियो ट्रांसमीटर तथा सौर ताप से बचाने के लिए स्टील की चादर भी चढ़ाई गयी। आठ दिवसीय इस अभियान में डिस्कवरी ने 51.5 लाख किलोमीटर की यात्रा की। प्रारम्भ में यह अभियान 10 दिनों का था परन्तु ‘वाई.के’ की समस्या एवं नववर्ष से पहले यान को उतारने की इच्छा के कारण उसके समय में कटौती की गयी और 28 दिसम्बर '99 को यह वापस लौट आया।
 

क्लोरोफ्लोरोकार्बन: क्लोरोफ्लोरोकार्बन ऐसे यौगिकों का व्यावसायिक नाम है जिनके मीथेनों, ईथेनों और ईथलीन के हर अणु में कम-से-कम एक फ्लोरीन परमाणु उपस्थित होता है। इस प्रकार के यौगिकों की संख्या बहुत बड़ी है। इसमें से डाईक्लोरोडाईफ्लोरोमीथेन अर्थात् रेफ्रीजरेंट.12 है। इसका प्रयोग मुख्य रूप से प्रशीतक के रूप में किया जाता है। ये दुर्गंधनाशक तथा प्रसाधक बनाने में भी उपयोग होते हैं। साथ ही क्लोरोफ्लोरोकार्बन में विलायन निर्मलन गुण भी होते हैं जिससे ये एरोस्पेस, इलेक्ट्राॅनिक और प्लास्टिक उद्योग में भी उपयोगी पाए जाते हैं।
आनुवंशिक अभियांत्रिकी: आनुवंशिक रोग के कारण कितने ही बच्चे जन्मजात वंशानुगत विकारों से ग्रस्त होते हैं जो उन्हें अपने माता-पिता से विरासत में मिलते हैं। इनमें अरक्तता तथा टै-सैक्स रोग ऐसे रोगों के आम उदाहरण हैं, लेकिन ऐसे बच्चों के अधिकांश माता-पिता चाहते हैैं कि उनकी संतान इन रोगों से पीड़ित न हो। इस सम्बन्ध में वे आनुवंशिक सम्बन्धी परामर्श चाहते हैं। ताकि भविष्य में उत्पन्न होने वाले उनके बच्चे ऐसे रोगों से पीड़ित न हों। यह सभी समस्याएं आनुवंशिक अभियांत्रिकी से ही दूर की जा सकती हैं। इस तकनीक से विकृत जीन को निकालकर उसके स्थान पर सामान्य जीन प्रतिरोपित किए जा सकते हैं।
 

मम्प्स: मम्पस एक संक्रामक रोग है जिसे वाइरस मिक्सोवाइरस पैरोटिडाइटिस नाम दिया गया है। यह वाइरस सबसे पहले हमारे ऊपरी 'वसन तंत्रा पर आक्रमण करता है। यदि यह रक्त वाहिकाओं के माध्यम से फैलता है तो इसकी ग्रन्थिल संरचनाएं, जैसे पैरोटिड ग्रन्थियों में बढ़ने की प्रवृत्ति होती है। वाइरस का संक्रमण मम्प्स के रोगी के सीधे सम्पर्क में आने से होता है एक बार रोगी से संक्रमण प्राप्त होने पर रोग के प्रकट होने  में कुछ समय लगता है। मम्प्स की अवस्था में 100 डिग्री फारेनहाइट बुखार रहता है। भूख लगनी बंद हो जाती है। सिर व कमर में दर्द शुरू हो जाता है। गालों पर सूजन आ जाती है।
 

संगरोध: संगरोध पशुओं के रोगों के प्रसारण को रोकने की एक विधि है। नए पशु को खरीदने के बाद पशु झुण्ड में सामान्यतया 15 दिन अलग रखा जाता है तथा बारीकी से उसका अध्ययन किया जाता है। इसी को संगरोध कहते हैं। इस दौरान यदि पशु किसी छूत अथवा संक्रामक रोग से पीड़ित होता है तो उसकी पूरी जानकारी हो जाती है। सामान्यतया रोगग्रस्त पुश के लिए संगरोध की अवधि 30 दिन होती है, किन्तु रैबीज आदि बीमारियों के लिए यह अवधि माह  तक होती है। विदेशों से क्रय किए हुए पशुओं के लिए संगरोध आव'यक होता है ताकि देश में कोई नई बीमारी न आने पाए। संगरोध के 23वें दिन परजीवियों से उत्पन्न होने वाली बीमारियों को समाप्त करने के लिए दवाएं दी जाती हैं तथा 25वें दिन बाह्य परजीवियों का विनाश किया जाता है। इस प्रकार एक फार्म, राज्य अथवा देश में क्रमशः दूसरे फार्म, राज्य अथवा देश से कोई रोग अथवा परजीवी प्रवेश नहीं कर पाते हैं।
 

फीरोमोन: ये कुछ बाह्यस्रावी ग्रंथियों द्वारा बाह्य वातावरण में स्रावित होने वाले रसायन हैं। इनकी विशिष्टता एक ही जाति के सदस्यों के बीच पारस्परिक आचरण को प्रभावित करते हैं। ये स्पर्श, दृष्टि एवं ध्वनि के बजाय, स्वाद एवं गंध द्वारा सदस्यों में परस्पर-सूचना संचारण का काम करते हैं। उदाहरणार्थµ कुछ कीट अपने संगम साथी को आकर्षित करने हेतु बाम्बीकोल या गीप्लूर का कुछ अपने साथियों को भोजन स्रोत, खतरे आदि की सूचना देने हेतु जिरेनियाल का और कुछ व्यस्क कीट अपने निम्फ एवं मादा को साथ रखने के लिए इनका स्रावण करते हैं। आजकल इन जैव रसायनों का उपयोग कीट नियंत्राण में किया जा रहा है।
 

कम्प्यूटर वाइरस: कम्प्यूटर वाइरस एक छोटा-सा प्रोग्राम है जो डिस्क में संचित आंकड़ों और प्रोग्राम को संक्रमित, गुणित या नष्ट कर सकता है, जब यह संक्रमित डिस्क प्रयोग में लाई जाती है, तो यह वाइरस प्रोग्राम कोड मेमोरी में स्वयं पहुंचकर कम्प्यूटर की संचालन प्रणाली पर नियंत्राण कर लेता है। इसके बाद यदि दूसरी नई डिस्क प्रयोग में लाई जाती है, तो यह वाइरस उसे भी संक्रमित कर लेता है। इस प्रकार कम्प्यूटर वाइरस एक ऐसी बाधा है जिसके कारण कम्प्यूटर न केवल कार्य करना बंद कर देता है, अपितु इसमें संकलित सामग्री को भी नष्ट कर देता है। कम्प्यूटर वाइरस कम्प्यूटर प्रौद्योगिकी के लिए चिंता का विषय माना जा रहा है। भारत में खोजा गया प्रथम कम्प्यूटर वायरस ‘सी ब्रेन’ था।
 

थायराॅयड ग्रंथि: थायराॅयड ग्रंथि 'वास नली के ऊपरी भाग में ध्वनि यंत्रा के नीचे स्थित स्थित होती है। इस ग्रंथि से हार्मोन “थायराॅक्सिन“ सा्रवित होता है जिसमें आयोडीन युक्त अमीनो अम्ल होते हैं। शरीर में आयोडीन की कमी होने पर यह ग्रंथि प्रायः आकार में बढ़ जाती है और गर्दन में लटकी दिखाई देती है। इस रोग का गलगंड या गाॅयटर कहते हैं। थायराॅक्सिन का मुख्य कार्य आॅक्सीकरण उपापचय की दर का नियमन करना है। इस हार्मोन की कमी से शरीर की वृद्धि अवरुद्ध हो जाती है। इस रोग को क्रेटिनिज्म कहते हैं। मानसिक विकास कम होता है। उदर बाहर निकल आता है। जननांग अल्पपरिवर्धित हो जाते हैं। रोग के प्रारम्भ में थायराॅक्सिन कैप्सूल खिलाने से यह लक्षण दूर हो जाते हैं। इस हाॅर्मोन की अधिकता से उपाचयी आक्सीकरण की सामान्य दर में 40% से भी अधिक की वृद्धि हो जाती है। शरीर में गर्मी बढ़ जाती है, पसीना अधिक आता है, हृदय की धड़कन की दर बढ़ जाती है।
 

