UPSC Exam  >  UPSC Notes  >  Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly  >  Essays (निबंध): October 2022 UPSC Current Affairs

Essays (निबंध): October 2022 UPSC Current Affairs | Current Affairs (Hindi): Daily, Weekly & Monthly PDF Download

क्या स्मार्ट सिटी एक दिवास्वप्न है

मेरे खेत की मिट्टी से पलता है तेरे शहर का पेट।
मेरा नादान गाँव अब भी उलझा है कर्ज़ की किस्तों में।।

क्या कहना चाहती है उपुर्यक्त पंक्तियाँ? कौन-सा दर्द छुपा है इनके पीछे? इन चकाचौंध शहरों की रोशनी जाने कितने घरों के चूल्हे जलाती और बुझाती है। हर तरफ एक दौड़-सी है। बेघरों को घर चाहिये, कच्चे घरों को पक्का घर, पक्के घरों को गाँव में पनाह और गाँव को बसने के लिये शहर चाहिये। शहर अब कूड़ेदान की तरह हो गए हैं, जहाँ कचरा और मलबा ही दिखाई देता है। लोगों की इच्छाएँ और शहरों की उलझनें आपस में मिल गई हैं। तो फिर क्या है इसका उपाय? क्या स्मार्ट सिटी जैसी संकल्पनाएँ वास्तव में मूर्त रूप ले सकेंगी? वे कौन-सी चुनौतियाँ हैं जो इसके सामने खड़ी हैं?

देखा जाए तो भारत की वर्तमान जनसंख्या का लगभग 31% शहरों में बसता है और इनका सकल घरेलू उत्पाद में 63% (जनगणना 2011) का योगदान है। यह उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2030 तक शहरी क्षेत्रों में भारत के आबादी की 40% जनसंख्या निवास करने लगेगी। साथ ही भारत के सकल घरेलू उत्पाद में इसका योगदान 75% हो जायेगा। इसके लिये भौतिक, संस्थागत, सामाजिक और आर्थिक बुनियादी ढाँचे के व्यापक विकास की आवश्यकता है। ये सभी जीवन की गुणवत्ता  में सुधार लाने एवं लोगों और निवेश को आकर्षित करने, विकास एवं प्रगति के एक गुणवत्तापूर्ण चक्र की स्थापना करने हेतु महत्त्वपूर्ण है। स्मार्ट सिटी का विकास इसी दिशा में एक कदम माना गया है। स्मार्ट सिटी मिशन स्थानीय विकास को सक्षम और प्रौद्योगिकी की मदद से नागरिकों के लिए बेहतर परिणामों के माध्यम से जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने और उसको आर्थिक विकास की गति देने हेतु भारत सरकार की एक अभिनव पहल है। स्मार्ट मिशन के दृष्टिकोण के तहत हमेशा लोगों को प्राथमिकता दी जाती है। यह लोगों की अहम ज़रूरतों एवं जीवन में सुधार हेतु सबसे बड़े अवसरों पर ध्यान केंद्रित करता है। इस हेतु डिजिटल और सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग तथा सर्वोत्तम शहरी योजनाओं को अपनाना, सार्वजनिक-निजी भागीदारी एवं नीतिगत दृष्टिकोण में बदलाव को प्राथमिकता दी जाती है। इसके दृष्टिकोण के तहत ऐसे शहरों को बढ़ावा देने की बात की गई है जो मूल बुनियादी सुविधाएँ उपलब्ध कराएँ और अपने नागरिकों को एक सभ्य एवं गुणवत्तापूर्ण जीवन प्रदान करने के साथ-साथ एक स्वच्छ तथा टिकाऊ पर्यावरण एवं स्मार्ट समाधानों के प्रयोग का मौका दें।

शहरों के टिकाऊ और समावेशी विकास, जिसके लिये एक रेप्लिकेबल मॉडल अपनाने की आवश्यकता होगी, पर विशेष ध्यान दिया जा रहा है। देशों के विभिन्न हिस्सों में भी इसी तरह की स्मार्ट सिटी के सृजन की बात कही गई है। यह अन्य इच्छुक शहरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत करेगा।

