स्वभाव की गंभीरता, मन की समता, संस्कृति के अंतिम पाठों में से एक है और यह समस्त विश्व को वश में करने वाली शक्ति में पूर्ण विश्वास से उत्पन्न होती है।
अगर भारत के संदर्भ में बात की जाए तो भारत एक विविध संस्कृति वाला देश है, एक तथ्य कि यहाँ यह बात इसके लोगों, संस्कृति और मौसम में भी प्रमुखता से दिखाई देती है। हिमालय की अनश्वर बर्फ से लेकर दक्षिण के दूर दराज में खेतों तक, पश्चिम के रेगिस्तान से पूर्व के नम डेल्टा तक, सूखी गर्मी से लेकर पहाड़ियों की तराई के मध्य पठार की ठंडक तक, भारतीय जीवनशैलियाँ इसके भूगोल की भव्यता स्पष्ट रूप से दर्शाती है। एक भारतीय के परिधान, योजना और आदतें इसके उद्भव के स्थान के अनुसार अलग-अलग होते हैं।
भारती संस्कृति अपनी विशाल भौगोलिक स्थिति के समान अलग-अलग है। यहाँ के लोग अलग-अलग भाषाएँ बोलते हैं, अलग-अलग तरह के कपडे़ पहनते हैं, भिन्न-भिन्न धर्मों का पालन करते हैं, अलग-अलग भोजन करते हैं किंतु उनका स्वभाव एक जैसा होता है। चाहे कोई खुशी का अवसर हो या कोई दुख का क्षण, लोग पूरे दिल से इसमें भाग लेते हैं, एक साथ खुशी या दर्द का अनुभव करते हैं। एक त्यौहार या एक आयोजन किसी घर या परिवार के लिये समिति नहीं है। पूरा समुदाय या आस-पड़ोस एक अवसर पर खुशियाँ मनाने में शामिल होता है, इसी प्रकार एक भारतीय विवाह मेल-जोल का आयोजन है, जिसमें न केवल वर और वधु बल्कि दो परिवारों का भी संगम होता है। चाहे उनकी संस्कृति या फिर धर्म का मामला क्यों न हो। इसी प्रकार दुख में भी पड़ोसी और मित्र उस दर्द को कम करने में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
भारतीय संस्कृति के बारे में पं. मदनमोहन मालवीय का कहना है कि ‘‘भारतीय सभ्यता और संस्कृति की विशालता और उसकी महत्ता तो संपूर्ण मानव के साथ तादात्म्य संबंध स्थापित करने अर्थात् ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की पवित्र भावना में निहत है।
भारत का इतिहास और संस्कृति गतिशील है और यह मानव सभ्यता की शुरूआत तक जाती है। यह सिंधु घाटी की रहस्यमयी संस्कृति से शुरू होती है और भारत के दक्षिणी इलाकों में किसान समुदाय तक जाती है। भारत के इतिहास में भारत के आस-पास स्थित अनेक संस्कृतियों से लोगों का निंरतर समेकन होता रहा है। उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार लोहे, तांबे और अन्य धातुओं के उपयेाग काफी शुरूआती समय में भी भारतीय उप-महाद्वीप में प्रचलित ये, जो दुनिया के इस हिस्से द्वारा की गई प्रगति का संकेत है। चौथी सहस्राब्दि बी.सी. के अंत तक भारत एक अत्यंत विकसित सभ्यता के क्षेत्र के रूप में उभर चुका था।
संस्कृति के शब्दिक अर्थ की बात की जाए तो संस्कृति किसी भी देश, जाति और समुदाय की आत्मा होती है। संस्कृति से ही देश, जाति या समुदाय के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों आदि का निर्धारण करता है। अत: संस्कृति का साधारण अर्थ होता है- संस्कार, सुधार, परिवार, शुद्धि, सजावट आदि। वर्तमान समय में सभ्यता और संस्कृति को एक-दूसरे का पयार्य माना जाने लगा है लेकिन वास्तव में संस्कृति और सभ्यता अलग-अलग होती है। सभ्यता में मनुष्य के राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, प्रौद्योगिकीय व दृश्य कला रूपों का प्रदर्शन होता है जो जीवन को सुखमय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जबकि संस्कृति में कला, विज्ञान, संगीत, नृत्य और मानव जीवन की उच्चतम उपलब्धियाँ सम्मिलित है।
