फ्लोरा फौना और ‘फंगा’
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, संयुक्त राष्ट्र जैवविविधता ने एक विश्व स्तर पर अपील की है कि लोग जब भी 'फ्लोरा और फौना (वनस्पति और जीव)' की बात करें, तो वे 'फंगा (कवक)' शब्द का उपयोग करें, ताकि कवकों के महत्व को सामने लाया जा सके।
संयुक्त राष्ट्र जैवविविधता द्वारा ‘फंगा’ शब्द के उपयोग का आग्रह
- संयुक्त राष्ट्र जैवविविधता के अनुसार, “अब कानूनी संरक्षण ढाँचे में वनस्पतियों और जीवों के साथ समान स्तर पर कवक की पहचान एवं उसे संरक्षित करने का समय आ गया है।”
- यह पहली बार नहीं है जब फ्लोरा और फौना (वनस्पति और जीव) के साथ कवक को भी शामिल करने का अनुरोध किया गया है।
- इससे पहले IUCN के स्पीशीज़ सर्वाइवल कमीशन (SSC) ने घोषणा की थी कि वह अपने आंतरिक और सार्वजानिक संचार में "माइकोलॉजिकली समावेशी" भाषा का उपयोग करेगा तथा संरक्षण रणनीतियों में दुर्लभ एवं लुप्तप्राय वनस्पतियों और जीवों के साथ कवक को शामिल करेगा।
- कवक, यीस्ट, फफूँद और मशरूम के बिना पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं है क्योंकि ये अपघटन और वन पुनर्जनन, स्तनधारियों के पाचन, कार्बन पृथक्करण, वैश्विक पोषक चक्र और एंटीबायोटिक दवा के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।
कवक
- परिचय:
- कवक या फंगस यूकेरियोटिक सूक्ष्मजीव या स्थूल जीवों का एक विविध समूह है जो वनस्पतियों, जीवों और बैक्टीरिया से अलग अपने स्वयं के जैविक साम्राज्य से संबंधित होते हैं।
- विशेषताएँ:
- यूकैरियोट्स: वनस्पतियों, जीवों और प्रोटिस्ट की तरह कवक में जटिल झिल्लीबद्ध कोशिकांग तथा एक वास्तविक केंद्रक होता है।
- हेटरोट्रॉफिक: कवक मुख्य रूप से डीकंपोज़र या सैप्रोफाइट्स होते हैं, जिसका अर्थ है कि वे अपने परिवेश से जैविक पदार्थों को अवशोषित करके पोषक तत्व प्राप्त करते हैं।
- एंज़ाइमों का स्राव: कवक जटिल जैविक यौगिकों को सरल पदार्थों में तोड़ने के लिये एंज़ाइमों का स्राव करते हैं, जिन्हें वे अवशोषित कर सकते हैं।
- लाभ:
- पोषक तत्त्वों का आवर्तन:
- कवक पोषक तत्त्वों को पौधों के लिये सुलभ बनाने हेतु परिवर्तित किया जा सकता है, यह कार्बनिक पदार्थों को तोड़कर डीकंपोज़र के रूप में कार्य करता है, जिससे पोषक तत्त्वों की साइक्लिंग और मिट्टी की उर्वरता बढ़ती है।
- कार्बन साइक्लिंग और जलवायु विनियमन:
- कवक कार्बन चक्र में भाग लेकर मिट्टी के कार्बन भंडारण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे कार्बनिक पदार्थों को विघटित करते हैं, मृत पौधों से कार्बन का चक्रण करते हैं और पौधों की जड़ों के साथ सहजीवी संबंध बनाते हैं।
- माइकोरिजल कवक पौधों की जड़ों के साथ सहजीवी संबंध बनाते हैं, जिससे उन्हें पोषक तत्त्व ग्रहण करने में सहायता मिलती है।
- भोजन के रूप में कवक:
- इसके अनेक लाभकारी अनुप्रयोग हैं। उदाहरण के लिये यीस्ट का उपयोग बेकिंग और शराब बनाने में किया जाता है। कवक पेनिसिलिन जैसे एंटीबायोटिक्स भी उत्पन्न करते हैं।
- कुछ कवक, जैसे- मशरूम और ट्रफल्स, खाने योग्य हैं तथा व्यंजनों में बेशकीमती हैं। अन्य जैसे- फफूँद (Molds) का उपयोग पनीर बनाने में किया जाता है।
- पर्यावरण संरक्षण:
- कवक को पर्यावरण से विभिन्न प्रदूषकों, जैसे- प्लास्टिक और अन्य पेट्रोलियम-आधारित उत्पादों, फार्मास्यूटिकल्स तथा व्यक्तिगत देखभाल उत्पादों एवं तेल को कम करने में सहायक पाया गया है।
- कवक के हानिकारक प्रभाव:
- मानव और पशु रोग:
- कवक मनुष्यों और जानवरों में विभिन्न प्रकार की बीमारियों का कारण बन सकता है। जिसमें में एथलीट फुट (डर्माटोफाइट्स के कारण), दाद, हिस्टोप्लास्मोसिस तथा एस्परगिलोसिस शामिल हैं।
- कुछ कवक मायकोटॉक्सिन नामक विषैले यौगिकों का उत्पादन करते हैं, जो भोजन को दूषित कर सकते हैं और उपभोग करने पर स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न कर सकते हैं।
- फसल और पौधों के रोग:
- कवक रोगजनक फसलों और पौधों को संक्रमित एवं नुकसान पहुँचा सकते हैं, जिससे कृषि में अत्यधिक आर्थिक नुकसान हो सकता है।
- उदाहरणों में रतुआ (Rust), पाउडर फफूंँद (Powdery Mildew) और विभिन्न प्रकार के फंगल ब्लाइट (Fungal Blights) शामिल हैं।
- एलर्जी प्रतिक्रिया:
- विशेष रूप से उच्च आर्द्रता वाले इनडोर वातावरण में फंगल बीजाणुओं के संपर्क में आने से कुछ व्यक्तियों में एलर्जी और श्वसन संबंधी समस्याएँ हो सकती हैं।
- एलर्जिक राइनाइटिस और एलर्जिक ब्रोंकोपुलमोनरी एस्परगिलोसिस जैसी स्थितियाँ फंगल एलर्जी से जुड़ी हैं।
- वस्तुओं का जैव निम्नीकरण:
- कवक, कपड़ा, चमड़ा तथा कागज़ जैसी वस्तुओं को नष्ट कर सकता है, यदि इन वस्तुओं को ठीक से संरक्षित या संग्रहीत नहीं किया जाता है तो यह नुकसानदेह हो सकता है।
आगे की राह
- कवक संरक्षण को बढ़ावा देना: राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कानूनी संरक्षण ढाँचे में कवक को शामिल करने की पहल करनी चाहिये। इसमें कवक-समृद्ध पारिस्थितिक तंत्र एवं आवासों की पहचान तथा रक्षा करना शामिल होगा।
- अनुसंधान, आवास संरक्षण तथा बहाली प्रयासों के लिये विशेष रूप से फंगल संरक्षण परियोजनाओं के लिये पर्याप्त धन एवं अनुदान आवंटित किया जाना चाहिये।
- अनुसंधान एवं शिक्षा:
- कवक विविधता, वितरण तथा पारिस्थितिक भूमिकाओं का अध्ययन करने के लिये अनुसंधान हेतु निवेश किया जाना चाहिये। प्रभावी संरक्षण प्रयासों के लिये इनके बारे में जानकारी होना आवश्यक है।
- पारिस्थितिकी तंत्र स्वास्थ्य, पोषक चक्र तथा जैवविविधता में कवक के महत्त्वपूर्ण योगदान के बारे में जनता, नीति निर्माताओं और संरक्षणवादियों को सूचित करने के लिये जागरूकता अभियान एवं शैक्षिक कार्यक्रम प्रारंभ करना चाहिये।
