नीलगिरी जैवविविधता में बाघों की मृत्युचिंतनीय
चर्चा में क्यों?
तमिलनाडु का नीलगिरी ज़िला जैवविविधता से समृद्ध है और यहाँ बड़ी संख्या में बाघ पाए जाते हैं। हालाँकि पिछले दो महीनों में इस ज़िले में विभिन्न कारणों से 10 बाघों की मौत हो चुकी है।
- बाघों की मृत्यु के परिणामस्वरुप उनके संरक्षण एवं अस्तित्त्व को लेकर संरक्षणवादी और प्राधिकार चिंतित हैं।
नीलगिरी में बाघों की मृत्यु का कारण
- बाघों का उच्च घनत्त्व:
- नीलगिरि बायोस्फीयर रिज़र्व के मुदुमलाई-बांदीपुर-नागरहोल परिसर में बाघों की संख्या व घनत्त्व अधिक होने के कारण काफी सारे बाघ मुकुर्थी राष्ट्रीय उद्यान, नीलगिरि तथा गुडलूर वन प्रभागों के आसपास के आवासों की ओर प्रस्थान कर रहे हैं, जिसके परिणामतः मानव-वन्यजीव संघर्ष के मामले में भी वृद्धि देखी गई है।
- बाघों की संख्या में वृद्धि से स्पॉटेड डियर और इंडियन गौर जैसी शिकारी प्रजातियों पर प्रभाव पड़ता है।
- प्राकृतिक शिकार की कमी के कारण बाघ, पशुओं को निशाना बना सकते हैं, जिससे संघर्ष बढ़ सकता है और परिणामस्वरूप अधिक मौतें हो सकती हैं।
- भुखमरी और संक्रमण:
- मुदुमलाई टाइगर रिज़र्व के बफर ज़ोन में बाघ के शावक मृत पाए गए, जिनकी उम्र दो सप्ताह बताई जा रही है।
- पोस्टमॉर्टम में भुखमरी या नाभि संक्रमण जैसे संभावित कारणों की आशंका जताई गई है।
बाघों की संख्या के खतरों को लेकर संरक्षणवादियों की चिंताएँ
- अवैध शिकार का खतरा: नीलगिरी ज़िले में हाल ही में हुई शिकार की घटनाएँ बाघों के लिये लगातार खतरे को रेखांकित करती हैं।
- आखेटक, बाघों को उनके मूल्यवान शारीरिक अंगों, जैसे खाल, हड्डियों और अन्य अंगों के लिये निशाना बनाते हैं, जिससे आबादी के लिये गंभीर खतरा उत्पन्न होता है।
- ट्रैकिंग और सुरक्षा का अभाव: बाघों की आबादी को प्रभावी ढंग से ट्रैक करने और उनकी सुरक्षा करने में प्रत्यक्ष चुनौतियाँ इसकी चिंताओं का कारण हैं।
- इन प्रभावशाली जानवरों की निगरानी और सुरक्षा करने में असमर्थता संरक्षणवादियों की चिंताओं में से एक है।
- शिकार प्रबंधन का अभाव: संरक्षित क्षेत्रों में अपर्याप्त शिकार जनसंख्या प्रबंधन से असंतुलन उत्पन्न हो सकता है।
- बाघों के लिये पर्याप्त शिकार सुनिश्चित करना उनके अस्तित्व के लिये आवश्यक है।
- पर्यावास का क्षरण: क्षरित आवास सीमित संसाधन प्रदान करते हैं, जिससे बाघों को भोजन की तलाश में भटकने के लिये मजबूर होना पड़ता है।
- मानवीय गतिविधियों, वनों की कटाई और अतिक्रमण से बाघों के निवास स्थान को क्षति पहुँचती हैं।
पशुधन से मीथेन उत्सर्जन
चर्चा में क्यों?
हाल ही में खाद्य और कृषि संगठन (Food and Agriculture Organization - FAO) ने "पशुधन और चावल प्रणालियों में मीथेन उत्सर्जन" शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित की है। यह रिपोर्ट पशुधन और चावल के खेतों से होने वाले मीथेन उत्सर्जन के कारण जलवायु पर पड़ने वाले प्रभाव पर प्रकाश डालती है।
- यह रिपोर्ट, जिसे सितंबर 2023 में FAO के पहले "सतत् पशुधन परिवर्तन पर वैश्विक सम्मेलन" के दौरान जारी किया गया था, IPCC की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में वर्णित पेरिस समझौते के उद्देश्यों को पूरा करने में मीथेन उत्सर्जन को कम करने के महत्त्व पर ज़ोर देती है।
रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष
मीथेन उत्सर्जन के स्रोत:
- जुगाली करने वाले पशुधन और खाद प्रबंधन का वैश्विक स्तर पर मानवजनित मीथेन उत्सर्जन में लगभग 32% का योगदान है।
- चावल के खेतों से अतिरिक्त 8% मीथेन उत्सर्जन होता है।
- कृषि खाद्य प्रणालियों के अतिरिक्त, मीथेन उत्सर्जन उत्पन्न करने वाली अन्य मानवीय गतिविधियों में लैंडफिल, तेल और प्राकृतिक गैस प्रणालियाँ, कोयला खदानें आदि शामिल हैं।
- जुगाली करने वाले पशु रुमिनेंटिया (आर्टियोडैक्टाइला) उपवर्ग के स्तनधारी जीव हैं।
- इनमें जिराफ, ओकापिस, हिरण, मवेशी, मृग, भेड़ और बकरी जैसे जानवरों का एक विविध समूह शामिल है।
- अधिकांश जुगाली करने वाले जानवरों का उदर चार कक्षों (four-chambered) वाला और पैर दो खुरों वाला होता है। हालाँकि ऊँटों और चेवरोटेन्स (chevrotains) का उदर तीन-कक्षीय होता है तथा इन्हें अक्सर स्यूडोरुमिनेंट कहा जाता है।
जुगाली करने वाले पशुधन का प्रभाव:
- मीथेन के दैनिक उत्सर्जन में सबसे अधिक योगदान मवेशियों का हैं, इसके बाद भेड़ और बकरी का स्थान है।