ओजोन होल: रेफ्रीजरेटर प्लांटों में शीतकारक उपकरणों के उद्योग से निरन्तर निकलने वाली क्लोरोफ्लोरो कार्बन गैस निष्क्रिय होती है और अपघटित नहीं होती। यह वायुमंडल के ऊपर पाए जाने वाले ओजोन गैस के आवरण तक पहुँच जाती है। यह आवरण सौर विकिरणों (कास्मिक विकरणों) को अवशोषित कर जीव जगत् के लिए संरक्षी कवच का कार्य करता है। क्लोरोफ्लोरोकार्बन ने ओजोन से अभिक्रिया कर ओजोन कवच के कई क्षेत्रों में पतला करके उसमें बड़े छेद कर दिए हैं। जीव जगत् के कास्मिक किरणों के घातक प्रभाव से ग्रसित होने की सम्भावना बढ़ती जा रही है। इसके घातक प्रभाव गुणसूत्रों में जीन में परिवर्तन कर जातियों के अस्तित्व उनकी वंशागति को खतरे में डाल रहे हैं।

एन्ट्राॅपी: साधारणतः किसी तंत्रा की एन्ट्राॅपी उस तंत्रा की अव्यवस्था की माप होती है और कोई ऐसा परिवर्तन जिसके फलस्वरूप उस तंत्रा की अव्यवस्था बढ़ जाए, तो उसकी एन्ट्राॅपी भी बढ़ जाती है। उष्मागतिकी के अनुसार किसी निकाय की एन्ट्राॅपी उत्क्रमणीय रुद्धोष्म प्रक्रम में स्थिर रहती है। अनुत्क्रमणीय प्रक्रम में निकाय की एन्ट्राॅपी में वृद्धि होती है। सभी प्राकृतिक प्रक्रम अनुत्क्रमणीय होते हैं। अतः प्रत्येक ऐसे प्रक्रम में एन्ट्राॅपी बढ़ती है अर्थात निकाय की अव्यवस्था में वृद्धि होती है।
समीकरण के रूप में किसी निकाय के एन्ट्राॅपी परिवर्तन को निम्नलिखित रूप में व्यक्त किया जाता है
ds = dQ/T.
इसमें ds के निकाय की एन्ट्राॅपी में अंततः सूक्ष्म परिवर्तन तथा dQ  केल्विन ताप T  पर निकाय को दी जाने वाली ऊष्मा की मात्रा है।
कोंटर वायर: ‘कोंटर वायर’ एक नवीनतम वायरस टीका है, जिसका विकास भारतीय मूल के अमेरिकी न्यूरोलाॅजिस्ट सतीश आप्टे ने किया है। इस टीके में प्रतिरक्षण के प्रभावी गुण हैं और इससे तरह-तरह के रोगों का इलाज किया जा सकता है, जिसमें एड्स एच.आई.वी. का इलाज भी शामिल है। सतीश आप्टे का मानना है कि यह टीका किसी व्यक्ति के पूर्ण रूप से एड्स पीड़ित होने से काफी पहले एच.आई.वी. वायरस का इलाज करने में सहायक सिद्ध हो सकता है। इसमें किसी भी व्यक्ति को मात्रा दो सुइयां देने की जरूरत पड़ती है।
सेरोजाट: ‘सेरोजाट’ शर्मीलापन दूर करने की दवा है, जिसको हाल ही में ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने विकसित किया है। यह दवा मस्तिष्क के भीतर सेरोटोनिन नामक रसायन के स्तर में वृद्धि करता है। यह रसायन व्यक्ति के आत्मविश्वास में वृद्धि करता है। परीक्षण के दौरान इस दवा का सेवन शुरू करने के एक सप्ताह के भीतर ही लोगों की स्थिति में काफी सुधार दर्ज किया गया। इस दवा का विपणन ब्रिटिश दवा कम्पनी ‘स्मिथक्लाइन बीकैम’ द्वारा किया जाएगा।
कम्प्यूटर: कम्प्यूटर शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी के कम्प्यूट शब्द से मानी जाती है जिसका अर्थ ‘गणना करना’ है अर्थात् कम्प्यूटर एक ऐसा संगणक या विश्ेलषक है, जो गणितीय तथा अगणितीय सभी प्रकार की सूचनाओं का विश्लेषण करता है। तकनीकी दृष्टि से कम्प्यूटर के निम्नलिखित चार कार्य हैं

  • डेटा संकलन।

  • डेटा संचयन।

  • डेटा संसाधन।

  • डेटा निर्गमन या पुनर्निर्गमन।

कम्प्यूटर के मुख्यतः तीन अवयव होते हैं- 

  • हार्डवेयर ;साॅफ्टवेयर ;ह्यूमेनवेयर  
    इसके अतिरिक्त कम्प्यूटर में तीन इकाइयां होती हैं। जो निम्नलिखित हैं-

  • केंद्रीय संसाधन इकाई

  • निवेश/निर्गम इकाई

  •  स्मृति इकाई

कम्प्यूटर नेटवर्किंग: जब अनेक कम्प्यूटरों को आपस में जोड़ दिया जाता है, तो उसे कम्प्यूटर नेटवर्किंग कहते हैं। नेटवर्किंग हो जाने के बाद कम्प्यूटरों की कार्यक्षमता बढ़ जाती है। नेटवर्किंग हो जाने पर  कम्प्यूटर डेटाबेस में रखी सूचनाओं को आपस में बांट सकते हैं, कन्ट्रोल फाइल तक पहुंचा सकते हैं तथा जरूरत पड़ने पर दूसरे प्रोसेसरों से प्रोग्राम भी ले सकते हैं।
नेटवर्किंग मुख्यतः दो प्रकार का होता है-

  • वाइड एरिया नेटवर्किंग।

  • लोकल एरिया नेटवर्किंग

शक्ति.98 अभियान: राजस्थान के पोखरन क्षेत्रा में 11 व 13 मई, 1998 को भारत ने क्रमशः 5 परमाणु परीक्षण किए, जिसे ‘शक्ति.98 अभियान’ का नाम दिया गया। शक्ति.98 अभियान के अन्तर्गत परमाणु परीक्षणों की क्षमता निम्नवत् है- 
        तिथि                    क्षमता          प्रक्रिया

(i)  11 मई, 1998     43 किलोटन    थर्मो न्यूक्लियर प्रक्रिया
 (ii) 11 मई, 1998      15 किलोटन       विखण्डन प्रक्रिया
 (iii) 11 मई, 1998    0.2 किलोटन    लो यील्ड प्रक्रिया
 (iv) 13 मई, 1998    0.3 किलोटन    लो यील्ड प्रक्रिया
 (v ) 13 मई, 1998    0.5 किलोटन    लो यील्ड प्रक्रिया