- माइकोलॉजिकल समावेशिता: सरकारी एजेंसियों, अनुसंधान संस्थानों तथा संरक्षण संस्थाओं को अपने संचार, नीतियों एवं रिपोर्टों में "माइकोलॉजिकली समावेशी" भाषा अपनाने के लिये प्रोत्साहित करना चाहिये।
आक्रामक विदेशी प्रजातियां
हाल ही में केरल वन विभाग द्वारा, आक्रामक प्रजातियों के पेड़ों को उखाड़ने, इन वृक्षों के चारो ओर खाई बनाने, काटने, पेड़ की शाखाओं को काटने और यहां तक कि रसायनों के प्रयोग का परीक्षण करके, इन आक्रामक प्रजातियों को नष्ट करने का प्रयास किया जा रहा है।
मुख्य बिंदु
- नष्ट होने की बजाय, प्रत्येक कटे हुए वृक्षों के तनों से कई शाखाएं निकलने लगी है, जिससे प्रयास व्यर्थ हो रहे हैं।
- सेन्ना स्पेक्टबिलिस, एक आक्रामक प्रजाति, ज्यादातर 'नीलगिरि बायोस्फीयर रिजर्व' के वन क्षेत्रों में पाई जाती है।
- इन आक्रामक पौधों के विकास को रोकने के लिए प्रभावी कदमों की कमी हो रही है और पश्चिमी घाट के वन्यजीव आवासों के संरक्षण के लिए गंभीर चिंता का विषय है।
- यह आक्रामक प्रजातियां अब पश्चिमी घाट के प्रमुख वन्यजीव आवासों में फैल गई हैं और देशी वनस्पतियों को हटाते हुए हाथियों, हिरणों, गौर और बाघों के आवासों को नष्ट कर रही हैं।
ऐलेलोपैथिक लक्षण
- इस प्रजाति के 'ऐलेलोपैथिक लक्षण' अन्य पौधों के बढ़ने और पनपने को रोकने के लिए उत्पन्न होते हैं।
- एलेलोपैथी एक जैविक घटना है जिसमें कोई जीवधारी जैव रसायन उत्पन्न करता है, जो अन्य जीवों के विकास, अस्तित्व और प्रजनन को प्रभावित करता है।
- एलेलोपैथी प्राथमिक रूप से जमीनी स्तर पर पैदा होती है और इसका अत्यधिक प्रभाव प्राथमिक उत्पादकता पर होता है।
- आक्रामक प्रजातियों के विकास से जंगलों की सतह पर घास और जड़ी-बूटियाँ नष्ट हो जाती हैं, जिससे वन्य जीवों के भरण-पोषण हेतु जंगलों की वहन क्षमता कम हो रही है।
- इसके कारण 'मानव-पशु संघर्ष' और तीव्र होने की चिंता बढ़ रही है।
आक्रामक प्रजातियां
- ‘आक्रामक विदेशी प्रजातियों’ (Invasive alien species – IAS) में वे पौधे, जानवर, रोगजनक और अन्य जीव शामिल होते हैं, जो एक पारिस्थितिकी तंत्र के लिए गैर-स्थानिक होते हैं, तथा आर्थिक या पर्यावरणीय नुकसान पहुंचा सकते हैं या मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं।
- विशेष रूप से, ‘आक्रामक विदेशी प्रजातियां’ जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं, जिसके तहत – प्रतिस्पर्धा, शिकार, या रोगजनकों के संचरण के माध्यम से – देशी प्रजातियों की कमी या उन्मूलन हो जाता है, और स्थानीय पारिस्थितिक तंत्र और पारिस्थितिकी तंत्र के कार्यों में व्यवधान उपस्थित हो जाता है।
‘आक्रामक प्रजातियों’ के प्रभाव
- जैव विविधता में कमी।
- प्रमुख प्राकृतिक संसाधनों की उपलब्धता और गुणवत्ता में कमी।
- पानी की कमी।
- जंगल की आग और बाढ़ की आवृत्ति में वृद्धि।
- संक्रमणों को नियंत्रित करने के लिए रसायनों के अति प्रयोग से होने वाला प्रदूषण।
इस संबंध में किए गए प्रयास
- जैव विविधता अभिसमय (CBD) के अनुसार, 'आक्रामक प्रजातियों' के प्रभाव का समाधान जल्दी से आवश्यक है।
- आइची जैव विविधता लक्ष्य संख्या 9 और 'संयुक्त राष्ट्र सतत विकास लक्ष्य संख्या 15' ने 'स्थल पर जीवन' में इस मुद्दे को विशेष रूप से उठाया है।
- 'आईयूसीएन एसएससी इनवेसिव स्पीशीज स्पेशलिस्ट ग्रुप' (ISSG) का उद्देश्य, 'आक्रामक विदेशी प्रजातियों' (IAS) को रोकने, नियंत्रित करने या मिटाने के तरीकों के बारे में जागरूकता बढ़ाना है और पारिस्थितिक तंत्र और उसकी मूल प्रजातियों के लिए खतरों को कम करना है।
- इसके लिए IUCN ने 'ग्लोबल इनवेसिव स्पीशीज़ डेटाबेस' (GISD) और 'ग्लोबल रजिस्टर ऑफ़ इंट्रोड्यूस्ड एंड इनवेसिव स्पीशीज़' (GRIIS) नामक 'जानकारी मंच' को विकसित किया है।
पारिस्थितिकी-संहार को अपराधीकृत करने पर वैश्विक दबाव
पारिस्थितिक तंत्र का विनाश उन प्राकृतिक संसाधनों की समाप्ति के कारण हो रहा है, जैसे कि जल, वायु और मिट्टी। इसका अभिप्रेत भी है कि पर्यावरण में किसी भी अवांछनीय या हानिकारक परिवर्तन या विवाद के परिणामस्वरूप पारिस्थितिक तंत्र का विनाश होता है। संयुक्त राष्ट्र के खतरों, परिवर्तन और चुनौतियों पर 'उच्च स्तरीय पैनल' द्वारा पहचाने गए दस खतरों में से एक, पारिस्थितिक तंत्र का विनाश, की दुर्भाग्यपूर्ण घटना है।
पारिस्थितिकी तंत्र का विनाश क्या है?
- पारिस्थितिक और सामाजिक लक्ष्यों और आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्यावरण की क्षमता के नुकसान के रूप में पारिस्थितिक तंत्र के विनाश का संयुक्त राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय रणनीति द्वारा परिभाषित किया गया है।
- पारिस्थितिक तंत्र का विनाश जल, वायु और मिट्टी जैसे प्राकृतिक संसाधनों के घटने के माध्यम से होता है, जो पारिस्थितिकी तंत्र की गिरावट को संदर्भित करता है।
- पारिस्थितिक तंत्र में प्रत्येक जीव एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति करता है।
- प्रवाल भित्तियाँ एक पारिस्थितिकी तंत्र का उदाहरण हैं, जो दिखाते हैं कि प्रत्येक पारिस्थितिकी तंत्र आकार और संरचना में भिन्न होता है, लेकिन यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि आकार की परवाह किए बिना वे सभी सहजीवी समुदाय हैं।
- प्रदूषण मुख्य कारणों में से एक है जो पारिस्थितिक तंत्र बिंदुओं के विनाश में योगदान देता है।
- मानव द्वारा पारितंत्र नष्ट हो जाते हैं, जो वनों की कटाई और वन्यजीवों की नस्लों के लिए खतरा बढ़ाता है।
- पारिस्थितिक तंत्र पहले से ही नष्ट हो रहे हैं, और आने वाले 30 वर्षों में अधिकतर प्रवाल भित्तियाँ समाप्त हो जाएँगी।
- मानव की जरूरतें और अवैध कटाई दोनों ही वनों की कटाई में योगदान करते हैं, जिससे वन्यजीवों के लिए जीवन का संघर्ष बढ़ जाता है।
विश्व आर्थिक मंच (WEF) की रिपोर्ट क्या बताती है?
- संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP), वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम (WEF) और इकोनॉमिक्स ऑफ लैंड डिग्रेडेशन (ELD) इनिशिएटिव ने हाल ही में “जी20 में प्रकृति के लिए वित्त की स्थिति” शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की, जिसमें अनुमान लगाया गया है कि अमीर राष्ट्र प्रकृति में निवेश कर रहे हैं।
- समाधान (NbS) जैसे कि “प्राकृतिक और संशोधित पारिस्थितिक तंत्र की सुरक्षा, सतत प्रबंधन और जलवायु और जैव विविधता पुनर्स्थापना” के लिए कार्यों को अपने आंतरिक वार्षिक NbS खर्च के परिमाण को 140% तक बढ़ाने की आवश्यकता होगी जो कि 2050 तक अतिरिक्त 165 बिलियन अमरीकी डालर के बराबर है ताकि उनके उद्देश्यों को पूरा किया जा सके।
- इसके अतिरिक्त, इसने दावा किया कि G20 का 120 बिलियन अमरीकी डालर के NbS के लिए वर्तमान वार्षिक व्यय अपर्याप्त था।
- जलवायु परिवर्तन के परिणामों को कम करने और जैव विविधता बढ़ाने और कार्बन पृथक्करण को बढ़ावा देने के अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए राष्ट्र जिन कई रणनीतियों का उपयोग कर सकते हैं, उनमें से एक प्राकृतिक समाधान की ओर मुड़ना है। NbS कोरल रीफ संरक्षण, वनों के पुनर्वनीकरण और अन्य संबद्ध गतिविधियों जैसी गतिविधियों को शामिल करेगा।
- वर्तमान रिपोर्ट, जो G20 देशों में NbS के खर्च को ट्रैक करती है, अपने प्रकार की पहली है और 2021 से उस रिपोर्ट का निर्माण करती है जिसने उच्च आय वाले देशों को 2030 तक प्रकृति-आधारित समाधानों में USD 4.1 ट्रिलियन वित्तीय अंतराल को पाटने के लिए प्रेरित किया।
- वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम में क्लाइमेट एंड नेचर लीड टेरेसा हार्टमैन ने एक बयान में कहा कि, फिलहाल, एनबीएस निवेश का सिर्फ 11% निजी क्षेत्र द्वारा संचालित है और हमें एनबीएस को संरक्षण के मुद्दे के रूप में देखना बंद करना होगा और इसके बजाय प्रकृति आर्थिक, व्यापार और व्यावसायिक संक्रमणों के केंद्र में है।
- “पेरिस समझौते और जैव विविधता पर भविष्य के समझौते दोनों के साथ आर्थिक सुधार पोस्ट-कोविड -19” के साथ संरेखित करने के लिए, रिपोर्ट विकासशील देशों में एनबीएस निवेश करने का सुझाव देती है।
- यह विभिन्न सरकारी प्रोत्साहनों के माध्यम से निजी निवेश को प्रोत्साहित करने का भी सुझाव देता है।
पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश के कारण
- हम एक पारिस्थितिकी तंत्र को टिकाऊ के रूप में संदर्भित करते हैं जब यह स्वस्थ और स्थिर होता है।
- यह इंगित करता है कि यह स्वयं का समर्थन करने और पुनरुत्पादन करने में सक्षम है।
- पारिस्थितिक तंत्र जो टिकाऊ होते हैं उनमें जैव विविधता होती है। कई अलग-अलग प्रजातियां और जीव हैं जो वहां मौजूद हैं और योगदान करते हैं।
- पारिस्थितिक तंत्र पहले से ही नष्ट हो रहे हैं। पारिस्थितिक तंत्र के क्षरण के कुछ प्रमुख कारणों को नीचे सूचीबद्ध किया गया है:
वनों की कटाई
- वनों की कटाई का पारिस्थितिकी तंत्र पर गहरा प्रभाव पड़ता है और जैव विविधता में तेज गिरावट का कारण बनता है।
- मानव आबादी की घातीय वृद्धि के साथ, मुख्य रूप से वानिकी के माध्यम से भारी मात्रा में भोजन, संसाधन और आवास का उत्पादन किया जा रहा है।
- वनों की कटाई उन लाखों विविध प्रजातियों के अस्तित्व के लिए एक गंभीर खतरा है जो अपने अस्तित्व के लिए वनों पर निर्भर हैं।
वन्यजीव विनाश
- वन महत्वपूर्ण वन्यजीव आवास हैं और कृषि गतिविधियों से नकारात्मक रूप से प्रभावित हुए हैं क्योंकि वे पारिस्थितिक तंत्र हैं जो जीवित और निर्जीव जीवों के बीच जटिल बातचीत को बनाए रखते हैं।
जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग
- वनों की कटाई के कारण सालाना तीन अरब टन CO2 वायुमंडल में उत्सर्जित होती है, जो जनसंख्या विस्तार से प्रभावित होती है।
- यह हर साल 13 मिलियन हेक्टेयर भूमि को नष्ट करने के समान है। वैश्विक तापमान में वृद्धि और संघनन और वाष्पीकरण के चक्र में हस्तक्षेप करके, वनों की कटाई की इस दर का पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ता है।
जलीय संसाधनों का नुकसान
- प्राकृतिक मिट्टी, भूमि और जल प्रणालियों में उर्वरक उपयोग द्वारा पेश किए गए फास्फोरस और नाइट्रोजन यौगिकों की भारी मात्रा के कारण, पारिस्थितिक तंत्र को बदल दिया गया है, और जलीय मृत क्षेत्रों का तेजी से विस्तार हो रहा है।
जनसंख्या
- पर्यावरण का ह्रास अधिक जनसंख्या के सबसे महत्वपूर्ण परिणामों में से एक है।
- अधिक स्पष्ट कटौती जनसंख्या में वृद्धि के कारण होती है, जो पारिस्थितिक तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
- CO2 का स्तर तब बढ़ता है जब हवा को फिल्टर करने के लिए पर्याप्त पेड़ नहीं होते हैं, जो पृथ्वी पर हर जीवित चीज को नुकसान पहुंचाने की क्षमता रखता है।
प्लास्टिक का उत्पादन
- प्लास्टिक प्रदूषण पर्यावरण में प्रवेश करने के बाद हजारों वर्षों तक नाजुक पारिस्थितिक तंत्र और नियामक चक्रों को प्रभावित करता है।
- प्लास्टिक में पाए जाने वाले रसायनों को पर्यावरण में छोड़ दिया जाता है, जो जानवरों के अंतःस्रावी तंत्र को प्रभावित करते हैं और उनकी प्रजनन आदतों को बदलते हैं।
महासागरीय चट्टानों का विनाश
- दुनिया के सबसे समृद्ध समुद्री पारिस्थितिक तंत्र समुद्री चट्टानें हैं, लेकिन मानवीय गतिविधियों ने उन्हें पोषक तत्वों और ऊर्जा के सामान्य प्रवाह को बाधित करके नष्ट कर दिया है जो समुद्री पौधों और जानवरों की प्रजातियों का समर्थन करते हैं।
- प्रवाल भित्तियों के विलुप्त होने के कारण मानव गतिविधि के प्रभावों में जल प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन, अत्यधिक मछली पकड़ना और समुद्री जल का अम्लीकरण शामिल हैं।
अत्यधिक शिकार और अत्यधिक दोहन
- अत्यधिक शिकार और अत्यधिक शोषण का विभिन्न स्थितियों में सह-अस्तित्व वाले जानवरों और पौधों की प्रजातियों की विभिन्न श्रेणियों पर महत्वपूर्ण नकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
- अत्यधिक शिकार खाद्य प्रणालियों को बाधित कर सकता है, प्राकृतिक आवासों को बर्बाद कर सकता है और विलुप्त होने का कारण बन सकता है।
प्राकृतिक कारक
- भूकंप, तूफान और जंगल की आग जैसी प्राकृतिक आपदाएं पौधों और जानवरों की प्रजातियों को उस स्तर तक तबाह कर सकती हैं जहां वे अब वहां जीवित नहीं रह सकते। यह किसी विशिष्ट आपदा के परिणामस्वरूप दीर्घकालिक पर्यावरणीय तबाही या जैविक विनाश के माध्यम से प्रकट हो सकता है।
विदेशी या आक्रामक प्रजातियां
- दुनिया के अन्य हिस्सों से जीवों को या तो जाने-अनजाने ले जाने से आक्रामक प्रजातियों का उदय होता है।
- चूंकि इन आक्रमणकारी प्रजातियों में इस नई पारिस्थितिकी में कोई शिकारी नहीं हो सकता है, यह मौजूदा प्रजातियों के लिए विनाशकारी हो सकता है, जिसके परिणामस्वरूप उनकी गिरावट या विलुप्त होने और नई प्रजातियों की भीड़भाड़ हो सकती है।
पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश का प्रभाव
पारिस्थितिक तंत्र के विनाश का ग्रह पर रहने वाली कई प्रजातियों पर व्यापक प्रभाव पड़ सकता है।
इनमें से कुछ प्रभावों को नीचे सूचीबद्ध किया गया है:
- निवास स्थान के विनाश के कारण कई जानवर खतरे में हैं, यही मुख्य कारण है कि विभिन्न प्रजातियां विलुप्त हो रही हैं।
- अपने प्राकृतिक आवास के बिना, जानवर अपने बच्चों की देखभाल करने और अपनी रक्षा करने में असमर्थ हैं।
