मेयर व बाल्डविन के अनुसार- ‘‘आर्थिक विकास वह प्रव्रिया है जिसके द्वारा एक अर्थव्यवस्था की वास्तविक राष्ट्रीय आय दीर्घकाल में बढ़ती है।’’ वही प्रसिद्ध अर्थशास्त्री महबूब उल हक अपनी पुस्तक में विकास की प्रव्रिया को निर्धनता के विकालित स्वरूप में आव्रमण मानते हुए कहते हैं कि विकास के उद्देश्य कुपोषण, अशिक्षा, बेरोजगारी एवं असमानता को दूर करने से संबंधित होने चाहिये। परंतु समय के साथ आर्थिक विकास का संबंध प्राकृतिक आपदाओं के साथ होता चला गया। सामान्यतया सभी लोग विकास के दूरगामी दुष्परिणामों के प्रति उतने सजग नहीं है। क्योंकि भारत जैसे निम्न आय वाले देशों में आकृतिक आपदाओं के साथ होता चला गया। सामान्यतया सभी लोग विकास के दूरगामी दुष्परिणामों के प्रति उतने सजग नहीं है। क्योंकि भारत जैसे निम्न आय वाले देशों में आर्थिक विकास पर्यावरणीय मुद्दों से कहीं अधिक गंभीर समस्या है। विकासशील देश वर्तमान में सभी लोगों के लिये आधारभूत सुविधाएँ उपलब्ध कराने में ही असमर्थ हैं। गरीबों के लिये पर्यावरणीय संपदा उपभोग की प्रथम वस्तु मानी जाती है जिसके दोहन द्वारा वे अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ पूरी करते हैं।
परंतु उच्च सामूहिक उपभोग की दशा में अमीर वर्ग के लोग आते हैं, जो अपनी मूल आवश्यकताएँ पूरी कर चुके हैं। इस स्थिति में पर्यावरणीय संपदा उनके लिये विलासिता की वस्तुएँ बन जाती हैं। इसलिये विकसित और विकासशील देशों के दृष्टिकोण में अंतर पाया जाता है। पर्यावरण संरक्षण के मुद्दे पर गरीब देशों में वर्तमान की चिंताओं पर भविष्य की आपदाएँ कम गंभीर प्रतीत होती हैं। अत: अमीर वर्ग पर्यावरणीय चिंताओं को विकास पर प्राथमिकता देता है और गरीब वर्ग विकास कार्यों को ज्यादा जरूरी समझता है।
आज विश्व यह मुद्दा चर्चा का विषय बना हुआ कि ऐसे तरीकों को विकसित किया जाए जिसे विकास और पर्यावरण के मध्य बिगड़ते संबंधों में समन्वय और संतुलन स्थापित किया जा सके। प्रमुख अर्थशास्त्री कुजनेट्स के अनुसार विकास के प्रारंभिक दोर में पर्यावरणीय ह्यस अनिवार्य है और एक निश्चित स्तर प्राप्त कर लेने के बाद ही उसका संरक्षण और सुधार संभव है। परंतु विभिन्न रिपोर्ट एवं अध्ययन से यह बात सामने आई है कि आर्थिक विकास में उत्तरोत्तर वृद्धि के साथ ही पर्यावरणीय संतुलन भी प्रभावित होता है।
जहाँ आर्थिक विकास मानव जीवन का अनिवार्य पहलू है, वहीं प्राकृतिक संतुलन अस्तित्व संरक्षण हेतु अपरिहार्य माना जाता है। देखा जाए तो तमाम प्राकृतिक आपदाएँ मानवजनित गतिविधियों के कारण उत्प्रेरित और उत्पन्न हो रही हैं, जिनसे व्यापक रूप से जन-धन की हानि होती है। इसे देखते हुए स्थायी विकास जिसका स्वरूप समावेशी एवं सतत् हो, को अपनाया जाना आवश्यक हैं स्थायी विकास एक ऐसी प्रव्रिया है जिसमें संसाधनों के उपयोग, निवेश की दिशा, तकनीकी विकास के झुकाव और संस्थागत परिवर्तन का तालमेल वर्तमान एवं भविष्य की आवश्यकताओं के साथ बैठाया जाता है। स्थायी विकास की कुछ शर्तें हैं जो निम्नलिखित प्रकार से हैं-