- जुगाली करने वाले पशुधन माँस एवं दूध प्रदान करने वाले प्रोटीन के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं और वर्ष 2050 तक इन पशु उत्पादों की वैश्विक मांग 60-70% तक बढ़ने की उम्मीद है।
फीड दक्षता में सुधार:
- यह रिपोर्ट फीड दक्षता बढ़ाकर मीथेन उत्सर्जन को कम करने पर केंद्रित है।
- इसमें पोषक तत्त्व घनत्व और फीड पाचनशक्ति में वृद्धि, रूमेन माइक्रोबियल संरचना में बदलाव, नकारात्मक अपशिष्ट फीड सेवन और अल्प चयापचय के शारीरिक वज़न वाले जानवरों का चयन करना शामिल है।
- बढ़ी हुई फीड दक्षता फीड की प्रति इकाई पशु उत्पादकता को बढ़ाती है, संभावित रूप से फीड लागत और मांस/दुग्ध संप्राप्ति के आधार पर कृषि लाभप्रदता में वृद्धि करती है।
क्षेत्रीय अध्ययन की आवश्यकता:
- यह रिपोर्ट पशु उत्पादन बढ़ाने तथा मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिये बेहतर पोषण, स्वास्थ्य, प्रजनन और आनुवंशिकी के प्रभावों के मापन के लिये क्षेत्रीय अध्ययन की आवश्यकता पर बल देती है।
- इस तरह के अध्ययनों से क्षेत्रीय स्तर पर निवल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन पर शमन रणनीतियों के प्रभाव का आकलन करने में मदद मिलेगी।
मीथेन उत्सर्जन को कम करने की रणनीतियाँ:
- अध्ययन में मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिये चार व्यापक रणनीतियों का उल्लेख किया गया है:
- पशु प्रजनन एवं प्रबंधन
- आहार योजना, उचित आहार और फीड प्रबंधन
- चारा अनुसंधान
- जुगाली में बदलाव
चुनौतियाँ और अनुसंधान अंतराल:
- चुनौतियों में कार्बन फुटप्रिंट की गणना के लिये क्षेत्रीय जानकारी की कमी और सीमित आर्थिक रूप से किफायती मीथेन शमन समाधान शामिल हैं।
- व्यावहारिक एवं लागत प्रभावी उपाय विकसित करने के लिये और अधिक शोध की आवश्यकता है।
मीथेन उत्सर्जन से निपटने के लिये पहल
भारतीय स्तर पर
- 'हरित धरा' (HD):
- भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (Indian Council of Agricultural Research- ICAR) ने एक एंटी-मिथेनोजेनिक फीड सप्लीमेंट 'हरित धारा' (HD) को विकसित किया है, जो मवेशियों के मीथेन उत्सर्जन को 17-20% तक कम कर सकता है और इसके परिणामस्वरूप अधिक दूध उत्पादन भी हो सकता है।
- सतत् कृषि पर राष्ट्रीय मिशन (National Mission on Sustainable Agriculture-NMSA):
- इसे कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित किया जाता है और इसमें चावल की खेती में मीथेन नियंत्रण विधिओं जैसी जलवायु प्रत्यास्थ गतिविधियाँ शामिल हैं।
- ये विधियाँ मीथेन उत्सर्जन में पर्याप्त कमी लाने में योगदान करती हैं।
- जलवायु अनुकूल कृषि में राष्ट्रीय नवाचार (National Innovation in Climate Resilient Agriculture-NICRA):
- NICRA परियोजना के तहत भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) ने चावल की कृषि से मीथेन उत्सर्जन को कम करने के लिये तकनीक विकसित की है। इन प्रौद्योगिकियों में शामिल हैं:
- चावल गहनता प्रणाली: यह तकनीक पारंपरिक रोपाई वाले चावल की तुलना में 22-35% कम जल का उपयोग करते हुए चावल की उपज को 36-49% तक बढ़ा सकती है।
- चावल का प्रत्यक्ष बीजारोपण: यह विधि पारंपरिक धान की कृषि के विपरीत नर्सरी को बढ़ावा देने, जल भराव और रोपाई की आवश्यकता को समाप्त करके मीथेन उत्सर्जन को कम करती है।
- फसल विविधीकरण कार्यक्रम: धान की कृषि से दालें, तिल, मक्का, कपास और कृषि वानिकी जैसी वैकल्पिक फसलों को अपनाने से मीथेन उत्सर्जन को कम किया जा सकता है।
- भारत स्टेज-VI मानदंड:
- भारत स्टेज- IV (BS-IV) से भारत स्टेज-VI (BS-VI) उत्सर्जन मानदंडों में बदलाव।
वैश्विक स्तर पर
- मीथेन चेतावनी और प्रतिक्रिया प्रणाली (MARS):
- MARS बड़ी संख्या में मौज़ूदा और भविष्य के उपग्रहों से डेटा को एकीकृत करेगा जो विश्व में कहीं भी मीथेन उत्सर्जन की घटनाओं का पता लगाने की क्षमता रखता है तथा इस पर कार्रवाई करने के लिये संबंधित हितधारकों को सूचनाएँ भेजता है।
- वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा:
- वर्ष 2021 में ग्लासगो जलवायु सम्मेलन (UNFCCC COP 26) में वर्ष 2030 तक मीथेन उत्सर्जन को वर्ष 2020 के स्तर से 30% तक कम करने के लिये लगभग 100 राष्ट्र एक स्वैच्छिक प्रतिज्ञा में शामिल हुए थे, जिसे ग्लोबल मीथेन प्रतिज्ञा के रूप में जाना जाता है।
- भारत वैश्विक मीथेन प्रतिज्ञा का हिस्सा नहीं है।
- वैश्विक मीथेन पहल (Global Methane Initiative- GMI):
- यह एक अंतर्राष्ट्रीय सार्वजनिक-निजी साझेदारी है जो स्वच्छ ऊर्जा स्रोत के रूप में मीथेन की पुनर्प्राप्ति और उपयोग में आने वाली बाधाओं को कम करने पर केंद्रित है।
