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संघीय कार्यपालिका - भारतीय राजव्यवस्था | भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

राष्ट्रपति की वित्तीय शक्तियाँ

  •  देश का वार्षिक बजट वित्त मंत्री द्वारा राष्ट्रपति की पूर्वानुमति से उसी के नाम से प्रस्तावित किया जाता है।
  •  राष्ट्रपति ही लेखा परीक्षक की रिपोर्ट एवं वित्त आयोग की सिफारिशें संसद के समक्ष रखवाता है।
  •  देश की आकस्मिक निधि पर राष्ट्रपति का नियंत्रण होता है। आकस्मिक जरूरत पड़ने पर वह संसद की अनुमति के बिना भी सरकार को इसमें से धन दे सकता है।
  •  देश में पूरक एवं अनुपूरक बजट भी राष्ट्रपति के नाम से ही संसद में रखा जाता है।
  •  राष्ट्रपति राज्यों को अनुदान देने सम्बन्धी आज्ञाप्ति जारी करता है।
  • वित्त आयोग की नियुक्ति भी राष्ट्रपति ही करता है।
  • राजकीय आय के राज्यों के मध्य वितरण का निर्धारण भी राष्ट्रपति के नाम से ही किया जाता है।
  •  राष्ट्रपति की अनुमति के बिना नये कर लगाने अथवा करों में बढ़ोतरी करने सम्बन्धी विधेयक संसद में प्रस्तुत नहीं किये जा सकते।

महत्वपूर्ण तथ्य


  गैर-सरकारी कार्यकलाप: लोकसभा मेंशुक्रवार के दिन ढाई घंटे का समय गैर-सरकारी कार्यों के लिए रखा गया है। मंत्रियोंके अतिरिक्त सदन के सभी सदस्यों को गैर-सरकारी सदस्य कहा जाता है। कानून बनाना सरकार का उत्तरदायित्व है। इसके लिए सरकार सदन के सम्मुख विधेयक रखती है। जब कभी कोई सदस्य समझता है कि किसी विषय विशेष पर कानून बनाना चाहिए तो वह अपनी ओर से गैर सरकारी विधेयक सदन में प्रस्तुत कर सकता है। इसी प्रकार विशेष प्रशासनिक, वैधानिक तथा कानूनी विषयोंपर गैर सरकारी प्रस्तावों के माध्यम से चर्चा भी करवा सकता है। ऐसे गैर सरकारी विधेयकों तथा प्रस्तावों पर चर्चा के लिए शुक्रवार के दिन ढाई घंटे का समय नियत है। इसलिए शुक्रवार को गैर सरकारी दिन भी कहते है।

 

राष्ट्रपति की राज्य से संबंधित विधायी शक्ति
(i) नये राज्य के निर्माण या नामों, क्षेत्रों और सीमाओं में परिवर्तन करने संबंधी विधेयक पर राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति अनिवार्य होती है (अनुच्छेद-3)।
(ii) व्यापार, वाणिज्य या अंतर्राज्यीय संपर्कों पर प्रतिबंध लगाने वाले विधेयक राज्यों की विधान सभाओं में राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद ही पारित हो सकते है।
(iii) सार्वजनिक जीवन के लिए आवश्यक घोषित वस्तुओं पर कर संबंधी कोई भी विधेयक राज्यों की विधान सभाओं में राष्ट्रपति की स्वीकृति के बाद ही रखे जायेंगे।
(iv) राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह किसी विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए रख ले। यदि राज्य विधानमंडल के कानून से उच्च न्यायालय के अधिकार कम होते हों तो ऐसा विधेयक और संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण संबंधी कोई विधेयक राज्यपाल को राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति के लिए अनिवार्य रूप से रखना होगा।
(v) समवर्ती सूची के किसी विवाद के विषय पर विधेयक राष्ट्रपति के विचारार्थ रखा जा सकता है (अनुच्छेद-254)।
(vi)अनुच्छेद-356 के अनुसार राज्य में संवैधानिक तंत्र विफल हो जाने पर राष्ट्रपति उच्च न्यायालय के अतिरिक्त राज्य की सभी शक्तियां अपने हाथ में लेकर वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर सकता है।
 

भारत के नियंत्राक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति

  •  भारतीय संविधान के अध्याय 5 में अनुच्छेद 148 से 151 तक में भारत के नियन्त्राक एवं महालेखा परीक्षक के पद एवं उसकी शक्तियाँ तथा उसकी स्वाधीनता सुनिश्चित की गई है।