भारत में स्मार्ट सिटी की संकल्पना कोई नई बात नहीं है। इसे सिंधु घाटी सभ्यता के अंतर्गत नगर निर्माण शैली, वास्तुकला एवं उन्नत जल निकासी प्रणाली के रूप में देखा जा सकता है। परंतु आधुनिक विश्व में इसे अलग-अलग परिस्थितियों के अनुरूप परिभाषित किया गया है। हालांकि स्मार्ट सिटी की ऐसी कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है जो सर्वत्र मान्य हो। इसका अर्थ और दायरा समय, परिस्थिति एवं स्थान के अनुरूप परिवर्तनशील है जो विकास के स्तर, सुधार और परिवर्तन की इच्छा, शहर के संसाधनों एवं निवासियों की आकांक्षाओं पर निर्भर करता है।

एक स्मार्ट सिटी वह शहरी क्षेत्र है जहाँ सेंसर का प्रयोग कर इलेक्ट्रॉनिक डाटा के उपयोग से वहाँ के संसाधनों का कुशलतम प्रबंधन किया जाता है। इन संग्रहित डेटा के अंतर्गत नागरिकों के डाटा, विभिन्न उपकरणों से सृजित डाटा, परिसंपत्तियों से एकत्रित डाटा को शामिल किया जाता है। डाटा का प्रयोग यातायात और परिवहन प्रणाली, विद्युत संयंत्र, जलापूर्ति नेटवर्क, अपशिष्ट प्रबंधन, विधि प्रवर्तन, सूचना प्रणाली, स्कूलों, पुस्तकालयों, अस्पतालों की निगरानी और प्रबंधन हेतु किया जाता है। किसी भी स्मार्ट सिटी का मुख्य उद्देश्य प्रौद्योगिकी का प्रयोग करते हुए प्रभावी तरीके से नागरिक सेवाओं की आपूर्ति सुनिश्चित करना है ताकि सतत् एवं समावेशी विकास को बढ़ावा मिले तथा पर्यावरण संरक्षण संभव हो सके।

भारत में स्मार्ट सिटी मिशन स्थानीय विकास को सक्षम बनाने एवं प्रौद्योगिकी की सहायता से नागरिकों हेतु बेहतर उपादानों के माध्यम से जीवन की गुणवत्ता में सुधार करने तथा आर्थिक विकास को गति प्रदान करने हेतु आरंभ किया गया है। 

स्मार्ट सिटी हेतु स्मार्ट समाधान

  • ई-गवर्नेस और नागरिक सेवाएँ: सार्वजनिक सूचनाएँ एवं शिकायत निवारण तंत्र, इलेक्ट्रॉनिक सेवा वितरण, वीडियो अपराध निगरानी तंत्र का विकास
  • अपशिष्ट प्रबंधन: अपशिष्ट का ऊर्जा में रूपांतरण, अपशिष्ट जल प्रबंधन तथा अपशिष्ट से कंपोस्ट बनाना
  • जल प्रबंधन: आधुनिक जल प्रबंधन प्रणाली जैसे आधुनिक मीटर लगाना, जल गुणवत्ता की जाँच
  • ऊर्जा प्रबंधन: आधुनिक ऊर्जा प्रबंधन, स्मार्ट मीटर, नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत का प्रयोग, ऊर्जा दक्ष ग्रीन भवन
  • शहरी गतिशीलता: स्मार्ट पार्किंग, इंटेलिजेंट यातायात प्रबंधन, एकीकृत मल्टी मॉडल ट्रांसपोर्ट का विकास
  • टेली मेडिसीन एवं शिक्षा, व्यापार सुविधा केंद्र, कौशल केंद्रों की स्थापना

स्मार्ट सिटी भारत सरकार की एक महत्वाकांक्षी योजना है। इस योजना के साथ कई चुनौतियाँ भी जुड़ी हुई है जो निम्न है-