कोरल रीफ ब्रेकथ्रू
इंटरनेशनल कोरल रीफ इनिशिएटिव (ICRI) ने ग्लोबल फंड फॉर कोरल रीफ्स (GFCR) और हाई-लेवल क्लाइमेट चैंपियंस (HLCC) के साथ मिलकर कोरल रीफ ब्रेकथ्रू पहल की शुरुआत की है। इस पहल को 2023 में आयोजित 37वें इंटरनेशनल कोरल रीफ इनिशिएटिव की आम बैठक में लॉन्च किया गया है।
इंटरनेशनल कोरल रीफ इनिशिएटिव (ICRI)
- यह राष्ट्रों और संगठनों के बीच एक वैश्विक साझेदारी है जो विश्व भर में प्रवाल भित्तियों एवं संबंधित पारिस्थितिकी प्रणालियों को संरक्षित करने का प्रयास करती है।
- इस पहल की शुरुआत वर्ष 1994 में आठ देश की सरकारों द्वारा की गई थी जिसमें ऑस्ट्रेलिया, फ्राँस, जापान, जमैका, फिलीपींस, स्वीडन, यूनाइटेड किंगडम और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल थे।
- इसकी घोषणा वर्ष 1994 में आयोजित जैव-विविधता पर अभिसमय के कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ के पहले सम्मेलन में की गई थी।
- ICRI से जुड़े संगठनों की संख्या 101 है, जिनमें 45 देश शामिल हैं (भारत उनमें से एक है)।
हाई-लेवल क्लाइमेट चैंपियंस (HLCC)
- जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के लक्ष्यों का समर्थन करने में व्यवसायों, शहरों, क्षेत्रों और निवेशकों जैसे गैर-राज्य अभिकर्ताओं की भागीदारी को सुविधाजनक बनाने एवं बेहतर करने हेतु उन्हें संयुक्त राष्ट्र द्वारा नियुक्त किया जाता है।
ग्लोबल फंड फॉर कोरल रीफ्स (GFCR)
- GFCR प्रवाल भित्ति पारिस्थितिकी प्रणालियों की सुरक्षा और पुनर्स्थापना के लिये कार्रवाई करने तथा संसाधन जुटाने हेतु एक वित्त साधन के रूप में कार्य करती है।
- यह प्रवाल भित्तियों तथा उन पर निर्भर समुदायों को बचाने हेतु संधारणीय हस्तक्षेपों का समर्थन करने के लिये अनुदान और निजी पूंजी प्रदान करता है।
- पारिस्थितिक, सामाजिक एवं आर्थिक प्रत्यास्थता प्रदान करने के लिये संयुक्त राष्ट्र एजेंसियाँ, राष्ट्र, परोपकारी संसंस्थाएँ, निजी निवेशक और संगठन ग्लोबल फंड फॉर कोरल रीफ्स (प्रवाल भित्तियों के लिये वैश्विक कोष) गठबंधन में शामिल हो गए हैं।
कोरल रीफ ब्रेकथ्रू
- कोरल रीफ ब्रेकथ्रू एक विज्ञान-आधारित पहल है, इसका उद्देश्य मानवता के भविष्य में प्रवाल भित्तियों के योगदान एवं उनके महत्त्व को ध्यान में रखते हुए राज्य और गैर-राज्य अभिकर्त्ताओं के सामूहिक प्रयासों से प्रवाल भित्तियों की सुरक्षा, संरक्षण एवं पुनर्स्थापना करना है।
- 12 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश के साथ कोरल रीफ ब्रेकथ्रू पहल का लक्ष्य वर्ष 2030 तक कम से कम 125,000 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत उष्णकटिबंधीय उथले जल वाले प्रवाल भित्तियों के अस्तित्त्व को बनाए रखना है, इस पहल से विश्व भर में लगभग 50 करोड़ से अधिक लोगों की अनुकूलन क्षमता में वृद्धि होगी।
यह पहल चार कार्य बिंदुओं पर आधारित है
- कार्य बिंदु 1: अत्यधिक मत्स्य पालन, विनाशकारी तटीय विकास और भूमि-आधारित स्रोतों से होने वाले प्रदूषण जैसे स्थानीय कारकों के प्रभाव को कम करना।
- कार्य बिंदु 2: प्रभावी संरक्षण के तहत प्रवाल भित्तियों का क्षेत्र दोगुना करना: 30 बाय 30 जैसे अंतर्राष्ट्रीय तटीय सुरक्षा लक्ष्यों के अनुरूप प्रवाल भित्तियों के संरक्षण हेतु अनुकूलन-आधारित प्रयासों को बढ़ावा देना। 30 बाय 30 एक वैश्विक पहल है, जिसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक पृथ्वी की कम से कम 30% भूमि और महासागर क्षेत्र की रक्षा करना है। इसे UNCCD कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज़ (COP 15) के दौरान प्रस्तावित किया गया था।
- कार्य बिंदु 3: बड़े पैमाने पर नवीन समाधानों को खोजना व जलवायु अनुकूल तंत्रों के विकास और कार्यान्वयन में सहायता करना, जिसका उद्देश्य वर्ष 2030 तक 30% निम्नीकृत भित्तियों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करना है।
- कार्य बिंदु 4: इन प्रमुख पारिस्थितिक तंत्रों को संरक्षित और पुनर्स्थापित करने के लिये सार्वजनिक व निजी स्रोतों से वर्ष 2030 तक कम से कम 12 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश सुरक्षित करना। कोरल ब्रेकथ्रू के लक्ष्यों को पूरा करने से सतत् विकास लक्ष्यों (SDGs), विशेष रूप से SDG14 (जल के नीचे जीवन/Life Below Water) को प्राप्त करने में सहायता मिलेगी।
SDG शिखर सम्मेलन- 2023
चर्चा में क्यों?