भारतीय संस्कृति विश्व की प्राचीनतम संस्कृतियों में से एक है। यह माना जाता है कि भारतीय संस्कृति यूनान, रोम, मिस्र, सुमेर और चीन की संस्कृतियों के समान ही प्राचीन है। भारत विश्व की सबसे पुरानी सभ्यताओं में से एक है जिसमें बहुरंगी विविधता और समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है। इसके साथ ही यह अपने-आप को बदलते समय के ढालती भी आई है।
‘‘यूनान-ओ-मिस्र-ओ-रोमां, सब गिर गए जहाँ से अब तक मगर है बाकी नाम-ओ-निशाँ हमारा,
ज्ब से मसव का जीवन अस्तित्व में है तब से वह निरंतर उन मूल्यों की तरफ अग्रसर है, जिनकों प्राप्त कर लेने पर उसका जीवन व्यवस्थित होने के साथ-साथ ‘आत्मिक सौंदर्य’ से भी परिचित हो सके। उसकी यह प्रवृत्ति वास्वत में संस्कृति की ओर ही इशारा करती है। भारतीय संस्कृति समस्त मानव जाति का कल्याण चाहती है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन गौरवशाली मान्यताओं एवं परंपराओं के साथ ही नवीनता का समावेश भी दिखाई देता है। भारतीय संस्कृति विभिन्न सांस्कृतिक धाराओं का महासंगम है, जिसमें सनातन संस्कृति से लेकर आदिवासी, तिब्बत, मंगोल, द्रविड़, हड़प्पाई और यूरोपीय धाराएँ समाहित हैं। ये धाराएँ भारतीय संस्कृति को इंद्रधनुषीय संस्कृति या गंगा-जमुनी तहज़ीब में परिवर्तित करती है।
अगर भारतीय संस्कृति के समन्वित रूप पर विचार करें तो इसमें विभिन्न विशेषताएँ देखने को मिलती हैं। भारतीय संस्कृति में अध्यात्म एवं भौतिकता’ में समन्वय नजर आता है। भारतीय संस्कृति में प्राचीनकाल में मनुष्य के चार पुरूषार्थों धर्म, अर्ध, काम, मोटर्स एवं चार आश्रमों- ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास का उल्लेख है, जो आध्यात्मिकता एवं भौतिक पक्ष में समन्वय लाने का प्रयास है। उल्लेखनीय है कि भारतीय संस्कृति ने अनेक जातियों के श्रेष्ठ विचारों को अपने में समेट लिया है। भारतीय संस्कृति में यहां के मूल निवासियों के समन्वय की प्रक्रिया के साथ ही बाहर से आने वाले शक, हूण, यूनानी एवं कुषाण भी यहां की संस्कृति में घुल-मिल गए हैं। अरबों, तुर्कों और मुगलों के माध्यम से यहाँ इस्लामी संस्कृति का आगमन हुआ। इसके बावजूद भारतीय संस्कृति ने अपना पृथक अस्तित्व बनाए रखा और नवागत संस्कृतियों की अच्छी बातों को उदारतापूर्वक ग्रहण किया। आज हम भाषा, खानपान, पहनावे, कला, संगीत आदि हर तरह से गंगा-जमुनी तहजीब या यूँ कहें कि वैश्विक संस्कृति के नमूने हैं। कौन कहेगा कि सलवार-सूट ईरानी पहनावा है या हलवा, कबाब, पराठे, ‘शुद्ध भारतीय व्यंजन नहीं हैं।
इस बिंदु पर विचार करना जरूरी है कि हड़प्पाकालीन सभ्यता की पंरपराएँ एवं प्रथाएँ आज भी भारतीय संस्कृति में देखने को मिल जाती है, यथा-मातृदेवी की उपासना, पशुपतिनाथ की उपासना, यांग-आसन की परंपरा इत्यादि। इसके अलावा भारतीय संस्कृति में ‘प्रकृति मानव सहसंबंध’ पर बल दिया गया है। हमारी संस्कृति मानव, प्रकृति और पर्यावरण के अटूट एवं साहचर्य संबंधों को लेकर चलती है। भारतीय उपनिषदों में ‘ईशावास्यइंद सर्वम्’ अर्थात् जगत् के कण-कण में ईश्वर की व्याप्तता को स्वीकार किया गया है।