- प्रकृति विभिन्न प्रजातियों और पर्यावरण के बीच संतुलन बनाए रखने के लिए पारिस्थितिक तंत्र का उपयोग करती है।
- जंगली में, सब कुछ आपस में जुड़ा हुआ है और वृत्ति द्वारा शासित है। सबसे छोटे घास के ब्लेड से लेकर सबसे बड़े पेड़ों तक सभी का एक कार्य होता है।
- जीव जीवित रहने के लिए पर्यावरण और एक दूसरे पर निर्भर हैं। जब हम इस संतुलन को बिगाड़ते हैं, उन्हें खतरे में डालते हैं, तो वे अक्सर खो जाते हैं और भ्रमित हो जाते हैं।
- प्रजातियों की मृत्यु और संतान पैदा करने में असमर्थता इसके अंतिम परिणाम हैं।
- मिट्टी की संरचना और गुणवत्ता को तुरंत बदल दिया जाता है, जिससे कई पौधों को पोषक तत्वों और कमरे के फलने-फूलने से वंचित कर दिया जाता है, जो कई पौधों को बढ़ने से रोकता है।
- कई पौधे अपने आप को बढ़ने के लिए प्रेरित नहीं कर सकते क्योंकि मानव गतिविधि के कारण पृथ्वी इतनी संकुचित है, और यदि बीज कहीं और नहीं लगाए जाते हैं, तो पौधों की प्रजातियां पूरी तरह से क्षेत्र से गायब हो सकती हैं।
- औद्योगिक खेती के लिए भूमि के व्यापक उपयोग के परिणामस्वरूप, अपवाह एक अन्य समस्या है जो प्रदूषण और आवास में गिरावट को जोड़ती है।
- खेती के लिए बहुत सारे उर्वरकों, कीटनाशकों और जहरीले यौगिकों वाली अन्य वस्तुओं की अक्सर आवश्यकता होती है।
- जहरीले पदार्थ अंततः पृथ्वी में रिसते हैं और झीलों, नदियों और महासागरों जैसे जल निकायों में प्रवाहित होते हैं, जिससे जल और जलीय जीवन दोनों नष्ट हो जाते हैं।
- क्योंकि मानव पानी को बहा देता है और फसलों के लिए पीने और सिंचाई की मानवीय मांगों को पूरा करने के लिए इसके प्रवाह को बदल देता है, पानी के नीचे की व्यवस्था बाधित हो जाती है।
- यह असंतुलन कुछ स्थानों को शुष्क बना देता है, जो समुद्र की प्रजातियों और आवासों के लिए हानिकारक है।
- जब हम प्राकृतिक आवासों को नुकसान पहुंचाते हैं तो हम खुद को नुकसान पहुंचाते हैं क्योंकि यह जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनता है।
- जैसे-जैसे अधिक पेड़ काटे जाते हैं, वातावरण में अधिक कार्बन डाइऑक्साइड निकलती है, जो पृथ्वी के गर्म होने को तेज करती है। इस तापमान परिवर्तन से कई प्रजातियों का सफाया हो रहा है, खासकर उन क्षेत्रों में जहां परिवर्तन महत्वपूर्ण हैं।
- पर्यावरण क्षरण का मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। जहां हानिकारक वायु प्रदूषक मौजूद हैं, वहां निमोनिया और अस्थमा जैसे श्वसन संबंधी मुद्दों को लाया जा सकता है।
- मालूम हो कि वायु प्रदूषण से लाखों लोगों की मौत हुई है।
- पर्यावरण के बिगड़ने से जुड़ी भारी लागत का देश की हरियाली को बहाल करने, लैंडफिल को साफ करने और लुप्तप्राय प्रजातियों की रक्षा करने की क्षमता पर महत्वपूर्ण आर्थिक प्रभाव पड़ सकता है।
- पर्यटन उद्योग, जो पर्यटकों पर निर्भर है, को पर्यावरणीय गिरावट के परिणामस्वरूप एक गंभीर झटका लग सकता है।
- कम हरियाली, घटती जैव विविधता, बड़े पैमाने पर लैंडफिल, वायु और जल प्रदूषण में वृद्धि और अधिक के रूप में अधिकांश आगंतुकों को पर्यावरणीय गिरावट से दूर रखा जा सकता है।
विनाश से पारिस्थितिकी तंत्र का संरक्षण
- यह सुनिश्चित करने के लिए कि आने वाली पीढ़ियों के लिए प्राकृतिक संसाधन उपलब्ध हैं और साथ ही हमारे अपने स्वास्थ्य को बनाए रखने के लिए, यह अनिवार्य है कि हम प्रकृति की रक्षा करें।
- हानिकारक मानवीय गतिविधियों के परिणामस्वरूप पर्यावरण या पारिस्थितिकी तंत्र को खराब होने से बचाने के लिए निम्नलिखित प्रथाओं का पालन किया जा सकता है :
वनों की कटाई पर अंकुश लगाना
- पर्यावरणीय गिरावट के नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए हमारी पर्यावरण प्रणाली के लिए वनों की कटाई को रोकना महत्वपूर्ण है।
- हम पेड़ों को काटने या जलाने का जोखिम नहीं उठा सकते क्योंकि वे ऑक्सीजन उत्पन्न करते हैं, ग्रीनहाउस गैसों को संग्रहीत करते हैं, और विभिन्न प्रकार के जानवरों और पौधों के लिए एक प्राकृतिक आवास के रूप में कार्य करते हैं, जिनमें से कई विलुप्त हो सकते हैं यदि ये जंगल नष्ट हो जाते हैं।
- पर्यावरण की रक्षा के लिए, एक महत्वपूर्ण वनीकरण प्रयास शुरू किया जाना चाहिए। वनरोपण और वनरोपण अतिरिक्त तरीके हैं जिनका अच्छा प्रभाव पड़ सकता है।
सरकारी नियम और विनियम
- हर बार ऐसे मुद्दे होते हैं जो पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाते हैं, सरकारों को कदम उठाना चाहिए और एक ढांचा स्थापित करना चाहिए।
- सरकारों को उन कार्यों पर भारी जुर्माना लगाना चाहिए जो पर्यावरण को खतरे में डालते हैं और पर्यावरण के अनुकूल व्यवहार के लिए वित्तीय प्रोत्साहन प्रदान करते हैं।
- इससे व्यवसायों और व्यक्तियों के लिए पर्यावरण को खराब करने वाले कार्यों से बचना आसान हो जाएगा।
कचरे के अवैध डंपिंग के लिए दंड और जुर्माना
- पर्यावरण पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों को कम करने के लिए अनधिकृत डंपिंग के लिए कठोर दंड का प्रावधान भी होना चाहिए।
- व्यक्ति और कंपनियां अपने कचरे को अवैध रूप से डंप करना जारी रखेंगे क्योंकि वे जानते हैं कि पकड़े जाने पर भी जुर्माना न्यूनतम है।
- इस प्रकार अनुचित डंपिंग के लिए दंड बढ़ाने से अधिकृत कचरा निपटान सुविधाओं पर कचरे का निपटान करना अधिक आकर्षक हो जाएगा।
खपत के स्तर में कमी
- यह अनिवार्य हो गया है कि हम अपने उपभोग में कटौती करें।
- हमारी परिष्कृत संस्कृति में नवीनतम तकनीकों, स्मार्टफोन, फैशनेबल कपड़ों और अन्य वस्तुओं की लगातार मांग की जाती है।
- हालाँकि, इस आदत के परिणामस्वरूप महत्वपूर्ण संसाधनों की कमी और अत्यधिक अपशिष्ट उत्पादन होता है।
- नकारात्मक पारिस्थितिक प्रभावों को रोकने के लिए, हमें अपने उपभोग स्तरों को नाटकीय रूप से कम करना चाहिए।
पुनर्चक्रण और पुन: उपयोग के माध्यम से अपशिष्ट को कम करना
- अपनी चीजों और भोजन का अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग करके, आप अपशिष्ट उत्पादन को कम कर सकते हैं।
- यदि आप पुरानी लेकिन कार्यात्मक वस्तुओं से छुटकारा पाना चाहते हैं तो इसे एक नया रूप देने के लिए आविष्कारशील बनें या किसी अन्य तरीके से इसका उपयोग करें।
- यदि आप ऐसा करते हैं तो आपकी भौतिक संपत्ति का अधिक बुद्धिमानी से उपयोग किया जाएगा।
- यदि वे उपयोग करने योग्य नहीं हैं तो उन्हें अलग करें, फिर उन्हें रीसाइक्लिंग के लिए दें।
प्लास्टिक का प्रयोग न करना
- प्लास्टिक प्रदूषण और हमारी दुनिया का बिगड़ना दोनों ही प्लास्टिक कचरे के प्रमुख प्रभाव हैं, जो एक गंभीर पर्यावरणीय मुद्दा है।
- प्लास्टिक रैपिंग या रैपर वाली चीजें खरीदने से बचें और डिस्पोजेबल प्लास्टिक कटलरी, कप, प्लेट, कंटेनर और अन्य वस्तुओं के उपयोग से बचें।
- अपनी खुद की पुन: प्रयोज्य वस्तुओं को ले जाएं जिनका आप बार-बार उपयोग कर सकते हैं।
शिक्षा प्रदान करना
- बच्चों को हमारे दैनिक कार्यों के नकारात्मक पर्यावरणीय प्रभावों के साथ-साथ उन तरीकों से अवगत कराया जाना चाहिए जिनके द्वारा हम अपने पारिस्थितिक पदचिह्न को कम कर सकते हैं।
- यह शिक्षा प्राथमिक विद्यालय से शुरू होनी चाहिए।
- जब वे बड़े हो जाते हैं, तो बच्चे पर्यावरण के अनुकूल तरीके से कार्य करने के लिए अधिक इच्छुक होते हैं, और वे अपने माता-पिता को भी ऐसा करने के लिए राजी कर सकते हैं।
भारतीय हिमालयी क्षेत्र
चर्चा में क्यों?