हाल ही में वैश्विक नेताओं ने संयुक्त राज्य अमेरिका के न्यूयॉर्क में SDG शिखर सम्मेलन के दौरान सतत् विकास लक्ष्यों (SDG) को प्राप्त करने में धीमी प्रगति के बारे में आशंका व्यक्त की।
SDG शिखर सम्मेलन- 2023 की मुख्य विशेषताएँ
- फंडिंग गैप को स्वीकार करना:
- वार्षिक SDG फंडिंग अंतर, जो महामारी से पहले 2.5 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर था, अब बढ़कर अनुमानित 4.2 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया है, जो SDG को प्राप्त करने के लिये पर्याप्त निवेश की तत्काल आवश्यकता पर बल देता है।
- वित्त चुनौती से निपटना:
- अभिकर्त्ताओं ने वर्ष 2030 के एजेंडे को प्राप्त करने में अदीस अबाबा एक्शन एजेंडा (AAAA) के महत्त्व पर बल दिया, जिसमें सतत् विकास के लिये सार्वजनिक और निजी, सभी वित्तीय प्रवाह के कुशल उपयोग पर बल दिया गया।
- उन्होंने SDG प्रोत्साहन के लिये संयुक्त राष्ट्र महासचिव के प्रस्ताव को तेज़ी से लागू करने का आह्वान किया, ताकि फंडिंग में सालाना 500 अरब अमेरिकी डॉलर की उल्लेखनीय वृद्धि हो।
- AAAA सतत् विकास के वित्तपोषण का एक वैश्विक ढाँचा है। इसका उद्देश्य सतत् विकास के लिये वर्ष 2030 का एजेंडा और 17 SDG के कार्यान्वयन हेतु संसाधन जुटाना तथा आवश्यक वित्तपोषण प्रदान करने के तरीकों पर चर्चा करना एवं सहमत होना है।
- बहुपक्षीय कार्रवाइयाँ और ऋण स्वैप:
- SDG कार्यान्वयन को मज़बूत करने के लिये अभिकर्त्ताओं ने जलवायु और प्रकृति से संबंधित ऋण स्वैप सहित SDG हेतु ऋण स्वैप को बढ़ाने पर बल देते हुए सभी लेनदारों द्वारा बहुपक्षीय कार्यों एवं समन्वय का आग्रह किया।
- ऋण स्वैप, पर्यावरण और अन्य नीतिगत चुनौतियों से निपटने एवं हरित विकास का समर्थन करने के लिये कम आय वाले देशों में पूंजी जुटाने के अवसर प्रदान करती है।
- कोविड-19 का प्रभाव:
- इस सम्मेलन में स्वीकार किया गया कि कोविड-19 महामारी ने SDG पर प्रतिकूल प्रभाव डाला है, विशेष रूप से विश्व के सबसे निर्धन और कमज़ोर देशों में। इसने SDG को प्राप्त करने में प्रगति में तेज़ी लाने के लिये आपातकालीन पाठ्यक्रम सुधार की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
- जलवायु कार्रवाई और आपदा जोखिम न्यूनीकरण को एकीकृत करना:
- अभिकर्ताओं ने आपदा जोखिम न्यूनीकरण के लिये सेंदाई फ्रेमवर्क को पूर्ण रूप से लागू करने की सिफारिश की और जलवायु परिवर्तन से निपटने के प्रयासों को तेज़ करने का संकल्प लिया।
- उन्होंने जलवायु लक्ष्यों के अनुरूप, हानि और क्षति का जवाब देने के लिये नई वित्त व्यवस्था को क्रियान्वित करने के लिये भी प्रतिबद्धता जताई।
- वर्ष 2030 एजेंडा के प्रति प्रतिबद्धता:
- अभिकर्ताओं ने कार्यान्वयन के आधे चरण में SDG की स्थिति के बारे में गहन चिंता व्यक्त की, उन्होंने निर्धनता, जबरन स्थानांतरण, असमानताओं और जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों जैसी चुनौतियों पर प्रकाश डाला।
- इन चुनौतियों के बावजूद, उन्होंने एक स्थायी विश्व के लिये सभी के अधिकारों और कल्याण की रक्षा हेतु वर्ष 2030 एजेंडा तथा 17 SDG को पूरी तरह से लागू करने की सिफारिश की।
SDG में प्रगति से संबंधित चिंताएँ क्या हैं?