अगर विकास स्थायी और सतत् न हो तो उनके परिजन दूरगामी होते हैं। आमतौर पर घटित होने वाली कुछ आपदा यथा बाढ़, भूकंप, सूखा, चव्रवात, सुनामी, भूस्खलन आदि ऐसी है जिनका मानवीय प्रभाव संबंधी आकलन बेहद आवश्यक है। अगर बाढ़ की बात की जाए तो यह एक ऐसी त्रासदी हे जो कई सभ्यताओं के पतन का कारण बना है। जब अत्यधिक वर्षा के कारण भूमि के जल सोखने की क्षमता कम हो जाती है और नदियों के जलस्तर में अत्यधिक वृद्धि हो जाती हे तब बाढ़ की स्थिति उत्पन्न होती है। अवैध खनन, नदियों का प्रदूषण, वातावरण में जहरीली गैसों में वृद्धि, तापमान में वृद्धि, भूमि प्रदूषण, ग्लेशियरों के पिघलने आदि से जहाँ जलवायु परिवत्रन का खतरा बढ़ा है, वहीं बाद की विभीषिका में भी वृद्धि हुई है। भूमि की जल अवशोषण क्षमता की कमी तथा जल निकासी की समुचित व्यवस्था के अभाव, जो वर्तमान नगरीकरण की सबसे बड़ी समस्या है, के कारण बाढ़ के खतरे में अत्यधिक वृद्धि हो जाती है। कभी-कभी बड़े जलाशयों व बांधों से जल छोड़ने पर या भूस्खलन से भी बाढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। भारत में बाढ़ प्राय: हर वर्ष आती है जो अपने साथ भयंकर तबाही लेकर आती है। भारत के कुछ राज्य जैसे उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल का लगभग आधा हिस्सा बाढ़ से प्रभावित है। इसके बावजूद भी अभी तक भारत में बाढ़ से निपटने हेतु कुशल आपदा प्रबंधन तंत्र का विकास नहीं हो पाया है।
दूसरी तरफ हम पाते हैं कि पर्यावरणीय असंतुलन एवं जलवायु परिवर्तन के कारण सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाएँ निरंतर घटित हो रही हैं। महाराष्ट्र जैसे राज्य इसके प्रत्यक्ष उदाहरण रहे हैं जहाँ कृषकों ने प्राकृतिक आपदा के कारण आत्महत्या जैसे कदम तक उठाए। सूखा एक भयावह समस्या है जिसने कृषक संस्कृति की कमर तोड़ दी है। सूखा वस्तुत: सामान्य भौगोलिक क्षेत्रों में वर्षा की संभावना के बावजूद होने वाली वर्षा की कमी को कहते हैं। वनों को तेजी से विनाश, भू-जल का अत्यधिक दोहन ने पूरे जलचव्र के संतुलन को अव्यवस्थित कर दिया है। ग्लोबलवार्म़िग, अलनिनो से सागरीय धारा का दोलन चव्र परिवतर्तित हो रहा है। फसल प्रतिरूप में होने वाले परिवर्तन को भी सूखे का एक कारण माना जाता है। वर्षा जल का अनियोजित प्रबंधन भी सूखे को स्थिति के लिये जिम्मेदार माना जाता है।
चव्रवात, भूकंप, सुनामी, भूस्खलन एवं बादल का फटना जैसी पर्यावरणीय संकअ मुख्यतया प्राकृतिक कारणों से होते हैं परंतु मानवीय गतिविधियों द्वारा इनमें तीव्रता प्रदान की जाती है जो भविष्य में प्राकृतिक आपदा बनकर उभरता है। वनों के कटाव से पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन में वृद्धि होती है। सागर तटीय क्षेत्रों में मैंग्रोव वनस्पतियाँ बाढ़, चव्रवात एवं सुनामी की तीव्रता को बाधित करती हैं। खनन के कारण भी भूकंप एवं भूस्खलन की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। पर्वतीय इलाकों में विकास कार्यों के बनाए गए सड़क, पुल एवं इमारतों के कारण चट्टानों के स्वरूप में परिवर्तन आ जाता है और चट्टाने कमजोर होकर प्राकृतिक उछेलनों का सामना नहीं कर पाती।