अपने मनोरम वातावरण और सांस्कृतिक विरासत के लिये प्रसिद्ध हिमालय क्षेत्र के स्वच्छता संबंधी मुद्दों को त्वरित रूप से हल किये जाने की आवश्यकता है, अवैध निर्माण और पर्यटकों की बढ़ती संख्या के कारण स्थिति दिन-पर-दिन चिंतनीय होती जा रही है।
- सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वायरनमेंट ने एक हालिया विश्लेषण में हिमालयी राज्यों में स्वच्छता प्रणालियों की गंभीर स्थिति पर प्रकाश डाला है।
विश्लेषण के प्रमुख बिंदु
- जल आपूर्ति और अपशिष्ट जल उत्पादन: स्वच्छ भारत मिशन-ग्रामीण के दिशा-निर्देशों के अनुसार, प्रत्येक पहाड़ी शहर में प्रति व्यक्ति लगभग 150 लीटर पानी की आपूर्ति की जाती है।
- चिंता की बात यह है कि इस जल आपूर्ति का लगभग 65-70% अपशिष्ट जल में परिवर्तित हो जाता है।
- धूसर जल प्रबंधन चुनौतियाँ: उत्तराखंड में केवल 31.7% घर सीवरेज सिस्टम से जुड़े हैं, जिस कारण अधिकांश लोग ऑन-साइट स्वच्छता सुविधाओं (एक स्वच्छता प्रणाली जिसमें अपशिष्ट जल को उसी भू-खंड पर एकत्रित, संग्रहीत और/या उपचारित किया जाता है जहाँ वह उत्पन्न होता है) पर निर्भर हैं।
- घरों और छोटे होटल दोनों ही द्वारा बाथरूम एवं रसोई से निकलने वाले गंदे जल के प्रबंधन के लिये अक्सर सोखने वाले गड्ढों (Soak Pits) का उपयोग किया जाता है।
- कुछ कस्बों में खुली नालियों से गंदे जल का अनियमित प्रवाह होता है, जिससे इस जल का अधिक रिसाव ज़मीन में होने लगता है।
- मृदा और भूस्खलन पर प्रभाव: हिमालयी क्षेत्र की मृदा की संरचना, जिसमें चिकनी, दोमट और रूपांतरित शिस्ट, फिलाइट एवं गनीस शैलें शामिल हैं, स्वाभाविक रूप से कोमल होती है।
- विश्लेषण के अनुसार, जल और अपशिष्ट जल का ज़मीन में अत्यधिक रिसाव, मृदा को नरम/कोमल बना सकता है जिससे भूस्खलन की संभावना अधिक होती है।
भारतीय हिमालयी क्षेत्र से संबंधित अन्य चुनौतियाँ
- परिचय:
- भारतीय हिमालयी क्षेत्र 13 भारतीय राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों (जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय, मिज़ोरम, नगालैंड, सिक्किम, त्रिपुरा, असम और पश्चिम बंगाल) में 2500 किमी. तक विस्तृत है।
- इस क्षेत्र में लगभग 50 मिलियन लोग रहते हैं, विविध जनसांख्यिकीय और बहुमुखी आर्थिक, पर्यावरणीय, सामाजिक तथा राजनीतिक प्रणालियाँ इन क्षेत्रों की विशेषता है।
- ऊँची चोटियों, विशाल दृश्यभूमि, समृद्ध जैवविविधता और सांस्कृतिक विरासत के साथ भारतीय हिमालयी क्षेत्र लंबे समय से भारतीय उपमहाद्वीप एवं विश्व भर से आगंतुकों तथा तीर्थयात्रियों के लिये आकर्षण का केंद्र रहा है।
- चुनौतियाँ:
- पर्यावरणीय क्षरण और वनों की कटाई: वनों की व्यापक कटाई भारतीय हिमालयी क्षेत्र की सबसे प्रमुख समस्या रही है, यह पारिस्थितिक संतुलन पर काफी प्रतिकूल प्रभाव डालती है।
- बुनियादी ढाँचे और शहरीकरण के लिये बड़े पैमाने पर होने वाले निर्माण कार्य से निवास स्थान का नुकसान, मृदा का क्षरण और प्राकृतिक जल प्रवाह में बाधा जैसी समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।
- जलवायु परिवर्तन और आपदाएँ: भारतीय हिमालयी क्षेत्र जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है। बढ़ते तापमान का हिमनदों पर अधिक बुरा असर पड़ा है जिससे निचले इलाकों में रहने वाले समुदायों के लिये जल संसाधनों की उपलब्धता पैटर्न में बदलाव देखा जा रहा है।
- अनियमित मौसम पैटर्न, वर्षा की तीव्रता में वृद्धि और दीर्घकालीन शुष्क मौसम पारिस्थितिक तंत्र स्थानीय समुदायों को और अधिक प्रभावित करते हैं।
- यह क्षेत्र भूकंप, भूस्खलन और बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदाओं के प्रति भी अतिसंवेदनशील है।
- गैर-योजनाबद्ध विकास, आपदा-रोधी बुनियादी ढाँचे की कमी एवं अपर्याप्त प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों के कारण इस प्रकार की घटनाओं के प्रभाव में और वृद्धि होती है।
- सांस्कृतिक और स्वदेशी ज्ञान का पतन: भारतीय हिमालयी क्षेत्र पीढ़ियों से कायम रखे हुए अद्वितीय ज्ञान और प्रथाओं वाले विविध स्वदेशी समुदायों का घर है।
- हालाँकि आधुनिकीकरण के कारण धारणीय संसाधन प्रबंधन हेतु मूल्यवान अंतर्दृष्टि प्रदान करने वाली इन सांस्कृतिक परंपराओं का क्षरण हो सकता है।
आगे की राह
- प्रकृति-आधारित पर्यटन: पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभावों को कम करते हुए स्थानीय समुदायों के लिये आय उत्पन्न करने वाले धारणीय और ज़िम्मेदार पर्यटन प्रथाओं का विकास किया जाना चाहिये।
- इसमें पर्यावरण संवेदी पर्यटन को बढ़ावा देना, वहन क्षमता सीमा लागू करना और पर्यटकों के बीच जागरूकता बढ़ाने जैसे कार्यों को शामिल किया जा सकता है।
- हिमनद जल संग्रहण: गर्मी के महीनों के दौरान हिमनदों से पिघले जल को संगृहीत करने के लिये नवीन तरीकों का विकास किया जा सकता है।
- इस संगृहीत जल उपयोग शुष्क मौसम के दौरान कृषि आवश्यकताओं और डाउनस्ट्रीम पारिस्थितिकी तंत्र के समर्थन हेतु किया जा सकता है।
- आपदा शमन और इससे संबंधित तैयारियाँ: इसके लिये व्यापक आपदा प्रबंधन योजनाएँ विकसित की जा सकती हैं जो भूस्खलन, हिमस्खलन और हिमनद झील के विस्फोट के कारण आने वाली बाढ़ की वजह से संबद्ध क्षेत्र के लिये उत्पन्न गंभीर जोखिमों को कम करने में मदद कर सके। आपदा प्रबंधन के लिये राज्य सरकारें प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों, निकासी योजनाओं तथा सामुदायिक प्रशिक्षण कार्यों में निवेश कर सकती हैं।
- कृषि संवर्द्धन के लिये धूसर जल पुनर्चक्रण: कृषि उपयोग के लिये घरेलू धूसर जल को एकत्रित और उपचारित करने के लिये भारतीय हिमालयी क्षेत्रों में एक धूसर जल पुनर्चक्रण प्रणाली लागू करने की आवश्यकता है।
- फसल उत्पादन में वृद्धि हेतु जल और पोषक तत्त्वों का एक स्थायी स्रोत प्रदान करने के लिये इस उपचारित जल का उपयोग स्थानीय खेतों में सिंचाई हेतु किया सकता है।
- जैव-सांस्कृतिक संरक्षण क्षेत्र: ऐसे विशिष्ट क्षेत्रों, जहाँ प्राकृतिक जैवविविधता और स्वदेशी सांस्कृतिक प्रथाएँ दोनों संरक्षित हैं, को जैव-सांस्कृतिक संरक्षण क्षेत्र के रूप में नामित किया जाना चाहिये। इससे स्थानीय समुदायों तथा पर्यावरण के बीच संबंध बनाए रखने में मदद मिल सकती है।
पूर्वोत्तर भारत में पर्यावरणीय चुनौतियां
चर्चा में क्यों?