- प्रगति और प्रतिबद्धता का अभाव:
- प्रतिबद्धताओं के बावजूद, 17 SDG सहित 169 लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में प्रगति केवल 15% है और इसमें कुछ क्षेत्र पिछड़ भी रहे हैं।
- फंडिंग की पर्याप्तता और पहुँच:
- हालाँकि चिंता की बात यह है कि प्रतिबद्धता अवधि के आधे पड़ाव पर (दूसरी छमाही में) आवश्यक प्रगति को लेकर विश्वास बहुत कम है।
- विकासशील देशों में SDG हासिल करने में निवेश का अंतर 4 ट्रिलियन अमेरिकी डॉलर से अधिक होने का अनुमान है जो पूर्व के अनुमानों से काफी अधिक है।
- यह विशाल वित्तीय आवश्यकता SDG को असंभव बना देती है, जिससे फंडिंग की पर्याप्तता और पहुँच पर सवाल खड़े हो जाते हैं।
- असंबद्धताएँ और बाधाएँ:
- SDG हस्तक्षेपों में पाँच असमानताओं की पहचान की गई है, जिनमें संसाधन आवंटन, सक्षम वातावरण का निर्माण, सह-लाभ, लागत-प्रभावशीलता और संतृप्ति सीमाएँ शामिल हैं।
- विभिन्न बाधाएँ सहक्रियात्मक कार्रवाई में बाधा डालती हैं, जैसे सूचनाओं तक पहुँच में अंतर, राजनीतिक और संस्थागत बाधाएँ एवं आर्थिक चुनौतियाँ।
- नीति कार्यान्वयन में चुनौतियाँ:
- एकीकरण और सटीक उद्देश्यों की कमी के कारण नीति कार्यान्वयन में विसंगतियाँ एवं गलत संरेखण कठिनाइयाँ उत्पन्न करते हैं, विशेष रूप से नवीकरणीय ऊर्जा लक्ष्यों तथा छोटे पैमाने के अनुप्रयोगों को पूरा करने में।
- जलवायु परिवर्तन और पर्यावरणीय प्रभाव:
- जलवायु परिवर्तन को एक महत्त्वपूर्ण चुनौती के रूप में पहचाना गया है, जिससे SDG लक्ष्यों की प्राप्ति को खतरा है। वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन अभी भी बढ़ रहा है, जिससे जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के प्रति हमारी संवेदनशीलता के विषय में चिंताएँ बढ़ रही हैं।
आगे की राह
- जलवायु परिवर्तन और इसके पर्यावरणीय प्रभावों से निपटना एक प्राथमिकता होनी चाहिये, जिसके लिये समन्वित वैश्विक प्रयासों की आवश्यकता है।
- सतत् विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में प्रगति के लिये राष्ट्रों के बीच बहुपक्षीय कार्यों और सहयोग को प्रोत्साहित करना आवश्यक है।
- अभिकर्त्ताओं को धारणीय विश्व हेतु सभी के अधिकारों और कल्याण की सुरक्षा पर ध्यान केंद्रित करते हुए वर्ष 2030 एजेंडा के प्रति समर्पित रहना चाहिये।
तापीय ऊर्जा संयंत्रों में बायोमास को-फायरिंग
संदर्भ
ताप विद्युत संयंत्रों में कोयले के साथ बायोमास को को-फायर करने के केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय के निर्देश को लागू करने में कृषि अवशेषों के बायोमास पेलेट की अनुपलब्धता एक बाधा के रूप में उभर रही है।
बायोमास क्या है?
बायोमास पौधों के अपशिष्ट, पशु अपशिष्ट, वन अपशिष्ट, और नगरपालिका अपशिष्ट जैसे जीवित जीवों के कार्बनिक पदार्थ अपशिष्ट से विकसित ईंधन है।
टॉरफेक्शन क्या है?
टॉरफेक्शन बायोमास की एक थर्मल रूपांतरण विधि है जिसका उपयोग उच्च गुणवत्ता वाले ठोस जैव ईंधन का उत्पादन करने के लिए किया जाता है जिसका उपयोग दहन, गैसीकरण और अतिरिक्त गैर-ऊर्जा-संबंधित अनुप्रयोगों के लिए किया जा सकता है।
बायोमास को-फायरिंग क्या है?
- उच्च दक्षता वाले कोयला बॉयलरों में बायोमास को आंशिक स्थानापन्न ईंधन के रूप में जोड़कर बायोमास को कुशलतापूर्वक और सफाई से बिजली में परिवर्तित करने के लिए को-फायरिंग एक कम लागत वाला विकल्प है।
- कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन को कम करता है:
- कोयले के साथ को-फायरिंग बायोमास कई पर्यावरणीय लाभ प्रदान करता है।
- को-फायरिंग कार्बन डाइऑक्साइड, एक ग्रीनहाउस गैस जो ग्लोबल वार्मिंग प्रभाव में योगदान कर सकती है, के उत्सर्जन को कम करता है ।
- सल्फरस गैसों के उत्सर्जन में कमी:
- बायोमास में अधिकांश कोयले की तुलना में काफी कम सल्फर होता है।
- इसका मतलब यह है कि को-फायरिंग से सल्फर डाइऑक्साइड जैसे सल्फरस गैसों के उत्सर्जन में कमी आएगी जो अम्लीय वर्षा को कम करने में सहायक होगी ।
- थर्मल पावर से उत्सर्जन में कटौती:
- बायोमास को-फायरिंग, 50-100 मिलियन टन कोयले की जगह, 2030 तक तापीय विद्युत क्षेत्र से उत्सर्जन में 90-180 मिलियन टन की कटौती करने में मदद कर सकता है।
मुख्य विचार
- केंद्रीय ऊर्जा मंत्रालय द्वारा स्थापित 'कोयला ताप विद्युत संयंत्रों के लिए बायोमास के उपयोग पर राष्ट्रीय मिशन' के अनुसार, को-फायरिंग के लिए प्रतिदिन लगभग 95,000-96,000 टन बायोमास छर्रों की आवश्यकता होती है।
- देश में 228 मिलियन टन अतिरिक्त कृषि अवशेष उपलब्ध होने के बावजूद भारत की पैलेट निर्माण क्षमता वर्तमान में प्रति दिन 7,000 टन है।
- राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और आसपास के क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग द्वारा दिल्ली-राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में उद्योगों को सितंबर 2022 के अंत तक स्वच्छ ईंधन पर स्विच करने का निर्देश दिए जाने के बाद से उद्योगों द्वारा बायोमास की मांग बढ़ गई है।