नियंत्राक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति

  • भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाती है।
  •  संविधान के अनुच्छेद 148 (1) के अनुसार भारत का एक नियन्त्राक एवं महालेखा परीक्षक होगा जिसको राष्ट्रपति अपने हस्ताक्षर और मुहर सहित अधिपत्रा द्वारा नियुक्त करेगा।


नियंत्राक एवं महालेखा परीक्षक का कार्यकाल

  • संविधान के अनुच्छेद 148 के अधीन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के कार्यकाल, सेवा शर्तें, वेतन के निर्धारण हेतु विधि बनाने का दायित्व संसद को प्राप्त है। इस शक्ति के अधीन संसद ने नियंत्रक-महालेखा परीक्षक (सेवा-शर्तें) अधिनियम 1971 में निर्मित किया था।
  •  1976 में संशोधित इस अधिनियम के अनुसार-

(i) नियंत्रक-महालेखा परीक्षक के पद की अवधि उसके पद ग्रहण करने की तारीख से 6 वर्ष की होगी।
(ii) लेकिन 65 वर्ष की आयु पूरी हो जाने पर 6 वर्ष की अवधि की समाप्ति के पूर्व भी उसका पद रिक्त माना जाएगा। 

नियंत्रक-महालेखा परीक्षक का पद से हटाया जाना

  •    नियंत्राक एवं महालेखा परीक्षक निम्न प्रकार से अपने पद से हट सकेगा या हटाया जा सकेगा- 

 (i) वह किसी भी समय राष्ट्रपति को सम्बोधित अपने हस्ताक्षर सहित लिखित त्यागपत्र द्वारा पद त्याग सकता है।
(ii) उसे महाभियोग द्वारा हटाया जा सकता है। संविधान के अनुच्छेद 148 (1) में उसे उसके पद से केवल उसी रीति से और उन्हीं आधारों पर हटाया जाएगा जिस रीति से और जिन आधारों पर
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश को हटाया जाता है।

  • इस प्रकार उसे केवल संसद के दोनों सदनों के समावेदन पर
    • साबित कदाचार एवं
    • असमर्थता के आधार पर ही हटाया जा सकता है।
  • साबित कदाचार का अर्थ है कि उसने अपने अधिकारों अथवा शक्तियों के प्रयोग में दुर्व्यवहार किया है और असमर्थता से तात्पर्य है कि वह अपने कार्य को करने में समर्थ नहीं रह गया है।
  • इन दोनों या इनमें से किसी एक आधार पर उसे तभी हटाया जा सकता है जबकि संसद राष्ट्रपति से ऐसा करने का अनुरोध करे और यह अनुरोध प्रस्ताव संसद के प्रत्येक सदन के सदस्यों के बहुमत द्वारा तथा उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई बहुमत से पारित किया गया होना चाहिए।

वेतन एवं सेवा शर्तें

  •  इसका वेतन संसद द्वारा निर्धारित होता है।
  • वर्तमान में इसका वेतन उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के बराबर अर्थात् 9,000 रु. मासिक निर्धारित किया गया है। सेवा निवृत्ति पर उसे 15,000 रु. वार्षिक पेंशन मिलती है।
  • अन्य विषयों में उसकी सेवा शर्तें उन्हीं नियमों से निर्धारित होगी जो भारत सरकार के सचिव की पंक्ति के प्रशासनिक सेवा के सदस्य के लिए लागू होती है।
  •  नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक के वेतन, भत्ते, छुट्टियों, पेंशन, निवृति की आयु एवं उसके अधिकारों के संबंध में उसकी नियुक्ति के पश्चात् उसकी पदावधि के दौरान कोई परिवर्तन नहीं किया जा सकेगा। [अनुच्छेद 148 (3)]
  • संविधान के अनुच्छेद 148 (4) के अनुसार अपने पद से हटने के पश्चात् वह भारत सरकार या राज्य सरकारों के अधीन कोई भी अन्य पद धारण नहीं कर सकेगा। यह उपबंध इसलिए रखा गया है कि उसे संघ या राज्य की कार्यपालिका को प्रसन्न करने के लिए कोई लालच न हो (कि वह पद-निवृति के पश्चात् उसे कोई अन्य लाभ का पद सौंप देगी)।
  •  नियंत्राक महालेखा परीक्षक का वेतन एवं उसके सहयोगी कर्मचारियों का वेतन देश की संचित निधि पर भारित होगा और संसद में इस विषय पर मतदान नहीं हो सकेगा।
  • उसके सहयोगी कर्मचारियों की सेवा एवं शर्तें राष्ट्रपति द्वारा उसी के परामर्श पर बनायी जाएगी।