- हाल ही में मेघालय उच्च न्यायालय ने उमियम झील की सफाई बनाम मेघालय राज्य मामला, 2023 में कहा कि "किसी अन्य रोज़गार अवसर के अभाव में राज्य की प्राकृतिक सुंदरता को क्षति पहुँचाया जाना सर्वथा अनुचित है"।
- उच्च न्यायालय का यह फैसला इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता की सुरक्षा करते हुए पर्यटन, बुनियादी अवसंरचना के विकास और निर्माण को बढ़ावा देने की चुनौती पर प्रकाश डालता है।
पृष्ठभूमि:
- उमियम झील की सफाई पर एक जनहित याचिका मेघालय उच्च न्यायालय में काफी लंबे समय से लंबित थी।
- उमियम झील मामला मुख्यतः झील और जलाशय के आसपास अनियमित निर्माण और पर्यटन के प्रतिकूल प्रभाव पर केंद्रित था।
- फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि इस क्षेत्र की प्राकृतिक सुंदरता को नष्ट करने की कीमत पर आर्थिक विकास कदापि नहीं होना चाहिये।
- अधिक व्यापक नियमों की आवश्यकता पर प्रकाश डालते हुए जल निकायों के आसपास अनियंत्रित निर्माण के मुद्दे का प्रभावी रूप से हल न करने के लिये उच्च न्यायालय ने मेघालय जल निकाय (सुरक्षा और संरक्षण) दिशा-निर्देश, 2023 की आलोचना की।
पूर्वोत्तर क्षेत्र की विकासात्मक चुनौतियाँ और जैवविविधता में संबंध
- जैवविविधता हॉटस्पॉट:
- तेल, प्राकृतिक गैस, खनिज और मीठे जल जैसे प्रचुर प्राकृतिक संसाधनों के कारण पूर्वोत्तर भारत एक हरित पट्टी क्षेत्र है।
- गारो-खासी-जयंतिया पहाड़ियाँ और ब्रह्मपुत्र घाटी सबसे महत्त्वपूर्ण जैवविविधता हॉटस्पॉट में से हैं।
- पूर्वोत्तर भारत इंडो-बर्मा हॉटस्पॉट का एक हिस्सा है।
- चिंताएँ:
- हालाँकि पूर्वोत्तर क्षेत्र औद्योगिक रूप से पर्याप्त विकसित नहीं है, परंतु वनों की कटाई, बाढ़ और मौजूदा उद्योग इस क्षेत्र में पर्यावरण के लिये गंभीर समस्याएँ पैदा कर रहे हैं।
- विकास मंत्रालय द्वारा किये गए पूर्वोत्तर ग्रामीण आजीविका परियोजना का एक पर्यावरणीय मूल्यांकन बताता है कि "पूर्वोत्तर भारत एक पारिस्थितिक रूप से संवेदनशील तथा जैविक रूप से समृद्ध क्षेत्र और सीमा पार नदी बेसिन में स्थित है, जो जलवायु परिवर्तन के प्रति अत्यधिक संवेदनशील है।
- वन-कटाई, खनन, उत्खनन, स्थानांतरण खेती के कारण क्षेत्रों की वनस्पति और जीव दोनों खतरे में हैं।
- कानूनी ढाँचा और चुनौतियाँ:
- संविधान की छठी अनुसूची ज़िला परिषदों को स्वायत्तता प्रदान करती है, जो भूमि उपयोग पर राज्य के अधिकार को सीमित करता है।
- इस स्वायत्तता के परिणामस्वरूप कभी-कभी अपर्याप्त नियमन की स्थिति उत्पन्न होती है, जैसा कि उमियम झील के मामले में देखा गया है।
- संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के तहत जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता ने पर्यावरण सुरक्षा को लागू करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
- राष्ट्रीय हरित अधिकरण द्वारा पर्यावरणीय उल्लंघनों के लिये राज्यों पर ज़ुर्माना लगाना पर्यावरण की सुरक्षा में कानूनी तंत्र की भूमिका को रेखांकित करता है।
पूर्वोत्तर में सतत् विकास को बढ़ावा देने हेतु किये गए प्रयास
- पूर्वोत्तर औद्योगिक विकास योजना:
- पूर्वोत्तर औद्योगिक विकास योजना (North East Industrial Development Scheme- NEIDS), 2017 के भीतर 'नेगेटिव लिस्ट (Negative List)' एक सराहनीय कदम है, जो यह सुनिश्चित करती है कि पर्यावरण मानकों का पालन करने वाली संस्थाओं को प्रोत्साहन मिले।
- यदि कोई इकाई पर्यावरण मानकों का अनुपालन नहीं कर रही है या उसके पास आवश्यक पर्यावरणीय मंज़ूरी नही है या संबंधित प्रदूषण बोर्डों की सहमति नहीं है, तो वह NEIDS के तहत किसी भी प्रोत्साहन के लिये पात्र नहीं होगी और उसे 'नेगेटिव लिस्ट' में डाल दिया जाएगा।
- एक्ट फास्ट फॉर नॉर्थ-ईस्ट:
- 'एक्ट फास्ट फॉर नॉर्थ-ईस्ट' नीति में न केवल "व्यापार और वाणिज्य" बल्कि इस क्षेत्र में "पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी" का संरक्षण भी शामिल होना चाहिये।
- समान एवं व्यापक पर्यावरण विधान:
- सभी शासन स्तरों पर पर्यावरणीय मुद्दों को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिये, समान तथा व्यापक पर्यावरण विधान महत्त्वपूर्ण है।
- इस तरह का कानून नियमों में अंतराल को कम कर देगा तथा यह सुनिश्चित करेगा कि आर्थिक विकास पर्यावरणीय स्थिरता के साथ संरेखित हो।
भारत में ई-अपशिष्ट प्रबंधन
इंडियन सेल्युलर एंड इलेक्ट्रॉनिक्स एसोसिएशन (आईसीईए) ने ' भारतीय इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर में सर्कुलर इकोनॉमी के रास्ते' शीर्षक से एक व्यापक रिपोर्ट जारी की है ।
- यह रिपोर्ट ई-कचरा प्रबंधन पर पुनर्विचार करने और इसकी क्षमता का दोहन करने के अवसरों का पता लगाने की तत्काल आवश्यकता पर प्रकाश डालती है ।
- रिपोर्ट बताती है कि यह परिवर्तन अतिरिक्त 7 बिलियन अमेरिकी डॉलर के बाजार अवसर को खोल सकता है।
रिपोर्ट की प्रमुख बातें क्या हैं?
- भारत में ई-अपशिष्ट परिदृश्य:
- ICEA रिपोर्ट के अनुसार, भारत में ई-कचरा प्रबंधन मुख्य रूप से अनौपचारिक है , लगभग 90% ई-कचरा संग्रह और 70% रीसाइक्लिंग का प्रबंधन प्रतिस्पर्धी अनौपचारिक क्षेत्र द्वारा किया जाता है।
- अनौपचारिक क्षेत्र पुराने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को स्पेयर पार्ट्स के लिए सहेजने और लाभप्रद ढंग से मरम्मत करने में उत्कृष्टता प्राप्त करता है।
- मुरादाबाद जैसे औद्योगिक केंद्र सोने और चांदी जैसी मूल्यवान सामग्री निकालने के लिए मुद्रित सर्किट बोर्ड (पीसीबी) के प्रसंस्करण में विशेषज्ञ हैं।
- परिपत्र अर्थव्यवस्था सिद्धांत:
- रिपोर्ट में ई-कचरा प्रबंधन के दृष्टिकोण को एक चक्रीय अर्थव्यवस्था स्थापित करने की दिशा में बदलने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है।
- चीन एक उदाहरण के रूप में कार्य करता है, जो 2030 तक नए उत्पादों के निर्माण में 35% माध्यमिक कच्चे माल का उपयोग करने का लक्ष्य रखता है, जो एक परिपत्र अर्थव्यवस्था दृष्टिकोण को दर्शाता है।
- ई-कचरे में एक चक्रीय अर्थव्यवस्था के लिए प्रस्तावित रणनीतियाँ: आईसीईए रिपोर्ट भारत में ई-कचरे के लिए एक चक्रीय अर्थव्यवस्था की शुरुआत करने के लिए कई प्रमुख रणनीतियों की रूपरेखा प्रस्तुत करती है:
- सार्वजनिक-निजी भागीदारी (पीपीपी): रिवर्स आपूर्ति श्रृंखला स्थापित करने की लागत को वितरित करने के लिए सरकारी निकायों और निजी उद्यमों के बीच सहयोग
- इस जटिल प्रयास में उपयोगकर्ताओं से उपकरण एकत्र करना, व्यक्तिगत डेटा मिटाना और उन्हें आगे की प्रक्रिया और रीसाइक्लिंग के लिए चैनल करना शामिल है।
- ऑडिटेबल डेटाबेस : रिवर्स सप्लाई चेन प्रक्रिया के माध्यम से एकत्र की गई सामग्रियों के पारदर्शी और ऑडिटेबल डेटाबेस का निर्माण जवाबदेही और ट्रेसबिलिटी को बढ़ा सकता है।
- भौगोलिक क्लस्टर: भौगोलिक क्लस्टर स्थापित करना जहां बेकार पड़े उपकरणों को इकट्ठा किया जाता है और नष्ट किया जाता है, रीसाइक्लिंग प्रक्रिया को अनुकूलित किया जा सकता है, जिससे यह अधिक कुशल और लागत प्रभावी बन जाती है।
- 'उच्च-उपज' पुनर्चक्रण केंद्रों को प्रोत्साहित करना: उच्च-उपज पुनर्चक्रण सुविधाओं के विकास को प्रोत्साहित करने से अर्धचालकों में दुर्लभ पृथ्वी धातुओं सहित इलेक्ट्रॉनिक उत्पादों से मूल्य निष्कर्षण को अधिकतम करने में मदद मिल सकती है।
- मरम्मत और उत्पाद की दीर्घायु को बढ़ावा देना: नीतिगत सिफारिशों में मरम्मत को प्रोत्साहित करना और उत्पादों को लंबे समय तक चलने वाला बनाना शामिल है।
- इसमें उपयोगकर्ता के मरम्मत के अधिकार का समर्थन करना, इलेक्ट्रॉनिक कचरे के पर्यावरणीय बोझ को कम करना शामिल हो सकता है ।
भारत में ई-कचरा प्रबंधन की स्थिति क्या है?