11 मई, 1998 को विखण्डन प्रक्रिया द्वारा किया गया परीक्षण, 1974 के समान ही था। इसमें अस्त्रा-निर्माण में उपयोगी प्लूटोनियम का प्रयोग करके एक अनियंत्रित शृंखला अभिक्रिया उत्पन्न की जाती है। इससे अगस्त, 1945 में हिरोशिमा तथा नागासाकी पर बरसाए गए परमाणु बमों के समान, किन्तु अपेक्षाकृत कम विस्तार वाला प्रभाव उत्पन्न होता है।
तापीय नाभिकीय प्रक्रिया का विशिष्ट सामरिक महत्व है। इसमें विस्फोट को दो चरणों में सम्पन्न किया जाता है। पहले नाभिकीय विखण्डन बम से 1 करोड़ डिग्री सेल्सियस से कम का ताप उत्पन्न होता है। इस परम उच्च ताप पर ‘नाभिकीय संयलन’ क्रिया होती है। इस संलयन क्रिया में  हाइड्रोजन तत्व के समस्थानिक ड्यूट्रियम तथा हीलियम नाभिकों का संलयन होता है तथा हीलियम नाभिक बनता है। साथ ही, बड़ी मात्रा में ऊर्जा पैदा होती है। इस ऊर्जा की व्यापकता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि 1 किलोग्राम कोयले के दहन से प्राप्त ऊर्जा की तुलना में इस युक्ति से 1 किलोग्राम हाइड्रोजन जलाने पर उससे 200 खरब गुनी ऊर्जा मिलती है। वैज्ञानिकों का कथन है कि इस युक्ति का परीक्षण करके देश ने हाइड्रोजन बम बनाने की भी क्षमता अर्जित कर ली है। इस युक्ति से बने बम महाविनाशकारी होते हैं।
लो यील्ड प्रक्रिया छोटे-छोटे बमों के निर्माण में प्रयुक्त होने वाली प्रक्रिया हेतु उपयोगी है। यह उन परिस्थितियों एवं उद्देश्यों के लिए उपयोगी है, जहां सामरिक रूप से अपेक्षाकृत कम विनाश की जरूरत होती है।
13 मई, 1998 को किए गए दोनों परीक्षण सब किलोटन आणविक परीक्षण थे। इन्हें आणविक कम्प्यूटर डिजाइनों के अतिरिक्त आंकड़े जुटाने के उद्देश्य से किया गया था। ये परीक्षण भी पूर्व निर्धारित सीमा तक सीमित रहे। 11 मई, 1998 को किए गए तीनों परीक्षणों की भांति इससे भी वातावरण में रेडियोधर्मिता का प्रसार नहीं हुआ।
एंटीजन तथा एंटीबाॅडी: ‘प्रतिजन’ तथा ‘एंटीजन’ का शाब्दिक अर्थ होता है प्रतिरक्षियों की रचना को उत्तेजित करने में समर्थ पदार्थ। ये सामान्यतया प्रोटीनीय पदार्थ (जिनमें कम-से-कम 20 अमीनो अम्ल हों) होते हैं। हालांकि वृहत् कार्बोहाइड्रेट्स भी अच्छे एंटीजैनिक होते हैं, लेकिन लिपिड्स एंटीजैनिक नहीं होते हैं। किसी रोग के रोगाणु (विषाणु आदि) एंटीजैनिक पदार्थ होते हैं।
प्रतिरक्षी तथा एंटीबाॅडीज प्राणियों में विजातीय पदार्थ, जैसे प्रतिजन की क्रियाओं की प्रतिक्रियास्वरूप उत्पन्न प्रोटीन हैं, जो उनके ऊतकों को अधिक मात्रा में पहुंच जाता है तथा रासायनिक रूप से संयुक्त होकर उसे (प्रतिजन) हानिरहित बना देता है। ये पशु एवं पक्षियों के शरीर में रोग से मुकाबला करने वाले तत्व होता हैं। जब भी रोग का आक्रमण होते हैं, तो शरीर में स्वयं या सीरम अािवा औषधियों की सहायता से शरीर में उत्पन्न होकर रोग को या तो समाप्त कर देते हैं अथवा उसकी उग्रता कम कर देते हैं।
पेनिसिलिन: यह एक जीवाणु नाशक है जो पेनिसिलयम नोटेटम नामक कवक से बनाया जाता है। इसका व्यवहार सुई, टेबलेट और मलहम के रूप में होता है। फ्लेमिंग ने 1929 ई. में इसका आविष्कार किया था।
चुम्बकीय सुरंग: द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन लोग समुद्र में चुम्बकीय सुरंग लगाकर दुश्मन के युद्धपोत को बर्बाद किया करते थे। चुम्बकीय सुरंग वास्तव में एक चुम्बक है, जिसमें एक स्प्रिंग लगा रहता है। चुम्बक इस तरह समायोजित रहता है कि वह पृथ्वी के क्षेत्रा के ऊध्र्वाधर अवयव को संतुलित करता है। जब जहाज सुरंग के ऊपर से होकर गुजरता है, तब जहाज के चुम्बकत्व के कारण सुरंग का उत्तरी ध्रुव नीचे की ओर आकर्षित होता है और स्पर्श बिन्दु पर स्पर्श हो जाता है। फलतः एक विद्युत परिपथ पूरा हो जाता है, जिससे भयंकर विस्फोट होता है तथा जहाज नष्ट हो जाता है।
जहाज की सुरंग से रक्षा करने के लिए जहाज के चुम्बकत्व को, हजारों एम्पीयर की शक्तिशाली धारा कुछ समय तक प्रवाहित कर खत्म कर दिया जाता है। यह प्रक्रिया जहाज का डिगाऊमिंग कहलाती है।
रडार:  रेडियो अभिज्ञान तथा परासन। यह आकाश में अधिक  दूरी पर स्थिर वस्तु (जो अंधेरे या बादल आदि में दिखाई नहीं पड़ती है) के स्थान निर्धारण के लिये प्रयुक्त होता है तथा जिस यंत्रा में रेडियो तरंग का उपयोग होता है, उसे रडार कहते हैं। रडार के तीन मुख्य भाग होते हैं-
 (i)  प्रेषित
(ii)  अभिग्राहित
(iii)  कैथोड किरण आॅसिलेग्राफ।
रडार का प्रेषित उच्च शक्ति तथा अल्पावधि का विद्युत स्पन्द उत्पन्न करता है। ये स्पन्द पहाड़, वायुयान आदि द्वारा परावर्तित होते हैं। परावर्तित स्पन्द अभिग्राहित द्वारा ग्रहण किये जाते हैं। स्पन्द भेजने तथा लौटने में लगे समय को जानकर परावत्र्तकों की दिशाओं का ज्ञान भी प्राप्त होता है। रडार के निम्नलिखित उपयोग हैं-
(i) युद्धकाल में इसके द्वारा शत्राु के वायुयानों तथा अभियानों की सूचना प्राप्त की जाती है।
(ii) यह वायुयानों, जलयानों, पहाड़ों, समतल स्थानों की उपस्थिति की सूचना देता है।
(iii) अभियानों के ठिकानों, बंदरगाहों, आदि की सूचना देता है।
(iv) इसमें आंधी या वर्षा आने की सूचना प्राप्त होती है।
(v) यह यातायात को भी नियत्रित करता है।
(vi) इसकी मदद से कुहासे की उपस्थिति में भी वायुयान नीचे उतारे जाते हैं।
रेडियो सक्रियता: वेक्वायरल ने देखा कि यूरेनियम यौगिक अंधेरे में भी फोटो प्लेट को प्रभावित करता है। यौगिक से उत्सर्जित किरणों को ‘वेक्वायरल किरण’ कहा गया। ऐसी वस्तुएं जिनसे वेक्वायरल किरणें उत्सर्जित होती हैं, रेडियो एक्टिव कहलाती हैं तथा  इस क्रिया को रेडियो एक्टिवता कहा जाता है। 
रेडियो एक्टिव वस्तुएं हैं- यूरेनियम, थोरियम, रेडियम, पोलोनियम, एक्टीनियम। वेक्वायरल किरणें तीन प्रकार की किरणों का समूह है।
