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Environment and Ecology (पर्यावरण और पारिस्थितिकी): July 2023 UPSC Current Affairs | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi PDF Download

जलवायु परिवर्तन से महासागरों का रंग परिवर

  • एक नए अध्ययन के अनुसार, पिछले दो दशकों में पृथ्वी के महासागरों का रंग काफी बदल गया है, संभवतः मानव-प्रेरित जलवायु परिवर्तन के कारण।
  • 56 प्रतिशत से अधिक महासागरों, जो ग्रह पर कुल भूमि क्षेत्र से भी अधिक है, ने रंग में बदलाव का अनुभव किया है।

समुद्र के रंग में परिवर्तन का प्रभाव

  • अध्ययन के अनुसार, महासागरों के रंग में बदलाव का समुद्री जीवन पर सीधा असर नहीं पड़ता है।
  • हालाँकि, यह इंगित करता है कि समुद्री पारिस्थितिक तंत्र परिवर्तन की स्थिति में हैं और भविष्य में वे पूरी तरह से असंतुलित हो सकते हैं।
  • ये परिवर्तन इस बात पर प्रभाव डाल सकते हैं कि वे कितने उत्पादक हैं और यह भी प्रभावित कर सकते हैं कि महासागर कितना कार्बन संग्रहीत करता है और मत्स्य पालन के लिए कितनी खाद्य आपूर्ति है।

महासागरों को रंगीन क्या बनाता है?

  • अधिकांश क्षेत्रों में, प्रकाश के अवशोषण और प्रकीर्णन के कारण महासागर नीले या गहरे नीले रंग के दिखाई देते हैं।
  • जब सूर्य का प्रकाश गहरे और साफ पानी पर पड़ता है, तो लंबी तरंग दैर्ध्य वाले रंग पानी के अणुओं द्वारा अवशोषित हो जाते हैं, लेकिन नीले और बैंगनी, जिनकी तरंग दैर्ध्य बहुत कम होती है, वापस परावर्तित हो जाते हैं।
  • लेकिन जब पानी गहरा या साफ नहीं होता है, तो महासागर एक अलग रंग का दिखाई दे सकता है।
  • उदाहरण के लिए, अर्जेंटीना के समुद्र तट पर, जहां प्रमुख नदियाँ अटलांटिक महासागर में विलीन हो जाती हैं, मृत पत्तियों और नदियों से निकलने वाले तलछट के कारण समुद्र का रंग भूरा हो जाता है।
  • अन्य भागों में महासागर हरे दिखाई देते हैं, जो पानी की ऊपरी सतह पर फाइटोप्लांकटन की मौजूदगी के कारण होता है।

अध्ययन और उसके परिणाम को पूरा करने के लिए तरीकों का इस्तेमाल किया गया

  • नासा के एक्वा उपग्रह से डेटा
    • यह 2002 से समुद्र के रंग की निगरानी कर रहा है
    • बैंगनी से लाल तक, प्रकाश की सभी तरंग दैर्ध्य पर महासागरों की सतह से आने वाले प्रकाश की मात्रा के संदर्भ में माप।
    • नतीजा: 20 साल के आंकड़ों की जांच से पता चला कि दुनिया के 50 फीसदी से ज्यादा महासागरों का रंग बदल गया है।
  • जलवायु मॉडल
    • यह पृथ्वी का एक कंप्यूटर प्रतिनिधित्व है।
    • इस मॉडल ने दो परिदृश्यों के तहत ग्रह के महासागरों का अनुकरण किया
  • एक ग्रीनहाउस गैसों को शामिल करने के साथ, और दूसरा इसके बिना।
  • परिणाम: 20 वर्षों के भीतर एक महत्वपूर्ण प्रवृत्ति दिखाई देनी चाहिए और इस प्रवृत्ति के कारण दुनिया के लगभग 50 प्रतिशत सतही महासागरों में समुद्र के रंग में बदलाव आना चाहिए।