- ई-कचरे के बारे में:
- इलेक्ट्रॉनिक कचरा (ई-कचरा), एक सामान्य शब्द है जिसका उपयोग सभी प्रकार के पुराने, ख़त्म हो चुके या बेकार पड़े बिजली और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, जैसे घरेलू उपकरण, कार्यालय सूचना और संचार उपकरण आदि का वर्णन करने के लिए किया जाता है।
- ई-कचरे में सीसा, कैडमियम, पारा और निकल जैसी धातुओं सहित कई जहरीले रसायन होते हैं ।
- भारत वर्तमान में वैश्विक स्तर पर ई-कचरे के सबसे बड़े उत्पादकों में केवल चीन और अमेरिका के बाद तीसरे स्थान पर है।
- भारत में ई-कचरे की मात्रा में 2021-22 में 1.6 मिलियन टन की उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है ।
- भारत के 65 शहर कुल उत्पन्न ई-कचरे का 60% से अधिक उत्पन्न करते हैं, जबकि 10 राज्य कुल ई-कचरे का 70% उत्पन्न करते हैं।
- भारत में ई-अपशिष्ट प्रबंधन:
- भारत में, इलेक्ट्रॉनिक कचरे के प्रबंधन को पर्यावरण और वन खतरनाक अपशिष्ट (प्रबंधन और हैंडलिंग) विनियम 2008 के ढांचे के भीतर संबोधित किया गया था ।
- 2011 में, पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम 1986 द्वारा शासित , 2010 के ई-कचरा (प्रबंधन और हैंडलिंग) विनियमों से संबंधित एक महत्वपूर्ण नोटिस जारी किया गया था।
- विस्तारित निर्माता की जिम्मेदारी (ईपीआर) इसकी मुख्य विशेषता थी।
- ई-कचरा (प्रबंधन) नियम, 2016 को 2017 में अधिनियमित किया गया था, जिसमेंनियम के दायरे में 21 से अधिक उत्पाद (अनुसूची- I) शामिल थे। इसमें कॉम्पैक्ट फ्लोरोसेंट लैंप (सीएफएल) और अन्य पारा युक्त लैंप, साथ ही ऐसे अन्य उपकरण शामिल थे।
- 2018 में, 2016 के नियमों में एक संशोधन हुआ जिसने प्राधिकरण और उत्पाद प्रबंधन को बढ़ावा देने पर जोर देने के लिए उनके दायरे को व्यापक बना दिया।
- उत्पाद प्रबंधन एक अवधारणा और दृष्टिकोण है जो किसी उत्पाद के निर्माण से लेकर उसके निपटान या पुनर्चक्रण तक के पूरे जीवन चक्र के लिए उत्पादकों, निर्माताओं और अन्य हितधारकों की जिम्मेदारी पर जोर देता है।
- भारत सरकार ने ई- कचरा प्रबंधन प्रक्रिया को डिजिटल बनाने और दृश्यता बढ़ाने के प्रमुख उद्देश्य के साथ ई-कचरा (प्रबंधन) नियम, 2022 अधिसूचित किया।
- यह विद्युत और इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के निर्माण में खतरनाक पदार्थों (जैसे सीसा, पारा और कैडमियम) के उपयोग को भी प्रतिबंधित करता है जो मानव स्वास्थ्य और पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालते हैं।
भारत ई-कचरे को कम करने और पुनर्चक्रण की दिशा में अधिक प्रभावी ढंग से कैसे काम कर सकता है?
- ई-कचरा संग्रह को औपचारिक बनाना: ई-कचरा संग्रह के लिए एक व्यापक नियामक ढांचा बनाने की आवश्यकता है, जिसमें प्रक्रिया को औपचारिक और मानकीकृत करने के लिए संग्रह केंद्रों और पुनर्चक्रणकर्ताओं का अनिवार्य पंजीकरण और लाइसेंस शामिल हो ।
- निर्माताओं के लिए ई-वेस्ट टैक्स क्रेडिट: एक टैक्स क्रेडिट प्रणाली लागू करना जो इलेक्ट्रॉनिक्स निर्माताओं को विस्तारित जीवनकाल और मरम्मत योग्य सुविधाओं वाले उत्पादों को डिजाइन करने के लिए प्रोत्साहन प्रदान करता है।
- इस दृष्टिकोण का उद्देश्य नियोजित अप्रचलन को हतोत्साहित करते हुए पर्यावरण-अनुकूल डिजाइन प्रथाओं को बढ़ावा देना है।
- ई-वेस्ट एटीएम: सार्वजनिक स्थानों पर ई-वेस्ट एटीएम स्थापित करना, जहां व्यक्ति पुराने इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को जमा कर सकते हैं, और बदले में, सार्वजनिक परिवहन या आवश्यक वस्तुओं के लिए छोटे वित्तीय प्रोत्साहन या वाउचर प्राप्त कर सकते हैं।
- इन एटीएम में ई-कचरा पुनर्चक्रण के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए शैक्षिक प्रदर्शन भी हो सकते हैं।
- ई-अपशिष्ट ट्रैकिंग और प्रमाणन: इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के संपूर्ण जीवनचक्र को ट्रैक करने के लिए ब्लॉकचेन-आधारित प्रणाली की स्थापना करना ।
- प्रत्येक उपकरण में एक डिजिटल प्रमाणपत्र हो सकता है जो उसके विनिर्माण, स्वामित्व और निपटान इतिहास को रिकॉर्ड करता है।
- इससे अनुचित निपटान के लिए जिम्मेदार पक्षों का पता लगाना और उन्हें जिम्मेदार ठहराना आसान हो जाएगा।
- ई-अपशिष्ट कला और जागरूकता: ई-कचरे से बने कला प्रतिष्ठानों के माध्यम से जागरूकता को बढ़ावा देना । ई-कचरे की समस्या की भयावहता को स्पष्ट रूप से दर्शाने और उचित निपटान के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए कलाकारों को सार्वजनिक स्थानों पर मूर्तियां या प्रदर्शन बनाने के लिए प्रोत्साहित करना।
स्टेट ऑफ इंडियाज़ बर्ड्स, 2023
चर्चा में क्यों?
हाल ही में स्टेट ऑफ इंडियाज़ बर्ड्स (State of India’s Birds- SoIB), अर्थात् भारत पक्षी स्थिति रिपोर्ट 2023 जारी की गई है, इसमें कुछ पक्षी प्रजातियों के अच्छे तरह विकसित होने और कई पक्षी प्रजातियों में पर्याप्त गिरावट को दर्शाया गया है।
- SoIB 2023 बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी (BNHS), वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (WII) और ज़ूलॉज़िकल सर्वे ऑफ इंडिया (ZSI) सहित 13 सरकारी तथा गैर-सरकारी संगठनों का अपनी तरह का पहला सहयोगात्मक प्रयास है। उक्त संगठनों व निकायों के साथ वाइल्डलाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया (WTI), वर्ल्डवाइड फंड फॉर नेचर-इंडिया (WWF-इंडिया) आदि भारत में नियमित रूप से पाए जाने वाली पक्षी प्रजातियों की समग्र संरक्षण स्थिति का मूल्यांकन करते हैं।
रिपोर्ट में प्रयुक्त पद्धतियाँ
- यह रिपोर्ट लगभग 30,000 पक्षी विज्ञानियों द्वारा एकत्र किये गए आँकड़ों पर आधारित है।
- इस रिपोर्ट में पक्षियों की आबादी का आकलन करने के लिये तीन प्राथमिक सूचकांकों को आधार बनाया गया है:
- दीर्घकालिक रुझान (30 वर्षों में परिवर्तन)
- वर्तमान वार्षिक प्रवृत्ति (पिछले सात वर्षों में परिवर्तन)
- भारतीय वितरण क्षेत्र का आकार
- 942 पक्षी प्रजातियों के मूल्यांकन से पता चला है कि उनमें से कई प्रजातियों में सटीक दीर्घकालिक या अल्पकालिक रुझान निर्धारित नहीं किये जा सके हैं।
रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु
- स्थिति:
- चिह्नित दीर्घकालिक रुझानों वाली 338 प्रजातियों में से 60% प्रजातियों में गिरावट देखी गई है, 29% प्रजातियाँ स्थिर हैं तथा 11% में वृद्धि देखी गई है।
- निर्धारित वर्तमान वार्षिक रुझान वाली 359 प्रजातियों में से 39% घट रही हैं, 18% तेज़ी से घट रही हैं, 53% स्थिर हैं और 8% बढ़ रही हैं।
- सकारात्मक रुझान: पक्षियों की प्रजातियों में वृद्धि:
- सामान्य गिरावट के बावजूद कुछ पक्षी प्रजातियों में कुछ सकारात्मक रुझान देखे गए हैं।
- उदाहरण के लिये भारतीय मोर जो भारत का राष्ट्रीय पक्षी है, बहुतायत और विस्तार दोनों मामले में उल्लेखनीय वृद्धि देखी जा रही है।