इन सभी गंभीर स्थितियों को ध्यान में रखते हुए विकास के पैमाने को पर्यावरण के सापेक्ष निर्धारित करना होगा एवं निर्माण कार्यों के दौरान पर्यावरणीय मानकों का समुचित पालन जरूरी है। विकास तभी टिकाऊ और गुणवत्तापूर्ण होगा जब प्रकृति के साथ संतुलन स्थापित होगा। विकास के मूल ढाँचे को प्रकृति के अनुरूप निर्धारित करके ही धारणीयता की संकल्पना को मूर्त रूप प्रदान किया जा सकता है। पृथ्वी सम्मेलन के एजेंडा-21 के 8वें अध्याय से देशों की सरकारों से राष्ट्रीय आर्थिक लेखा की वर्तमान प्रणाली के विस्तार की बात कही गई है ताकि लेखांकन ढाँचे में पर्यावरणीय और सामाजिक पहलुओं के साथ-साथ कम-से-कम सभी सदस्य राष्ट्रों की प्राकृतिक संसाधन प्रणाली को शामिल किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र द्वारा राष्ट्रीय लेखा प्रणाली में संशोधन करके समन्वित पर्यावरण और आर्थिक लेखांकन प्रणाली के रूप में नई समग्र व्यवस्था का लक्ष्य रखा है।
आर्िािक विकास के कारण पर्यावरण में आई गिरावट की क्षतिपूर्ति के लिये आर्थिक गतिविधियों में होने वाले मूल्य संवर्द्ध्रन को यदि सकल घरेलू उत्पाद से घटा दिया जाए तो अर्थव्यवस्था के विकास का सही संकेतक प्राप्त किया जा सकता है। आर्थिक विकास और प्राकृतिक पहलुओं के संबंध में नीति बनाते समय इस बात का ध्यान रखना जरूरी है कि पर्यावरणीय समस्याएँ मूलत: स्थानीय है और स्थानीयता के संदर्भ में ही उनका समाधान किया जाना चाहिये। शिक्षा में पर्यावरण मूल्य की स्थापना का भरपूर प्रयास होना चाहिये। यदि नागरिकों में पर्यावरण संरक्षण का मूल्य विकसित हो जाए तो कानून बनाने और लागू करने की समस्याएँ स्वत: समाप्त हो जाएगी।
मुंशी प्रेमचंद से उनके समकालीन पत्रकार बनारसीदास चतुर्वेदी ने 1930 में उनकी प्रिय रचनाओं के बारे में प्रश्न किया, ‘‘आपकी सर्वोत्तम पंद्रह गल्पें’’ कौन-सी हैं?
प्रेमचंद ने उत्तर दिया, ‘‘इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। 200 से ऊपर गल्पों में कहाँ से चुनूँ, लेकिन स्मृति से काम लेकर लिखता हूँ- बड़े घर की बेटी, रानी सारन्धा, नमक का दरोगा, सौत, आभूषण, प्रायश्चित, कामना, मंदिर और मस्जिद, घासवाली, महातीर्थ, सत्याग्रह, लांछन, सती, लैला, मंत्र।’’
इन कृतियों को कौन नहीं जानता होगा, कम-से-कम किसी एक रचना का नाम तो अवश्य सुना होगा। ऐसी और भी कई महान रचनाओं का जन्म मुंशी प्रेमचंद की लेखनी से हुआ और वे कृतियाँ दुनिया में अजर-अमर हो गई। उत्तर प्रदेश के वाराणसी से चार मील दूर लमही गाँव में जन्मे मुंशी प्रेमचंद, जिनका वास्तविक नाम धनपत राय श्रीवास्तव था, की आरंभिक शिक्षा उर्दू, फारसी में हुई थी। सेवासदन, प्रेमाश्रम, निर्मला, रंगभूमि, गबन, गोदान आदि उपन्यासों से लेकर नमक का दरोगा, प्रेम पचीसी, सोज़े वतन, प्रेम तीर्थ, पाँच फूल, सप्त सुमन, बाल साहित्य जैसे कहानी संग्रहों की रचना कर इन्होंने हिंदी साहित्य को एक नई ऊँचाई पर पहुँचाया। इन्हें उपन्यास सम्राट भी माना जाता है। उनकी कहानियाँ अधिकांशत: ग्रामीण भारतीय परिवेश पर आधारित होती थी जिसके माध्यम से वह किसानों एवं निम्न आय वाले परिवारों की हालात का वर्णन किया करते थे। उनकी पहली कहानी संग्रह ‘सोज़े-वतन’, जिसका अर्थ ‘राष्ट्र का विलाप’ होता है, के प्रकाशन पर अंग्रेज सरकार ने रोक लगा दी थी।