  • वित्तपोषण: सबसे बड़ी चुनौती वित्तपोषण की है, क्योंकि इन्हें वित्तपोषित करने वाले बैंक एवं वित्तीय संस्थाएँ एनपीए की समस्या से जूझ रही हैं।
  • केंद्र एवं राज्य सरकार के मध्य समन्वय: विभिन्न सरकारी निकायों के मध्य समन्वय का अभाव देखा जा रहा है। यहाँ क्षैतिज और उर्ध्वाधर दोनों दिशाओं में समन्वय की आवश्यकता महसूस की जा रही है।
  • निश्चित मास्टर प्लान का अभाव: भारतीय शहरों में किसी भी तरह के निश्चित मास्टर प्लान का अभाव पाया जाता है जिससे स्मार्ट सिटी परियोजना को सरलता एवं कुशलतापूर्वक लागू करने का कार्य चुनौतीपूर्ण बन गया है।
  • समय सीमा का तय न होना: कितने समय में इस योजना के कितने भाग को पूर्ण करना चाहिये, इस पर योजना के प्रावधान मौन है।
  • सुविधाओं का अभाव: इस योजना के सफल क्रियान्वयन हेतु उन्नत प्रौद्यौगिकी, कुशल मानवश्रम, कुशल जनशक्ति, जागरूक नागरिक तथा वृहद एवं सशक्त डेटाबेस की आवश्यकता है, जिसका अभाव देखा जाता है।
  • भ्रष्टाचार की उपस्थिति: यह एक प्रमुख समस्या है जो केंद्र तथा राज्य दोनों स्तर पर समन्वय में विसंगति तथा परियोजनाओं के अप्रभावी निष्पदन का कारण बनती है।

उपर्युक्त चुनौतियों के समाधान हेतु सरकार द्वारा सभी संभव कदम उठाए जा रहे हैं, जैसे बजट में बदलाव कर वित्त पोषण हेतु अन्य प्रावधान किए गए हैं एवं पीपीपी की अवधारणा को अपनाते हुए इसके क्रियान्वयन पर बल दिया जा रहा है। साथ ही केंद्र-राज्य एवं स्थानीय संस्थाओं में समन्वय के अभाव को दूर करने हेतु सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने के रूप में एसपीवी के गठन का प्रावधान किया गया है। इनके अलावा मास्टर प्लान के तैार पर नियोजित रूप से स्मार्ट सिटी के विकास हेतु क्षेत्र आधारित विकास के रणनीतिक घटक के रूप में पुनर्निर्माण, पुनर्विकास तथा ग्रीनफील्ड विकास के साथ ही पैन सिटी प्रयासों के तहत स्मार्ट प्रावधान को भी लागू किया जाना है। इसके साथ ही प्रौद्योगिकी संबंधित समस्याओं को सुलझाने हेतु कौशलकृत मानव संसाधन की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिये स्टाफ के कौशल उन्नयन तथा प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई है। भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं को देखते हुए इससे संबंधित अधिकांश गतिविधियों को ऑनलाइन तथा इंटरनेट के माध्यम से पूरा किये जाने की व्यवस्था की गई है।

अगर एक ऐसे शहर की कल्पना की जा सके जिसकी सड़कों पर स्थित हर खंभे पर कैमरे लगे हो, रात में पैदल यात्री के उपस्थित होने पर बल्ब स्वत: जल जाएँ या बंद हो जाए, सूर्य की रोशनी के अनुरूप घरों की लाइटें घटाई-बढ़ाई जा सके और शिक्षक की गैर हाज़िरी में भी किसी दूसरे स्कूल का शिक्षक वीडियों कॉन्फ्रेसिंग के जरिए पढ़ा सके तो यही है स्मार्ट सिटी। स्मार्ट सिटी परियोजना जितनी महत्वाकांक्षी है इसके लाभ भी उतने ही व्यापक है। इससे देश में अधिक पारदर्शी सुशासन तथा व्यापार हेतु अनुकूल वातावरण का निर्माण होगा।