रंग बदलने के पीछे कारण

  • रंग में बदलाव उन क्षेत्रों में हो रहा है जहां महासागर अधिक स्तरीकृत हो रहे हैं।
  • जलवायु परिवर्तन के कारण स्तरीकरण बढ़ गया है, जिससे पानी की परतों का एक-दूसरे के साथ मिश्रण करना कठिन हो गया है
  • परिणाम
    • महासागर वायुमंडल से कम कार्बन डाइऑक्साइड अवशोषित करने में सक्षम हैं।
    • अवशोषित ऑक्सीजन नीचे ठंडे समुद्र के पानी के साथ ठीक से मिश्रित नहीं हो पाती है, जिससे समुद्री जीवन के अस्तित्व को खतरा होता है।
    • इसके अलावा, पोषक तत्व नीचे से महासागरों की सतह तक नहीं पहुंच पाते हैं।
    • इसका सीधा असर महासागरों की ऊपरी सतह पर पनपने वाले फाइटोप्लांकटन पर पड़ता है।
    • प्लवक आबादी की संरचना में परिवर्तन का समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर बड़ा प्रभाव पड़ता है।

निष्कर्ष

  • समुद्र के रंग में परिवर्तन प्लवक समुदायों में परिवर्तन को दर्शाता है जो प्लवक पर फ़ीड करने वाली हर चीज़ को प्रभावित करेगा।
  • इससे यह भी बदल जाएगा कि महासागर कितना कार्बन ग्रहण करेगा क्योंकि विभिन्न प्रकार के प्लवक में ऐसा करने की अलग-अलग क्षमता होती है।
  • इसलिए, जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोगात्मक प्रयासों की आवश्यकता है।

फुकुशिमा जल मुद्द

चर्चा में क्यों?

फुकुशिमा परमाणु ऊर्जा संयंत्र से समुद्र में 1 मिलियन टन से अधिक जल छोड़ने की जापान की योजना ने पड़ोसी देशों के लिये चिंता उत्पन्न कर दी है, विशेष रूप से दक्षिण कोरिया के लिये। हालाँकि इसके बारे में दावा किया जाता है कि यह जल उपचारित है लेकिन संभावित रूप से रेडियोधर्मी है।

फुकुशिमा जल मुद्दा

परिचय

  • फुकुशिमा दाइची परमाणु ऊर्जा संयंत्र को वर्ष 2011 में आए एक बड़े भूकंप और सुनामी के बाद बंद करना पड़ा था तथा इसके कारण पर्यावरण में बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी सामग्री फैल गई थी।
  • शुरुआत में इस घटना के कारण किसी की मौत की खबर नहीं मिली थी। हालाँकि इस भूकंप और सुनामी के कारण लगभग 18,000 लोगों की जान चली गई थी।
  • जापान परमाणु ईंधन के लिये शीतल जल तथा क्षतिग्रस्त रिएक्टर इमारतों से रिसने वाले बारिश एवं भू-जल को बड़े टैंकों में संग्रहीत कर रहा है।

मुद्दे से जुड़े हालिया विकास

  • जल को उन्नत तरल प्रसंस्करण प्रणाली (ALPS) का उपयोग करके शुद्ध किया जाता है, जो रेडियोधर्मी घटक ट्रिटियम, जिसे पृथक करना काफी कठिन होता है- एक हाइड्रोजन आइसोटोप है, को छोड़कर अधिकांश को फिल्टर किया जाता है।
  • जापान का कहना है कि उसके पास जल के संग्रहण के लिये कोई जगह नहीं है और वह इसे समुद्र में छोड़ देता है।
  • अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (IAEA) जापान को जल छोड़ने में सहायता कर रही है। 

चिंताएँ

  • दक्षिण कोरिया को डर है कि जल छोड़े जाने से उसका जल, नमक और समुद्री भोजन प्रदूषित हो जाएगा, जिससे मत्स्यन और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रभावित होगा।
  • दक्षिण कोरिया में नमक की बढ़ती मांग का कारण लगभग 27% मूल्य वृद्धि, भंडारण के साथ-साथ मौसम और कम उत्पादन जैसे बाह्य कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है।
  • चीन ने भी जापान की योजना की आलोचना की है, इसकी पारदर्शिता पर सवाल उठाया है और समुद्री पर्यावरण तथा वैश्विक स्वास्थ्य पर संभावित प्रभाव के बारे में चिंता व्यक्त की है।