प्रेमचंद एक दृढ़ राष्ट्रवादी थे, जिसकी झलक उनकी रचनाओं में बखूबी देखने को मिलती है। लेकिन प्रेमचंद ने अपनी रचनाओं में राष्ट्रवादी नेताओं की स्वार्थ लिप्सा एवं कमज़ोरियों को भी उजागर किया। उन्होंने रंगभूमि एवं कर्मभूमि उपन्यास के ज़रिये शिक्षित राष्ट्रवादी नेताओं को उनकी कमजोरियों का एहसास कराते हुए उन्हें सुधारने का प्रयास भी किया। इन शिक्षित एवं स्वार्थी प्रकृति के लोगों पर व्यंग्य करते हुए ‘आहुति’ में एक स्त्री कहती है- ‘‘अगर स्वराज्य आने पर भी संपत्ति का यही प्रभुत्व रहे और पढ़ा-लिखा समाज यूँ ही स्वार्थान्ध बना रहे, तो मैं कहूंगी, ऐसे स्वराज्य का न आना ही अच्छा। अंग्रेज़ी महाजनों की धनलोलुपता और शिक्षितों का स्वहित ही आज हमें पीसे डाल रहा है। उनकी बुराइयों को क्या प्रजा इसलिये सिर चढ़ाएगी कि वे विदेशी नहीं, स्वदेशी है?’’
प्रेमचंद ने श्रेष्ठ साहित्य के मानकों को रेखांकित करते हुए कहा था कि ‘‘हमारी कसौटी पर वही साहित्य खरा उतरेगा जिसमें उच्च चिंतन हो, स्वाधीनता का भाव हो, जो इसमें गति और बेचैनी पैदा करे, सुलाए नहीं, क्योंकि अब और ज्यादा सोना मृत्यु का लक्षण है।’’
प्रेमचंद ने उपर्युक्त आदर्शों एवं मापदंडों को प्रत्येक साहित्यकार हेतु ज़रूरी माना और स्वयं भी इन मानदंडों का अनुपालन किया तथा उन्हीं आदर्शों को ध्यान में रखते हुए अपने कालजयी कृतियों की रचना की। उनकी रचनाएँ जीवन की सच्चाइयों से इतनी भरी हुई थीं कि शायद ही कोई पहलू अछूता रहा हो। उन्होंने उपन्यासों एवं कहानियों के माध्यम से ग्रामीण जीवन के साथ-साथ शहरी जीवन की दुर्दशा का भी सजीव चित्रण किया है। ‘पूस की रात’ कहानी का पात्र ‘हल्कू’ अपनी पत्नी से कंबल खरीदने की इच्छा व्यक्त करता है और जैसे ही उसे साहूकार का कर्ज़ चुकाने की बात याद आती है, तो सारे ख्वाब धुआँ बनकर उड़ जाते हैं।
‘गोदान’ की बात करें तो प्रेमचंद जी ने इसमें सामंतवादी व्यवस्था में जकड़े हुए ग्रामीण जीवन का यथार्थ चित्रण किया है और यह दर्शाने की कोशिश की है कि समाज की कुछ विशेष प्रकार की समाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक व्यवस्था से शोषण का जन्म होता है।
उन्होंने समाज में व्याप्त धार्मिक कुरीतियों एवं बाह्य आडंबरों पर भी प्रहार करते हुए उन्हें दूर करने का प्रयास किया। उनकी रचनाएँ सिर्फ मनोरंजन के लक्ष्य से नहीं लिखी गई थीं बल्कि वे अपनी कृतियों के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों पर भी चोट करते थे। ‘सद्गति’ एवं ‘सवा सेर गेहूँ’ कहानियों के माध्यम से उन्होंने बताया कि किस प्रकार लोग वर्तमान जीवन की चिंता छोड़कर परलोक के चक्कर में पुरोहिताई के चंगुल में फँस कर प्राण तक गवाँ देते हैं।