आर्थिक विकास की कीमत प्राकृतिक आपदाएँ

मेयर व बाल्डविन के अनुसार- ‘‘आर्थिक विकास वह प्रव्रिया है जिसके द्वारा एक अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय दीर्घकाल में बढ़ती है।’’ वही प्रसिद्ध अर्थशास्त्री महबूब उल हक अपनी पुस्तक में विकास की प्रव्रिया को निर्धनता के विकालित स्वरूप में आव्रमण मानते हुए कहते हैं कि विकास के उद्देश्य कुपोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी एवं असमानता को दूर करने से संबंधित होने चाहिये। परंतु समय के साथ आर्थिक विकास का संबंध प्राकृतिक आपदाओं के साथ होता चला गया। सामान्यतया सभी लोग विकास के दूरगामी दुष्परिणामों के प्रति उतने सजग नहीं है। क्योंकि भारत जैसे निम्न आय वाले देशों में आकृतिक आपदाओं के साथ होता चला गया। सामान्यतया सभी लोग विकास के दूरगामी दुष्परिणामों के प्रति उतने सजग नहीं है। क्योंकि भारत जैसे निम्न आय वाले देशों में आर्थिक विकास पर्यावरणीय मुद्दों से कहीं अधिक गंभीर समस्या है। विकासशील देश वर्तमान में सभी लोगों के लिये आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराने में ही असमर्थ हैं। गरीबों के लिये पर्यावरणीय संपदा उपभोग की प्रथम वस्तु मानी जाती है जिसके दोहन द्वारा वे अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी करते हैं।

परंतु उच्च सामूहिक उपभोग की दशा में अमीर वर्ग के लोग आते हैं, जो अपनी मूल आवश्यकताएँ पूरी कर चुके हैं। इस स्थिति में पर्यावरणीय संपदा उनके लिये विलासिता की वस्तुएँ बन जाती हैं। इसलिये विकसित और विकासशील देशों के दृष्टिकोण में अंतर पाया जाता है। पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर गरीब देशों में वर्तमान की चिंताओं पर भविष्य की आपदाएँ कम गंभीर प्रतीत होती हैं। अत: अमीर वर्ग पर्यावरणीय चिंताओं को विकास पर प्राथमिकता देता है और गरीब वर्ग विकास कार्यों को ज्यादा जरूरी समझता है।

आज विश्व यह मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ कि ऐसे तरीकों को विकसित किया जाए जिसे विकास और पर्यावरण के मध्य बिगड़ते संबंधों में समन्वय और संतुलन स्थापित किया जा सके। प्रमुख अर्थशास्त्री कुजनेट्स के अनुसार विकास के प्रारंभिक दोर में पर्यावरणीय ह्यस अनिवार्य है और एक निश्चित स्तर प्राप्त कर लेने के बाद ही उसका संरक्षण और सुधार संभव है। परंतु विभिन्न रिपोर्ट एवं अध्ययन से यह बात सामने आई है कि आर्थिक विकास में उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ ही पर्यावरणीय संतुलन भी प्रभावित होता है।

जहाँ आर्थिक विकास मानव जीवन का अनिवार्य पहलू है, वहीं प्राकृतिक संतुलन अस्तित्व संरक्षण हेतु अपरिहार्य माना जाता है। देखा जाए तो तमाम प्राकृतिक आपदाएँ मानवजनित गतिविधियों के कारण उत्प्रेरित और उत्पन्न हो रही हैं, जिनसे व्यापक रूप से जन-धन की हानि होती है। इसे देखते हुए स्थायी विकास जिसका स्वरूप समावेशी एवं सतत् हो, को अपनाया जाना आवश्यक हैं स्थायी विकास एक ऐसी प्रव्रिया है जिसमें संसाधनों के उपयोग, निवेश की दिशा, तकनीकी विकास के झुकाव और संस्थागत परिवर्तन का तालमेल वर्तमान एवं भविष्य की आवश्यकताओं के साथ बैठाया जाता है। स्थायी विकास की कुछ शर्तें हैं जो निम्नलिखित प्रकार से हैं-

  • उपभोक्ता मानव जाति तथा उत्पादक प्रणाली के बीच सहजीविता संबंध
  • पारिस्थितिकी और अर्थव्यवस्था के बीच पूरक संबंध