विश्व की अन्य प्रमुख परमाणु आपदाएँ

  • चेर्नोबिल आपदा (वर्ष 1986): सबसे प्रमुख  और गंभीर परमाणु आपदाओं में से एक, चेर्नोबिल आपदा यूक्रेन के चेर्नोबिल परमाणु ऊर्जा संयंत्र में देखी गई थी।
    • सुरक्षा परीक्षण के दौरान अचानक विद्युत क्षमता बढ़ने से विस्फोटों और अग्नि की एक शृंखला बन गई, जिससे रिएक्टर कोर नष्ट हो गया तथा  बड़ी मात्रा में रेडियोधर्मी सामग्री वायुमंडल में फैल गई।
  • थ्री माइल आइलैंड दुर्घटना (वर्ष 1979): यह दुर्घटना संयुक्त राज्य अमेरिका के पेंसिल्वेनिया में थ्री माइल आइलैंड न्यूक्लियर जनरेटिंग स्टेशन पर हुई। इसमें रिएक्टर के कोर के आंशिक रूप से पिघलने के परिणामस्वरूप रेडियोधर्मी गैसों का रिसाव हुआ।
  • किश्तिम आपदा (वर्ष 1957): यह सोवियत संघ (अब रूस) में मयाक प्रोडक्शन एसोसिएशन में घटित हुई थी।
  • इसमें एक परमाणु अपशिष्ट संग्रहण टैंक में विस्फोट के कारण के कारण  पर्यावरण में रेडियोधर्मी सामग्री का रिसाव हो गया था।

परमाणु ऊर्जा संयंत्र

  • परमाणु ऊर्जा संयंत्र, एक प्रकार के विद्युत संयंत्र हैं जो विद्युत उत्पन्न करने के लिये परमाणु विखंडन की प्रक्रिया का उपयोग करते हैं।
  • परमाणु विखंडन में परमाणु विभाजित होकर छोटे परमाणु बनाते हैं, जिससे ऊर्जा विमुक्त होती है।
  • परमाणु ऊर्जा संयंत्र के रिएक्टर के भीतर विखंडन होता है। रिएक्टर के केंद्र में यूरेनियम ईंधन होता है।
  •  रिएक्टर कोर में परमाणु विखंडन के दौरान उत्पन्न गर्मी का उपयोग पानी को भाप में बदलने के लिये किया जाता है, यह भाप टरबाइन के ब्लेड को परिवर्तित देता है।
    • जैसे ही टरबाइन के ब्लेड मुड़ते हैं, वे जनरेटर को चालू कर देते हैं जिससे विद्युत उत्पन्न होती है।
  • परमाणु संयंत्र भाप को ठंडा करके विद्युत संयंत्र में एक अलग संरचना में जल को परिवर्तित कर देते हैं जिसे कूलिंग टॉवर कहा जाता है, या वे तालाबों, नदियों या समुद्र के जल का उपयोग करते हैं।
    • फिर ठंडे जल को भाप बनाने के लिये पुन: उपयोग किया जाता है।
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गहरे समुद्र में खनन

चर्चा में क्यों?

  • इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी (ISA) हरित ऊर्जा के लिये आवश्यक खनिजों के खनन हेतु इंटरनेशनल सीबेड में गहरे समुद्र में खनन की अनुमति देने की योजना बना कर रही है।
    • ISA का कानूनी और तकनीकी आयोग गहरे समुद्र में खनन संबंधी विनियमों के विकास की देखरेख करता है, यह आयोग खनन संहिता मसौदे पर चर्चा करने के लिये जुलाई 2023 की शुरुआत में एक बैठक का आयोजन करेगा। ISA नियमों के तहत खनन कार्य वर्ष 2026 में शुरू हो सकता है।