यहाँ के विभिन्न विचारकों एवं महापुरूशों ने भारतीय संस्कृति को समन्वित रूप प्रदान करने वाले विचार प्रस्तुत किये हैं। फिर चाहे बुद्ध, तुलसीदास हो या गांधी जी, इन सभी को भारतीय संस्कृति के नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है तथा ये सभी चरित्र भारतीय संस्कृति को समन्वित स्वरूप देते हैं। भारत की विभिन्न कलाओं, जैसे- मूर्तिकला, नृत्यकला, चित्रकला, लोकसंस्कृति इत्यादि में भारतीय संस्कृति के समन्वित स्वरूप को देखा जा सकता है। विभिन्न धर्म, पंथों एवं वर्गों के लोगों का नेतृत्व इन कलाओं में दृष्टिगोचर होता है, जैसे- मध्यकाल में इंडो-इस्लामिक स्थापत्य कला और आधुनिक काल में विक्टोरियन शैली। भारतीय संस्कृति का समन्वित रूप केवल भौगोलिक-राजनीतिक सीमाओं में ही नहीं है बल्कि उसके बाहर भी है। भारत के अंदर बौद्ध, जैन, हिंदू, सिख, मुस्लिम, ईसाई आदि धर्मों के लोग एवं उनके पूज्य-स्थल हैं, जो ‘शांतिपूर्ण’ सहअस्तित्व को दर्शाते हैं।
विदित हो कि संस्कृति का स्वरूप ‘साहित्य’ में सबसे अधिक समर्थयपूर्ण तरीके से अभिव्यंजित होता है। संस्कृति साहित्य कर प्राण है। साहित्य की विभिन्न विधाओं में संस्कृति के प्रभाव को देखा जा सकता है। यहाँ की संस्कृति के आधारभूत मूल्य दया, करूणा, प्रेम, शांति, सहिष्णुता, लचीलापन, क्षमाशीलता इत्यादि को भारतीय साहित्य में समुचित तरीके से अभिव्यक्ति दी गयी है। भारतीय संस्कृति का यह समन्वित रूप संस्कृति भाषा के माध्यम से रामायण, महाभारत, गीता, कालिदास-भवभूति-भास के काव्यों और नाटकों, के माध्यम से बार-बार व्यक्त हुआ है। तमिल का संगम साहित्य, तेलुगु का अवधान साहित्य, हिंदी का भक्ति साहित्य, मराठी को पोवाड़ा, बंगला का मंगल नीति आदि भारतीय उद्यान के अनमोल फूल हैं।
इनकी संयुक्त माला निश्चय ही ‘समेकित भारतीय संस्कृति’ का प्रतिनिधित्व करती है। तुलसीदास मध्यकाल में भारतीय संस्कृति के समन्वय के सबसे बड़े कवि के रूप में नजर आते हैं।
भारतीयों ने गणित व खगोल विज्ञान पर प्रामाणिक व आधारभूत खोज की। शून्य का आविष्कार, पाई का शुद्धतम मान, सौरमंडल पर सटीक विवरण आदि का आधार भारत में ही तैयार हुआ। तात्कालिक कुछ नकारात्मक घटनाओं व प्रभावों ने जो धुंध हमारी सांस्कृतिक जीवन-शैली पर आरोपित की है, उसे सावधानी पूर्वक हटाना होगा। आज आवश्यकता है कि हम अतीत की सांस्कृतिक धरोहर को सहेजें और सवारें तथा उसकी मजबूत आधारशिला पर खडे़ होकर नए मूल्यों व नई संस्कृति को निर्मित एवं विकसित करें।
कोरोना पैनडेमिक को देखते हुए कहा जा रहा है कि भारत में कृषि द्वारा ही देश का आर्थिक पुनरुद्धार संभव है। कोविड-19 लॉकडाउन के दौरान कृषि क्षेत्र की सबसे बड़ी समस्याएँ जिनका सामना किया गया, वे थी सप्लाई चेन में व्यवधान, बाज़ार-पहुँच की समाप्ति, मंडियों का बंद होना एवं उपभोक्ता खाद्य मांग में कमी। इस दौरान सरकार द्वारा कृषि समस्याओं को दूर करने हेतु कई कदम उठाए गए एवं आशा व्यक्त की गई कि शायद इससे देश के आर्थिक पुनरुद्वार को बल मिले। कृषि का महत्त्व सिर्फ वर्तमान में ही नहीं अपितु इसे मानव सभ्यता का मूलाधार माना जाता है।