एल.पी.जी.: एल.पी.जी. गैस कच्चे तेल अथवा अपरिष्कृत पेट्रोलियम के शोधन के दौरान उपोत्पाद के रूप में प्राप्त होता है। मुख्यतः एल.पी.जी. उच्च दाब पर प्रोपेन (जिसका क्वथनांक 92.17व सेल्सियस है), नार्मल ब्यूटेन (जिसका क्वथनांक वी.पी.- 136o सेल्सियस है) तथा आइसो ब्यूटेन (जिसका क्वथनांक 159 o Cहै) का द्रवीकृत मिश्रण है, जिसे लोहे के मोटे  एवं मजबूत सिलिण्डरों में रखकर एक विशेष प्रकार के बाल्व से बंद करके रखा जाता है। इसीलिए इसे द्रवित पेट्रोलियम गैस या एल.पी.जी. कहते हैं। इसका ऊष्मीय मान अत्यधिक उच्च 12000 किलो कैलोरी प्रति धन मीटर तक हो सकता है। इसका उपयोग घरेलू ईंधन के साथ-साथ रसायन का निर्माण करने व संयंत्रा चलाने में हो रहा है। एल.पी.जी. पर आधारित बिजली घर भी कार्यरत हैं।
पिचर प्लांट: पिचर प्लांट या नेपेन्थिस खासियाना शक अधिपादप तथा प्रायः दुर्लभ कीटभक्षी पौधा है, जो भारत में केवल मेघालय की खासी तथा जयन्तिया पहाड़ियों में ही पाया जाता है। इस पौधे में पत्तियां सुराही, घड़े (पिचर) अथवा ढक्कनदार पात्रा के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं, जो विभिन्न प्रकार के आकार तथा आकर्षक रंगों के होते हैं। इन पात्रों की सतह में एक प्रकार का तरल पदार्थ होता है। विभिन्न रंगों से आकर्षित होकर जब कीट मधु की खोज में इनके पास आते हैं, तो वे पात्रा में रखे तरल पदार्थ में गिर जाते हैं। चिकनी सतह तथा बन्द ढक्कन के कारण बाहर निकल पाने में असमर्थ ये कीट तरल द्रव में डूबकर मर जाते हैं। धीरे-धीरे इन मृत कीटों के शरीर से प्रोटीन, जिनमें अधिक मात्रा में नाइट्रोजन होती है, पौधे अवशोषित कर लेते हैं।
क्वासर: क्वासर एक अद्यः अन्वेषित तारा है, जिसके अन्वेषण का दावा अमेरिकी खगोलविदों ने किया है। इन खगोलवेत्ताओं के अनुसार यह सबसे पुराना तारा है और पृथ्वी से सबसे अधिक दूरी पर स्थित है। एक अनुमान के अनुसार यह लगभग 14 बिलियन वर्ष पुराना है और पृथ्वी से इसकी दूरी 131 ट्रिलियन बिलियन किमी. है।
ग्लास-ऊल: ग्लास-ऊल एक प्रकार का शीशा होता है। यह साधारण शीशे या कांच से भिन्न होता है। साधारण कांच ठोस और भंगुर होती है। किन्तु जब यह साधारण कांच किसी अच्छे तन्तुओं के सम्मिश्रण से बनाया जाता है तो इसकी तन्यता शक्ति बढ़ जाती है, और कठोरतम पदार्थ में से अलग हो जाता है। ये तंतु ऊनी धागा को कांच के साथ प्रयुक्त किया जाता है तो इस प्रकार का कांच ‘ग्लास-ऊल’   कहलाता है। ग्लास ऊल एक अच्छा विद्युत कुचालक होता है, अतः इसका प्रयोग रेफ्रीजरेटर उद्योग में अधिक मात्रा में किया जाता है। इस का प्रयोग अन्य कुचालक पदार्थ जैसे कार्क आदि में भी किया जाता है क्योंकि न तो ऊन और न कांच ही जल्दी नष्ट हो पाता है।
जेट स्ट्रीम: जेट स्ट्रीम तीव्र वेग वाली वे वायुधाराएं हैं, जो धरातल से 6000 मीटर से 12000 मीटर की ऊँचाई के बीच दोनों गोलाद्र्धों के चतुर्दिक 20 डिग्री उत्तरी एवं दक्षिणी अक्षांशों से धु्रवों के समीप तक साल भर चलती हैं। ऋतु के अनुसार, जेट स्ट्रीम का वेग भी बदलता रहता है। ग्रीष्म ऋतु में इनके वेग में दुगुनी वृद्धि हो जाती है।
जेट स्ट्रीम की खोज द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमरीकी बमवर्षक विमान चालकों द्वारा की गई थी। केन्ड्यू नामक ऋतु वैज्ञानिक ने ‘जेट स्ट्रीम’ शब्द का प्रयेाग दोनों गोलाद्र्धों की उच्चस्तरीय पछुआ हवाओं के मध्य पाई जाने वाली शक्तिशाली वायु पेटी हेतु किया।
जैव निम्नीकरणीय कीटनाशक: इन्स्टीट्यूट आॅफ न्यूक्लियर मेडिसिन एण्ड एलाइड साइंसेस दिल्ली के शोध वैज्ञानिकों ने गेंदे के फूलों से पर्यावरणीय सुरक्षित एवं जैव निम्नीकरणीय कीटनाशक रसायन विकसित किया है। इसमें उपस्थिति दो यौगिक अल्फाटेरियोफीन अथवा अल्फा.ज् एवं इरिथ्रोसिन.ठ रसायन मलेरिया फैलाने वाले एनोफेलीज मच्छरों तथा जापानी एन्सिफेलाइटिस व एलीफैन्टाइसिस रोागें को फैलाने वाले क्यूलेक्स मच्छरों के डिम्भ को समाप्त करने में अति सक्षम हैं। ये रसायन गोल्डन गेंदे के फूलों की पंखुड़ियों तथा मूलो में उपस्थित रहते हैं और प्रकाश-संवेदी होते हैं। अल्फा.ज् यौगिक पराबैंगनी के समान तरंग दैध्र्य वाले प्रकाश से सक्रिय जाता होे है एवं इरिथ्रोसिन.ठ यौगिक सूर्य प्रकाश में सक्रिय होकर मच्छरों के डिम्भों को समाप्त करता है।
इलेक्ट्रो-प्रदूषण: इलेक्ट्रो-प्रदूषण संचार के विभिन्न उपकरणों, जैसे-राडार, हैम रेडियो, एफ. एम. रेडियो, सेल्यूलर फोन आदि से उत्पन्न वैद्युत चुम्बकीय विकिरणों द्वारा उत्पन्न होता है, जो कैंसर से लेकर ट्यूमर तक का खतरा उत्पन्न करता है। इनमें सेल्यूलर टेलीफोन सबसे अधिक इलेक्ट्रो-प्रदूषण का कारण बन रहे हैं। संचार के इन उपकरणों से उत्पन्न वैद्युत चुम्बकीय विकिरणों का सीधा प्रभाव मानव शरीर पर पड़ता है, जिनमें सबसे अधिक मस्तिष्क प्रभावित होता है। एक शोध के दौरान वैज्ञानिकों ने पाया कि सेल्यूलर टेलीफोन से उत्पन्न होने वाली आवृत्ति कुछ अधिक खतरनाक है। वास्तव में यह मस्तिष्क की प्राकृतिक आवृत्ति से काफी मेल खाती है और इसी अनुस्पंदन के कारण मानव मस्तिष्क काफी सारे विकिरण को हजम कर जाता है। आमतौर पर सेल्यूलर फोन का एंटीना उपभोक्ता के मस्तिष्क के ऊतक विकिरण से प्रभावित हो जाते हैं। इनकी आवृत्ति 900 मिलियन हट्र्ज होती है। इसका अर्थ है कि इस आवृत्ति का मस्तिष्क के ऊतकों पर एक सेकण्ड में 90 करोड़ बार आक्रमण होता है। इन अध्ययनों के दौरान जानवरों पर किए गए प्रयोगों के परिणाम काफी चैंकाने वाले निकले हैं।
एन्थे्रक्स: एन्थ्रेक्स एक घातक और संक्रामक रोग है, जो ‘बैसिलस एन्थेसिस’ नामक जीवाणु के कारण होता है। इसका अस्तित्व प्राचीन काल से ही है। एन्थ्रेक्स रोग मनुष्य और पशुओं दोनों में पाया जाता है, लेकिन भारत में पनुष्यों में एन्थ्रेक्स का संक्रमण काफी सीमित क्षेत्रों में ही हुआ है। 1980 और 1990 के दशक के दौरान मात्रा दक्षिण-पश्चिम आन्ध्र प्रदेश, दक्षिण-पूर्व कर्नाटक और उत्तरी तमिलनाडु के त्रि-संधि क्षेत्रा में मानव एन्थ्रेक्स की पहचान की गई थी। वैसे तमिलनाडु और कर्नाटक के विभिन्न क्षेत्रों से इस तरह के छिट-पुट मामलों की खबरें मिलती रही हैं। मानव एन्थ्रेक्स के कुछ मामले जम्मू-कश्मीर और बिहार से भी प्रकाश में आए हैं, लेकिन पशु एन्थ्रेक्स भारत के लगभग सभी भागों में पाया जाता है।
अनिषेक फलन: जब किसी पौधे में निषेचन के बिना ही फल का विकास होता है तो उसे अनिषेक फलन कहते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण केला है जिसमें बीज बन ही नहीं पाते। कुछ विशेष फलों के पौधों में यह क्रिया हाॅर्माेन छिड़ककर कृत्रिम रूप से भी की जा सकती है।