गहरे समुद्र में खनन

  • गहरे समुद्र में खनन से तात्पर्य गहरे समुद्र तल से खनिज और धातु निकालने की प्रक्रिया से है।
  • गहरे समुद्र में खनन के तीन प्रकार हैं:
    • समुद्र तल में जमा-समृद्ध बहुधातु ग्रंथिकाओं (Nodules) को अलग करना
    • समुद्री तल से बड़े पैमाने पर सल्फाइड भंडार का खनन
    • चट्टान से कोबाल्ट परतों को पृथक करना।
  • इन ग्रंथिकाओं (Nodules), भंडारों और परतों में निकल, दुर्लभ पृथ्वी तत्त्व, कोबाल्ट और अन्य सामग्रियाँ पाई जाती हैं, ये नवीकरणीय ऊर्जा के दोहन में उपयोग की जाने वाली बैटरी तथा अन्य सामग्रियों एवं सेलफोन व कंप्यूटर जैसी रोजमर्रा की तकनीक के लिये भी आवश्यक होती हैं।
    • कंपनियाँ और सरकारें इन्हें रणनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण संसाधनों के रूप में देखती हैं जिनकी भविष्य में आवश्यकता होगी क्योंकि तटवर्ती भंडार समाप्त हो रहे हैं और मांग में वृद्धि जारी है।

गहरे समुद्र में खनन से संबंधित पर्यावरणीय चिंताएँ

  • गहरे समुद्र में खनन समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र और संपूर्ण पारिस्थितिक तंत्र को नुकसान पहुँचा सकता है। खनन से होने वाले नुकसान में शोर, कंपन एवं प्रकाश प्रदूषण, साथ ही खनन प्रक्रिया में उपयोग किये जाने वाले ईंधन और अन्य रसायनों के संभावित रिसाव तथा फैलाव शामिल हो सकते हैं।
  • कुछ खनन प्रक्रियाओं से निकलने वाला तलछट एक प्रमुख चिंता का विषय है। एक बार जब मूल्यवान धातु निकाल ली जाती है, तो कीचड़ युक्त तलछट के ढेर को कभी-कभी वापस समुद्र में डाल दिया जाता है। इससे कुछ जीवों का दम घुट सकता है या उनके कार्य में बाधा आ सकती है और कोरल एवं स्पंज जैसी फिल्टर-फीडिंग प्रजातियों को नुकसान हो सकता है।
  • गहरे समुद्र में खनन समुद्र तल को काफी अधिक नुकसान पहुँचा सकता है और मछली की आबादी, समुद्री स्तनधारियों तथा जलवायु को विनियमित करने में गहरे समुद्र के पारिस्थितिक तंत्र की महत्त्वपूर्ण भूमिका पर भी नकारात्मक प्रभाव डालेगा।

गहरे समुद्र में खनन का विनियमन

  • देश अपने स्वयं के समुद्री क्षेत्र और विशेष आर्थिक क्षेत्रों का प्रबंधन करते हैं, जबकि उच्च समुद्र और अंतर्राष्ट्रीय महासागर तल, संयुक्त राष्ट्र समुद्री कानून अभिसमय (UNCLOS) द्वारा शासित होते हैं।
  • संधि के अंतर्गत समुद्र तल और उसके खनिज संसाधनों को "मानव जाति की साझी विरासत" माना जाता है, इसे इस तरह से प्रबंधित किया जाना चाहिये कि आर्थिक लाभों को साझा करने, समुद्री वैज्ञानिक अनुसंधान के लिये समर्थन एवं समुद्री पर्यावरण की रक्षा के माध्यम से मानव हितों की रक्षा की जाए।

आगे की राह

  • खनन के लिये आवेदनों पर विचार किया जाने के साथ पर्यावरणीय प्रभाव का आकलन भी किया जाना चाहिये।
  • इस बीच कुछ कंपनियों, जैसे कि गूगल, सैमसंग, बीएमडब्ल्यू आदि द्वारा महासागरों से खनन किये गए खनिजों का उपयोग करने से बचाव के लिये विश्व वन्यजीव कोष के आह्वान का समर्थन किया है।
  • फ्राँस, जर्मनी के साथ कई प्रशांत महासागरीय तट के एक दर्जन से अधिक द्वीपीय देशों ने आधिकारिक रूप से गहरे समुद्र में खनन पर तब तक प्रतिबंध लगाने आह्वान किया है, जब तक कि पर्यावरणीय सुरक्षा उपाय लागू नहीं किये जाते हैं। हालाँकि यह स्पष्ट नहीं है कि कितने अन्य देश इस तरह के खनन का समर्थन करते हैं।

निर्जलीकरण-सहिष्णु पादपों की प्रजातियाँ

चर्चा में क्यों? 