- अब तक, देश में 36 गीगावाट कोयला आधारित ताप विद्युत क्षमता ने बायोमास का सफलतापूर्वक को-फायरिंग किया है। परन्तु इनमें से कई संयंत्रों ने मात्र परीक्षण ही किया है तथा वे 5-10% बायोमास को-फायरिंग को समायोजित करने के लिए संयंत्र में आवश्यक संशोधन और उन्नयन की प्रक्रिया में हैं।
- जिंदल इंडिया थर्मल पावर लिमिटेड, नाभा पावर लिमिटेड, हिरणमय एनर्जी, गुजरात स्टेट इलेक्ट्रिसिटी कॉरपोरेशन लिमिटेड (जीएसईसीएल) आदि जैसे कई कोयला आधारित बिजली जनरेटर ने बायोमास पेशकश की आपूर्ति के लिए निविदाएं जारी की हैं, जो सफल बोलीदाताओं को सात साल का अनुबंध देती है, जिससे बायोमास की दीर्घकालिक निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित हो सके।
प्रमुख चिंताएं
मजबूत बुनियादी ढांचे का अभाव:
- कोयला आधारित बिजली संयंत्रों में बायोमास के साथ 5-7% कोयले को प्रतिस्थापित करने से 38 मिलियन टन कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन को बचाया जा सकता है, हालांकि, मौजूदा बुनियादी ढांचा इसे वास्तविकता में बदलने के लिए पर्याप्त मजबूत नहीं है।
भारी मांग आपूर्ति अंतर:
- पेलेट आपूर्तिकर्ता अपने उत्पाद को कपड़ा, खाद्य प्रसंस्करण, धातु आधारित या खुले बाजार में 12-13 रुपये प्रति किलोग्राम (पंजाब में कुछ स्थानों पर और भी अधिक) पर बेचने के पक्ष में हैं, नाकि कोयला थर्मल पावर प्लांटों को, जो 8-9 रुपये प्रति किलो की दर पर दाम दे रहे।
- यह भारी अंतर मौसमी उपलब्धता और प्लांट्स को बायोमास छर्रों की अविश्वसनीय आपूर्ति के कारण भी है।
- बायोमास उपयोग पर बिजली मंत्रालय की नीति के अनुसार, लगभग 0.25-0.3 मिलियन टन बायोमास छर्रों के 7% को-फायरिंग पर 1 गीगावाट बिजली उत्पन्न करने की आवश्यकता है।
निरंतर और विश्वसनीय आपूर्ति का अभाव:
- दिल्ली-एनसीआर में बिजली संयंत्रों के एक सर्वेक्षण से पता चला है कि बायोमास की निरंतर और विश्वसनीय आपूर्ति के बारे में बिजली संयंत्र संचालकों में आशंकाएं हैं।
भंडारण चुनौती:
- बायोमास छर्रों को संयंत्र स्थलों पर लंबे समय तक संग्रहीत करना चुनौतीपूर्ण है क्योंकि वे हवा से नमी को जल्दी से अवशोषित करते हैं, जिससे वे को-फायरिंग के लिए बेकार हो जाते हैं।
- आमतौर पर, कोयले के साथ दहन के लिए केवल 14% नमी वाले छर्रों का उपयोग किया जा सकता है।
निष्कर्ष
- बायोमास को-फायरिंग फसल अवशेषों को खुले में जलाने से होने वाले उत्सर्जन को रोकने का एक प्रभावी तरीका है; यह कोयले का उपयोग करके बिजली उत्पादन की प्रक्रिया को भी डीकार्बोनाइज करता है।
- समर्थ द्वारा मौजूदा निर्माताओं की मैपिंग और अधिक पैलेट निर्माण संयंत्र स्थापित करने के लिए उद्यमियों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है।
- मिशन को यह सुनिश्चित करने की भी आवश्यकता है कि बायोमास छर्रों की कीमत सीमित रहे और बाजार की मांग में उतार-चढ़ाव से सुरक्षित रहे।
- सबसे महत्वपूर्ण बात, यह सुनिश्चित करने के लिए कि बिजली संयंत्रों में पेलेट निर्माण और को-फायरिंग के इस व्यवसाय मॉडल में किसानों की आंतरिक भूमिका सुनिश्चित करने के लिए प्लेटफॉर्म स्थापित करने की आवश्यकता है।
इंटरकनेक्टेड डिज़ास्टर रिस्क रिपोर्ट, 2023
संयुक्त राष्ट्र यूनिवर्सिटी- इंस्टीट्यूट फार एनवायरनमेंट एंड ह्यूमन सिक्योरिटी के द्वारा ‘इंटरकनेक्टेड डिजास्टर रिस्क रिपोर्ट 2023’ तैयार की गई है।
रिपोर्ट के प्रमुख निष्कर्ष
- संयुक्त राष्ट्र इंटरकनेक्टेड डिज़ास्टर रिस्क रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय- पर्यावरण और मानव सुरक्षा संस्थान (UNU-EHS) द्वारा जारी एक विज्ञान-आधारित वार्षिक रिपोर्ट है, इसका प्रथम प्रकाशन वर्ष 2021 में किया गया था।
- प्रत्येक वर्ष रिपोर्ट आपदाओं के कई वास्तविक उदाहरणों का विश्लेषण करती है और बताती है कि वे एक-दूसरे से तथा मानवीय कार्यों से कैसे जुड़े हुए हैं।
- यह रिपोर्ट दर्शाती है कि कैसे स्थिर प्रतीत होने वाली प्रणालियाँ एक महत्त्वपूर्ण सीमा पार होने तक धीरे-धीरे निष्क्रिय हो सकती हैं, जिसके परिणामस्वरूप विनाशकारी प्रभाव पड़ सकते हैं।
- यह रिपोर्ट “रिस्क टिपिंग पॉइंट्स” की अवधारणा प्रस्तुत करती है जो सामाजिक पारिस्थितिक तंत्र द्वारा जोखिमों को रोकने की अक्षमता तथा विनाशकारी प्रभावों के बढ़ते जोखिम को दर्शाते हैं।
- संयुक्त राष्ट्र विश्वविद्यालय (United Nations University- UNU) संयुक्त राष्ट्र की शैक्षणिक शाखा है जो एक ग्लोबल थिंक टैंक के रूप में कार्य करता है। पर्यावरण और मानव सुरक्षा संस्थान (UNU-EHS) का उद्देश्य पर्यावरणीय खतरों एवं वैश्विक परिवर्तन से संबंधित जोखिमों व अनुकूलन पर अत्याधुनिक शोध करना है। यह संस्थान जर्मनी के बॉन में स्थित है।
टिपिंग पॉइंट
यह रिपोर्ट इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि दुनिया छह पर्यावरणीय टिपिंग पॉइंट्स के करीब पहुँच रही है-
- भू-जल की कमी:
- विश्व में 21 प्रमुख जलभृत तेज़ी से समाप्त हो रहे हैं.