अगर विकास स्थायी और सतत् न हो तो उनके परिजन दूरगामी होते हैं। आमतौर पर घटित होने वाली कुछ आपदा यथा बाढ़, भूकंप, सूखा, चव्रवात, सुनामी, भूस्खलन आदि ऐसी है जिनका मानवीय प्रभाव संबंधी आकलन बेहद आवश्यक है। अगर बाढ़ की बात की जाए तो यह एक ऐसी त्रासदी हे जो कई सभ्यताओं के पतन का कारण बना है। जब अत्यधिक वर्षा के कारण भूमि के जल सोखने की क्षमता कम हो जाती है और नदियों के जलस्तर में अत्यधिक वृद्धि हो जाती हे तब बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। अवैध खनन, नदियों का प्रदूषण, वातावरण में जहरीली गैसों में वृद्धि, तापमान में वृद्धि, भूमि प्रदूषण, ग्लेशियरों के पिघलने आदि से जहाँ जलवायु परिवत्रन का खतरा बढ़ा है, वहीं बाद की विभीषिका में भी वृद्धि हुई है। भूमि की जल अवशोषण क्षमता की कमी तथा जल निकासी की समुचित व्यवस्था के अभाव, जो वर्तमान नगरीकरण की सबसे बड़ी समस्या है, के कारण बाढ़ के खतरे में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। कभी-कभी बड़े जलाशयों व बांधों से जल छोड़ने पर या भूस्खलन से भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। भारत में बाढ़ प्राय: हर वर्ष आती है जो अपने साथ भयंकर तबाही लेकर आती है। भारत के कुछ राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल का लगभग आधा हिस्सा बाढ़ से प्रभावित है। इसके बावजूद भी अभी तक भारत में बाढ़ से निपटने हेतु कुशल आपदा प्रबंधन तंत्र का विकास नहीं हो पाया है।

दूसरी तरफ हम पाते हैं कि पर्यावरणीय असंतुलन एवं जलवायु परिवर्तन के कारण सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाएँ निरंतर घटित हो रही हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्य इसके प्रत्यक्ष उदाहरण रहे हैं जहाँ कृषकों ने प्राकृतिक आपदा के कारण आत्महत्या जैसे कदम तक उठाए। सूखा एक भयावह समस्या है जिसने कृषक संस्कृति की कमर तोड़ दी है। सूखा वस्तुत: सामान्य भौगोलिक क्षेत्रों में वर्षा की संभावना के बावजूद होने वाली वर्षा की कमी को कहते हैं। वनों को तेजी से विनाश, भू-जल का अत्यधिक दोहन ने पूरे जलचव्र के संतुलन को अव्यवस्थित कर दिया है। ग्लोबलवार्म़िग, अलनिनो से सागरीय धारा का दोलन चव्र परिवतर्तित हो रहा है। फसल प्रतिरूप में होने वाले परिवर्तन को भी सूखे का एक कारण माना जाता है। वर्षा जल का अनियोजित प्रबंधन भी सूखे को स्थिति के लिये जिम्मेदार माना जाता है।

चव्रवात, भूकंप, सुनामी, भूस्खलन एवं बादल का फटना जैसी पर्यावरणीय संकअ मुख्यतया प्राकृतिक कारणों से होते हैं परंतु मानवीय गतिविधियों द्वारा इनमें तीव्रता प्रदान की जाती है जो भविष्य में प्राकृतिक आपदा बनकर उभरता है। वनों के कटाव से पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन में वृद्धि होती है। सागर तटीय क्षेत्रों में मैंग्रोव वनस्पतियाँ बाढ़, चव्रवात एवं सुनामी की तीव्रता को बाधित करती हैं। खनन के कारण भी भूकंप एवं भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। पर्वतीय इलाकों में विकास कार्यों के बनाए गए सड़क, पुल एवं इमारतों के कारण चट्टानों के स्वरूप में परिवर्तन आ जाता है और चट्टाने कमजोर होकर प्राकृतिक उछेलनों का सामना नहीं कर पाती।