हालिया नए अध्ययन में कृषि और संरक्षण में संभावित अनुप्रयोगों के साथ भारत के पश्चिमी घाट में 62 शुष्कन-सहिष्णु संवहनी (Desiccation-tolerant vascular: DT) की प्रजातियों की खोज की गई है। पादपों की ये प्रजातियाँ कठोर जलवायवीय वातावरण का सामना करने में सक्षम हैं।

  • विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग के एक स्वायत्त संस्थान, अगरकर रिसर्च इंस्टीट्यूट (ARI) पुणे के वैज्ञानिकों द्वारा किये गए एक हालिया अध्ययन में पश्चिमी घाट में 62 शुष्कन-सहिष्णु प्रजातियों की पहचान की गई है, यह संख्या पहले की ज्ञात नौ प्रजातियों की तुलना में कहीं अधिक है।

निर्जलीकरण/शुष्कन-सहिष्णु पौधे

  • शुष्कन-सहिष्णु संवहनी पौधे अपने वानस्पतिक ऊतकों की शुष्कता को सहन करने में सक्षम पौधे हैं। ये सामान्यतः उष्णकटिबंधीय रॉक आउटक्रॉप्स में पाए जाते हैं।
  • ये पौधे उच्च निर्जलीकरण (जल सामग्री 95% तक नष्ट होने पर भी) की स्थिति में जीवित रह सकते हैं।
  • पादपों में निर्जलीकरण तब होता है जब एक पौधे द्वारा ग्रहण अथवा अवशोषित जल की मात्रा किसी भी रूप में निष्काषित जल की तुलना में कम होती है।

आबादी 

  • अध्ययन के अनुसार, इन प्रजातियों की वैश्विक संख्या 300 से 1,500 के बीच है।
  • खोजी गई 62 प्रजातियों में से 16 प्रजातियाँ मूल रूप से भारत में पाई जाती हैं और 12 प्रजातियाँ पश्चिमी घाट के बाहरी क्षेत्रों तक ही सीमित हैं।

पाए जाने वाले क्षेत्र 

  • ये पौधे उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण दोनों क्षेत्रों में पाए जा सकते हैं।
  • इन्हें पुनर्जीवित करने में जलापूर्ति का काफी योगदान होता है और ये अक्सर उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में चट्टानी इलाकों में पाए जाते हैं। 
  • वैश्विक तापन को देखते हुए यह महत्त्वपूर्ण है कि कुछ प्रजातियाँ उच्च तापमान पर भी पनप सकें।
  • कठोर वातावरण में पादपों के लिये जलयोजन और शुष्कन प्रतिरोध दो व्यापक रूप से अध्ययन किये गए तंत्र हैं।
  • पादपों के ऊतक हाइड्रेटेड रहने पर 30% से अधिक पानी की मात्रा बनाए रख सकते हैं।
  • भारतीय शुष्कन सहिष्णु पौधे मुख्य रूप से वन, चट्टानों तथा आंशिक रूप से छायादार पेड़ के तनों के समीप पाए जाते हैं। फेरिक्रेट्स (तलछटी चट्टान की एक कठोर, कटाव-प्रतिरोधी परत) और बेसाल्टिक पठार (ज्वालामुखीय गतिविधि द्वारा निर्मित पठार) पसंदीदा स्थान प्रतीत होते हैं। 
    • ग्लाइफोक्लोआ गोएन्सिस, ग्लाइफोक्लोआ रत्नागिरिका और ग्लाइफोक्लोआ सैंटापौई केवल फेरिक्रेट्स (तलछटी चट्टान की एक कठोर, कटाव-प्रतिरोधी परत) पर पाए गए थे, जबकि बाकी प्रजातियाँ फेरिक्रेट्स और बेसाल्टिक (ज्वालामुखीय गतिविधि द्वारा निर्मित पठार) दोनों पठारों में पाई जाती हैं।
    • इसकी प्रमुख प्रजाति ग्लाइफोक्लोआ थी जिसकी अधिकांश वार्षिक प्रजातियाँ पठारों पर पाई जाती थीं।