मल्टीमीडिया: यह एक ऐसी तकनीक है जिसके सहारे ध्वनि, प्रकाश, दृश्यदृश्यांतर, दृश्यस्थानान्तरण, कैपशन और विभिन्न प्रकार के दृश्यों को अद्भूत संयोजन और सोचने की किसी भी सीमा तक ढाल कर उसे एक कैसेट में बदल सकते हैं। इसमें वे सारे करिश्मे हो सकते हैं, जो देखने में अजूबे लगते हैं। मल्टीमीडिया तकनीक के माध्यम से ही स्टीफन स्पीलबर्ग की बहुचर्चित फिल्म ‘जुरासिक पार्क’ में असम्भव से दिखने वाले कारनामे सम्भव हुए। इस तकनीक को विकसित हुए लगभग 3 वर्ष हो गए हैं। अमरीका, ब्रिटेन, जर्मनी और चीन आदि देशों में अपना कमाल दिखा चुकने के बाद अब यह भारत में भी लगातार विकसित हो रहीं है। कम्प्यूटर ग्राफिक्स, डिजिटल तकनीक, तरह-तरह के प्रभावशाली आकार और मैजिक साउण्ड तथा टेक्निकल स्केच थिंकिंग से किसी भी तरह के आकार का बड़ा या छोटा प्रस्तुतीकरण कर लिया जाता है। इस तकनीक से न केवल दृश्य की गति, दिशा और शैली बदल जाती है, बल्कि इसका शान्त और स्थिर प्रभाव भी और गहरा होकर बहुआयामी हो जाता है। उद्दीपक की उत्तेजना का नियंत्राण हो या वस्तु का आकार बदलने का मामला मल्टीमीडिया से कुछ भी बनाया जा सकता है।
सोहो’: इसका पूरा नाम ‘सोलर एण्ड हेलिओस्पेरिक आब्जरवेटरी’ है। अमरीकी अन्तरिक्ष एजेन्सी ‘नासा’ ने सूर्य एवं  इसके वातावरण के विस्तृत अध्ययन हेतु एक अमरीकी-यूरोपीय ‘सोहो’ नामक अन्तरिक्षयान को केप केनेवरल से मानवरहित ‘एटलस’ राकेट द्वारा 2 दिसम्बर, 1995 को  प्रक्षेपित किया। इस परियोजना में सूर्य के रहस्य भरे  केन्द्रीय भाग ‘क्रोड’ से लेकर अत्यन्त गरम बाह्य वातावरण व इसके तमाम पहलुओं का अध्ययन किया आएगा। यह वेधशाला अन्तरिक्ष में एक ऐसे बिन्दु पर स्थापित की गई है, जो पृथ्वी से 1.6 मिलियन किलोमीटर तथा सूर्य से 147 मिलियन किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। वैज्ञानिकों ने इसे ‘हेलो कक्ष’ कहा है। ‘सोहो’ वेधशाला लगातार सूर्य पर नजर रखेगी और अपने दो वर्षाें के अनुमानित जीवन-काल तक पृथ्वी को तमाम आँकडे़ भेजती रहेगी। इस वेधशाला में कुल 12 टेलिस्कोप लगेे हैं- 3 अमरीकी एवं 9 यूरोपीय।
सूर्याताप: पृथ्वी की सतह पर आने वाले सौर विकिरण को सूर्याताप कहते हैं। सूर्य के केन्द्रीय क्रोड में हाइड्रोजनहीलियम में बदलती है जो भारी मात्रा में ऊर्जा विकरित करती है, जिसे विद्युत-चुम्बकीय विकिरण कहते हैं और इसके 2×109 भाग में से मात्रा एक भाग ही पृथ्वी प्राप्त कर सकती है। सूर्य की ऊर्जा की विकिरण दर 2 ग्राम कैलोरी प्रति वर्ग से. मी. प्रति मिनट होती है। सूर्याताप पृथ्वी को ‘लघु तरंगों’ के रूप में मिलता है और पृथ्वी ऊष्मा को अपेक्षाकृत ‘दीर्घ तरंगों’ के रूप में विकरित करती है जो पार्थिव विकिरण कहलाता है। लगभग 35 प्रतिशत ऊर्जा परावर्तित होकर अंतरिक्ष में विलीन हो जाती है। वायुमडल की अन्य गैसें, धूलकण आदि मिलकर सूर्याताप का 14 प्रतिशत अवशोषित करते हैं। शेष 51 प्रतिशत पृथ्वी को गर्मी देता है। इस 51 प्रतिशत में से निचली परतों में मौजूद जलवाष्प, कार्बन डाइआक्साइड तथा अन्य गैसें 34 प्रतिशत का अवशोषण कर लेती हैं और शेष 17 प्रतिशत विकरित होकर अंतरिक्ष में वापस चली जाती है।
कन्डोर: कन्डोर एक ऐसा अत्याधुनिक तकनीकी उपस्कर है जिसके माध्यम से तस्करों व अन्य असामाजिक अपराधियों द्वारा छिपाकर ले जाए जा रहे ‘हशीश’ और ‘कोकीन’ जैसे मादक प्रतिबन्धित पदार्थों को तलाश किया जा सकता है। इसका विकास ‘ब्रिटिश एयरो स्पेश’ ने किया है। अभी तक यह काम पारम्परिक ढंग से प्रतिक्षित पालतू कुत्तों से लिया जाता था, क्योंकि कुत्तों की घ्राण शक्ति तेज होती है,  किन्तु यह प्रणाली कुत्तों की घ्राण शक्ति से भी अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुई है।यह एक इलेक्ट्राॅनिक प्रणाली है। इसमें एक स्पेक्ट्रोमीटर लगा होता है। मादक पदार्थ की उपस्थिति से जब आस-पास की हवा में परिवर्तन होता है तो स्पेक्ट्रोमीटर की सुई सक्रिय हो जाती है और भारी भरकम सामान के ढेर में छिपाकर रखे गए मादक पदार्थ भी इसकी गिरफ्त में आ जाते हैं।
स्वचालित टेलर मशीन: स्वचालित टेलर मशीन एक प्रकार से बैंक के अदायगी काउन्टर का एक कम्प्यूटरीकृत विस्तार है। इस स्वचालित टेलर मशीन में उपभोक्ता रुपये प्राप्त करने के लिए अपना क्रेडिट कार्ड डालता है जिसमें उसका नाम, कोड नम्बर एवं अन्य जानकारियां चुम्बकीय कूट में अंकित होती हैं। इसके पश्चात् उपभोक्ता मशीन में अपना नाम लिखता है एवं उसे जितने रुपयों की आवश्यकता होती है, उसे अंकित करता है। इसके बाद स्वचालित टेलर मशीन अपना कार्य प्रारंभ कर देती है। सबसे महले मशीन उस उपभोक्ता के खाते, बैलेंस इत्यादि की जांच करती है। फिर यदि उपभोक्ता के खाते में आवश्यक धन होता है तो सुरक्षा कारणों से एक बार में मशीन में एक निश्चित रकम ही रखी जाती है।
गर्भ निरोधक गोलियां: गर्भधारण की प्रक्रिया एक अत्यन्त जटिल प्रक्रिया है जो अनेक चरणों में पूरी होती है तथा इसमें शरीर के विभिन्न हार्मोन्स महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। गर्भधारण की प्रक्रिया में नर के शुक्राणु एवं मादा के अंडाणु आपस में मिलकर युग्मज बनाते हैं। शुक्राणुओं का निर्माण नर के वृषण में शुक्राणुजनन द्वारा होता है। जबकि अंडाणुओं का निर्माण मादा के शरीर में अंडाणुजनन द्वारा अंडाशय में होता है - फाॅलिकल स्टीम्यूलेटिंग हार्मोन एवं ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन अण्डों को परिपक्व कर मादा के शरीर से स्खलित करने में सहायक होते हैं। गर्भ निरोधक गोलियों में एक हार्मोन होता है, जिसे ‘एस्ट्रोजन’ कहते हैं। यह एस्ट्रोजन ‘फीड बैक इन्हीबिटेशन’ नामक प्रक्रिया के द्वारा फाॅलिकल स्टीम्यूलेटिंग हार्मोन एवं ल्यूटिनाइजिंग हार्मोन के श्रवण को नियंत्रित कर देता है, जिससे मादा के शरीर में अण्डे बनने की प्रक्रिया नियंत्रित हो जाती है एवं गर्भधारण नहीं हो पाता, क्योंकि गर्भधारण के लिये शुक्राणु के साथ अण्डे का होना अनिवार्य है।