    नियंत्राक एवं महालेखा परीक्षक के कार्य एवं शक्तियां

  • संसद द्वारा ‘नियन्त्राक-महालेखा परीक्षक (कत्र्तव्य, शक्तियाँ, सेवा की शर्तें) अधिनियम, 1971 द्वारा अधिनियमित निम्न शक्तियाँ निर्धारित की गई है-

(i) भारत और उसके प्रत्येक राज्य के और संघ राज्यों की संचित निधि से किये गये सभी व्ययों का परीक्षण (जाँच) और उन पर प्रतिवेदन (रिपोर्ट)।
(ii) इसी प्रकार संघ और राज्यों की आकस्मिक निधि और सार्वजनिक सेवाओं के सभी व्ययों की जाँच करना और उन पर प्रतिवेदन (रिपोर्ट) तैयार करना।
(iii) संघ या राज्य के विभागों द्वारा किये गये सभी व्यापार और विनियोजन (विनिर्माण) के लाभ और हानि लेखाओं की जाँच एवं उन पर अपनी रिपोर्ट देना। संसद द्वारा राजस्व के निर्धारण (करों का निर्धारण), उनका संग्रह और उचित वितरण की पर्याप्त जाँच के लिए इस हेतु बनायी गई विधि या नियमों के अनुरूप संघ एवं राज्यों की आय एवं व्ययों की जाँच करना।
(iv) संविधान के अनुच्छेद 150 के अनुसार राष्ट्रपति नियन्त्राक-महालेखा परीक्षक की सलाह से ही राज्यों एवं संघ के लेखाओं के प्रारूप तैयार करेगा।
(v) संविधान के अनुच्छेद 151 के अधीन नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक संघ के लेखाओं से संबंधित रिपोर्ट राष्ट्रपति के समक्ष प्रस्तुत करेगा और राष्ट्रपति इस रिपोर्ट (प्रतिवेदन) को संसद के दोनों सदनों के समक्ष रखवाएगा।
(vi) नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक द्वारा तैयार राज्यों के लेखाओं से संबंधित प्रतिवेदन वह संबंधित राज्यों के राज्यपालों के समक्ष प्रस्तुत करता है और राज्यों के राज्यपाल उसे विधान मण्डल के समक्ष प्रस्तुत करवाते है।

  •  उपर्युक्त शक्तियों के आधार पर कहा जा सकता है कि संविधान द्वारा उसे जनता की निधि से किये गये व्यय की जाँच का महत्वपूर्ण कार्य सौंपा गया है। वह एक तरह से जन-निधि का संरक्षक होता है।

भारत का महान्यायवादी

  • भारतीय संविधान में महान्यायवादी के पद को विशेष रूप से स्थान दिया गया है। भारत का महान्यायवादी भारत सरकार का सर्वप्रथम विधि अधिकारी होता है। महान्यायवादी भारत सरकार का कानून सलाहकार होता है। संविधान के अनुच्छेद 76 में महान्यायवादी के संबंध में प्रावधान दिया गया है।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 76 में कहा गया है कि भारत के महान्यायवादी की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 76 में ही कहा गया है कि राष्ट्रपति किसी भी ऐसे व्यक्ति को महान्यायवादी नियुक्त कर सकता है जो कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने की योग्यताएँ रखता हो। अर्थात्- 

    (i) वह भारत का नागरिक हो;
    (ii) किसी एक या एक से अधिक उच्च न्यायालय में 5 वर्षों तक न्यायाधीश रहा हो, या उच्च न्यायालय में 10 वर्ष तक अधिवक्ता रहा हो;
    (iii) राष्ट्रपति की नजर में प्रसिद्ध विधिवेता हो (अथवा कानून का ज्ञाता हो)।

  •  भारत का महान्यायवादी राष्ट्रपति के प्रसादपर्यन्त (अर्थात् जब तक राष्ट्रपति चाहें) अपने पद पर बना रह सकता है। [ अनु. 76(4)]
  • भारत के महान्यायवादी के वेतन के निर्धारण का अधिकार भी राष्ट्रपति को दिया गया है। वर्तमान में राष्ट्रपति द्वारा महान्यायवादी का वेतन 9000 रु. प्रतिमास निश्चित किया है।

   भारत के महान्यायवादी का यह कत्र्तव्य है कि वह भारत सरकार को कानूनी मामलों में सलाह या परामर्श दे।