हिंदी के प्रसिद्ध कवि भवानीप्रसाद मिश्र की उक्त पंक्तियाँ कृषि की स्थिति और इसके महत्त्व को सटीकता से निरूपित करती हैं। भारत की पारंपरिक कृषि पर्यावरण हितैषी थी एवं उस समय कृषि पशुपालन पर आधारित थी जिसके कारण किसानों की लागत काफी कम होती थी। उत्पादन भी इतना था कि जीवन-यापन आराम से हो सके। उस समय के कृषि उत्पादों की गुणवत्ता भी अच्छी थी। हालाँकि कृषि में तकनीकी के प्रवेश ने किसानों के आगत में वृद्धि की लेकिन इससे भूमि तथा कृषि उत्पादों की गुणवत्ता में कमी आई। आधुनिक तकनीकी ने उस कृषि अपशिष्ट को खेत में ही जलाने को मजबूर कर दिया, जो कि पशुओं का आहार था। गोबर खाद के स्थान पर रासायनिक उर्वरकों के अंधाधुंध प्रयोग ने भूमि की उर्वरा शक्ति को नष्ट कर दिया। हरित क्रांति ने फसल विशेष के उत्पादन में वृद्धि तो की लेकिन अनेक समस्याओं को भी जन्म दिया। वर्तमान में जलवायु परिवर्तन की समस्या के साथ इस क्षेत्र द्वारा कई प्रकार की चुनौतियों का सामना किया जा रहा है। इन चुनौतियाँ में शामिल हैं- आधारभूत संरचना का अभाव, सीमित निवेश, उत्पादकता में कमी, साख की कमी, मौसम आधारित कृषि एवं वाणिज्यीकरण का अभाव, तकनीकी अलगाव तथा नवाचार, शोध एवं अनुसंधान की कमी इत्यादि ।
भारतीय कृषि की समस्याओं के संदर्भ में सबसे निर्णायक बिंदु मानसून पर निर्भरता है। भारत में वर्षा की स्थिति न सिर्फ अनियमित है, बल्कि अनिश्चित भी है। वर्षा की अधिकता के कारण आँधी, बाढ़, तूफान, कीटों का प्रकोप जैसी आपदाएँ जन्म लेती हैं, की वजह से भारतीय किसानों को क्षति उठानी पड़ती है।
विडंबना यह है कि इन समस्याओं का अभी तक कोई समुचित हल नहीं ढूँढा गया है एवं न ही कोई सुनिश्चित तंत्र विकसित हो पाया है। परिणामत: कृषक तमाम उद्यम के बावजूद निर्धनता का संजाल नहीं तोड़ पाए हैं।
देश में सिंचाई के वैकल्पिक साधन मौजूद हैं लेकिन इनका वितरण बहुत ही असमान एवं अविकसित है। साथ ही सीमांत एवं छोटी जोतों तक इनकी पहुँच भी सुनिश्चित नहीं है। अन्य समस्या है भूमि की उर्वरा शक्ति का क्षीण होना जो कि सदियों से एक ही भूमि पर कृषि करने का परिणाम है। भू-क्षरण एवं जल रिसाव की समस्या ने भी देश में मृदा की उर्वरा शक्ति को क्षीण किया है। साथ ही रासायनिक खादों के अंधाधुंध एवं अनियोजित प्रयोग से भूमि की उत्पादकता लगातार कम हो रही है। जोतों का लगातार छोटा होना भी कृषि की प्रमुख समस्या है। दोषपूर्ण भू-स्वामित्व और असमान वितरण प्रणाली ने कृषि को पूरी तरह से नुकसान पहुँचाया है। कृषि भारत की अधिकांश जनता की आजीविका का साधन है। कृषि पर जनसंख्या वृद्धि का दबाव सहज ही महसूस किया जा सकता है। यही कारण है कि भारतीय कृषि में सर्वाधिक छिपी और मौसमी बेरोज़गारी पाई जाती है
भारतीय कृषि में शिक्षा का नितांत अभाव पाया जाता है। अशिक्षा के कारण किसान अपनी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाते। अशिक्षा के चलते ही किसानों में संगठनात्मक प्रवृत्ति का अभाव है। असंगठित क्षेत्र होने के कारण किसान प्रशासन और नीतियों का फायदा नहीं उठा पाते एवं शोषित होते रहते हैं। किसानों की बढ़ती आत्महत्या की घटनाओं के मूल में सूदखोरों द्वारा उच्च ब्याज दर पर दिया गया ऋण होता है, कृषि उत्पादन कम होने के कारण ऋण न चुका पाने की स्थिति में किसान विवशता में मृत्यु का वरण करता है। हाल के दिनों में कर्ज़माफी द्वारा किसानों को कर्ज़ की समस्या से तुरंत राहत प्रदान करने की प्रवृत्ति देखी जा रही है। लेकिन कर्ज़माफी किसानों की समस्याओं का समाधान नहीं है। कुछ ऐसा किया जाना चाहिये जिससे किसान कर्ज़ लेने को मजबूर ही न हो।