एजोला: एजोला एक जैव-उर्वरक है जो एक जलीय फर्न है। इसके द्वारा नाइट्रोजन का स्थिरीकरण होता है। इसमें अन्य कई कार्बनिक पदार्थ होते हैं जो भूमि की उर्वरा शक्ति को बढ़ाते हैं। एजोला धान की फसल में जैव-उर्वरक के रूप में प्रयोग किया जाता है जिससे फसलों की उपज में 5.18% की वृद्धि होती है। भूमि में 15.25 किग्रा नेत्राजन 10 टन हैक्टेयर एजोला के प्रयोग से संचित हो जाती है। अपने देश में उड़ीसा, पश्चिमी बंगाल, बिहार, तमिलनाडु एवं उत्तर प्रदेश के तराई क्षेत्रों में धान में एजोला का प्रयोग लाभकारी सिद्ध हुआ है। चीन, फिलीमीन्स, थाईलैण्ड, वियतनाम आदि देशों में भी इसका प्रयोग धान की फसल में उपयोगी है। एजोला में अम्लीयता, शुष्कता एवं बीमारियों के प्रतिरोधिता को सहन करने की क्षमता होती है। आधुनिक खोजों के आधार पर यह निश्चित हो चुका है कि जल में पैदा की जाने वाली फसलों (धान) के लिए एजोला अति उत्तम जैव-उर्वरक है।
अल्झेमीर: बढ़ती आयु के साथ बाल झरना, शरीर पर धीरे-धीरे  झुर्रियाँ पड़ना, दाँतों का गिरना, आदि अनेक बीमारियाँ होने लगती हैं। इस बढ़ती आयु में व्यक्तियों में स्मृति एवं विचार शक्ति व बौद्धिकता धीरे-धीरे कम होने लगती है जिसे अल्झेमीर कहते हैं। इसकी खोज जर्मन डाॅक्टर एल्आॅएस अल्झेमीर ने की, इसीलिए इसका नाम खोजकर्ता के नाम पर रखा गया। इस रोग को आरम्भिक अवस्था में डाॅक्टर पहचान नहीं पाते हैं। फिलहाल विकसित मैग्नेटिक रेजोनेन्स इमेजिंग एवं पाॅजीट्रान एमीशन होमोग्राफी जैसी नवीन इमेजिंग तकतीकों के माध्यम से इस रोग का आरम्भिक अवस्था में ही निदान किया जा सकता है।
स्पेस पावर जेनरेटर: भारतीय परमाणु ऊर्जा के वैज्ञानिकों ने कई वर्षों के अनुसन्धान एवं परीक्षण द्वारा अन्तरिक्ष से ऊर्जा अवधारण पर आधारित स्पेस पावर जेनरेटर विकसित किया है, जो कम वोल्टेज पर अधिक विद्युत उत्पन्न करेगा। इसे जलाने वाले मोटर को भी बिजली की आपूर्ति इसी के द्वारा होगी। वहीं पानी का विखंडन कर हाइड्रोजन एवं आॅक्सीजन को अलग-अलग कर इनका व्यावसायिक उपयोग करने का दोहरा लाभ भी मिल सकेगा। स्पेस पावर जेनरेटर में मैग्नेट को घुमाने के लिए प्रयुक्त की जाने वाली मोटर को एक बार शुरू करने के बाद इसी जेनेरेटर से ही मोटर को भी विद्युत की आपूर्ति होती है।
साइब्रिड: साइब्रिड एक प्रकार का वर्णंसकर है जो दो कोशिकाओं के कोशिकाद्रव्य को आपस में मिला देने से बनता है, जिससे इसे साइटो-प्लाज्मिक हाइब्रिड भी कहा जाता है। पौधों में अन्तर्जातीय विधि से प्रजनन कराकर संकर किस्में विकसित करने में साइब्रिड का बहुत महत्व है। इस तकनीक द्वारा विकसित संकर प्रजातियों में दो प्रजातियों के अच्छे गुणों का समावेश होता है। साइब्रिड का निर्माण जैव-प्रौद्योगिकी पर आधारित है तथा इसका विकास प्रोटोप्लाज्म समयुग्मन तकनीक द्वारा किया जाता है। इस तकतीक के अन्तर्गत पौधे की कोशिका-भीति को हटाकर विभिन्न पादप जातियों के प्रोटोप्लाज्म को आपस में मिलाया जाता है। इस प्रकार पूर्ण संकर  पौधे का विकास होता है। साइब्रिड के निर्माण में एक कोशिका के केन्द्रक की जीन्स को पूर्णतया अलग कर दिया जाता है,जबकि दूसरी कोशिका में ये जीन्स उपस्थित रहती हैं, तभी दो भिन्न कोशिकाओं के जीवद्रव्यों के बीच समयुग्मन क्रिया कराई जाती है। इस प्रकार एक केन्द्रक जीन्स रहित कोशिका के जीवद्रव्य को दूसरी केन्द्रक जीन्स युक्त कोशिका के जीवद्रव्य के साथ मिलाने से जो संकर कोशिका बनती है इसे साइब्रिड कहा जाता है। इसी तकनीक से ‘पौपेटा’ का विकास किया गया है जो आलू तथा टमाटर का संकर है।
आॅन्कोजीन एम वाई सी: आॅन्कोजीन एम वाई सी एक ऐसा जीन है जो स्वस्थ कोशिकाओं को कैंसरग्रस्त कर देती है। इस जीन द्वारा निर्मित प्रोटीन कैंसर कोशिकाओं की मृत्यु का कारण भी होता है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसकी सक्रियता ट्यूमर के विकास से सम्बन्धित है। वैज्ञानिकों ने एक अन्य ‘आॅन्कोजीन बी सी एल-2’ का भी पता लगाया है। इस आॅन्कोजीन की खोज कुछ वर्ष पहले     बी-कोशिकाओं से बनी लिम्फोमा ट्यूमर से की गई थी। यह जीन ट्यूमर के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। बी  सी एल-2 की उपस्थिति में यदि बी-कोशिकाओं में साइटोकीन की आपूर्ति को रोक दिया जाए जो भी वे जीवित रहती है। कैंसर बनने में बी सी एल-2 की भूमिका होती है। यह ट्रांसजेनिक चूहों पर किए गए प्रयोग से सिद्ध हो चुका है। वैज्ञानिकों का कहना है कि कोशिकाओं में कैंसर उत्पन्न करने का उत्तरदायित्व सिर्फ एम वाई सी पर ही नहीं होता; बल्कि वी सी एल-2 भी अपना सहयोग देती है।
रेडियो कार्बन और साधारण कार्बन: रेडियो कार्बन या रेडियो सक्रिय कार्बन, कार्बन का ही रेडियो सक्रिय समस्थानिक है, अर्थात रेडियो कार्बन से निरन्तर अदृश्य किरणें उत्सर्जित होती रहती हैं, परन्तु साधारण कार्बन से नहीं। इसी रेडियो सक्रिय कार्बन की सहायता से प्राचीन वस्तुओं की तिथि निर्धारित की जाती है। रेडियो कार्बन के परमाणु नाभिक में 6 न्यूट्राॅन होते हैं, जबकि साधारण कार्बन के परमाणु नाभिक में 8 न्यूट्राॅन होते हैं। रेडियो कार्बन को C14 और साधारण कार्बन को C12 द्वारा दर्शाया जाता है। पृथवी के वायुमंडल में रेडियो कार्बन की मात्रा साधारण कार्बन की अपेक्षा अत्यन्त कम होती है। अनुमानतः साधारण कार्बन के 10 अरब परमाणुओं में रेडियो कार्बन का एक परमाणु होता है। फिर भी पृथ्वी के वायुमंडल में हर समय लगभग 100 टन रेडियो कार्बन के परमाणु होते है। रेडियो कार्बन की अर्द्ध आयु 7500 वर्ष होती है।