विशेषता 

  • शुष्कन-सहिष्णु (DT) प्रजाति में रंग भिन्नता और रूपात्मक विशेषताएँ दिखाई देती हैं।
    • ट्रिपोगोन प्रजातियाँ (Tripogon Species) शुष्क परिस्थितियों में भूरे और हाइड्रेटेड स्थितियों में हरे रंग में बदल जाती हैं।
    • ओरोपेटियम थोमेयम (Oropetium thomaeum) में हाइड्रेटेड चरण में पत्तियाँ हरे से गहरे बैंगनी या नारंगी रंग में बदल जाती हैं तथा शुष्क चरण में भूरे से लेकर काली तक हो जाती है।
    • फर्न (फ्रोंड्स ) ने अनेक प्रकार की विशेषताएँ प्रदर्शित की हैं जिनमें कोस्टा की ओर अंदर की ओर मुड़ना, शुष्क मौसम की शुरुआत में और संक्षिप्त शुष्क अवधि के दौरान बीजाणुओं को उजागर करना शामिल है।
  • हालाँकि ये सभी प्रजातियों के मामले में सच नहीं है। सी लैनुगिनोसस (C Lanuginosus) के मामले में पत्तियाँ क्लोरोफिलस (Chlorophyllous) भाग को ढकने के लिये अंदर की ओर मुड़ जाती हैं या सिकुड़ जाती हैं जिससे शुष्कन चरण के दौरान सूर्य के सीधे प्रकाश के संपर्क से बचा जा सकता है।

महत्त्व:

  • जलवायु अनुकूलन को बढ़ावा देने हेतु उच्च तापमान सहिष्णु फसलों की किस्म विकसित करने के लिये शुष्कन-प्रतिरोधी संवहनी पादपों के जीन का उपयोग किया जा सकता है।
    • शुष्कन-सहिष्णु (DT) संवहनी पादपों की खोज का कृषि उपयोग है विशेष रूप से उन स्थानों पर जहाँ सिचाई के लिये जल की कमी है।
  • जलवायु अनुकूलन को बढ़ावा देने तथा व्यापक स्तर पर खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने हेतु उच्च तापमान सहनशील फसलों की किस्म विकसित करने के लिये इन पादपों के जीन का उपयोग किया जा सकता है।

जैव विविधता (संशोधन) विधेयक, 2021

चर्चा में क्यों?

हाल ही में लोकसभा में जैव विविधता (संशोधन) विधेयक, 2021 पारित किया गया।

पृष्ठभूमि

  • जैव विविधता अधिनियम, 2002 को वर्ष 1992 के जैव विविधता अभिसमय (Convention on Biological Diversity- CBD) के तहत भारत की प्रतिबद्धताओं के जवाब में अधिनियमित किया गया था। 
    • CBD के अनुसार, देशों को अपने जैविक संसाधनों को नियंत्रित करने का पूरा अधिकार है और यह राष्ट्रीय कानून के आधार पर इन संसाधनों तक पहुँच को विनियमित करने के लिये एक मंच प्रदान करता है।
  • जैविक संसाधनों को प्रभावी ढंग से प्रबंधित करने के लिये यह अधिनियम एक त्रि-स्तरीय संरचना की स्थापना करता है: 
    • राष्ट्रीय स्तर पर राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (National Biodiversity Authority- NBA)।
    • राज्य स्तर पर राज्य जैव विविधता बोर्ड (State Biodiversity Boards- SBBs)।
    • स्थानीय स्तर पर जैव विविधता प्रबंधन समितियाँ (Biodiversity Management Committees- BMC)। 
  • दिसंबर 2021 में वर्ष 2002 के अधिनियम में संशोधन के लिये लोकसभा में जैव विविधता (संशोधन) विधेयक, 2021 पेश किया गया था।
    • इन संशोधनों का उद्देश्य भारत में धारणीय जैव विविधता संरक्षण और उपयोग को बढ़ावा देते हुए इस अधिनियम को वर्तमान की मांगों और प्रगति के साथ संरेखित करना है।

जैविक विविधता (संशोधन) विधेयक, 2021 के प्रमुख प्रावधान:
Environment and Ecology (पर्यावरण और पारिस्थितिकी): July 2023 UPSC Current Affairs | भूगोल (Geography) for UPSC CSE in Hindi
जैविक विविधता (संशोधन) विधेयक, 2021 से संबंधित चिंताएँ