- भू-जल उपलब्धता की कमी के कारण खाद्य सुरक्षा में चुनौतियाँ हैं.
- भारत में गंगा के कुछ क्षेत्रों में भू-जल की कमी गंभीर सीमा को पार कर चुकी है.
- प्रजातियों के विलुप्त होने की प्रक्रिया:
- मानव प्रभाव से प्रजातियों का विलुप्तीकरण तेज़ हो रहा है.
- विलुप्तीकरण से पारिस्थितिक तंत्र का पतन हो सकता है.
- पर्वतीय हिमनदों का तेज़ी से पिघलना:
- हिमनद जल के प्रमुख स्रोत हैं, लेकिन ग्लोबल वार्मिंग के कारण वे दोगुनी दर से पिघल रहे हैं.
- हिमालय, काराकोरम और हिंदू कुश पहाड़ों के ग्लेशियरों का पिघलना लाखों लोगों के जीवन को खतरे में डाल रहा है.
- बढ़ता अंतरिक्ष मलबा:
- अंतरिक्ष में कृत्रिम उपग्रहों की बढ़ती संख्या समस्या उत्पन्न कर रही है.
- अंतरिक्ष मलबे के टुकड़े उपग्रहों के साथ टकराव का खतरा उत्पन्न कर रहे हैं.
- असहनीय गर्मी:
- जलवायु परिवर्तन से असहनीय गर्मी बढ़ रही है.
- वेट-बल्ब तापमान की अधिकता से विफलता और मस्तिष्क क्षति हो सकती है.
- बीमा न करने सकने योग्य भविष्य:
- जलवायु परिवर्तन के कारण बीमा लागत बढ़ रही है.
- कुछ बीमाकर्ता जोखिम वाले क्षेत्रों को बीमा योग्यता श्रेणी से बाहर कर रहे हैं.
अटल भूजल योजना एवं भूजल प्रबंधन
चर्चा में क्यों
हाल ही में योजना की समग्र प्रगति की समीक्षा के लिये अटल भूजल योजना (ATAL JAL) की राष्ट्रीय स्तरीय संचालन समिति (NLSC) की 5वीं बैठक आयोजित की गई।
- विश्व बैंक कार्यक्रम की समीक्षा में शामिल हो गया है। समिति ने राज्यों को ग्राम पंचायत विकास योजनाओं में जल सुरक्षा योजनाओं (Water Security Projects- WSP) को एकीकृत करने के लिये प्रोत्साहित किया जो कार्यक्रम के पूरा होने के बाद भी योजना के दृष्टिकोण की स्थिरता सुनिश्चित करेगा।
अटल भूजल योजना
- परिचय:
- अटल जल एक केंद्रीय क्षेत्र की योजना है जिसका उद्देश्य 6000 करोड़. रुपए के परिव्यय के साथ स्थायी भूजल प्रबंधन की सुविधा प्रदान करना है।
- इसका कार्यान्वन जल शक्ति मंत्रालय द्वारा किया जा रहा है।
- विश्व बैंक और भारत सरकार योजना के वित्तपोषण के लिये 50:50 के अनुपात का योगदान दे रहे हैं।
- विश्व बैंक का संपूर्ण ऋण राशि और केंद्रीय सहायता राज्यों को अनुदान के रूप में दी जाएगी।
- उद्देश्य:
- इसका उद्देश्य चिन्हित राज्यों में संबंधित जल संकट वाले क्षेत्रों में भूजल संसाधनों के प्रबंधन में सुधार करना है। ये राज्य गुजरात, हरियाणा, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और उत्तर प्रदेश हैं।
- अटल जल मांग-पक्ष प्रबंधन पर प्राथमिक केंद्र के साथ पंचायत के नेतृत्व वाले भूजल प्रबंधन और व्यवहार परिवर्तन को प्रोत्साहित करेगा।
भारत में भूजल की कमी की स्थिति
- भारत में भूजल की कमी एक गंभीर चिंता का विषय है क्योंकि यह पेयजल का प्राथमिक स्रोत है। भारत में भूजल की कमी के कुछ मुख्य कारणों में सिंचाई, शहरीकरण और जलवायु परिवर्तन के लिये भूजल का अत्यधिक दोहन शामिल है।
- हाल ही में संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, विश्व में भूजल का सबसे अधिक उपयोग भारत द्वारा किया जाता है, जो संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के संयुक्त भूजल के उपयोग से भी अधिक है।
- भारत के केंद्रीय भूजल बोर्ड (Central Ground Water Board- CGWB) के अनुसार, भारत में उपयोग किये जाने वाले कुल जल का लगभग 70% भूजल स्रोतों से प्राप्त होता है।
- हालाँकि CGWB का यह भी अनुमान है कि देश के कुल भूजल निष्कर्षण का लगभग 25% असंवहनीय है, अर्थात पुनर्भरण की तुलना में निष्कर्षण दर अधिक है।