इन सभी गंभीर स्थितियों को ध्यान में रखते हुए विकास के पैमाने को पर्यावरण के सापेक्ष निर्धारित करना होगा एवं निर्माण कार्यों के दौरान पर्यावरणीय मानकों का समुचित पालन जरूरी है। विकास तभी टिकाऊ और गुणवत्तापूर्ण होगा जब प्रकृति के साथ संतुलन स्थापित होगा। विकास के मूल ढाँचे को प्रकृति के अनुरूप निर्धारित करके ही धारणीयता की संकल्पना को मूर्त रूप प्रदान किया जा सकता है। पृथ्वी सम्मेलन के एजेंडा-21 के 8वें अध्याय से देशों की सरकारों से राष्ट्रीय आर्थिक लेखा की वर्तमान प्रणाली के विस्तार की बात कही गई है ताकि लेखांकन ढाँचे में पर्यावरणीय और सामाजिक पहलुओं के साथ-साथ कम-से-कम सभी सदस्य राष्ट्रों की प्राकृतिक संसाधन प्रणाली को शामिल किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र द्वारा राष्ट्रीय लेखा प्रणाली में संशोधन करके समन्वित पर्यावरण और आर्थिक लेखांकन प्रणाली के रूप में नई समग्र व्यवस्था का लक्ष्य रखा है।

आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण में आई गिरावट की क्षतिपूर्ति के लिये आर्थिक गतिविधियों में होने वाले मूल्य संवर्द्ध्रन को यदि सकल घरेलू उत्पाद से घटा दिया जाए तो अर्थव्यवस्था के विकास का सही संकेतक प्राप्त किया जा सकता है। आर्थिक विकास और प्राकृतिक पहलुओं के संबंध में नीति बनाते समय इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि पर्यावरणीय समस्याएँ मूलत: स्थानीय है और स्थानीयता के संदर्भ में ही उनका समाधान किया जाना चाहिये। शिक्षा में पर्यावरण मूल्य की स्थापना का भरपूर प्रयास होना चाहिये। यदि नागरिकों में पर्यावरण संरक्षण का मूल्य विकसित हो जाए तो कानून बनाने और लागू करने की समस्याएँ स्वत: समाप्त हो जाएगी।

वैश्वीकरण की आड़ में संरक्षणवाद

वैश्वीकरण का आशय विश्व अर्थव्यवस्था में खुलापन, बढ़ती आत्मनिर्भरता तथा आर्थिक एकीकरण के विस्तार से लगाया जाता है। वैश्वीकरण के तहत विश्व बाज़ारों के मध्य पारस्परिक निर्भरता की स्थिति उत्पन्न होती है तथा देश की सीमाओं को पार करते हुए व्यवसायों का स्वरूप विश्वव्यापी हो जाता है। वैश्वीकरण के तहत ऐसे प्रयास किये जाते हैं कि विश्व के सभी देश व्यवसाय एवं उद्योग के क्षेत्र में एक-दूसरे के साथ सहयोग एवं समन्वय स्थापित कर सकें। परंतु वर्तमान समय में वैश्वीकरण के प्रयासों के मध्य संरक्षणवाद ने पनाह ले ली है। संयुक्त राज्य अमेरिका जो स्वंय को वैश्वीकरण का पैरोकार कहता था, आज संरक्षणवादी नीतियों को प्रश्रय देने लगा है। यह बात सोचने वाली है कि एक समय तक वैश्वीकरण का नेतृत्व करने वाला देश अचानक से संरक्षणवादी नीतियों को प्र‌श्रय क्यों देने लगा है। अमेरिका का यह झुकाव क्या सिर्फ राष्ट्रवाद है या फिर वर्तमान में स्वतंत्र व्यापार का स्वरूप विकृत होने लगा है? क्या स्वतंत्र व्यापार में आई कमियों को सिर्फ संरक्षणवाद से ही दूर किया जा सकता है?