  • संरक्षण से अधिक उद्योग को प्राथमिकता:
    • आलोचकों का तर्क है कि संशोधन जैव विविधता संरक्षण पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय उद्योग के हितों को प्राथमिकता प्रदान करता हैं जो CBD की भावना के विरुद्ध है। 
    • CBD उन समुदायों के साथ जैव विविधता के उपयोग से होने वाले लाभों को साझा करने पर ज़ोर देता है जिन्होंने इसे पीढ़ियों से संरक्षित किया है।
    • यह संशोधन लाभ-वितरण और सामुदायिक भागीदारी के ढाँचे को कमज़ोर कर सकता है।
  • उल्लंघनों का अपराधीकरण
    • इस विधेयक में नियमों का पालन न करने वाले दलों के खिलाफ FIR दर्ज करने की NBA की शक्ति को हटाकर उल्लंघनों को अपराध की श्रेणी से पृथक करने का प्रस्ताव है।
    • इससे जैव विविधता संरक्षण कानूनों का कार्यान्वयन कमज़ोर हो सकता है, जिससे अवैध गतिविधियों को रोकने के प्रयासों में बाधा उत्पन्न हो सकती है।
  • घरेलू कंपनियों के लिये छूट
    • केवल "विदेशी-नियंत्रित कंपनियों" को जैव विविधता संसाधनों का उपयोग करने के लिये अनुमति लेने की आवश्यकता होगी। इससे संभावित रूप से विदेशी शेयरधारिता वाली घरेलू कंपनियों के लिये अनुमोदन प्रक्रिया को दरकिनार करने में परेशानियाँ उत्पन्न हो सकती हैं, जिसके परिणामस्वरूप जैव विविधता के अनियंत्रित दोहन से चिंताएँ बढ़ सकती हैं।
  • सीमित लाभ साझा करना
    • "पारंपरिक ज्ञान" का समावेश भारतीय चिकित्सा प्रणालियों के चिकित्सकों के अतिरिक्त कुछ उपयोगकर्त्ताओं को लाभ साझा करने की आवश्यकता से छूट प्रदान करता है।
    • इससे मुनाफाखोर घरेलू कंपनियाँ पारंपरिक ज्ञान रखने वाले समुदायों के साथ मुनाफा साझा करने की अपनी ज़िम्मेदारी से बच सकती हैं।
  • संरक्षण के मुद्दों की अनदेखी
    • आलोचकों का तर्क है कि यह संशोधन भारत में जैव विविधता संरक्षण के समक्ष आने वाली चुनौतियों का पर्याप्त रूप से समाधान नहीं करता है।
    • ऐसा प्रतीत होता है कि यह विधेयक विनियमों को कम करने और व्यावसायिक हितों को सुविधाजनक बनाने पर अधिक ध्यान केंद्रित करता है, जिससे जैव विविधता और पारंपरिक ज्ञान धारकों पर संभावित नकारात्मक प्रभाव के बारे में चिंताएँ बढ़ गई हैं।

आगे की राह

  • आर्थिक विकास को बढ़ावा देने और भारत की जैव विविधता के सतत् संरक्षण को सुनिश्चित करने के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता है।
  • स्थानीय समुदायों, स्वदेशी जनों, संरक्षणवादियों, वैज्ञानिकों और उद्योग प्रतिनिधियों सहित विभिन्न हितधारकों के साथ पारदर्शी एवं समावेशी परामर्श में संलग्न होने की आवश्यकता है।
  • इससे यह सुनिश्चित करने में सहायता मिलेगी कि निर्णय लेने की प्रक्रिया में सभी दृष्टिकोणों पर विचार किया जाता है, ऐसे संशोधन जैव विविधता संरक्षण के सिद्धांतों के अनुरूप होते हैं।

समुद्री घास के मैदान

चर्चा में क्यों?