- समग्र रूप से भारत में भूजल की कमी एक गंभीर समस्या है जिसे बेहतर सिंचाई तकनीकों जैसे संवहनीय जल प्रबंधन अभ्यासों और संरक्षण प्रयासों के माध्यम से उजागर करने की आवश्यकता है।
भारत में भूजल की कमी के प्रमुख कारण
- सिंचाई के लिये भूजल का अत्यधिक दोहन:
- भारत में कुल जल उपयोग में सिंचाई की हिस्सेदारी लगभग 80% है और इसमें से अधिकांश जल भूमि से प्राप्त होता है।
- खाद्यान्न की बढ़ती मांग के साथ सिंचाई हेतु भूजल का अधिकाधिक निष्कर्षण किया जा रहा है, जिससे इसके स्तर में कमी आ रही है।
- संयुक्त राष्ट्र की इंटरकनेक्टेड डिज़ास्टर रिस्क रिपोर्ट, 2023 के अनुसार, पंजाब में 78% कुओं को अतिदोहित घोषित किया गया है और पूरे उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में वर्ष 2025 तक गंभीर रूप से अल्प भूजल उपलब्धता का अनुमान है।
- जलवायु परिवर्तन:
- बढ़ते तापमान एवं वर्षण के बदलते प्रतिरूप भूजल जलभृतों (Groundwater Aquifers) की पुनर्भरण दरों को परिवर्तित कर सकते हैं, जिससे भूजल स्तर में और कमी आ सकती है।
- सूखा, फ्लैश फ्लड और बाधित मानसूनी घटनाएँ जलवायु परिवर्तन की घटनाओं के हालिया उदाहरण हैं जो भारत के भूजल संसाधनों पर दबाव बढ़ा रहे हैं।
- अव्यवस्थित जल प्रबंधन:
- जल का कुशलता से उपयोग न करना, जल के पाइपों का फटना और वर्षा जल को एकत्र करने तथा उसके भंडारण हेतु असुरक्षित बुनियादी ढाँचा, ये सभी भूजल की कमी में योगदान कर सकते हैं।
- प्राकृतिक पुनर्भरण में कमी:
- वनों की कटाई जैसे कारकों से भूजल जलभृतों का प्राकृतिक पुनर्भरण कम हो सकता है, जिससे मृदा का क्षरण हो सकता है और भूमि में रिसने तथा जलभृतों को फिर सक्रिय करने में सक्षम जल की मात्रा कम हो सकती है।
घटते भूजल से जुड़े मुद्दे
- जल की कमी: जैसे-जैसे भूजल स्तर गिरता है, घरेलू, कृषि और औद्योगिक उपयोग के लिये पर्याप्त जल की उपलब्धता कम होती है। इससे जल की कमी हो सकती है और जल संसाधनों के लिये संघर्ष हो सकता है।
- मिशिगन विश्वविद्यालय के नेतृत्व में एक अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि यदि भारतीय किसान वर्तमान दर पर भूमि से भूजल खींचना जारी रखते हैं, तो वर्ष 2080 तक भूजल की कमी की दर तीन गुना हो सकती है। इससे देश की खाद्य और जल सुरक्षा के साथ-साथ एक तिहाई से अधिक आबादी की आजीविका पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।
- भूमि धँसाव/अवतलन: जब भूजल निष्कर्षण किया जाता है, तो मिट्टी संकुचित हो सकती है, जिससे भूमि धँसाव/अवतलन की घटना हो सकती है। इससे सड़कों और इमारतों जैसे बुनियादी ढाँचे को नुकसान हो सकता है तथा बाढ़ का खतरा भी बढ़ सकता है।
- पर्यावरणीय क्षरण: घटते भूजल का पर्यावरण पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। उदाहरण के लिये, जब भूजल स्तर गिरता है, तो यह तटीय क्षेत्रों में लवणीय जल के प्रवेश का कारण बन सकता है, जिससे अलवणीय जल के स्रोत प्रदूषित हो सकते हैं।
- आर्थिक प्रभाव: भूजल की कमी का आर्थिक प्रभाव भी हो सकता है, क्योंकि इससे कृषि उत्पादन कम हो सकता है और जल उपचार व पंपिंग की लागत बढ़ सकती है।
- क्षरण के आंकड़ों का अभाव: भारत सरकार जल संकट वाले राज्यों में अत्यधिक दोहन वाले ब्लॉकों को "अधिसूचित" करके भूजल दोहन को नियंत्रित करती है।
- हालाँकि वर्तमान में केवल 14% अतिदोहित ब्लॉक ही अधिसूचित हैं।
- पृथ्वी की धुरी का झुकाव: जियोफिजिकल रिसर्च लेटर्स में एक हालिया अध्ययन के अनुसार, यह दावा किया गया है कि भूजल के अत्यधिक निष्काषन के कारण वर्ष 1993 और वर्ष 2010 के बीच पृथ्वी की धुरी लगभग 80 सेंटीमीटर पूर्व की ओर झुक गई है जो समुद्र के जलस्तर में वृद्धि में योगदान देती है।