क्लाउड सीडिंग: कृत्रिम रूप से बादलों के निर्माण की तकनीक को क्लाउड सीडिंग कहा जाता है। जब वातावरण का ताप ओसांक से नीचे गिर जाता है, तो जलवाष्प के संघनन के परिणामस्वरूम वर्षा होती है।  जलवाष्प से जल की बूँदें बनने के लिए एक संघनन केन्द्रक का होना आवश्यक है। बातावरण में उपस्थित धूल कण धूम्र कण, आदि संघनन केन्द्रक का कार्य करते हैं। कभी-कभी देखा जाता है कि बादल तो छाये रहते हैं, लेकिन वर्षा नहीं होती। ऐसी परिस्थिति प्रायः संघनन केन्द्रकों के न होने की वजह से होती है। इस स्थिति में क्लाउड सीडिंग के द्वारा ठोस कार्बन डाइआॅक्साइड, सिल्वर आयोडाइड, अमोनियम नाइट्रेट के कणों को संघनन केन्द्रकों के रूप में प्रविष्ट कराते हैं। अनुकूल स्थितियों  में हवाई जहाज के डैनों पर विशिष्ट इन्सीनेटरों के द्वारा सिल्वर आयोडाइड के कणों को छाये हुए बादलों में प्रविष्ट कराते हैं। इस विधि को क्लाउड सीडिंग कहते हैं। जुलाई 1992 में कच्छ के रन और राजस्थान में इस विधि का प्रयोग किया गया। आंध्र प्रदेश में उस्मान सागर के जल ग्रहण क्षेत्रा में भी सिल्वर आयोडाइड के द्वारा वर्षा कराई गई थी। इस तकनीक की खोज 1946 में विन्सेन्ट सेफर और इरविग लैंगम्यूर नामक दो अमरीकी मौसम विज्ञानियों द्वारा की गई थी।
‘एम’: ‘एम’ एक प्रकार का जैविक उर्वरक है, जिसका पूरा अर्थ है ‘इफेक्टिव माइक्रोआॅर्गेनिज्म’। इस जैविक उर्वरक का विकास जापान के वैज्ञानिक डाॅ. तेरू हिगा ने किया। इस उर्वरक का प्रयोग पांडिचेरी के खेतों में किया गया और अब इसका व्यापक प्रयोग मथुरा एवं गाजियाबाद में किया जा रहा है। इसका विकास सूक्ष्म अवयवों के मिश्रण से किया गया है, जिसका प्रयोग प्रतिरोधी टीके के रूप में भी किया जा सकता है।
पाॅट्स रोग: पाॅट्स रोग में कशेरुकाओं का क्षरण होता है, जो अक्सर तपेदिक के कारण हैं। यह रोग बच्चों या चालीस वर्ष तक की आयु के लोगों में पाया जाता है।
ब्लबर क्या: व्हेल तथा कुछ समुद्री जन्तुओं की त्वचा के नीचे वसीय ऊतकों की मोटी परत को ब्लबर कहते हैं। यह जन्तुओं को उत्प्लावकता तथा ऊष्मारोधक क्षमता प्रदान करती है। यह जन्तु में एक प्रकार का ऊष्मा बनाने में प्रयोग किया जाता है।क्लोरो फ्लोरो कार्बन एवं ओजोन परत कलोरोफ्लोरोकार्बन में स्थित क्लोरीन, जो कि पाइप से स्पे्र करने के काम में प्रयोग की जाती है, फ्रिज में और एयरकंडीशनर्स में भी प्रयोग की जाती है, ओजोन सतह को नष्ट करने में मुख्य भूमिका निभाती है। क्लोरोफ्लोरो कार्बन में क्लोरीन,  फ्लोरीन और कार्बन तत्व होते हैं। जब यह वायुमंडल में छोड़ी जाती है तो यह सीधे वायुमंडल की ऊपरी सतह तक पहुँच जाती है। सूर्य की पराबैंगनी किरणें क्लोरोफ्लोरोकार्बन को तोड़ देती हैं और अलग हुई क्लोरीन ओजोन के लिए घातक बन जाती है। क्लोरीन का एक परमाणु न केवल ओजोन के अणु से क्रिया करके इसे आक्सीजन में बदल देता है 
अपितु यह क्रिया शृंखला के रूप में प्रारम्भ हो जाती है। आक्सीजन पराबैंगनी किरणों से पृथ्वी की रक्षा नहीं कर सकती। इस प्रकार क्लोरीन का एक परमाणु ओजोन के अणु को लगातार तोड़ता रहता है। इस प्रक्रिया में ओजोन के हजारों अणु टूटते हैं।
ट्रांसजेनिक तकनीक: जब किसी जन्तु के(Sex- Chromosomes) में बाहरी जीन का प्रवेश कराया जाता है तो उससे विकसित होकर जो जन्तु बनता है उसे ट्रांसजेनिक जन्तु कहते हैं। ट्रांसजेनिक जंतुओं का विकास जीन मैनीपुलेशन द्वारा किया जाता है। इस तकनीक में लिंग गुणसूत्रा(Sex Chromosome) में दूसरे जीव की किसी विशिष्ट गुणों वाली जीन को जोड़ दिया जाता है। इस तकनीक के प्रयोग से नई प्रजातियां पैदा की जाती हैं। तन्तु के डिम्ब में बाह्य जीन को समावेशित करने के लिए डिम्ब की बिना काम की जीन को काटकर अलग कर दिया जाता है, तत्पश्चात् निकाली हुई जीन के स्थान पर बाह्य जीनों को लगा दिया जाता है। बाह्य जीनों का अन्तर्वेशन एक विशेष प्रकार के माइक्रो मैनीपुलेटर से किया जाता है। इस उपकरण में एक माइक्रोनीडल लगी होती है। धातु की इस सुई (नीडल) से अण्डे की बाह्य भित्ति में छेद करके वांछित डी. एन. ए. विलयन को डाल दिया जाता है। मैनीपुलेटर में लगे पिपेट की सहायता से डिम्ब की जींस में उलट-फेर कर दिया जाता है। इस तकनीक में डिम्ब की अपनी जीन डी. एन. ए. जीन के साथ मिल जाती है। बाह्य जीन को डिम्ब की जीन के साथ फिट करने या बाहर निकालने के लिए सदर्न प्लोटिंग एवं डोट प्लोटिंग तकनीक प्रयोग में लायी जाती हैं। इस तकनीक द्वारा जीन को जोड़ने के स्थान का आसानी से पता लगा लिया जाता है। पुरानी जीनों के साथ नई जीनों के जुड़ जाने से नए लक्षणों एवं नए गुणों की प्राप्ति होती है। नई प्रजातियां विकसित करने में इसी तकनीक का प्रयोग किया जाता है।
मल्टीमीटर: मल्टीमीटर एक वैद्युतीय मापक यंत्रा है जो कि वोल्टेज और धारा दोनों का कई परासों में मापन करने हेतु बनाया गया है। यह एक चलकुंडल यंत्रा है, जिसमें एक ऐसा स्विच होता है जो विभिन्न प्रतिरोधों को कुंडली की श्रेणी में उस समय जोड़ देता है, जबकि विभिन्न परासों के वोल्टेज का मापन और वैद्युत धारा का मापन करना होता है। इस स्विच के द्वारा विभिन्न शंट प्रतिरोधों को कुंडली के समान्तर क्रम में जोड़ दिया जाता है। सामान्यतः मल्टीमीटर के अन्दर एक शुष्क सेल भी लगा दिया जाता है, ताकि प्रतिरोधों का सीधे-सीधे अनुमापन किया जा सके।
ट्रांसपोंडर: ट्रांसपोंडर शब्द उपग्रह संचार प्रणाली से संबंधित है। उपग्रह और पृथ्वी के मध्य संचार अति सूक्ष्म तरंगों द्वारा होता है। इसका प्रयोग मौसम के पूर्वानुमान, प्रसारण एवं अन्य कार्यक्रमों के लिए किया जाता है। उपग्रह में एक माइक्रोवेव रिसीवर व एक ट्रांसमीटर होता है, जो दोनों दिशाओं से सूचनाओं का आदान-प्रदान करता है। पृथ्वी से प्राप्त होने वाले संकेत मध्यस्थ आकृति में बदल जाते हैं और रिमाॅड्यूलेट होकर पुनः प्रसारण द्वारा पृथ्वी पर पहुंचते हैं। उपग्रह का यह उप-तंत्रा ही ट्रांसपोंडर के नाम से जाना जाता है।
एच. ई. डी.: एच. ई. डी. का विस्तार रूप ‘हाइपोहाइड्रोलिक एक्टोडर्मल डिस्टलासिया’ (Hypohydrolic Ectodermal Destlacia)  है। इस रोग से पीड़ित बच्चों की त्वचा में जन्म से ही पसीने की ग्रन्थियाँ नहीं होती हैं। इस रोग के कारण पसीना नहीं आता जिससे शरीर का तापमान मौसम के अनुरूप घटता-बढ़ता रहता है अर्थात् गर्मी में अधिक और सर्दी में कम। इस प्रकार के बच्चों को गर्मी में जल्दी स्नान करता पड़ता है। शरीर को बार-बार गीले कपड़े से पोंछना पड़ता है। वर्जीनिया की एक स्वयंसेवी संस्था इस रोग से ग्रस्त बच्चों की सहायता करती है। कुछ विशेष प्रकार के कुलिंग किट बनाए जा रहे हैं जिसे पहनकर बच्चे स्कूल भी जा सकते हैं।