  • उत्तरी जर्मनी में स्कूबा गोताखोर जलवायु परिवर्तन से निपटने तथा इन समुद्री कार्बन सिंक को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से बंजर क्षेत्रों में दोबारा रोपण के लिये समुद्री घास को एकत्र कर रहे हैं।

समुद्री घास के मैदान

परिचय

  • समुद्री घास के मैदान पुष्पीय पादपों से बने होते हैं जो उथले तटीय जल में उगते हैं, जिससे सघन जलमग्न सतह का निर्माण होता है जो बड़े क्षेत्रों को कवर कर सकते हैं।
  • वे उन क्षेत्रों में पनपते हैं जहाँ सूर्य का प्रकाश जल में प्रवेश कर सकता है, जिससे उन्हें विकास के लिये प्रकाश संश्लेषण से गुज़रने की अनुमति मिलती है।
  • इसके अलावा वे आमतौर पर रेतीले या कीचड़युक्त सब्सट्रेट्स (Substrates) में उगते हैं, जहाँ उनकी जड़ें पौधे को पकड़ सकती हैं और स्थिर कर सकती हैं।

महत्त्व

  • कार्बन पृथक्करण: हालाँकि वे समुद्र तल का केवल 0.1% कवर करते हैं, ये घास के मैदान अत्यधिक कुशल कार्बन सिंक हैं, जो विश्व के 18% तक समुद्री कार्बन का भंडारण करते हैं।
  • इससे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिंग को भी कम करने में मदद मिलती है।
  • जल गुणवत्ता में सुधार: ये जल से प्रदूषकों को फिल्टर/निस्यंदन करते हैं, आच्छादन, अपरदन को रोकते हैं, जिससे जल की गुणवत्ता में सुधार होता है।
  • इससे सागरीय जीवन, मत्स्यग्रहण, पर्यटन और मनोरंजन जैसी मानवीय गतिविधियों में लाभ होता है।
  • पर्यावास एवं जैव विविधता: ये पृथ्वी पर सबसे अधिक उत्पादक और विविध पारिस्थितिक तंत्रों से संबंधित होते हैं, जो मछली, कछुए, डुगोंग, केकड़े और समुद्री घोड़ों सहित कई सागरीय जीवों को आवास एवं भोजन प्रदान करते हैं।
  • तटीय सुरक्षा: समुद्री घास के मैदान प्राकृतिक बाधाओं के रूप में कार्य करते हैं, जो लहरों एवं ज्वारीय तरंगों के कारण होने वाले अपरदन से तटरेखाओं की रक्षा करते हैं।

चिंताएँ

  • संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की "आउट ऑफ द ब्लू: द वैल्यू ऑफ सीग्रास टू द एन्वायरनमेंट एंड टू पीपुल" रिपोर्ट के अनुसार, विश्व भर में प्रत्येक वर्ष अनुमानित 7% समुद्री घास का निवास स्थान नष्ट हो रहा है।
  • 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध से विश्व भर में समुद्री घास के क्षेत्र का लगभग 30% भाग नष्ट हो गया है।
  • समुद्री घास के नुकसान के मुख्य कारण निम्नलिखित हैं:
  • तटीय विकास: बंदरगाहों के निर्माण के परिणामस्वरूप समुद्री घास का पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो सकता है, जिससे प्रकाश की उपलब्धता भी कम हो सकती है।
  • प्रदूषण: कृषि, उद्योग और शहरी क्षेत्रों से पोषक तत्त्वों, रसायनों तथा तलछट के अपवाह के कारण यूट्रोफिकेशन, शैवालीय प्रस्फुटन हो सकता है, जो समुद्री घास के पौधों को दबा सकता है या उन्हें नष्ट कर सकता है।
  • जलवायु परिवर्तन: समुद्र के तापमान में वृद्धि, समुद्र के स्तर में वृद्धि, समुद्र का अम्लीकरण एवं चरम मौसम की घटनाएँ समुद्री घास के पौधों पर दबाव डाल सकती हैं या उन्हें नुकसान पहुँचा सकती हैं और उनके वितरण तथा विकास को बदल सकती हैं।

भारत में समुद्री घास

  • भारत में प्रमुख समुद्री घास के मैदान पूर्वी तट पर मन्नार की खाड़ी तथा पाक खाड़ी क्षेत्रों के समुद्र तट, पश्चिमी तट पर कच्छ क्षेत्र की खाड़ी, अरब सागर में लक्षद्वीप में द्वीपों के लैगून, बंगाल की खाड़ी एवं अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में मौजूद हैं।

पुनरुद्धार के प्रयास

  • जर्मनी में बाल्टिक सागर, संयुक्त राज्य अमेरिका में चेसापीक खाड़ी और भारत में मन्नार की खाड़ी जैसे विभिन्न क्षेत्रों में समुद्री घास की बहाली का प्रयास किया गया है।
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