गांधी जी ने कहा था कि स्थान विशेष की समस्या का समाधान उस स्थान विशेष पर ही खोजा जा सकता है। विदेशी पद्धति का अनुसरण करने पर तात्कालिक राहत तो मिल सकती है लेकिन पूर्ण समाधान संभव नहीं है। वर्तमान में मौजूद चुनौतियों के समाधान हेतु सिंचाई व्यवस्था का विस्तार, आधारभूत संरचना का विकास, उत्पादकता को बढ़ाने के साथ विषमता में कमी लाने तथा कृषि क्षेत्र में संतुलन स्थापित करने हेतु दूसरी हरित क्रांति की आवश्यकता है, जिसे ‘इंद्रधनुषी क्रांति’ का नाम दिया गया है। इसके तहत कृषि क्षेत्र के विविधीकरण के साथ गेहूँ एवं चावल के उत्पादन के अलावा अन्य फसलों के उत्पादन पर बल दिया जाना है, जैसे- जूट उत्पादन, दालों का उत्पादन, मोटे अनाज का उत्पादन इत्यादि।
वर्तमान में कृषि क्षेत्र में आवश्यकता से अधिक मानव श्रम संलग्न है। अत: इस क्षेत्र से अतिरिक्त श्रम बल का स्थानांतरण कृषि संबद्ध क्षेत्रों में किया जाना चाहिये। जैसे- पशुपालन, डेरी उद्योग, मत्स्यपालन, फूलों की खेती, हर्बल खेती, रेशम कीट पालन, मधुमक्खी पालन इत्यादि। साथ ही अतिरिक्त श्रम बल का प्रयोग कुटीर उद्योग के विकास में भी किया जा सकता है।
भविष्य में उत्पादकता बढ़ाने हेतु कृषि क्षेत्र का तकनीकी क्षेत्र से जुड़ाव अत्यंत आवश्यक है। किसानों को जागरूक बनाने के उद्देश्य से अनेक प्रकार के मोबाइल एप्स का विकास किया गया है। साथ ही विपणन व्यवस्था की कमियों को दूर करने हेतु राष्ट्रीय कृषि बाज़ार (e-NAM) का विकास किया गया है, इसके लिये देश की अन्य मंडियों को भी जोड़ा जा रहा है ताकि फसलों की कीमत संबंधी एकरूपता एवं पारदर्शिता बनी रहे। भारत सरकार द्वारा देश के कृषि क्षेत्र की भविष्य की दिशा तय करने हेतु नई राष्ट्रीय कृषि नीति की घोषणा की गई है, जिसमें निम्नलिखित बातों पर ज़ोर दिया गया है-
इन सभी प्रयासों के बावजूद कुछ ध्यान देने योग्य मुद्दे हैं, जैसे- कृषि क्षेत्र में शोध एवं अनुसंधान पर व्यय की सीमा में वृद्धि एवं कृषि क्षेत्र को जैव प्रौद्योगिकी के लाभों से जोड़ना। भारत एक कृषि प्रधान देश है, जहाँ की जलवायु कृषि अनुरूप है, अत: प्राकृतिक एवं मानवीय प्रयासों के सम्मिलित प्रभाव के परिणामस्वरूप यहाँ कृषि क्षेत्र का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है। 21वीं सदी में कृषि क्षेत्र की कठिनाइयों को दूर कर देश का विकास सुनिश्चित किया जा सकता है।
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1. भारतीय संस्कृति का अनोखा स्वरुप क्या है? |
2. भारतीय संस्कृति के कृषिनिबंध के बारे में क्या है? |
3. भारतीय संस्कृति में कौन-कौन से कला और साहित्य प्रमुख हैं? |
4. भारतीय संस्कृति में आदिवासी जीवन का क्या महत्व है? |
5. भारतीय संस्कृति में धार्मिक आयाम क्या हैं? |
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