‘सेवासदन’ प्रेमचंद जी का पहला उपन्यास है जिसमें उन्होंने वेश्याओं की समस्या को प्रमुखता से उठाया है। वेश्यावृत्ति जैसी समस्या हेतु उन्होंने पुरुषों की अधम प्रवृत्ति को ही ज़िम्मेदार ठहराया है। प्रेमचंद जी कहते है कि ‘‘हमें उनसे घृणा करने का कोई अधिकार नहीं है। यह उनके साथ घोर अन्याय होगा। यह हमारी ही कुवासनाएँ, हमारे ही सामाजिक अत्याचार, हमारी ही कुप्रथाएँ हैं, जिन्होंने वेश्याओं का रूप धारण किया है।’’
प्रेमचंद जी ने अपने साहित्य के माध्यम से समाज को एक आदर्श रूप देने हेतु प्रेरणा करने की भी कोशिश की। उन्होंने भारतीय नारी के आदर्श स्वरूप का भी वर्णन किया है। इसकी झलक हमें गोदान की ‘धनिया’ और ‘बड़े घर की बेटी’ में देखने को मिलती है। गोदान की ‘धनिया’ जीवन भर दुख झेलती रही परंतु अपने मान-सम्मान से कभी समझौता नहीं किया। आवश्यकता पड़ने पर आदर्श पत्नी की तरह वह हमेशा ‘होरी’ के साथ खड़ी रही।
प्रेमचंद जी ने समाज में व्याप्त छूआ-छूत, भेदभाव एवं ऊँच-नीच जैसी कुरीतियों का भी गंभीरता से चित्रण किया। समाज में व्याप्त बिखराव से उन्हें बहुत कष्ट होता था। उन्होंने इसे कर्मभूमि, ठाकुर का कुआँ, ‘सदगति’ आदि कहानियों में बहुत बारीकी से उकेरा है। प्रेमचंद जी की कहानियों में कहीं भी सांप्रदायिकता का पुट नहीं रहा। उन्होंने मुसलमान एवं हिंदू पात्रों को उकेरने में कोई भी भेदभाव नहीं दिया एवं हर पात्र के साथ सहृदयता बरती। उनकी प्रमुखता आर्थिक-सामाजिक समस्याओं को चित्रित करने पर रहती थी, न कि जाति या धर्म पर। मुंशी प्रेमचंद ने हमेशा मनुष्य के अंदर छिपे देवत्व को उभारने की कोशिश की, जिसे बड़े घर की बेटी एवं पंच परमेश्वर कहानियों में आसानी से देखा जा सकता है।
प्रेमचंद की लेखनी में वर्णन की अद्भुत क्षमता विद्यमान है। उनकी भाषा द्वारा घटनाओं के दृश्य साकार हो उठते हैं। प्रेमचंद की प्रमुख कथा शैली वर्णनात्मक है एवं कहानियों में संवाद-शैली के अच्छे उदाहरण मिल जाते हैं। प्रेमचंद ने साहित्य के असली उद्देश्य से परिचय कराते हुए ‘साहित्य का उद्देश्य’ नामक कृति में लिखा, ‘‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी।’’ क्योंकि अभी तक सुंदरता की तलाश अमीरी और विलासिता के मसलों में की जाती रही थी। प्रेमचंद ने एक नए दृष्टिकोण से परिचय कराते हुए बताया कि साहित्य तो है ही जीवन की अभिव्यक्ति और साहित्य की सर्वोत्तम परिभाषा जीवन की आलोचना है। चूँकि जीवन में आडंबर, पाखंड, सहिष्णुता, संकीर्णता एवं कुटिलता सब कुछ है और इन सबकी धुंध के बीच वहीं किसी कोने में छिपी जीवन की सच्चाई का प्रकाश भी है। इसी प्रकाश को खोजना और उसे सामने लाना ही साहित्य का मुख्य उद्देश्य है।
पहले प्रेमचंद गांधीवादी सोच से प्रभावित थे, इसलिये अपने कथानक को एक आदर्शवादी अंत प्रदान करते थे परंतु जब उनका गांधीवाद से मोह-भंग हुआ तब गोदान, कफन और पूस की रात जैसी नग्न यथार्थवाद से लोगों का परिचय होता है जहाँ प्रेमचंद समस्या का कोई समाधान प्रदान नहीं करते। प्रेमचंद साहित्य को राजनीति का भी पथ-प्रदर्शक मानते हैं। उन्होंने साहित्यकार के महान उत्तरदायित्व को समझते हुए यथासंभव उसका निर्वहन किया। हम पाते हैं कि प्रेमचंद केवल साहित्यकार ही नहीं बल्कि सामाजिक समस्याओं के चिंतक भी थे। उनकी इस प्रवृत्ति की झलक उनके साहित्य में स्पष्ट है। आज प्रेमचंद जैसे सामाजिक चिंतकों की इस समाज को बेहद ज़रूरत है जो उनकी भाषिक और वैचारिक समझ द्वारा व्यक्त होती है ।