The document विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (भाग - 6) - सामान्य विज्ञानं | सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi is a part of the UPSC Course सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi.
All you need of UPSC at this link: UPSC
74 videos|226 docs|11 tests

Top Courses for UPSC

FAQs on विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (भाग - 6) - सामान्य विज्ञानं - सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi

1. विज्ञान और प्रौद्योगिकी का महत्व क्या है?
उत्तर: विज्ञान और प्रौद्योगिकी मानव समाज के विकास और प्रगति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह विज्ञानी और तकनीकी उन्नति के माध्यम से जीवन को सुगम और आसान बनाने में मदद करता है, सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रदान करता है, और नई और अधिक सुरक्षित तकनीकी उपकरणों का निर्माण करता है।
2. वैज्ञानिक अनुसंधान क्या होता है और इसका महत्व क्या है?
उत्तर: वैज्ञानिक अनुसंधान वैज्ञानिक मेथड का उपयोग करके नए ज्ञान को प्राप्त करने और समस्याओं के समाधान के लिए प्रयास करता है। इसका महत्व इसलिए होता है क्योंकि यह नए विज्ञानिक ज्ञान की विकास और उपयोगिता में सुधार करता है। वैज्ञानिक अनुसंधान के माध्यम से हम नई और बेहतर तकनीकों, दवाओं, और उत्पादों का निर्माण कर सकते हैं जो हमारे जीवन को सुगम और सुरक्षित बनाने में मदद करते हैं।
3. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बीच क्या अंतर है?
उत्तर: विज्ञान और प्रौद्योगिकी दो अलग-अलग, लेकिन संबंधित क्षेत्रों को दर्शाते हैं। विज्ञान ज्ञान का एक विशाल विभाजन है, जहां वैज्ञानिक अनुसंधान और प्रयोग द्वारा नए ज्ञान की प्राप्ति की जाती है। प्रौद्योगिकी, दूसरी ओर, विज्ञानिक ज्ञान के उपयोग और अनुप्रयोग के माध्यम से उत्पादों और सेवाओं के निर्माण को दर्शाती है।
4. औद्योगिक क्रांति क्या है और इसका महत्व क्या है?
उत्तर: औद्योगिक क्रांति एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना है जिसने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के उद्भव और विकास को शुरू किया। इसका महत्व यह है कि यह व्यापार, उद्योग, और संगठनों को परिवर्तित करके और बदलकर नई और अधिक उत्पादकता और अधिक मजबूती के साथ नए तकनीकी उपकरणों के निर्माण को संभव बनाया। औद्योगिक क्रांति ने मानव समाज को आर्थिक और सामाजिक रूप से प्रभावित किया है और आधुनिक समय में हमारे जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा बना है।
5. विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बीच एकीकरण का मतलब क्या है?
उत्तर: विज्ञान और प्रौद्योगिकी के एकीकरण का मतलब है कि वैज्ञानिक ज्ञान का उपयोग करके नई और उपयोगी तकनीकी उपकरणों को निर्मित किया जाता है। इसका मतलब है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी को मिलाकर ज्ञान को अनुप्रयोग करने और उत्पादन में सुधार करने का प्रयास किया जाता है। एकीकरण विज्ञानिक अनुसंधान के नए फ़ील्ड और तकनीकी उपकरणों के निर्माण में नई विकास और प्रगति को सं
74 videos|226 docs|11 tests
Download as PDF
Explore Courses for UPSC exam

Top Courses for UPSC

Signup for Free!
Signup to see your scores go up within 7 days! Learn & Practice with 1000+ FREE Notes, Videos & Tests.
10M+ students study on EduRev
Related Searches

MCQs

,

Objective type Questions

,

shortcuts and tricks

,

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (भाग - 6) - सामान्य विज्ञानं | सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi

,

video lectures

,

Viva Questions

,

Free

,

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (भाग - 6) - सामान्य विज्ञानं | सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi

,

Semester Notes

,

Exam

,

Summary

,

Previous Year Questions with Solutions

,

mock tests for examination

,

Important questions

,

study material

,

practice quizzes

,

ppt

,

विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी (भाग - 6) - सामान्य विज्ञानं | सामान्य विज्ञानं (General Science) for UPSC CSE in Hindi

,

Extra Questions

,

past year papers

,

Sample Paper

,

pdf

;