  •  समय-समय पर राष्ट्रपति द्वारा निर्देशित अथवा सौंपी गये कानून संबंधी कार्यों का पालन करना।
  •  महान्यायवादी उन कत्र्तव्यों का भी निर्वहन (पालन) करता है जो कि उसे संविधान द्वारा अथवा समय-समय पर प्रवृत (बनायी गई) किसी अन्य विधि (कानून) द्वारा उसे प्रदान किये गये है।
  •  महान्यायवादी को अपने कत्र्तव्यों के उचित ढंग से पालन करने के लिए संसद के दोनों सदनों में या किसी एक सदन में या संसद की समितियों की बैठकों में भाग लेने एवं बोलने का अधिकार दिया गया है।
  •  साथ ही उसे यह अधिकार भी है कि वह भारत राज्य क्षेत्र के सभी न्यायालयों में सुनवाई कर सकता है।
  •  संसद की बैठकों में भाग लेने के दौरान उसे मत देने का अधिकार प्राप्त नहीं होता और नहीं वह मंत्राीमण्डल या मंत्राीपरिषद् का सदस्य ही हो सकता है।
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FAQs on संघीय कार्यपालिका - भारतीय राजव्यवस्था - भारतीय राजव्यवस्था (Indian Polity) for UPSC CSE in Hindi

1. संघीय कार्यपालिका क्या है और इसका महत्व क्या है?
उत्तर: संघीय कार्यपालिका भारतीय राजव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण अंग है। यह केंद्र सरकार के अधीन चलने वाली सरकार होती है और राज्यों की प्रशासनिक और कार्यकारी शक्तियों को प्रशासित करती है। इसका महत्व उसके संविधानिक और नैतिक प्रमाण पर आधारित है, जिससे यह देश में न्यायपूर्ण, प्रभावी और स्थायी प्रशासन सुनिश्चित करती है।
2. संघीय कार्यपालिका में कौन-कौन से अधिकार और कर्तव्य होते हैं?
उत्तर: संघीय कार्यपालिका में केंद्र सरकार के प्रतिनिधि अधिकारी और कर्मचारी होते हैं। इनके अधिकार में नीति निर्धारण, कानून बनाने, राष्ट्रीय रक्षा, विदेश मामले, आर्थिक नीति, केंद्रीय वित्त और प्रशासनिक नियमों का अनुपालन, राज्यों को आर्थिक और वित्तीय सहायता प्रदान करना आदि शामिल होते हैं। कर्तव्यों में संविधान का पालन करना, न्यायपालिका के आदेशों का पालन करना, प्रशासनिक कार्य करना, आर्थिक विकास को सुनिश्चित करना, राष्ट्रीय सुरक्षा की देखरेख करना आदि शामिल होता है।
3. संघीय कार्यपालिका का संघ और राज्यों के बीच क्या संबंध होता है?
उत्तर: संघीय कार्यपालिका का संघ और राज्यों के बीच एक सुशासित और संघत नियंत्रण प्रणाली स्थापित करता है। इसके द्वारा संघ और राज्यों के बीच शक्ति, अधिकार और कर्तव्य विभाजित होते हैं। यह संघीयता के सिद्धांत का पालन करता है और राज्यों को उनके आपातकालीन और स्वतंत्र कार्यों के लिए आवश्यक स्वतंत्रता प्रदान करता है। इसका उद्देश्य संघ और राज्यों के बीच संतुलन बनाना है और देश के सभी हिस्सों के विकास को सुनिश्चित करना है।
4. संघीय कार्यपालिका के तहत कौन-कौन से नियम और विधान होते हैं?
उत्तर: संघीय कार्यपालिका के तहत कई नियम और विधान होते हैं जो संघ और राज्यों के बीच संगठित किए जाते हैं। इनमें संविधान, कानून, नीतियां, नियम और आदेश शामिल होते हैं। संविधान संघ और राज्यों की सरकारी शक्तियों के विभाजन, अधिकार और कर्तव्यों को परिभाषित करता है, जबकि कानून, नीतियां, नियम और आदेश संघ और राज्यों के बीच संगठित प्रशासनिक और कार्यकारी व्यवस्था स्थापित करते हैं।
5. संघीय कार्यपालिका के तहत कौन-कौन से कार्यकारी और प्रशासनिक नियम होते हैं?
उत्तर: संघीय कार्यपालिका के तहत कई कार्यकारी और प्रशासनिक नियम होते हैं जो संघ और राज्यों की प्रशासनिक और कार्यकारी व्यवस्था को संचालित करते हैं। इनमें वित्त नियम, प्रशास
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