“मैंने वाटरलू के युद्ध में जो सफलता प्राप्त की उसका प्रशिक्षण ईटन के मैदान में मिला।”
नेपोलियन को पराजित करने वाले एडवर्ड नेल्सन की यह पंक्ति खेल के महत्त्व को बयां करने के लिये पर्याप्त है। खेल न केवल हमें स्वस्थ रहने में योगदान देकर सक्षम बनाते हैं वरन् वर्तमान युग की संकीर्णतावादी सोच के विरुद्ध हमें निष्पक्ष, सहिष्णु तथा विनम्र बनाकर एक बेहतर मानव संसाधन के रूप में बदलते हैं। खेलों की महत्ता को दुनिया के प्रत्येक समाज व सभ्यता में स्वीकृति मिली है। रामायण, महाभारत से लेकर ग्रीको-रोमन दंत-कथाओं में होने वाले खेलों का जिक्र इस बात का प्रमाण है। पुनः ओलंपिक की प्रारंभिक शुरुआत यह स्पष्ट करती है कि खेलों को संस्थानिक महत्त्व मिलता रहा है।
वर्तमान परिवेश व जीवनशैली में आज मनुष्य जब अनेक रोगों से ग्रस्त हो रहा है। ऐसे समय में खेलों का महत्त्व स्वयमेव स्पष्ट हो जाता है। खेलों द्वारा न केवल हमारी दिनचर्या नियमित रहती है बल्कि ये उच्च रक्तचाप, ब्लड शुगर, मोटापा, हृदय रोग जैसी बीमारियों की संभावनाओं को भी न्यून करते हैं। इसके अलावा खेल द्वारा हमें स्वयं को चुस्त-दुरुस्त रखने में भी मदद मिलती है, जिससे हम अपने दायित्वों का निर्वहन सक्रियतापूर्वक कर पाते हैं।
एक अच्छा जीवन जीने हेतु अच्छे स्वास्थ्य का होना बहुत जरूरी है। जिस प्रकार शरीर को अच्छा और स्वस्थ रखने के लिये व्यायाम की आवश्यकता होती है उसी प्रकार खेलकूद का भी स्वस्थ जीवन हेतु अत्यधिक महत्त्व है। खेल बच्चों और युवाओं के मानसिक तथा शारीरिक विकास दोनों ही के लिये अति आवश्यक है। नई पीढ़ी को किताबी ज्ञान के साथ-साथ खेलों में भी रुचि बढ़ाने की जरूरत है।
परंपरगत रूप से भारत के मध्यम वर्ग की धारणा रोजगारपरकता के लिहाज से खेलों के प्रति नकारात्मक रही है। खेलकूद को मनुष्य के बौद्धिक विकास व रोजगार प्राप्ति में बाधक मानते हुए कहा जाता था कि “पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब, खेलोगे-कूदोगे तो होगे खराब।” परंतु बदलते समय के साथ यह साबित हो गया कि खेल मनुष्य के विकास में बाधक नहीं वरन् सहायक हैं। बगैर शैक्षणिक उपलब्धि के भी सचिन तेंदुलकर द्वारा अर्जित यश, सम्मान, धन लोकप्रियता आदि इस बात के सुंदर उदाहरण हैं। सचिन तेंदुलकर द्वारा देश का सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ प्राप्त करना, वर्तमान परिदृश्य में खेलों की महत्ता को दर्शाता है। आज सचिन ही नहीं वरन् सुशील कुमार, सानिया मिर्जा, अभिनव बिन्द्रा, साइना नेहवाल, मैरी कॉम व महेंद्र सिंह धोनी जैसे नामों ने सफलता व समृद्धि एवं श के जो आयाम गढ़े हैं, उसके समक्ष संस्थागत शिक्षा का प्रश्न गौण हो जाता है।