गौरतलब है कि वैश्वीकरण एवं संरक्षणवाद एक-दूसरे की विपरीत अवधारणाएँ हैं। वैश्वीकरण स्वतंत्र व्यापार पर आधारित होता है, जहाँ पर बिना किसी भेदभाव के वस्तुओं एवं सेवाओं का स्वतंत्र व्यापार होता है। परंतु इसके विपरीत संरक्षणवादी नीति में विदेशी उत्पादों के साथ भेदभाव कर उनकी कीमतों या मात्रा आदि को दुष्प्रभावित किया जाता है।

इसकी वजह विदेशी उत्पादों की प्रतिस्पर्द्धात्मकता में कमी एवं उनके बदले स्वदेशी उत्पादों की मांग में वृद्धि करनी होती है।

इस प्रकार सरकारें घरेलू उद्योगों को विदेशी प्रतिस्पर्द्धा से सुरक्षा प्रदान करती है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में संरक्षण के अनेक तरीके प्रचलन में हैं। संरक्षण का प्रथम तरीका है विदेशी उत्पादों पर आयात शुल्क में वृद्धि करना। हम देखते है कि आयात शुल्क बढ़ जाने से विदेशी उत्पाद, घरेलू उत्पादों की तुलना में कम प्रतिस्पर्द्धी हो जाते हैं तथा उनकी मांग कम हो जाती है। संरक्षण का दूसरा तरीका है कोटा निर्धारण। इसके तहत सरकार आयातित वस्तुओं की अधिकतम मात्रा का निर्धारण करती है एवं इस निर्धारित मात्रा से अधिक वस्तुओं का देश में आगमन प्रतिबंधित हो जाता है। इस प्रकार घरेलू उद्योग उन वस्तुओं की प्रतिस्पर्द्धा से बच जाते हैं। संरक्षण का तीसरा तरीका घरेलू उत्पादों को सहायता देकर उनकी कीमतों में कमी लाना है। इससे इन उत्पादों की कीमत विदेशी उत्पादों की तुलना में कम हो जाती है एवं वे सस्ते हो जाते हैं और उनकी मांग में वृद्धि हो जाती है। इसके अतिरिक्त सरकारें इच्छानुसार भी अपनी मुद्रा के मूल्य को विदेशी मुद्रा की तुलना में कम कर देती हैं। इससे भी देश का आयात महँगा होकर हतोत्साहित होता है तथा देश के निर्यात को प्रोत्साहन मिलता है। अंतत: घरेलू उत्पादों की मांग में वृद्धि होती है। इस प्रकार हम पाते हैं कि अवमूल्यन भी घरेलू उद्योगों के संरक्षण के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण होता है।

सैद्धांतिक रूप से अगर देखें तो संरक्षणवादी नीति से भले ही विदेशी वस्तुओं के साथ भेदभाव द्वारा घरेलू उद्योगों को संरक्षण प्रदान किया जाता है परंतु व्यावहारिक रूप से देखने पर पता चलता है कि संरक्षण संबंधी नीतियों से प्रभावित देश इसके विरोध में प्रतिक्रिया करते हैं जिससे अंतत: व्यापार युद्ध का जन्म होता है। इस व्यापार युद्ध के कारण विदेशी उत्पादों के साथ भेदभाव के स्तर में वृद्धि हो जाती है।

अगर वर्तमान वैश्विक अर्थव्यवस्था पर गौर करें तो हम पाते हैं कि मौजूदा समय में भी व्यापार युद्ध जैसी स्थिति उत्पन्न हो गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका एवं चीन जैसे देश अपनी संरक्षणवादी नीतियों के कारण विश्व व्यापार संगठन के नियमों को भी धता बता रहे हैं। मौजूदा व्यापार युद्ध की पृष्ठभूमि पिछले कई वर्षों से तैयार हो रही थी। अमेरिका द्वारा अपने यहाँ आयातित स्टील एवं एल्युमीनियम पर आरोपित आयात कर में वृद्धि ने इसे मुख्यपृष्ठ पर लाकर खड़ा कर दिया है। अमेरिका द्वारा आायात कर में की गई वृद्धि को विश्व समुदाय द्वारा संरक्षणवादी रवैया करार दिया गया। इसके फलस्वरूप चीन सहित अनेक यूरोपीय देशों ने अमेरिका से आयातित अनेक उत्पादों पर आयात कर में वृद्धि कर दी। हालाँकि अमेरिका द्वारा इस पर कड़ा ऐतराज जताया गया।