- इस प्रजाति ने अपनी सीमा को नए प्राकृतिक वास में विस्तारित किया है, जिनमें उच्च तुंग वाले हिमालयी क्षेत्र और पश्चिमी घाट के वर्षावन शामिल हैं।
- एशियन कोयल, हाउस क्रो, रॉक पिजन और एलेक्जेंड्रिन पैराकीट (Alexandrine Parakeet) को भी उन प्रजातियों के रूप में उजागर किया गया है जिन्होंने वर्ष 2000 के बाद से उल्लेखनीय वृद्धि की है।
- विशिष्ट पक्षी प्रजाति:
- पक्षी प्रजातियाँ जो "विशिष्ट" हैं- आर्द्रभूमि, वर्षावनों और घास के मैदानों जैसे संकीर्ण आवासों तक ही सीमित हैं, जबकि इन प्रजातियों के विपरीत वृक्षारोपण और कृषि क्षेत्रों जैसे व्यापक आवासों में निवास करने वाली प्रजातियाँ तेज़ी से घट रही हैं।
- “सामान्य पक्षी प्रजाति” जो कई प्रकार के आवासों में रहने में सक्षम हैं, एक समूह के रूप में अच्छा प्रदर्शन कर रहे हैं।
- “हालाँकि, विशिष्ट प्रजाति के पक्षियों को सामान्य प्रजाति के पक्षियों की तुलना में अधिक खतरा है।
- घास के मैदानों में वास करने वाले विशेष पक्षियों में 50% से अधिक की गिरावट आई है।
- वनों में वास करने वाले पक्षियों में भी सामान्य पक्षियों की तुलना में अधिक गिरावट आई है, जो प्राकृतिक वन आवासों को संरक्षित करने की आवश्यकता को दर्शाता है ताकि वे विशिष्ट प्रजाति के पक्षियों को को आवास प्रदान कर सकें।
- प्रवासी और निवासी पक्षी:
- प्रवासी पक्षियों, विशेष रूप से यूरेशिया और आर्कटिक से लंबी दूरी के प्रवासी पक्षियों में 50% से अधिक की सार्थक कमी देखी गई है, साथ ही कम दूरी के प्रवासी पक्षियों की संख्या में भी कमी आई है।
- आर्कटिक में प्रजनन करने वाले तटीय पक्षी विशेष रूप से प्रभावित हुए हैं, जिनमें लगभग 80% की कमी आई है।
- इसके विपरीत एक समूह के रूप में निवासी प्रजाति पक्षी अधिक स्थिर बने हुए हैं।
- पक्षियों के आहार और संख्या में गिरावट का पैटर्न:
- पक्षियों की आहार संबंधी आवश्यकताओं में भी प्रचुरता देखी गई है। कशेरुक और मांसाहार खाने वाले पक्षियों की संख्या में सबसे अधिक गिरावट आई है।
- डाइक्लोफेनाक (Diclofenac) से दूषित शवों को खाने से गिद्ध लगभग विलुप्त होने की अवस्था में थे।
- सफेद पूँछ वाले गिद्धों, भारतीय गिद्धों और लाल सिर वाले गिद्धों को सबसे अधिक दीर्घकालिक गिरावट (क्रमशः 98%, 95% और 91%) का सामना करना पड़ा है।
- स्थानिक पक्षियों और जलपक्षियों की आबादी में गिरावट:
- पश्चिमी घाट और श्रीलंका जैवविविधता हॉटस्पॉट के लिये अद्वितीय स्थानिक प्रजातियों में तेज़ी से गिरावट आई है।
- भारत की 232 स्थानिक प्रजातियों में से कई प्रजातियों का आवास स्थान वर्षावन हैं और उनकी गिरावट आवास संरक्षण के बारे में चिंता पैदा करती है।
- बत्तख, निवासी और प्रवासी दोनों की संख्या कम हो रही है, बेयर पोचार्ड, कॉमन पोचार्ड और अंडमान टील जैसी कुछ प्रजातियाँ विशेष रूप से असुरक्षित हैं।
- नदियों पर कई प्रकार के दबावों के कारण नदी के किनारे रेतीले घोंसले बनाने वाले पक्षियों की संख्या में भी गिरावट आक रही है।
- प्रमुख खतरे:
- रिपोर्ट में वन क्षरण, शहरीकरण और ऊर्जा अवसंरचना सहित कई प्रमुख खतरों पर प्रकाश डाला गया है, जिनका सामना देश भर में पक्षी प्रजातियों को करना पड़ रहा है।
- निमेसुलाइड जैसी पशु चिकित्सा दवाओं सहित पर्यावरण प्रदूषक अभी भी भारत में गिद्ध आबादी के लिये खतरा हैं।
- जलवायु परिवर्तन के प्रभाव (जैसे प्रवासी प्रजातियों पर) पक्षी रोग और अवैध शिकार तथा व्यापार भी प्रमुख खतरों में से हैं।
- अन्य प्रजातियाँ:
- लंबी अवधि में सारस क्रेन की आबादी में तेज़ी से गिरावट आई है और यह जारी है।
- कठफोड़वा की 11 प्रजातियों, जिनके लिये स्पष्ट दीर्घकालिक रुझान प्राप्त किये जा सकते हैं, में से सात स्थिर दिखाई देती हैं, जबकि दो की आबादी घट रही हैं, और दो के मामले में तेज़ी से गिरावट आ रही है।
- पीले मुकुट वाले कठफोड़वा (Yellow-Crowned Woodpecker), जो व्यापक रूप से काँटेदार और झाड़ियों वाले जंगलों में रहते हैं, की संख्या में पिछले तीन दशकों में 70% से अधिक की गिरावट आई है।
- जबकि विश्व भर में सभी बस्टर्ड में से आधे खतरे में हैं, भारत में प्रजनन करने वाली तीन प्रजातियाँ- ग्रेट इंडियन बस्टर्ड, लेसर फ्लोरिकन और बंगाल फ्लोरिकन सबसे अधिक असुरक्षित पाई गई हैं।
- सिफारिशें:
- पक्षियों के विशिष्ट समूहों को संरक्षित करने की आवश्यकता है। उदाहरण के लिये रिपोर्ट में पाया गया कि घास के मैदान संबंधी विशिष्ट प्रजातियों की संख्या में 50% से अधिक की गिरावट आई है, जो घास के मैदान के पारिस्थितिकी तंत्र की सुरक्षा और रखरखाव के महत्त्व को दर्शाता है।
- पक्षियों की आबादी में छोटे पैमाने पर होने वाले बदलावों को समझने के लिये लंबे समय तक पक्षियों की आबादी की व्यवस्थित निगरानी करना महत्त्वपूर्ण है।
- गिरावट या वृद्धि के पीछे के कारणों को समझने के लिये और अधिक शोध की आवश्यकता स्पष्ट होती जा रही है।
- रिपोर्ट के निष्कर्ष पक्षियों की आबादी में गिरावट को रोकने और एक स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र सुनिश्चित करने के लिये आवास संरक्षण, प्रदूषण को संबोधित करने तथा पक्षियों की आहार आवश्यकताओं को समझने के महत्त्व पर ज़ोर देते हैं।
पारिस्थितिकी तंत्र में पक्षियों की व्यवहार्य आबादी सुनिश्चित करने के लिये संभावित कदम
- पर्यावास संरक्षण और पुनरुद्धार:
- जंगलों, आर्द्रभूमियों, घास के मैदानों और तटीय क्षेत्रों जैसे प्राकृतिक आवासों की रक्षा तथा संरक्षण करना, जो पक्षियों के घोंसले, भोजन एवं प्रजनन के लिये आवश्यक हैं।
- देशी वनस्पति लगाकर और पक्षियों की आबादी के लिये खतरा पैदा करने वाली आक्रामक प्रजातियों को हटाकर नष्ट हुए आवासों को पुनर्स्थापित करना।
- संरक्षित क्षेत्र और रिज़र्व:
- संरक्षित क्षेत्रों और वन्यजीव अभयारण्यों की स्थापना व प्रबंधन करना जहाँ पक्षी मानवीय हस्तक्षेप के बिना रह सकें।
- इन क्षेत्रों में आवास विनाश और गड़बड़ी को रोकने के लिये नियम और दिशा-निर्देश लागू करना।
- प्रदूषण कम करना:
- वायु और जल प्रदूषण सहित प्रदूषण स्रोतों को नियंत्रित करना, जो पक्षियों की आबादी को सीधे या उनके खाद्य स्रोतों के संदूषण के माध्यम से नुकसान पहुँचा सकते हैं।
- शहरी और औद्योगिक क्षेत्रों में प्रदूषण को कम करने के लिये स्थायी प्रथाओं को बढ़ावा देना।
- जलवायु परिवर्तन को कम करना:
- ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करके और टिकाऊ ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देकर जलवायु परिवर्तन का समाधान करना।
- आवास गलियारों का समर्थन करना जो पक्षियों को स्थानांतरित करने और बदलती जलवायु परिस्थितियों के अनुकूल होने की अनुमति देते हैं।
- मानवीय हस्तक्षेप को सीमित करना:
- घोंसले बनाने और भोजन प्रदान करने वाली जगहों पर विशेष रूप से प्रजनन के मौसम के दौरान गड़बड़ी को कम करने के महत्त्व के बारे में जनता को शिक्षित करना।
- मानवीय हस्तक्षेप को कम करने के लिये संवेदनशील पक्षी आवासों के आसपास बफर ज़ोन स्थापित करना।