सरकार खेल में ख्याति प्राप्त खिलाड़ियों को अनेक पुरस्कारों से सम्मानित करती है, अर्जुन एवं द्रोणाचार्य जैसे पुरस्कार इसी श्रेणी के खेल रत्न पुरस्कार है जो भारत में खेलों में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन हेतु सरकार द्वारा खिलाड़ियों और गुरुओं को प्रदान किये जाते हैं। हमारे देश की कई महिलाओं यथा- पी.टी. उषा, मेरी कॉम, सायना नेहवाल एवं सानिया मिर्जा ने दुनिया भर में खेल में काफी नाम कमाया है और देश को गौरवान्वित किया है। खेलों को भारतीय संस्कृति एवं एकता का प्रतीक भी माना जाता है। खेल हमारी प्रगति को सुनिश्चित कर जीवन में सफलता प्रदान करते हैं।
आज सरकारी व निजी दोनों क्षेत्रों में खिलाड़ियों के लिये नौकरियाँ पाने के कई अवसर है। रेलवे, एअर इंडिया, भारत पेट्रोलियम, ओ.एन.जी.सी., आई-ओ-सी- जैसी सरकारी संस्थाओं के साथ-साथ टाटा अकादमी, जिंदल ग्रुप जैसे निजी समूह भी खेलों व खिलाड़ियों के विकास व प्रोत्साहन हेतु प्रतिबद्ध है। इसके अलावा आई.पी.एल., आई.बी.एल., एच.सी.एल., जैसी लीगों तथा स्थानीय क्लबों के स्तर पर भारी निवेश ने खिलाड़ियों के विकल्प को बढ़ाने के साथ-साथ उन्हें बेहतर मंच व अवसर उपलब्ध कराया है। इसे देखते हुए अब कहा जा सकता है कि खेलोगे-“कूदोगे तो होगे नवाब।”
इससे यह स्पष्ट होता है कि खेल से न सिर्फ स्वास्थ्य बल्कि रोजगार एवं यश तथा सम्मान भी प्राप्त होता है। खेल द्वारा राजनैतिक लक्ष्य भी प्राप्त किया जा सकता है। कई देशों में यह देखने में आया है कि खेलों का अप्रत्यक्ष रूप से संबंध देश के विकास से भी होता है। वर्तमान समय में लोगों के खेलों के प्रति नजरिये में काफी बदलाव आया है। खेल हमें विभिन्न प्रकार से शिक्षित भी करते हैं। इससे मानवीय मूल्यों का विकास होता है साथ ही खेलों द्वारा सामूहिक चेतना का भी विकास होता है क्योंकि खेल की मूल भावना यही होती है कि अकेले नहीं बल्कि समूह में खेलना, खेल द्वारा नेतृत्व करने की कला का भी विकास होता है। खेल से रचनात्मकता को भी बढ़ावा मिलता है। आजकल खेलों में कई नई प्रौद्योगिकियों का उपयोग किया जा रहा है जिससे खेलों में सटीकता और उसके अनुसार नीति-निर्माण में भी सहायता मिल रही है।
खेलों के संदर्भ में अगर नकारात्मक पहलू की बात की जाए तो वह यह है कि मनोरंजन के नए साधनों और कॅरियर की भाग-दौड़ ने खेल के मैदानों में होने वाली भाग-दौड़ को कम कर दिया है। बच्चे हों या युवा, लगातार मोबाइल पर गेम या वीडियो गेम खेलना आज लोगों की आदत बनती जा रही है। इसके परिणामस्वरूप युवा और छात्र आबादी का एक बड़ा हिस्सा खेल के मैदानों से गायब रहता है।
इस प्रकार तमाम वजहों से खेल अपनी उच्च भावना और उद्देश्यों के साथ लोगों के बीच पहुँच ही नहीं पा रहे हैं। वहीं वर्तमान युग के नए खेल व मनोरंजन के तरीके अपनी प्रकृति के अनुरूप लोगों में एकाकीपन तथा मानसिक विकृतियों को जन्म दे रहे हैं।
उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट होता है कि जीवन में खेलों का महत्त्व निर्विवाद है। ये न केवल जीवन में गति व लय का संचार करते हैं, वरन् हमें जीवन का महत्त्वपूर्ण पाठ भी पढ़ाते हैं।
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