गौरतलब है कि अमेरिका अपने द्वारा उठाए गए इस कदम को न तो स्वतंत्र व्यापार के खिलाफ मानता है और न ही वैश्वीकरण के विरुद्ध।

अमेरिका के अनुसार, यह कदम उसने व्यापार अधिनियम, 1974 की धारा 301 के तहत अपारदर्शी एवं अनुचित व्यापार गतिविधियों के विरुद्ध उठाया है। उसका तर्क है कि विश्व के अनेक देशों ने अपने यहाँ आयात कर की दर काफी ऊँची कर रखी है, जबकि अमेरिका में यह काफी नीची है। ऐसे में वह मानता है कि वैश्विक स्वतंत्र व्यापार संतुलित नहीं है क्योंकि दूसरे देशों के उत्पाद तो अमेरिका में काफी सुगमता से कम कीमतों पर आ जाते हैं, जबकि अमेरिकी उत्पादों के साथ दूसरे देशों में काफी भेदभाव होता है।

अमेरिका चीन पर भी अनैतिक व्यापार नीतियों के पालन का आरोप लगाता रहा है। उसके अनुसार, चीन भी विश्व व्यापार नियमों के विरुद्ध कार्य करता है। अमेरिकी राष्ट्रपति वर्तमान में ‘अमेरिका प्रथम’ की नीति का पालन कर रहे है जिसके अनुसार अमेरिकी हितों की पूर्ति पहले होनी चाहिये एवं अन्य देशों के हितों का संरक्षण उसके बाद में होना चाहिये। अमेरिकी राष्ट्रपति की यह नीति अमेरिकी उद्योगों की मंद विकास गति को तीव्र करने तथा वहाँ की बेरोज़गार जनता को रोज़गार दिलाने एवं अमेरिकी आर्थिक संवृद्धि को तीव्र करने हेतु लाई गई है। अमेरिका के संरक्षणवादी रुख को उसके सामरिक सुरक्षा जैसे हितों से जोड़कर भी देखा जा रहा है। अमेरिका स्टील एवं एल्युमीनियम जैसे सामरिक महत्त्व की धातुओं के उत्पादन हेतु स्वयं चीन पर निर्भर नहीं रहना चाहता।

इस व्यापार युद्ध के विश्व में गंभीर आर्थिक-राजनीतिक दुष्परिणाम निकलने की आशंका जताई जा रही है। इस व्यापार युद्ध से विश्व पुन: वैश्विक आर्थिक मंदी की ओर जा सकता है। स्वतंत्र प्रतिस्पर्द्धा खत्म होने से उत्पादकता एवं उत्पादन में भी कमी आएगी। इस प्रकार संरक्षणवादी दृष्टिकोण अपनाने से विश्व के उपभोक्ताओं को ऊँची लागत पर कम गुणवत्ता वाली वस्तुएँ प्राप्त होंगी।

व्यापार युद्ध के सकारात्मक पक्ष को देखने वालों का मानना है कि इससे दीर्घकाल में परस्पर सहयोग में वृद्धि होगी। यह व्यापार युद्ध वर्तमान आयात कर की विभेदी संरचना में समानता लाएगा एवं विश्व व्यापार संगठन को और मज़बूत बनाएगा। संरक्षण के मुद्दे पर फ्राँसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों का कहना था कि ‘‘दुनिया के लिये अपने दरवाज़े बंद कर लेने से हम दुनिया को आगे बढ़ने से नहीं रोक सकते हैं। यह हमारे नागरिकों के भय को कम नहीं करेगा अपितु उसे और भी बढ़ाएगा। हम अतिवादी राष्ट्रवाद के उन्माद से दुनिया की उम्मीद को नुकसान पहुँचने नहीं दे सकते हैं’’। आज यह कथन सत्य प्रतीत होता है।

भले ही स्वतंत्र व्यापार की विसंगतियों को दूर करने का उद्देश्य पवित्र हो परंतु इसे वैश्विक मंच से समावेशी दृष्टिकोण द्वारा ही दूर किया जा सकता है और तभी WTO जैसी संस्था को पारदर्शी एवं परस्पर सहयोगी बनाया जा सकेगा।

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